Friday, February 6, 2009

दरवेश चलेंगे अपनी राह [ संत-2]

Riza_i-Abbasi_-_Princely_Youth_and_Dervishसाधु-संतों से अक्सर चमत्कारों की उम्मीद की जाती है। लगातार चिंतन-मनन करने, सुदूर अंचलों में, पहाड़ो-जंगलों में रहने की वजह से एक अलग सा रहस्यवाद इनके साथ जुड़ जाता है।
सू फी संतों की एक विशिष्ट कोटि है दरवेशों की। अलमस्त फ़कीराना तबीयत इनकी पहचान होती है। डगर-डगर घूमना, डेरों पर ठहरना इनकी फितरत। समूचे मध्य एशिया समेत तुर्की, ईरान, अरब समेत भारत और चीन तक में दरवेश dervish परंपरा रही। आमतौर पर सभी धर्मों में ज्ञान के सर्वोच्च बिंदु पर समझदारों को संसार की निस्सारता का बोध होता है। सबसे पहले वे स्वयं माया-मोह से निवृत्ति की राह पर चलते हैं और फिर दूसरों को भी यही राह दिखाते हैं। अपने खास रहन-सहन की वजह से दरवेश दूसरे इस्लामी संतों से अलग ही पहचाने जाते हैं। इतिहास के आंगन में दरवेश बारहवीं तेरहवीं सदी से नज़र आते हैं। माना जाता है की महान सूफी संत-कवि जलालुद्दीन रूमी दरवेश पंथ के संस्थापक थे।
हिन्दुओं में परिव्राजक ऐसे ही व्यक्ति को कहते हैं जिसने संसार त्याग दिया हो। संसार त्यागने का अर्थ है सासारिक पदार्थों-कर्मों से निवृत्त होकर चिंतन-मनन के जरिये प्रभु की भक्ति में लीन होना। अपनी दैहिक आवश्यकताओ को कम से कम करते जाना। सभी धर्मों में साधु-संत समाज के द्वारा उपलब्ध कराए गए अन्न पर निर्भर रहते हैं। किसी एक परिवार, समाज या ग्राम पर इनका बोझ न पड़े इसलिए ये कहीं टिक कर नहीं बैठते, लगातार अपना ठिकाना बदलते रहते हैं। इसीलिए चाहे फकीर fakir हो या दरवेश, शब्दकोशों में इनका अर्थ निर्धन, गरीब भी बताया जाता है। मगर इसके मूल में इनका फक्कड़ रूप ही है। गौर करें फक्कड़ शब्द फकीर से ही बना है। दरवेश का मतलब घर-घर से मिले दान के आहार पर निर्भर रहनेवाला साधु। दरवेश के दर में द्वार अर्थात दरवाजे का अर्थ निहित है। दरवेश को फारसी, तुर्की में दरविश कहा जाता है जो पहलवी द्रिगोश से बना है जिसे दर्योस भी लिखा जाता है। यह शब्द बना है अवेस्ता के द्रिगु से जिसमें भिक्षावृत्ति और मांग कर गुज़र करने का भाव है। गौरतलब है कि विद्वानों ने अवेस्ता के द्रिगु को वैदिक ध्रिगु से संबद्ध माना है और उसका अर्थ भी ग़रीब ही बताया है। इस पर विवाद है कि वैदिक संदर्भ में आया शब्द ध्रिगु नहीं बल्कि अ-ध्रिगु है जिसका अर्थ धनवान, श्रीमंत है। मगर दरवेश की व्युत्पत्ति द्रिगु से बतानेवालों का तर्क है कि अर्थात नकारात्मक भाव लगने से ही ध्रिगु का निर्धन शब्द सही है। जो भी हो दरवेश शब्द बहुत पुराना है और इसका दर या द्वार जैसी व्यंजना से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि यह द्रिगु से दर्योस होते हुए यह फारसी में दरविस / दरवेश हुआ।
सासांरिक बंधनों में फंसा व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन नहीं कर सकता है इसीलिए भिक्षावृत्ति पर निर्भरता स्वाभाविक है। जाहिर सी बात है कि मांग कर खानेवाले व्यक्ति के लिए दरवेश शब्द में संत का भाव ही छुपा है। शाब्दिक अर्थ में न जाया जाए तो दरवेश शब्द में भी वहीं भाव है जो फकीर में है। फकीर की व्याख्या यही है कि गरीब वह नहीं है जो भीख मांग रहा है बल्कि वह है जिसके पास ईश्वरीय ज्ञान नहीं है। जिसे ईश्वरीय बोध हो चुका है वही सच्चा फकीर है। यही बात दरवेश के संदर्भ में भी सच है। सच्चा दरवेश सिर्फ और सिर्फ ध्यान में निमग्न रहता है। इनके डेरों पर संगीत के जरिये नाम-सुमिरन और जाप की परिपाटी कब कव्वाली में ढल गई, कहा नहीं जा सकता। संगीत की धुन पर गोल-गोल फिरना भी ध्यान की परंपरा का हिस्सा रहा। भारतीय नृत्य शास्त्रीय-धार्मिक परंपरा से उपजे हैं। इसी तरह दरवेशों का घूमर नृत्य [Whirling Dervish] इस्लाम की धार्मिक परिपाटी के कला में तब्दील होने का एक विरल उदाहरण पेश करता है।  दरवेशों की जीवन शैली में अनोखापन इसलिए भी है क्योंकि वे पारंपरिक तौर पर इस्लाम की मान्यताओं-मर्यादाओं के अनुसार नहीं चलते। इसीलिए इनके दो प्रकार हैं बाशरा यानी जो इस्लामी तौर तरीकों पर चले और बेशरा यानी जो किसी भी एक पंथ या धर्म की राह को न मानते हुए अपनी अलग परिपाटी पर चले ।  धर्म और आस्थाके साथ चमत्कार जुड़ा हुआ है। साधु-संतों से अक्सर चमत्कारों की उम्मीद की जाती है। लगातार चिंतन-मनन करने, सुदूर अंचलों में, पहाड़ो-जंगलों में रहने की वजह से एक अलग सा रहस्यवाद इनके साथ जुड़ जाता

