शब्दों के सफर में बकलमखुद की शुरुआत की थी कुछ हम कहें जैसा खिलंदड़ा ब्लाग चलाने वाली अनिता जी ने । उसके बाद ठुमरी वाले विमल वर्मा ने सुनाई अपनी दिलचस्प दास्तान और फिर तीसरे पड़ाव पर लावण्या शाह की प्रवासी डायरी आपने पढ़ी। बकलमखुद के इस चौथे पड़ाव और चौदहवें सोपान में पढ़ते हैं काकेश की बतकही (चिरकुटई)का अगला हिस्सा। खुद काकेश इसे कोलकता प्रवास की मूर्खताएं कहते हैं।
अक्लमंदों की सलाह
कलकत्ता जाना अपने आप एक नया अनुभव था. इससे पहले सिवाय दिल्ली के उत्तर प्रदेश के बाहर नहीं गया था. घर से इतनी दूर कलकत्ता तब सोच कर भी डर लगता था.कलकत्ता जाने से पहले, जैसे कि हर व्यक्ति खुद को बुद्धिमान और सामने वाले को निरा मूर्ख मानकर बहुत सा ज्ञान दे देता है,कई लोगों ने बहुत ज्ञान दिया. किसी ने कहा वहाँ का पानी तो एकदम खराब है बाल एकदम सफेद हो जायेंगे. किसी ने कहा कि वहाँ बच के रहना वहाँ का काला जादू बहुत चलता है. किसी ने कहा वहाँ कम्यूनिस्ट कल्चर है वो लोग किसी को कुछ नहीं समझते इसलिये लोगों से संभल कर बातें करना.किसी ने वहाँ के मौसम को कोसा तो किसी ने वहाँ की भाषा को. तो कलकत्ता जाने से पहले एक अनजाना डर था मन में. लेकिन वहाँ कई साल रहने के बाद अधिकतर डर झूठे ही साबित हुए.
कोलकाता में काकेश हिन्दुस्तानी
मेरे साथ फैक्ट्री में जो भी मजदूर काम करते थे उनमें बंगाली और हिन्दी भाषी (अधिकतर भोजपुरी बोलने वाले) दोनों तरह के लोग शामिल थे.एक दिन किसी ने पूछा कि “आप बंगाली हैं या हिन्दुस्तानी.” सवाल बड़ा अजीब सा था. मुझे थोड़ा गुस्सा भी आया पर मैने पूछा क्या बंगाली लोग हिन्दुस्तानी नहीं हैं. तब मेरे को बताया गया कि बंगाल में हिन्दी बोलने वाले को हिन्दुस्तानी कहते हैं और बंगला बोलने वाले को बंगाली.तो जी हम कलकत्ता में जाके हिन्दुस्तानी हो गये. शुरु शुरु में बंगला भाषा बिल्कुल भी नहीं आती थी.हाँलाकि उससे कोई परेशानी तो नहीं हुई लेकिन कई बार मजेदार स्थितियाँ जरूर बन गयीं.
शुरु शुरु में एक दिन अपने शिफ्ट के कुछ मजदूरों से बात कर रहा था. तो एक मजदूर ने हाथ में खैनी मलते मलते पूछा “ साहेब आपका बीए हो गया” मुझे लगा इन लोगों को शायद यह नहीं मालूम कि इंजीनियर करने के लिये बी.टैक करना पड़ता है बी.ए. नहीं और फिर ये लोग यह जानना चाहते हैं कि मैं ग्रेजुएट हूँ कि नहीं. तो मैने कहाँ “हाँ हो गया”. तो साहेब आपकी फैमिली भी आपके साथ रहती है. मैने कहा नहीं वो लोग तो अल्मोड़ा में रहते हैं. तो साहेब फैमिली को यहाँ कब ला रहे हैं. मैने कहा यहाँ नहीं ला रहा वो लोग वहीं रहेंगे. वो वहीं रहेंगे ?? साहेब आपके बच्चे कितने हैं मैने कहा अरे अभी शादी ही नहीं हुई तो बच्चे कहाँ से आयेंगे.यह सुनकर सभी लोग बड़े जोर से हँसे. बाद में मुझे मालूम हुआ कि बंगला में “शादी” को “बीए” कहते हैं और फैमिली से मजदूरों का मतलब मेरी पत्नी से था. मुझे भी यह सुनकर हँसी आ गयी.[नाटक पुरुष पुराण के एक दृश्य में काकेश ]
तुम रात में घूमता क्यों नही ?
