साधु-संतों से अक्सर चमत्कारों की उम्मीद की जाती है। लगातार चिंतन-मनन करने, सुदूर अंचलों में, पहाड़ो-जंगलों में रहने की वजह से एक अलग सा रहस्यवाद इनके साथ जुड़ जाता है।
सू फी संतों की एक विशिष्ट कोटि है दरवेशों की। अलमस्त फ़कीराना तबीयत इनकी पहचान होती है। डगर-डगर घूमना, डेरों पर ठहरना इनकी फितरत। समूचे मध्य एशिया समेत तुर्की, ईरान, अरब समेत भारत और चीन तक में दरवेश dervish परंपरा रही। आमतौर पर सभी धर्मों में ज्ञान के सर्वोच्च बिंदु पर समझदारों को संसार की निस्सारता का बोध होता है। सबसे पहले वे स्वयं माया-मोह से निवृत्ति की राह पर चलते हैं और फिर दूसरों को भी यही राह दिखाते हैं। अपने खास रहन-सहन की वजह से दरवेश दूसरे इस्लामी संतों से अलग ही पहचाने जाते हैं। इतिहास के आंगन में दरवेश बारहवीं तेरहवीं सदी से नज़र आते हैं। माना जाता है की महान सूफी संत-कवि जलालुद्दीन रूमी दरवेश पंथ के संस्थापक थे।
हिन्दुओं में परिव्राजक ऐसे ही व्यक्ति को कहते हैं जिसने संसार त्याग दिया हो। संसार त्यागने का अर्थ है सासारिक पदार्थों-कर्मों से निवृत्त होकर चिंतन-मनन के जरिये प्रभु की भक्ति में लीन होना। अपनी दैहिक आवश्यकताओ को कम से कम करते जाना। सभी धर्मों में साधु-संत समाज के द्वारा उपलब्ध कराए गए अन्न पर निर्भर रहते हैं। किसी एक परिवार, समाज या ग्राम पर इनका बोझ न पड़े इसलिए ये कहीं टिक कर नहीं बैठते, लगातार अपना ठिकाना बदलते रहते हैं। इसीलिए चाहे फकीर fakir हो या दरवेश, शब्दकोशों में इनका अर्थ निर्धन, गरीब भी बताया जाता है। मगर इसके मूल में इनका फक्कड़ रूप ही है। गौर करें फक्कड़ शब्द फकीर से ही बना है। दरवेश का मतलब घर-घर से मिले दान के आहार पर निर्भर रहनेवाला साधु। दरवेश के दर में द्वार अर्थात दरवाजे का अर्थ निहित है। दरवेश को फारसी, तुर्की में दरविश कहा जाता है जो पहलवी द्रिगोश से बना है जिसे दर्योस भी लिखा जाता है। यह शब्द बना है अवेस्ता के द्रिगु से जिसमें भिक्षावृत्ति और मांग कर गुज़र करने का भाव है। गौरतलब है कि विद्वानों ने अवेस्ता के द्रिगु को वैदिक ध्रिगु से संबद्ध माना है और उसका अर्थ भी ग़रीब ही बताया है। इस पर विवाद है कि वैदिक संदर्भ में आया शब्द ध्रिगु नहीं बल्कि अ-ध्रिगु है जिसका अर्थ धनवान, श्रीमंत है। मगर दरवेश की व्युत्पत्ति द्रिगु से बतानेवालों का तर्क है कि अ अर्थात नकारात्मक भाव लगने से ही ध्रिगु का निर्धन शब्द सही है। जो भी हो दरवेश शब्द बहुत पुराना है और इसका दर या द्वार जैसी व्यंजना से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि यह द्रिगु से दर्योस होते हुए यह फारसी में दरविस / दरवेश हुआ।