तुर्की के नृत्य निमग्न दरवेश

है। उनकी रूहानी बातों में लोगों को भविष्यवाणियां नज़र आती हैं। सच्चे संत तो कभी चमत्कार नहीं दिखाते मगर आस्था उसे ही सच मानती है जो चमत्कार दिखाता है लिहाजा संतों सूफियों के साथ भी अजूबा चस्पा हो गया। धर्म के सहारे पाखंड करनेवाले तो सिर्फ चमत्कारों के बल पर ही वर्षों से लोगों को ठग रहे हैं। यही दरवेश के साथ भी हुआ।
किस्सों में ऐसे ऐसे दरवेशों का उल्लेख है जो अपनी ऊलजुलूल हरकतों की वजह से लोगों का सम्मान पाते थे। कहने की जरूरत नहीं कि ये सब दरवेश के भेष में मक्कार थे। इनके रंग-ढंग निराले थे। कोई उगालदान का सारा लुआब एक झटके में हलक में उंड़ेल लेता था तो कोई अपने लंबे बालों में हाथ डाल कर निर्विकार भाव से मुट्ठीभर जुंएं निकाल कर दिखाता फिर वापस उन्हें बालों में ही छोड़ देता। ऐसे कुछ नज़ारे मैं देख चुका हूं। जो जितने अजीबोग़रीब तौर तरीके अपनाता , उसे उतना ही आलिम और गैबी ताकतों का मालिक समझा जाता। इन दरवेशो में होड़ भी खूब रहती थी। एक अपने अनुयायियों को लात जमाकर नवाज़ता तो दूसरा अपने शागिर्द पर दनादन थप्पड की बौछार कर देता। इनकी धज भी विचित्र होती। लंबा चोगा जिसमें कई जेबें होतीं, बड़े बड़े उलझे बाल, आंखों में काजल, कंधे पर झोली जिसमें जादू और तंत्र से जुड़ी चीज़ों का अंबार होता, औल-फौल सी शब्दावली जिसका कोई अर्थ नहीं होता था, उसे ये लगातार उच्चारते थे। सामान्य जनता इनका मतलब समझने में अपना सिर खपाती रहती थी। उनके मुरीद तथाकथित आध्यात्मिक ज्ञान की व्याख्या करते थे। मिसाल के तौर पर अस्पष्ट सी शब्दावली मे कहीं “बल” शब्द आ गया तो उसे “बला” कह कर आसन्न विपत्ति का संकेत दे दिया जाता था। अगर एक ही शब्द तीन बार बोल दिया तो तीन दिन, तीन रात, तीन साल तक के दायरे में उसके अनिष्टकारी या मांगलिक संकेत तलाशे जाते। भारत और पाकिस्तान में यह तमाशा आज भी होता है। नामी फकीर दरवेश तो गिने-चुने हैं । खुद को दरवेश कहनेवालों के ज्यादातर डेरों पर आस्था का प्रकाश नहीं, अंधविश्वास का अंधेरा तारी रहता है। 
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9 कमेंट्स:

Vinay said...

बहुत सौन्दर्य है आपकी लेखनी में, सही बात कही, आजकल ढोगी बाबाओं की कमी नहीं!

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

mujhe ishwariy gyaan nahi mil raha hai isliye abhi maen apne ko garib hi maan raha hoon

विष्णु बैरागी said...

इस पोस्‍ट ने मेरी यह धारणा खण्डित कर दी कि 'दरवेश' और 'दर' का कोई अन्‍तर्सम्‍बन्‍ध हैं।
लगता है, 'दरवेश' के 'दर' से अलग होने के समान ही 'दरवेश' और 'दरगाह' में भी कोई अन्‍तर्सम्‍बन्‍ध नहीं है।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

बहुत गरीब तुम्हारे गरीब हैं ख्वाजा
कि ये दरवेश सबके करीब हैं ख्वाजा
============================
शुक्रिया
डॉ.चन्द्रकुमार जैन

Anil Pusadkar said...

ज्ञानवर्धक पोस्ट्।शब्दो के सफ़र की सरलता उसे काफ़ी रोचक बना देती है।

Mansoor ali Hashmi said...

बहुत प्रेरणा दायक है ये सफ़र:


शब्द खुद अपनी जगह दरवेश है,
अर्थ ले कर फिर रहे है दर-ब-दर,
झान है,प्रकाश है,विस्तार है,
ज़िन्दगी की राह में है हमसफ़र

दर-ब-दर होते हुए ये आए है,
दर मिला बंद तो गुज़र ये जाएँगे,
देश बदला वेश भी बदला किए,
इसको अपनाएं, निखर ये जाएंगे।

मन्सूर अली हशमी

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत शानदार तरीके से समझाया है ापने. बहुत धन्यवाद.

रामराम.

Asha Joglekar said...

बहुत बढिया । दरवेश का क्या दर से कोई संबंध नही है ? एक ठौर न टिकने वाले, घुमक्कड, यानि दरवेश यह नही होता क्या ?

अजित वडनेरकर said...

@आशा जोगलेकर
शुक्रिया आशाजी,बहुत दिनों बाद आपका फेरा लगा है। दर से दरवेश की व्युत्पत्ति तो व्यावहारिक रूप से उनके बारे में समझाने के लिए अक्सर स्थापित की जाती है। मगर
लोग दर का संबंध घर , या द्वार से स्थापित तो कर देते हैं किंतु विश या वेश का स्पष्टीकरण नहीं मिल पाता। दरवेश की ग़रीब या भिक्षु के रूप में दर से व्याख्या तो की जा सकती है मगर सीधा संबंध बैठाना तर्क संगत नही लगता।

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