Friday, April 4, 2008

गोत्र यानी गायों का समूह


जातिवादी सामाजिक व्यवस्था की खासियत ही यही रही कि इसमें हर समूह को एक खास पहचान मिली। हिन्दुओं में गोत्र होता है जो किसी समूह के प्रवर्तक अथवा प्रमुख व्यक्ति के नाम पर चलता है। सामान्य रूप से गोत्र का मतलब कुल अथवा वंश परंपरा से है। यह जानना दिलचस्प होगा कि आज जिस गोत्र का संबंध जाति-वंश-कुल से जुड़ रहा है , सदियों पहले यह इस रूप में प्रचलित नहीं था। गोत्र तब था गोशाला या गायों का समूह। दरअसल संस्कृत में एक धातु है त्रै-जिसका अर्थ है पालना , रक्षा करना और बचाना आदि। गो शब्द में त्रै लगने से जो मूल अर्थ प्रकट होता है जहां गायों को शरण मिलती है, जाहिर है गोशाला मे। इस तरह गोत्र शब्द चलन में आया।
गौरतलब है कि ज्यादातर और प्रचलित गोत्र ऋषि-मुनियों के नाम पर ही हैं जैसे भारद्वाज-गौतम आदि मगर ऐसा क्यों ? इसे यूं समझें कि प्राचीनकाल में ऋषिगण विद्यार्थियों पढ़ाने के लिए गुरुकुल चलाते थे। इन गुरूकुलों में खान-पान से जुड़ी व्यवस्था के लिए बड़ी-बड़ी गोशालाएं होती थीं जिनकी देखभाल का काम भी विद्यार्थियों के जिम्मे होता था। ये गायें इन गुरुकुलों में दानस्वरूप आती थीं और बड़ी तादाद में पलती थीं। गुरुकुलों के इन गोत्रो में समाज के विभिन्न वर्ग भी दान-पुण्य के लिए पहुंचते थे। कालांतर में गुरूकुल के साथ साथ गोशालाओं को ख्याति मिलने लगी और ऋषिकुल के नाम पर उनके भी नाम चल पड़े। बाद में उस कुल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों और समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों ने भी अपनी पहचान इन गोशालाओं यानी गोत्रों से जोड़ ली जो सदियां बीत जाने पर आज भी बनी हुई है।

12 कमेंट्स:

Sanjay Tiwari said...

सही ज्ञान.

Pratyaksha said...

और भी कुछ विस्तार से बतायें .. व्यापक विषय है .. टोटेम वगैरह के बारे में भी

Ashish Maharishi said...

लेकिन शादी विवाह के दौरान गोत्र मिलाने वाली बात मुझे अब तक समझ में नहीं आती है, यदि इस पर आप प्रकाश डालें तो शायद मुझे फायदा मिले

Unknown said...

याने गर्ग गोत्री मतलब गर्ग ऋषि की गायों को पालने वाले - बहुत सही जानकारी - अब देखिये कल्पना की उड़ान - इस बात का एक मतलब यह कि गोत्र शिष्यों का होगा - जन्म से ही नहीं? - याने जैसे कि एक हॉस्टल / स्कूल ? - नए सन्दर्भ में इसकी व्याख्या बड़ी मजेदार हो सकती है - जहाँ तीन चार जगहों/ संस्थाओं में पढ़ना साधारणतः है - क्या नाम / उपनाम होते? - सादर - मेरी भी हाजिरी बड़े दिनों बाद - चैन के लिए जुम्मा ही है - और आपकी पोस्ट पढने में मशक्कत मांगती है

चंद्रभूषण said...

पोस्ट विचारोत्तेजक है लेकिन व्याख्या में अजित जी कुछ जल्दबाजी कर गए से लगते हैं। गोत्र जिस जमाने में उदित हुए, उस समय गोशाला तो क्या शायद कैसी भी शाला न होती रही हो। इस शब्द का संबंध जीवन से है, शिक्षा से नहीं। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि गोत्र सभी भारतीय जातियों में मिलते हैं, भले ही विधि-विधान में उनके पास शिक्षा का अधिकार रहा हो या न रहा हो।

दरअसल गोत्र से मिलता-जुलता एक शब्द गांवों में अब भी इस्तेमाल होता है- गोठ या गोंठ, जिसका एक मतलब चौपायों को बांधने की जगह वाला भी होता है, लेकिन दूसरा मतलब ज्यादा दिलचस्प है। औरतों के कुछ खास सामूहिक व्रतों में गाय के ताजे गोबर से एक घेरा बनाया जाता है, जिसमें बैठकर वे पांच या सात कहानियां सुनती हैं। इस शब्द से प्रेरणा लेकर मैं गोत्र शब्द का सामान्य अर्थ किसी खास कबीले के प्रभाव क्षेत्र से लगाता हूं।