सासांरिक बंधनों में फंसा व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन नहीं कर सकता है इसीलिए भिक्षावृत्ति पर निर्भरता स्वाभाविक है। जाहिर सी बात है कि मांग कर खानेवाले व्यक्ति के लिए दरवेश शब्द में संत का भाव ही छुपा है। शाब्दिक अर्थ में न जाया जाए तो दरवेश शब्द में भी वहीं भाव है जो फकीर में है। फकीर की व्याख्या यही है कि गरीब वह नहीं है जो भीख मांग रहा है बल्कि वह है जिसके पास ईश्वरीय ज्ञान नहीं है। जिसे ईश्वरीय बोध हो चुका है वही सच्चा फकीर है। यही बात दरवेश के संदर्भ में भी सच है। सच्चा दरवेश सिर्फ और सिर्फ ध्यान में निमग्न रहता है। इनके डेरों पर संगीत के जरिये नाम-सुमिरन और जाप की परिपाटी कब कव्वाली में ढल गई, कहा नहीं जा सकता। संगीत की धुन पर गोल-गोल फिरना भी ध्यान की परंपरा का हिस्सा रहा। भारतीय नृत्य शास्त्रीय-धार्मिक परंपरा से उपजे हैं। इसी तरह दरवेशों का घूमर नृत्य [Whirling Dervish] इस्लाम की धार्मिक परिपाटी के कला में तब्दील होने का एक विरल उदाहरण पेश करता है। दरवेशों की जीवन शैली में अनोखापन इसलिए भी है क्योंकि वे पारंपरिक तौर पर इस्लाम की मान्यताओं-मर्यादाओं के अनुसार नहीं चलते। इसीलिए इनके दो प्रकार हैं बाशरा यानी जो इस्लामी तौर तरीकों पर चले और बेशरा यानी जो किसी भी एक पंथ या धर्म की राह को न मानते हुए अपनी अलग परिपाटी पर चले । धर्म और आस्थाके साथ चमत्कार जुड़ा हुआ है। साधु-संतों से अक्सर चमत्कारों की उम्मीद की जाती है। लगातार चिंतन-मनन करने, सुदूर अंचलों में, पहाड़ो-जंगलों में रहने की वजह से एक अलग सा रहस्यवाद इनके साथ जुड़ जाता
तुर्की के नृत्य निमग्न दरवेश
है। उनकी रूहानी बातों में लोगों को भविष्यवाणियां नज़र आती हैं। सच्चे संत तो कभी चमत्कार नहीं दिखाते मगर आस्था उसे ही सच मानती है जो चमत्कार दिखाता है लिहाजा संतों सूफियों के साथ भी अजूबा चस्पा हो गया। धर्म के सहारे पाखंड करनेवाले तो सिर्फ चमत्कारों के बल पर ही वर्षों से लोगों को ठग रहे हैं। यही दरवेश के साथ भी हुआ।
किस्सों में ऐसे ऐसे दरवेशों का उल्लेख है जो अपनी ऊलजुलूल हरकतों की वजह से लोगों का सम्मान पाते थे। कहने की जरूरत नहीं कि ये सब दरवेश के भेष में मक्कार थे। इनके रंग-ढंग निराले थे। कोई उगालदान का सारा लुआब एक झटके में हलक में उंड़ेल लेता था तो कोई अपने लंबे बालों में हाथ डाल कर निर्विकार भाव से मुट्ठीभर जुंएं निकाल कर दिखाता फिर वापस उन्हें बालों में ही छोड़ देता। ऐसे कुछ नज़ारे मैं देख चुका हूं। जो जितने अजीबोग़रीब तौर तरीके अपनाता , उसे उतना ही आलिम और गैबी ताकतों का मालिक समझा जाता। इन दरवेशो में होड़ भी खूब रहती थी। एक अपने अनुयायियों को लात जमाकर नवाज़ता तो दूसरा अपने शागिर्द पर दनादन थप्पड की बौछार कर देता। इनकी धज भी विचित्र होती। लंबा चोगा जिसमें कई जेबें होतीं, बड़े बड़े उलझे बाल, आंखों में काजल, कंधे पर झोली जिसमें जादू और तंत्र से जुड़ी चीज़ों का अंबार होता, औल-फौल सी शब्दावली जिसका कोई अर्थ नहीं होता था, उसे ये लगातार उच्चारते थे। सामान्य जनता इनका मतलब समझने में अपना सिर खपाती रहती थी। उनके मुरीद तथाकथित आध्यात्मिक ज्ञान की व्याख्या करते थे। मिसाल के तौर पर अस्पष्ट सी शब्दावली मे कहीं “बल” शब्द आ गया तो उसे “बला” कह कर आसन्न विपत्ति का संकेत दे दिया जाता था। अगर एक ही शब्द तीन बार बोल दिया तो तीन दिन, तीन रात, तीन साल तक के दायरे में उसके अनिष्टकारी या मांगलिक संकेत तलाशे जाते। भारत और पाकिस्तान में यह तमाशा आज भी होता है। नामी फकीर दरवेश तो गिने-चुने हैं । खुद को दरवेश कहनेवालों के ज्यादातर डेरों पर आस्था का प्रकाश नहीं, अंधविश्वास का अंधेरा तारी रहता है।