ऐसी ही एक घटना हुई मेरे बंगाली सहयोगी और मित्र श्री मंडल के साथ. उन्होने और मैने एक ही दिन जॉइन किया था. वह बंगला भाषी थे और बंगला मिश्रित टूटी फूटी हिन्दी बोलते थे. एक बार नाइट शिफ्ट में वह और मैं एक साथ थे.हम दोनों को एक दूसरे से बातें करने में काफी कठिनाई आयी लेकिन फिर भी हम लोगों को एक दूसरे को जानने का अच्छा मौका मिला. चुंकि उस दिन नाइट शिफ्ट में हम दोनों लोग नये थे तो इस बात का मजदूरों ने बहुत फायदा उठाया. रात भर हम कई तरह की समस्याओं से जूझते रहे. कभी कोई मशीन खराब हुई तो कभी किसी मशीन की स्पीड कम करनी पड़ी. कभी कोई मजदूर सो गया तो कभी कोई मजदूर बीमार हो गया. जाहिर है सुबह हमारी शिफ्ट का उत्पादन (प्रोडक्शन) निर्धारित उत्पादन से काफी कम रहा. हमारे मिल के मैनेजर सुबह सात बजे आते थे और रात वाले इंजीनियरों को अपने प्रोडक्शन के बारे में उनसे बात करके ही घर जाना होता था. सुबह वह आये तो हमारा प्रोडक्शन देख कर हमें डांटना व गाली देना शुरु कर दिया. हम सर झुकाये गाली खाते रहे. बीच में वह बोले-
“आप लोग रात को घूमते ही नहीं होंगे केबिन में बैठे रहते होंगे.”
मंडल तुरंत बोले “नहीँ सर हम रात को नहीं घुमाता हूँ”.
“हाँ वही तो मै भी बोल रहा हूँ रात को तुमको घूमना चाहिये था ना खाते (शॉपफ्लोर) में.”
”नहीं सर हम बिल्कुल नहीं घुमाया सर. “ .
“यू...$%ं#ं%# ..इसीलिये तो प्रोडक्शन का यह हाल है. .....“ .
अब ना मंडल जी कुछ बोले ना हम.चुपचाप गाली खाके बाहर आ गये.बाहर निकल कर मैने मंडल को समझाया कि हम लोग रात को घूम तो रहे थे तो फिर तुमने यह क्यों बोला हम नहीं घूमे. तब जब पूरी बात समझ में आयी तो पता चला कि बंगला में “घूमना” मतलब “सोना” होता है मंडल यह कह रहे थे कि वह रात को घुमाये नहीं मतलब सोये नहीं.जब मैने उनको हिन्दी वाला घूमना समझाया तो हम दोनों देर तक हँसते रहे.
इत्ता सारा खाना सिर्फ दस रूपए में !
बंगाल में चीजों के दाम अन्य जगहों के मुकाबले तब काफी सस्ते थे.अभी भी हैं.इसका एक उदाहरण देता हूँ.अपने शुरुआती दिनों में ही एक बार मैं और मेरे एक मित्र कलकत्ता से दूर एक जगह मिदनापुर जा रहे थे.हमारी ट्रेन को वहाँ शाम को सात बजे पहुंचना था.लेकिन किसी कारणवश ट्रेन लेट हो गयी और हम रात दस बजे वहाँ पहुंचे. स्टेशन पहुंच कर जिस गैस्ट हाउस में हमें ठहरना था वहां फोन कर (उस समय मोबाइल नहीं थे) उन्हे बताया कि हम आ गये तो उन्होने कहा कि खाना खाकर ही आना क्योंकि गैस्ट हाउस में इतनी रात अब खाना नहीं मिलेगा. हम दोनों लोग स्टेशन के पास ही एक रैस्टोरेंट में चले गये जहाँ शिफ्ट से छूटे कई लोग खाना खा रहे थे. कोई वेटर टाइप आदमी आया और उसने बंगला में कुछ कहा. मैं और मेरे मित्र दोनों हिन्दी भाषी थे. हमने उसे हिन्दी में खाने के लिये कहा तो उसे कुछ समझ नहीं आया. तो हमने भी जो बाकी लोग खा रहे थे उसकी ओर इशारा करके कहा कि हमें भी वही दे दो.तो वह लाया माछ-भात यानि मछली और चावल साथ में एक सूखी भाजी (सब्जी),थोड़ी सी दाल ,चटनी,अचार,प्याज.उस समय भूख बहुत लगी थी तो खाना बहुत स्वादिष्ट लगा हमने एक बार चावल और मांगा.उस समय आमतौर पर शाकाहारी खाने के दाम करीब 15 रुपये प्लेट होते थे. तो हमने अनुमान लगाया कि चुंकि मछली है, सब्जी है और दो बार चावल भी लिया है तो तकरीबन 50 रुपये तो होंगे ही. तो खाना खाने के बाद हमने 50 का नोट काउंटर पर दिया. उसने पूछा “ खुजरो नई” (छुट्टा नहीं है). तब तो यह समझ नहीं आया था इसलिये हमने सोचा शायद 50 का नोट कम है इसलिये मैं जेब से 100 का नोट निकलने लगा. तो साथ में एक दस का नोट भी निकला काउंटर वाले ने कहा कि वह दस का नोट दो. मैने वह नोट दिया और उसने मेरे दिये 50 रुपये वापिस कर दिये. यानि जिस खाने को हम 50 रुपये के ऊपर का समझ रहे थे वह मात्र दस रुपये का था.
