Sunday, February 8, 2009

दमादम मस्त कलंदर…[संत-4]

सफर की पिछली कड़ीः इश्क पक्का, मंजिल पक्की…[संत-3]

समें कोई दो राय नहीं कि हिन्दुस्तान में कलंदर qalandar शब्द इस्लामी संस्कृति के साथ दाखिल हुआ। कलंदर के साथ मस्त शब्द लगा होने का अर्थ यह नही कि सभी कलंदर खुशमिजाज होते हैं। ये लोग मनमौजी सिफत के होते हैं। पुराने ज़माने में कलंदरों के गुस्से, क्रोध और बेढब रुख को लेकर भय भी रहता था। कई कलंदर न सिर्फ अपना सिर घुटा कर रखते बल्कि दाढ़ी मूंछ के साथ भवें और पलकें तक मुंडवा लेते थे। भिक्षा मिलते ही ये तुरंत आशीर्वाद देते हैं।ghghghghg अगर ज़रा भी देर हो जाए तो गुस्सा होते भी देर नहीं लगती। चिमटा, लोहे का कमरबंद, हाथों में लोहे के कड़े, गले में बहुत सारे हार वगैरह पहनना कलंदरी जीवन शैली की कुछ खास बाते हैं जो इन्हें अन्य सूफी पंथियों या रहस्यवादियों से अलग करती हैं। कानों में कुंडल पहनने जैसी कुछ बातें हिन्दू रहस्यवादियों अर्थात नाथपंथी परंपराओं से भी भारत आने के बाद ग्रहण कीं। जादूटोना और झाड़-फूंक के स्तर पर सामान्य समाज के साथ इनका रिश्ता बना रहा। कलंदर संत एकत्ववादी रहे हैं। औघड़ जीवनशैली ने इन्हें रहस्यवादी की पहचान भी दी। अन्य इस्लामी संतों की तरह इनके जीवन में धर्म का प्रचलित स्वरूप नहीं था। आराधना इबादत का रिवायती अंदाज़ भी इन्हें नहीं सुहाता। नमाज़-रोज़ा इनकी जीवन शैली में नहीं है।