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इस पोस्ट ने मेरी यह धारणा खण्डित कर दी कि 'दरवेश' और 'दर' का कोई अन्तर्सम्बन्ध हैं। लगता है, 'दरवेश' के 'दर' से अलग होने के समान ही 'दरवेश' और 'दरगाह' में भी कोई अन्तर्सम्बन्ध नहीं है।
@आशा जोगलेकर शुक्रिया आशाजी,बहुत दिनों बाद आपका फेरा लगा है। दर से दरवेश की व्युत्पत्ति तो व्यावहारिक रूप से उनके बारे में समझाने के लिए अक्सर स्थापित की जाती है। मगर लोग दर का संबंध घर , या द्वार से स्थापित तो कर देते हैं किंतु विश या वेश का स्पष्टीकरण नहीं मिल पाता। दरवेश की ग़रीब या भिक्षु के रूप में दर से व्याख्या तो की जा सकती है मगर सीधा संबंध बैठाना तर्क संगत नही लगता।
आपके प्रिय ब्लॉग-शब्दों का सफ़र के शोधपूर्ण आलेख अब पुस्तकाकार भी उपलब्ध हैं। पहला खण्ड 2011 में प्रकाशित हुआ था और 2012 में दूसरा खण्ड भी राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो चुका है । सफ़र में अब तक विभिन्न भाषाओं से हिन्दी में समाए उन सैकड़ों शब्दों की व्युत्पत्ति और विवेचना संबंधी दिलचस्प ब्योरा है जिनके जरिये हिन्दी के शब्दभंडार में कई गुना ज्यादा इज़ाफ़ा हुआ है ।
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उत्पत्ति की तलाश में निकलें तो शब्दों का बहुत दिलचस्प सफर सामने आता है। लाखों सालों में जैसे इन्सान ने धीरे -धीरे अपनी शक्ल बदली, सभ्यता के विकास के बाद से शब्दों ने धीरे-धीरे अपने व्यवहार बदले। एक भाषा का शब्द दूसरी भाषा में गया और अरसे बाद एक तीसरी ही शक्ल में सामने आया।- एक निवेदन-शब्द की तलाश दरअसल अपनी जड़ों की तलाश जैसी ही है।शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नज़रिया अलग-अलग होता है। मैं न भाषा विज्ञानी हूं और न ही इस विषय का आधिकारिक विद्वान। जिज्ञासावश स्वातःसुखाय जो कुछ खोज रहा हूं, पढ़ रहा हूं, समझ रहा हूं ...उसे आसान भाषा में छोटे-छोटे आलेखों में आप सबसे साझा करने की कोशिश है।अजित वडनेरकर
उदय प्रकाश बहुत शोधपरक, उपयोगी और महत्वपूर्ण जानकारियां। हिंदी में इतनी संलग्नता के साथ ऐसा परिश्रम करने वाले विरले ही होंगे। अशोक पाण्डे 'शब्दों का सफर' मुझे व्यक्तिगत रूप से हिन्दी का सबसे समृद्ध और श्रमसाध्य ब्लॉग लगता रहा है।
अरविंदकुमार मैं ने पहली बार आप का ब्लाग पढ़ा-पशु और फ़ीस वाला। बधाई!अब इसे फ़ेवरिट की सूची में डाल लिया है। लगातार ज़ारी रखें.. अभय तिवारी आप के समर्पण और लगन के लिए मेरे पास ढेर सारी प्रशंसा है और काफ़ी सारी ईर्ष्या भी।
डॉ चंद्रकुमार जैन
सच कहूँ ,ब्लॉग-जगत का सूर और ससी ही है शब्दों का सफ़र . बधाई.... अंतर्मन से
शास्त्री जे सी फिलिप लिखते रहें. यह मेरे इष्ट चिट्ठों मे से एक है क्योंकि आप काफी उपयोगी जानकारी दे रहे हैं.