याद आता है पुस्तक मेला
एक चीज जो मुझे कलकत्ता में बहुत पसंद आती है वह है वहाँ का पुस्तक मेला. हांलाकि उसमें हिन्दी की बहुत कम किताबें मिलती है पर फिर भी ऐसा माहौल होता है जो मुझे दिल्ली के अंतराष्ट्रीय पुस्तक मेले में भी नहीं मिला. तब यह मेला “मैदान” , जो कि एक जगह का नाम है और यहां पर बहुत बड़ा मैदान भी है , में लगता था. इस मेले का माहौल देखते ही बनता था.बंगला के कुछ प्रमुख प्रकाशको के स्टालों पर अन्दर घुसने के लिये दो दो घंटे लाइन में लगना पड़ता था और लोग लाइन में लगे भी रहते थे.इसके अलावा कई लेखक अपनी पुस्तकों को साइन करके भी देते थे. इसके लिये भी लंबी लाइन लगती थी. मैने भी शोभा डे,अरिंदम चौधरी की किताबें इसी तरह लाइन में काफी देर तक खड़े होकर खरीदीं. [जारी]
Sunday, April 6, 2008
काकेशजी , आपका बीए हो गया ?
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15 कमेंट्स:
जमाये रहिये जी।
बहुत अच्छा।
काकेश जी से बंगला और हिन्दी के फर्क को जाना, वहाँ के सस्ते खाने का मजा शाकाहारी होने से नहीं ले पाये। जरा लोगों के बारे में और कुछ अपने बारे में भी बताए, अगली बार।
मजा आ रहा है पढ़ने में। लिखते रहिये जी। शानदार है।
सही हो - बिल्कुल नहीं घुमाए पढ़ते पढ़ते [ अजित जी - शब्दों का सफर उम्घाए - घुमाए में कुछ पकड़ता है क्या ?]
बड़ा सुखकर हो रहा है सबको इस तरह जानना..आपका साधुवाद..लगे रहिये.
हम तो पढते पढते घुमाये गये ..:0
बहुत रोचक ,सरस और ज्ञान वर्धक भी .
काकेश जी ! कहते काकेश-कहानी,
इसमें यक़ीनन है ज़िंदगानी.
पढ़ने की ख्वाहिश बरकरार है,
अगली कड़ी का इंतज़ार है .
रोचक रहा यह सफर,
हिंदी बेल्ट वालों को अन्य भाषा राज्यों में जाने पर दिक्कतें आती ही है।
जारी रखें!
बढ़िया है.
मजेदार! अगली कड़ी का इंतजार है। आशा करते हैं कि इस के बाद शिव जी अपने कलकत्ते के संस्मरण बताएगें
bahut hi rochak sansmaran hain aap ke--[specially the way it is presented ]
बहुत रोचक ,मगर कोलकाता का जिक्र हो और बागबाजार के रसगुल्ले जिक्र न हो तो बात कुछ बनी/जमी नही ...हो सकता है अगली कड़ी मे यह जिक्र आए .
kolkata transfer hone par main station se seedhey office pahuch gaya tha. lunch time main office boy ko Rs 50/- diya aur lunch ke liye kaha. sabke tiffin khule aur mere liye ek sabji aur 6 chapati saath main pyaz aur ek hari mirch de gaya.chapati aur hari mirch dekh kar hi man khush ho gaya kyonki delhi, chandigarh aur luknow main tandoori roti hi milti thi. khana tasty tha. main andaza laga raha tha ki kam se kam 35/- to hoga hi baad main jab usne mujhe 45/- return kiye to bada hi sukhad aashcharya hua.
पढ़ रहे हैं जी । कलकत्ता की मिठाई का कोई जिक्र नहीं आया भई ।
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