नुसरत फतेहअलीआबिदा परवीनकलंदर दरगाहःसेहवान सिंध

लंदर शब्द को यूरोप की ज़मीन से भी जोड़ा जाता है। पश्चिमी विद्वान ग्रीक शब्द किलिन्द्रोस kylindros से इसकी व्युत्पत्ति बताते हैं जिसका अर्थ होता है घूमना (रोलर)। सीरिया में किलिन्द्रोस नाम के शहर का रिश्ता इससे जोड़ा जाता है। इस शब्द की व्याख्या घुमक्कड़ी और यायावरी से की जाती है जिसका रिश्ता सूफी कलंदर से जुड़ता है। प्राचीन यूनानी संदर्भों में [ अलकेमी ]लोहे से स्वर्ण बनाने की तकनीक का वर्णन है। ग्रीक के दार्शनिक संदर्भों में इसे chelidonion अर्थात शुद्धिकरण की प्रक्रिया से जोड़ा गया है। इसे सोने के पीले रंग से भी जोड़ा जाता है जिसमें भी शुद्धता का भाव ही है। प्राचीन तुर्की के क़ल / क़ाल qal शब्द से भी इसका रिश्ता जोड़ा जाता है जिसका अर्थ शुद्ध होता है। इसी तरह ईरानी के कलांतर शब्द से भी इसका संबंध बताया जाता है जिसमें प्रमुख, ग्राम प्रधान, या शेरिफ का भाव है। हमारा मानना है कि कलंदर और कलांतर kalantar में सिर्फ उच्चारण का अंतर है। और का फर्क है। ये ध्वनियां आपस में बदलती हैं। जहां तक अर्थ का सवाल है क़लांदार और क़लांतर के मायने एक ही है। दोनो का अर्थ एक बसाहट, बस्ती का मुखिया ही है। इससे यह भी स्पष्ट है कि कलंदर में आध्यात्मिक गुरू या मुखिया का भाव ही प्रमुख है।
सिंध के प्रसिद्ध सूफी दरवेश लाल शाहबाज कलंदर की आध्यात्मिक ख्याति के साथ ही कलंदर शब्द भारत में जाना-पहचाना बन गया। सिंधी भाषा के प्रसिद्ध सूफी गीत ओ लाल मेरी पत रखियों .. ने कलंदर शब्द को आम आदमी की ज़बान पर ला दिया। शाहबाज कलंदर का असली नाम था सय्यद मोहम्मद उस्मान। इनका जन्म ईरान-अज़रबैजान के सीमांत पर स्थित मरवंद में 1177 में हुआ। इनके पिता भी दरवेश थे। मन की भटकन इन्हें कई स्थानों पर ले गई। आखिरकार सिंध प्रांत के सेहवान में आ बसे। 1274 में वे अनंत में लीन हो गए। लाला शाहबाज कलंदर सूफियों के बेशरा सम्प्रदाय से ताल्लुक रखते थे अर्थात इस्लाम के रिवायती तौर तरीकों में इनकी आस्था नहीं थी-शरीयत उनके चिन्तन का विषय नहीं था। हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, पारसी जैसे धर्मों की पृष्ठभूमि में सूफियों-कलंदरों ने एकत्ववादी प्रेममार्गी अनलहक़ ( अहं ब्रह्मास्मि)  का नारा बुलंद किया और अपनी राह खुद बनाई।
लंदरों का एक अलग सम्प्रदाय सेहवान वाले कलंदर के नाम की वजह से चल पड़ा जिसे लाल शाहबाजिया कहा जाता है। गौरतलब है कि सय्यद मोहम्मद उस्मान हमेशा लाल रंग का चोगा पहनते थे जिसकी वजह से उन्हें लाल शाहबाज कलंदर कहा जाता था। इस लाल रंग की वजह से ही कलंदरों की एक सुर्खपोश बिरादरी भी थी। सुर्ख अर्थात लाल, पोश यानी वस्त्र, जाहिर है अभिप्राय लाल चीवरधारी कलंदरों के उसी सम्प्रदाय से है जिसकी परंपरा लाल शाहबाज कलंदर से जुड़ती है। इसी परंपरा में एक नाम और मिलता है सोहागिया सम्प्रदाय का। सोहागिया कलंदर सुहाग का अर्थात विवाहिता का चोला पहनने की वजह से अलग से पहचाने जाते हैं। सुहाग का चोला लाल रंग का ही होता है। सोहागिया शब्द बना है सुहाग से। संस्कृत शब्द सौभाग्य के सुहाग में बदलने का क्रम कुछ यूं रहा -  सौभाग्य  > सोहाग्ग > सुहाग । लाल रंग सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। सौभाग्य में उगते सूर्य की लालिमा का स्पष्ट संकेत है। पहुंचे हुए कलंदर सामान्य लोगों को उनकी आध्यात्मिक शक्तियों का इल्म न हो इसीलिए लाल रंग का चोला पहना करते थे। सोहागिया पंथ के लोग और बढ़े-चढ़े थे। वे सुहाग का चोला पहन कर, स्त्रीवेश में किन्नरों के साथ रहते थे ताकि उनके बारे में कोई जान न सकें। अहमदाबाद के मूसा शाही सुहाग का नाम इस पंथ के अव्वल सूफी कलंदरों में आता है जो पंद्रहवीं सदी में हुए थे।
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10 कमेंट्स:

Anonymous said...

ये शब्दों का सफ़र तो बहुत अद्भुत है.. सफ़र में ऐसे ’मस्त’ गाने हो तो और क्या चाहिये... मजा आ गया.. और मैं चला फिर से आपकी पोस्ट पर गाने ्सुनने..

दिगम्बर नासवा said...

अजीत जी
आप के शब्द और उन की व्याख्या अद्भुद है, "हेड सॉफ्ट तो यू" इतना रोचक और महत्वपूर्ण वर्णन करतें हैं आप.........बरबस पूरा का पूरा पढ़ा जाता है..........सलाम है आपके कलाम को

के सी said...

"सानु की लेणा , कुत्ता जाणे ते कलंदर जाणे" इस भाव से आपकी पोस्ट ने बाहर निकाला है.

Himanshu Pandey said...

कलंदर शब्द को इतनी सूक्ष्मता से समझ सका, धन्यवाद.

Gyan Dutt Pandey said...

बहुत एनरिच्ड पोस्ट है। अनलहक़!

Vinay said...

रोचक, अति रोचक!

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गुलाबी कोंपलें

sanjay vyas said...

आभार. पोस्ट के साथ'दमा दम .....' ,आत्मा का भोजन!!

Abhishek Ojha said...

अद्भुत और रोचक !

रंजना said...

सूफी पंथ मेरे ह्रदय के बहुत ही निकट है.....अपना आपा खोकर ईश्वरीय प्रेम में निमग्नता..... जीवन के सच्चे सुख और संतुष्टि का मेरे हिसाब से एकमात्र आधार है....उसमे रमकर सारे जगको उसका ही प्रतिरूप मानना......अनिर्वचनीय आनद का श्रोत......
बहुत ही सुंदर इस आलेख हेतु साधुवाद..

Dr. Chandra Kumar Jain said...

ये भी खूब है.
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चन्द्रकुमार

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