संजय पटेल थोड़े में कितना कुछ कह जाते हैं आप. आपके ब्लाँग का नियमित पारायण कर रहा हूं और शब्दों की दुनिया से नया राब्ता बन रहा है. शिरीष कुमार मौर्य आपकी मेहनत कमाल की है। आपका ये ब्लॉग प्रकाशित होने वाली सामग्री से अटा पड़ा है - आप इसे छपाइये ! हर्षदेव मुझे सबसे उल्लेखनीय बात लगती है, पहले से ही सजीली भाषा में अभिव्यक्ति और अर्थवत्ता के अनोखे गुण का विकास। आपके ब्लॉग में रोचकता भी है और सूचनारंजन भी।
मंसूर अली हाशमी ऐसे समय में जब कुछ लोग भाषाओ और शब्दों को धर्म से जोड़ कर देखने लगे है, शब्दों के सफर में धर्म, समाज और देशो के दायरों को तोड़ते हुए, भाषाई रिश्तों की यह पड़ताल अमूल्य है। शृद्धा जैन आप जाने कहाँ कहाँ से इतनी अनमोल जानकारी ढूँढ लाते हैं और आपके ब्लॉग पर आना सार्थक हो जाता है।लिखते रहे आप बहुत अलग, बहुत प्रभावशाली है। अनूप शुक्ल बेहतरीन उपलब्धि है आपका ब्लाग! मैं आपकी इस बात की तारीफ़ करता हूं और जबरदस्त जलन भी रखता हूं कि आप अपनी पोस्ट इतने अच्छे से मय समुचित फोटो ,कैसे लिख लेते हैं. सोमाद्रि लोग पूछते है - ऐसा क्या है शब्दावली में? मेरा, कहना है अगर आप पढोगे, तो जानोगे। मेरा शब्दों के प्रति ज्ञान बढाने में आपके इस ब्लॉग का बहुत बड़ा हाथहै। समीरलाल इस सफर में आकर सब कुछ सरल और सहज लगने लगता है। बस, ऐसे ही बनाये रखिये. आपको शायद अंदाजा न हो कि आप कितने कितने साधुवाद के पात्र हैं. लावण्या शाह बिल्कुल अलग है आपका ब्लाग, सबसे अलग। इसकी हर पोस्ट अपने आप में विशिष्ट होती है. शुभकामनाएं. अरविंद मिश्रा शब्दों का सफर मेरी सर्वोच्च बुकमार्क पसंद है -मैं इसे नियमित पढ़ता हूँ और आनंद विभोर होता हूँ !आपकी ये पहल हिन्दी चिट्ठाजगत मे सदैव याद रखी जायेगी.
प्रभाकर पाण्डेय पता नहीं भविष्य में चिट्ठों का अस्तित्व रहे या ना रहे पर "शब्दों का सफर" शोधार्थियों एवं हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रेरक बना रहेगा। विष्णु बैरागी भाषिक विकास के साथ-साथ आप शब्दों के सामाजिक योगदान और समाज में उनके स्थान का वर्णन भी बडी सुन्दरता से कर रहे हैं।आपको पढना सुखद लगता है। पंकज श्रीवास्तव आपकी मेहनत को कैसे सराहूं। बस, लोगों के बीच आपके ब्लाग की चर्चा करता रहता हूं। आपका ढिंढोरची बन गया हूं। व्यक्तिगत रूप से तो मैं रोजाना ऋणी होता ही हूं. ज्ञानदत्त पांडे आपकी पोस्ट पढ़ने में थोड़ा धैर्य दिखाना पड़ता है. पर पढ़ने पर जो ज्ञानवर्धन होताहै,वह बहुत आनन्ददायक होता है. रवि रतलामी किसी हिन्दी चिट्ठे को मैं ब्लागजगत में अगर हमेशा जिन्दा देखना चाहूंगा, तो वो यही होगा-शब्दों का सफर. विजय गौर निश्चित ही हिन्दी ब्लागिंग में आपका ब्लाग महत्वपूर्ण है. जहां भाषा विज्ञान पर मह्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध रह्ती है.
बालेंदु दाधीच आपने सिद्ध किया है कि तकनीक का सार्थक प्रयोग कैसे होता है ... बिना स्पष्ट लाभ के मोटीवेशन कायम रखते हुए स्थायी महत्व का कार्य कैसे किया जा सकता है. Dr.bhoopendra good,innovative explanation of well known words look easy but it is an experts job.My heartly best wishes.
आशीर्वचन
डॉ सुरेश वर्मा अजित वडनेरकर अपने विश्लेषण में व्युत्पत्तिशास्त्र के समस्त संभव प्रतिमानों का उपयोग करते हैं। वे सावधानी के साथ लोकव्यवहार में प्रचलित उन शब्दों का चयन करते हैं, जिनके अर्थ को लेकर लोकमानस में जिज्ञासा हो सकती हो। फिर वे उस शब्द की धातु, उस धातु के अर्थ और अर्थ की विविध भंगिमाओं तक पहुँचते हैं। फिर वे समानार्थी शब्दों की तलाश करते हुए विविध कोनों से उनका परीक्षण करते हैं. फिर उनकी तलाश शब्द के तद्भव रूपों तक पहुंचती है और उन तद्बवों की अर्थ-छायाओं में परिभ्रमण करती है। फिर अजित अपने भाषा-परिवार से बाहर निकलकर इतर भाषाओँ और भाषा-परिवारों में जा पहुँचते हैं। वहां उन देशों की सांस्कृतिक पृष्टभूमि में सम्बंधित शब्द का परीक्षणकर, पुनः समष्टिमूलक वैश्विक परिदृश्य का निर्माण कर देते हैं। यह सब रचनाकार की प्रतिभा और उसके अध्यवसाय के मणिकांचन योग से ही संभव हो सका है। व्युत्पत्तिविज्ञान की एक नयी और अनूठी समग्र शैली सामने आई है। [डॉ.सुरेश वर्मा ख्यात भाषाविद् हैं। मुझे इनके मार्गदर्शन में अध्ययन करने का अवसर मिला है।]
हिंदी में शब्दों की खोज लगभग खत़्म हो गयी है. लेखक इस ज़रूरत से उठ गये हैं कि उनकी अभिव्यक्ति के पन्नों को नये शब्द कुछ रोशनी बिखेर सकते हैं. बल्कि जाने हुए शब्दों के जरिये कहानी और कविता के सीमित शिल्प को सरल समय का आईना कह कर वे नये शब्दों की ज़रूरत को खारिज़ तक कर देते हैं. लेकिन ब्लॉग्स में भूले हुए शब्दों को खोजने और कई मौजूदा शब्दों की जड़ों तक पहुंचने का काम कुछ लोग कायदे से कर रहे हैं.