गहलावत या गहलौत गोत्र, यानी गहलौत कबीले का दायरा, जिसमें आने वाले सारे लोगों की पहचान इस गोत्र की ही होती है। आपको शायद यह जानकर आश्चर्य हो कि उत्तर भारत की कई जातियों के गोत्र साझा हुआ करते हैं। मसलन, पंवार गोत्र जाटों, गूजरों और जाटवों, तीनों का (शायद राजपूतों का भी) हुआ करता है। इसी तरह राजस्थान के कांग्रेसी नेता अशोक गहलौत माली बिरादरी से आते हैं लेकिन दिल्ली के मेरे एक राजनीतिक मित्र प्रेम सिंह गहलौत जाट हैं।

Sanjeet Tripathi said...

चंद्रभूषण जी से सहमत हूं, वाकई पोस्ट पढ़ते ही लगा कि आपने बहुत ही जल्दी समेट दिया है!!
संभव हो गोत्र में मामले मे विस्तृत व्याख्या करें, निवेदन है!!

Anonymous said...

hmm interesting

Dr. Chandra Kumar Jain said...

अजित जी,
आपकी इस पोस्ट में सार रूप में
बड़ी काम की बात कह दी गई है.
गोत्र और गौशाला के अंतरसंबंध की पड़ताल
दरअसल आम जानकार के बस की बात नहीं है .

गुरुकुलों और ऋषिकुलों में ब्रह्मचारियों को
गुरु की सेवा तथा यज्ञ समिधा एकत्र करने के अतिरिक्त
गुरु की गायों की सेवा भी करनी पड़ती थी.
इस प्रकार आश्रम के विद्यार्थी
आभीर-कर्म (डेयरी-फार्मिंग )
का प्रशिक्षण भी प्राप्त कर लेते थे.
इस परिश्रम से स्वास्थ्य-लाभ भी होता था .
आज फुटबॉल और क्रिकेट के दीवानों को इस पर भी
गौर करना चाहिए !!!


रहा प्रश्न गोत्र का तो आर्य-संकृति में गोत्र का
विचार महत्वपूर्ण रहा है.
वैदिककालीन साजात्य- व्यवस्था
के मूल में कुल और गोत्र ही थे.
मूल सात गोत्र माने जाते थे.
मंडलद्रष्टा ऋषियों के नाम पर गोत्र का उल्लेख मिलता है ,
जिनमें से दो का ज़िक्र आपने किया है .
अन्य भार्गव, आंगीरस, आत्रेय,विश्वामित्र आदि हैं.

इसी तरह वैदिक काल में गोष्ठ के लिए सम्मेल ,
गोत्र के लिए बिरादरी का प्रयोग भी मिलता है .

लगता है गोष्ठी लंबी हो गई !!!
इसलिए साभार .... बस इतना ही .

Ghost Buster said...

चर्चा गंभीर हो चली है. ऐसे गूढ़ विषय में हम तो सिर्फ़ विद्यार्थी की हैसियत रखते हैं. प्रश्न पूछते हैं: गंगोत्री, यमुनोत्री आदि में जो ओत्री आता है क्या उसका अर्थ 'प्रारम्भ' से लगाया जाए? कुछ सम्बन्ध गोत्र से भी बनता है क्या?

बाकी, हमेशा की तरह बढ़िया पोस्ट है. इस तरह की जानकारियां दिमाग के लिए कुछ ठोस भोजन का प्रबंध कर देती हैं जबकि जंक फ़ूड की बहुतायत अधिकांश जगह हो.

दिनेशराय द्विवेदी said...

कल यह पोस्ट पढ़ने से रह गई थी, आज की पोस्ट पढ़ कर इस पर लौटा हूँ। डॉ. चन्द्र कुमार जी की टिप्पणी उन के इस विषय के ज्ञान को प्रदर्शित करती है। उन से आग्रह है कि वे ही इस गोष्ठी को आगे बढ़ाएं।

Unknown said...

बहोत अछि पोस्ट है आपकी , ज्ञान से ही ढोग पाखंड का अंत किया जा सकता है | ऐसी ही जानकारिय लिखा करें |

अजित वडनेरकर said...

शुक्रिया बेनामी जी । दिक्कत न हो तो अपना नाम भी लिखा करें । शब्दों का सफ़र ऐसी ही दिलचस्प जानकारियों की साझेदारी का सैर-सपाटा है ।
नामपुराण की भी सभी कड़ियाँ ज़रूर देखें ।

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