अजित वाडनेकर ऐसे ही एक सिपाही हैं, जो शब्दों का सफ़र (http://shabdavali.blogspot.com/) नाम से अपना ब्लॉग चलाते हैं. उनके बारे में जानकारी अभय तिवारी के निर्मल आनंद से मिली. उन्होंने लिखा- पाया ब्लॉग जगत ने एक नया नगीना. आगे लिखा, 'वे हिंदी भाषा के संसार में एक मौलिक काम कर रहे हैं. शब्दों को उनके मूल में जाकर जांच परख रहे हैं. देशकाल और विभिन्न समाजों में उनकी यात्रा को खोल रहे हैं.` इतना काफी था हमें किसी ब्लॉग के बारे में उत्सुक करने के लिए. हम जब वहां पहुंचे, तो सचमुच ताज़ा रचनात्मकता की शीतल बूंदें वहां मोतियों की तरह बिखरी थीं.
ब्लॉग पर अपने सफ़र का आगा़ज़ वे कुछ इस तरह करते हैं, 'उत्पत्ति की तलाश में निकलें, तो शब्दों का बहुत ही दिलचस्प सफ़र सामने आता है. लाखों सालों में जैसे इंसान अपनी शक्ल बदली, सभ्यता के विकास के बाद से शब्दों ने भी अपने व्यवहार बदले. एक भाषा का शब्द दूसरी में गया और अरसे बाद एक तीसरी ही शक्ल में प्रचलित हुआ.`
आप अगर शब्दावली के पन्ने पलटेंगे, तो पाएंगे कि अजित वडनेरकर ग्राम, गंवार और संग्राम के बीच के अंतर्संबंधों की व्याख्या कर रहे हैं. बगातुर और बघातुर से होते हुए बहादुर तक पहुंच रहे हैं. कुली से कुल की पहचान कर रहे हैं... और आरोही और रूहेलखंड के अर्थों में कुछ सम खोज रहे हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि सब कुछ एकतरफा ही परोसा जा रहा है. हिंदी में शब्दों पर कम कश्मकश इधर देखने को मिले हैं, लेकिन ब्लॉग पर अजित वडनेकर से दो-दो हाथ करने वाले बहुतायत में हैं. एक का ज़िक्र यहां करते हैं.
बजरबट्टू के बारे में अजित वडनेकर ने लिखा, 'प्राचीनकाल में गुरुकुल के विद्यार्थी के लिए ही आमतौर पर वटु: या बटुक शब्द का प्रयोग किया जाता था. राजा-महाराजाओं और श्रीमंतों के यहां भी ऋषि-मुनियों के साथ ये वटु: जो उनके गुरुकुल में अध्ययन करते थे, जाते और दान पाते. बजरबट्टू भी बटुक से ही बना. बजरबट्टू आमतौर पर मूर्ख या बुद्धू को कहा जाता है. जिस शब्द में स्नेह-वात्सल्य जैसे अर्थ समये हों, उससे ही बने एक अन्य शब्द से तिरस्कार प्रकट करने वाले भाव कैसे जुड़ गये? आश्रमों में रहते हुए जो विद्यार्थी विद्याध्ययन के साथ-साथ ब्रह्मचर्यव्रत के सभी नियमों का कठोरता से पालन करता, उसे वज्रबटुक कहा जाने लगा. जाहिर है वज्र यानी कठोर और बटुक मतलब ब्रह्मचारी/विद्यार्थी. ये ब्रह्मचारी अपने गुरु के निर्देशन में वज्रसाधना करते, इसलिए वज्रबटुक कहलाये. मगर सदियां बीतने पर जब गुरुकुल और आश्रम परंपरा का ह्रास होने लगा, तब बेचारे इन बटुकों की कठोर वज्रसाधना को भी समाज ने उपहास और तिरस्कार के नजरिये से देखना शुरू किया और अच्छा-खासा वज्रबटुक हो गया बजरबट्टू यानी मूर्ख.`
लेकिन अभय तिवारी ने बजरबट्टू के इस संधान पर संदेह किया. साफ है कि शब्दों के संधान को लेकर अलग अलग आग्रह और व्याख्याएं और सूचनाएं ब्लॉग पर तुरत-फुरत एक दूसरे तक पहुंच जाती हैं, और सफ़र को आगे जारी रखने में मदद मिलती है. अभय तिवारी ने प्रतिवाद किया, 'बजरबट्टू शब्द का लोकप्रिय प्रयोग बुरी नज़र से बचाने वाले एक पत्थर के अर्थ के बतौर है. रामशंकर शुक्ल 'रसाल` के भाषा शब्दकोश में भी बजरबट्टू का अर्थ है- एक पेड़ का बीज जिसे दृष्टिदोष से बचाने के लिए बच्चों को पहनाते हैं. बजर तो साफ़ साफ़ वज्र का तद्भव है, मगर बट्टू क्या है? क्या वट? क्या वटन? या वटक?`
और इस तरह एक नया भाषा विमर्श शुरू होता है, जिसमें हिंदी के कवि बोधिसत्व भी कूदते हैं. अपने ब्लॉग विनय पत्रिका में वे लिखते हैं, 'संदर्भ बजर का हो या बट्टू का, पर आप अपने बटुए को न भूलें. नहीं तो आप के हाथ से साबुन की बट्टी लेकर कोई और अपनी किस्मत चमकाएगा. फिर आप को बटुर (सिकुड़) कर रहना पड़ेगा और इसमें ठाकुर जी का बटोर (हजारी प्रसाद द्विवेदी) करने से भी कोई फायदा नहीं होगा. और आप धूल बटोरने में उम्र बिता देंगे. अच्छा हो कि यह बट्टा बन कर किसी भाव न गिरा दें जैसे कि आज कल कइयों का गिरा है.`
बजरबट्टू की इस पूरी बहस में कुल २९ बार लोग एक दूसरे से आपस में उलझे. अजित वडनेकर की पोस्ट पर चार टिप्पणियां दर्ज हैं, अभय तिवारी की पोस्ट पर बीस टिप्पणियां और बोधिसत्व की पोस्ट पर पांच टिप्पणियां दर्ज हैं. इस पूरी बहस में लंदन से अनामदास के साथ अनूप शुक्ला, इरफ़ान, अफलातून, काकेश, प्रियंकर, प्रमोद सिंह ने हिस्सा लिया. और भी कई नाम हैं, जिन्होंने अपनी बात रखी.
सवाल असहमतियों के लोकतांत्रिक गंठजोड़ का जितना है, उससे कहीं अधिक जिसके पास जितनी चीज़ें हैं, वे आपस में साझा कर रहे हैं. नवभारत टाइम्स और दैनिक भास्कर जैसे अखब़ारों और दूरदर्शन, ज़ी न्यूज़, आजतक और स्टार न्यूज़ के साथ काम करते हुए अजित वडनेरकर पिछले बाइस सालों से पत्रकारिता कर रहे हैं. इतिहास और संस्कृति से उनका गहरा लगाव है, लेकिन ये अखब़ार आज जो उनका पेशा है, उसमें किसी काम का नहीं. लेकिन जो है, उसे समेटना है, बांटना है और ब्लॉग इसके लिए उन्हें सबसे सटीक माध्यम लगा. --अविनाश[लेखक का ब्लाग है http://mohalla.blogspot.com/ ]
चर्चा हिन्दुस्तान में
शब्दों के प्रति लापरवाही से भरे इस दौर में हर शब्द को अर्थविहीन बनाने का चलन आम हो गया है। इस्तेमाल किए जाने भर के लिए ही शब्दों का वाक्यों के बाच में आना जाना हो रहा है, खासकर पत्रारिता ने सरल शब्दों के चुनाव क क्रम में कई सारे शब्दों को हमेशा के लिए स्मृति से बाहर कर दिया। जो बोला जाता है वही तो लिखा जाएगा। तभी तो सर्वजन से संवाद होगा। लेकिन क्या जो बोला जा रहा है, वही अर्थसहित समझ लिया जा रहा है ? उर्दू का एक शब्द है खुलासा । इसका असली अर्थ और इस्तेमाल के संदर्भ की दूरी को कोई नहीं पाट सका। इसीलिए बीस साल से पत्रकारिता में लगा एक शख्स शब्दों का साथी बन गया है। वो शब्दों के साथ सफर पर निकला है। अजित वडनेरकर। ब्लॉग का पता है http://shabdavali.blogspot.com दो साल से चल रहे इस ब्लॉग पर जाते ही तमाम तरह के शब्द अपने पूरे खानदान और अड़ोसी-पड़ोसी के साथ मौजूद होते हैं। मसलन संस्कृत से आया ऊन अकेला नहीं है। वह ऊर्ण से तो बना है, लेकिन उसके खानदान में उरा (भेड़), उरन (भेड़) ऊर्णायु (भेड़), ऊर्णु (छिपाना)आदि भी हैं । इन तमाम शब्दों का अर्थ है ढांकना या छिपाना। एक भेड़ जिस तरह से अपने बालों से छिपी रहती है, उसी तरह अपने शरीर को छुपाना या ढांकना। और जिन बालों को आप दिन भर संवारते हैं वह तो संस्कृत-हिंदी का नहीं बल्कि हिब्रू से आया है। जिनके बाल नहीं होते, उन्हें समझना चाहिए कि बाल मेसोपोटामिया की सभ्यता के धूलकणों में लौट गया है। गंजे लोगों को गर्व करना चाहिए। इससे पहले कि आप इस जानकारी पर हैरान हों अजित वडनेरकर बताते हैं कि जिस नी धातु से नैन शब्द शब्द का उद्गम हुआ है, उसी से न्याय का भी हुआ है। संस्कृत में अरबी जबां और वहां से हिंदी-उर्दू में आए रकम शब्द का मतलब सिर्फ नगद नहीं बल्कि लोहा भी है। रुक्कम से बना रकम जसका मतलब होता है सोना या लोहा । कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी का नाम भी इस रुक्म से बना है जिससे आप रकम का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे तमाम शब्दों का यह संग्रहालय कमाल का लगता है। इस ब्लॉग के पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी अजब -गजब हैं। रवि रतलामी लिखते हैं कि किसी हिंदी चिट्ठे को हमेशा के लिए जिंदा देखना चाहेंगे तो वह है शब्दों का सफर । अजित वडनेरकर अपने बारे में बताते हुए लिखते हैं कि शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नज़रिया अलग अलग होता है। मैं भाषाविज्ञानी नहीं हूं, लेकिन जज्बा उत्पति की तलाश में निकलें तो शब्दों का एक दिलचस्प सफर नजर आता है। अजित की विनम्रता जायज़ भी है और ज़रूरी भी है क्योंकि शब्दों को बटोरने का काम आप दंभ के साथ तो नहीं कर सकते। इसीलिए वे इनके साथ घूमते-फिरते हैं। घूमना-फिरना भी तो यही है कि जो आपका नहीं है, आप उसे देखने- जानने की कोशिश करते हैं। वरना कम लोगों को याद होगा कि मुहावरा अरबी शब्द हौर से आया है, जिसका अर्थ होता है परस्पर वार्तालाप, संवाद । शब्दों को लेकर जब बहस होती है तो यह ब्लॉग और दिलचस्प होने लगता है। दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के नोएडा का एक लोकप्रिय लैंडमार्क है- अट्टा बाजार। इसके बारे में एक ब्लॉगर साथी अजित वडनेरकर को बताता है कि इसका नाम अट्टापीर के कारण अट्टा बाजार है, लेकिन अजित बताते हैं कि अट्ट से ही बना अड्डा । अट्ट में ऊंचाई, जमना, अटना जैसे भाव हैं, लेकिन अट्टा का मतलब तो बाजार होता है। अट्टा बाजार । तो पहले से बाजार है उसके पीछे एक और बाजार । बाजार के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द हाट भी अट्टा से ही आया है। इसलिए हो सकता है कि अट्टापीर का नामकरण भी अट्ट या अड्डे से हुआ हो। बात कहां से कहा पहुंच जाती है। बल्कि शब्दों के पीछे-पीछे अजित पहुंचने लगते हैं। वो शब्दों को भारी-भरकम बताकर उन्हें ओबेसिटी के मरीज की तरह खारिज नहीं करते। उनका वज़न कम कर दिमाग में घुसने लायक बना देते हैं। हिंदी ब्लॉगिंग की विविधता से नेटयुग में कमाल की बौद्धिक संपदा बनती जा रही है। टीवी पत्रकारिता में इन दिनों अनुप्रास और युग्म शब्दों की भरमार है। जो सुनने में ठीक लगे और दिखने में आक्रामक। रही बात अर्थ की तो इस दौर में सभी अर्थ ही तो ढूंढ़ रहे हैं। इस पत्रकारिता का अर्थ क्या है? अजित ने अपनी गाड़ी सबसे पहले स्टार्ट कर दी और अर्थ ढूंढ़ने निकल पड़े हैं। --रवीशकुमार [लेखक का ब्लाग है http://naisadak.blogspot.com/ ]
...या में जग ना समाय !
मुहावरों की गली में
मुहावराअरबी केहौरशब्द से जन्मा है जिसके मायने हैं परस्पर वार्तालाप, संवाद।
लंबी ज़ुबान -इस बार जानते हैंज़ुबानको जो देखते हैं कितनी लंबी है और कहां-कहा समायी है।ज़बान यूं तो मुँह में ही समायी रहती है मगर जब चलने लगती है तो मुहावरा बन जाती है । ज़बान चलाना के मायने हुए उद्दंडता के साथ बोलना। ज्यादा चलने से ज़बान पर लगाम हट जाती है और बदतमीज़ी समझी जाती है। इसी तरह जब ज़बान लंबी हो जाती है तो भी मुश्किल । ज़बान लंबी होना मुहावरे की मूल फारसी कहन हैज़बान दराज़ करदनयानी लंबी जीभ होना अर्थात उद्दंडतापूर्वक बोलना।
दांत खट्टे करना-किसी को मात देने, पराजित करने के अर्थ में अक्सर इस मुहावरे का प्रयोग होता है। दांत किरकिरे होना में भी यही भाव शामिल है। दांत टूटना या दांत तोड़ना भी निरस्त्र हो जाने के अर्थ में प्रयोग होता है। दांत खट्टे होना या दांत खट्टे होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है -दंदां तुर्श करदन
अक्ल गुम होना-हिन्दी में बुद्धि भ्रष्ट होना, या दिमाग काम न करना आदि अर्थों में अक्ल गुम होना मुहावरा खूब चलता है। अक्ल का घास चरने जाना भी दिमाग सही ठिकाने न होने की वजह से होता है। इसे ही अक्ल का ठिकाने न होना भी कहा जाता है। और जब कोई चीज़ ठिकाने न हो तो ठिकाने लगा दी जाती है। जाहिर है ठिकाने लगाने की प्रक्रिया यादगार रहती है। बहरहाल अक्ल गुम होना फारसी मूल का मुहावरा है और अक्ल गुमशुदनके तौर पर इस्तेमाल होता है।
दांतों तले उंगली दबाना-इस मुहावरे का मतलब होता है आश्चर्यचकित होना। डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक इस मुहावरे की आमद हिन्दी में फारसी से हुई है फारसी में इसका रूप है- अंगुश्त ब दन्दां।
9 कमेंट्स:
बहुत सौन्दर्य है आपकी लेखनी में, सही बात कही, आजकल ढोगी बाबाओं की कमी नहीं!
mujhe ishwariy gyaan nahi mil raha hai isliye abhi maen apne ko garib hi maan raha hoon
इस पोस्ट ने मेरी यह धारणा खण्डित कर दी कि 'दरवेश' और 'दर' का कोई अन्तर्सम्बन्ध हैं।
लगता है, 'दरवेश' के 'दर' से अलग होने के समान ही 'दरवेश' और 'दरगाह' में भी कोई अन्तर्सम्बन्ध नहीं है।
बहुत गरीब तुम्हारे गरीब हैं ख्वाजा
कि ये दरवेश सबके करीब हैं ख्वाजा
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शुक्रिया
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
ज्ञानवर्धक पोस्ट्।शब्दो के सफ़र की सरलता उसे काफ़ी रोचक बना देती है।
बहुत प्रेरणा दायक है ये सफ़र:
शब्द खुद अपनी जगह दरवेश है,
अर्थ ले कर फिर रहे है दर-ब-दर,
झान है,प्रकाश है,विस्तार है,
ज़िन्दगी की राह में है हमसफ़र
दर-ब-दर होते हुए ये आए है,
दर मिला बंद तो गुज़र ये जाएँगे,
देश बदला वेश भी बदला किए,
इसको अपनाएं, निखर ये जाएंगे।
मन्सूर अली हशमी
बहुत शानदार तरीके से समझाया है ापने. बहुत धन्यवाद.
रामराम.
बहुत बढिया । दरवेश का क्या दर से कोई संबंध नही है ? एक ठौर न टिकने वाले, घुमक्कड, यानि दरवेश यह नही होता क्या ?
@आशा जोगलेकर
शुक्रिया आशाजी,बहुत दिनों बाद आपका फेरा लगा है। दर से दरवेश की व्युत्पत्ति तो व्यावहारिक रूप से उनके बारे में समझाने के लिए अक्सर स्थापित की जाती है। मगर
लोग दर का संबंध घर , या द्वार से स्थापित तो कर देते हैं किंतु विश या वेश का स्पष्टीकरण नहीं मिल पाता। दरवेश की ग़रीब या भिक्षु के रूप में दर से व्याख्या तो की जा सकती है मगर सीधा संबंध बैठाना तर्क संगत नही लगता।
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