दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही सफर के पंद्रहवें पड़ाव और अट्ठासीवें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
अ चानक फूफाजी को किसी ट्रेनिंग में जाना पड़ा, उन के स्थान पर दूसरा अध्यापक आ गया। बच्चों को उस ने बताया कि अब से इस कक्षा को वही पढ़ाएगा। हाजरी ली तो एक छात्र ज्यादा। सरदार पकड़ा गया। पूछा गया कि उस का नाम स्कूल में क्यों नहीं है। उस ने बता दिया कि वह फूफाजी के साथ स्कूल आता था। अध्यापक ने उसे कक्षा छोड़ घर जाने को कहा। गुस्से से सरदार की रुलाई फूट पड़ने लगी थी। वह बस्ता उठा कर सीधा दाज्जी के पास मंदिर पहुंचा और एक ओर गुमसुम बैठ गया। दाज्जी का ध्यान गया तो पूछा –आज स्कूल नहीं गया? सरदार का बोल न निकला, मुहँ खुला तो जोरों से रुलाई फूट पड़ी। दाज्जी को समझ नहीँ आया क्या हुआ? सरदार को मुश्किल से चुप कराया गया। फिर दास्तान खुली। दाज्जी ने सिर्फ सरदार का मन समझाने को अध्यापक को खूब गालियाँ दीं। फिर कहा –अब दो दिन बाद दशहरे पर नन्दकिसोर आएगा। दिवाली बाद उस के साथ सांगोद जाना वहाँ वह स्कूल में नाम लिखा देगा।
दिवाली बाद फिर सांगोद आ गए। इस बार मकान बदल गया था। यहाँ भी पहली मंजिल पर रहते। पहली मंजिल पर ही मकान मालिक पत्नी सहित रहते। सरदार उन्हें चाचा-चाची कहता। चाचा ब्राह्मण थे सुबह सुबह बड़ी देर तक भजन गाते गाते पूजा करते। चाची को इशारे कर-कर कर गाते –मैया¡ कबहुँ बढ़ेगी चोटीईईई.... चाची भजन के चलते लगातार कुढ़ती रहती। माँ के पास आ कर शिकायत करती। भौजाई जी¡ आप ही समझाओ, ये भजन मुझे इशारे कर न गाएँ। चाचा सुन लेते। तो जोर से कहते। भौजाई जी¡ मेरी क्या हिम्मत कि इस (चाची) के रहते मैं किसी और को इशारे करूँ?
घर बदला तो नदी का घाट भी बदल गया। अब नदी पास थी। माता ब्रम्हाणी का मंदिर के खाडे में हो कर जाना पड़ता। जिस के सामने ही बरांडे के पीछे नदी पर जनाना घाट था। यहाँ पानी बस सरदार की छाती तक आता। सप्ताह में तीन दिन माँ वहाँ कपड़े धोने जाती, सरदार भी साथ जाता। वहीं पानी में खेलता रहता। खेलते-खेलते तैरने का अभ्यास हो लिया। पिता जी मुहँ अंधेरे नदी निकल जाते और सरदार के सोकर उठते-उठते स्नान कर वापस आ जाते। कभी कभी रविवार को जब वे देर से जाते तो सरदार को भी ले जाते। घाट भूतेश्वर के नाम से प्रसिद्ध था। वहाँ इमली के पेड़ और एक शिव मंदिर था। पत्थर फैंक कर कटारे (कच्ची हरी इमलियाँ) गिराने में बहुत मजा आता। उन्हें घर ला कर नमक लगा कर खाते, कभी चटनी बनाते।
स्कूल में यहाँ भी नाम न लिखाया गया। पिता जी का एक विद्यार्थी उसी साल स्कूल में अध्यापक हो कर दूसरी कक्षा को पढ़ा रहा था। उसी कक्षा में सरदार को भेज दिया गया। सर्दियाँ बीतते बीतते होली आ गई। सांगोद में होली के पहले ही न्हाण का हल्ला शुरू हो जाता है। होली पर केवल सूखे रंग खेले जाते। होली के बाद सवारियाँ निकलतीं। सवारियों में तरह-तरह के स्वांग होते। सवारियाँ शाम को भी निकलतीं और सुबह तीन बजे भी। जिस दिन सुबह की सवारियाँ निकलनी होतीं बाजार सारी रात गर्म रहता। गैस लाइट में सवारियोँ की छटा निराली लगती। दूर दूर से लोग देखने आते। कस्बे में भीड़ बनी रहती। दो गुट सवारियाँ निकालते, आधा सांगोद बाजार गुट में और आधा सांगोद खाडे के गुट में। दोनों के बीच कंपीटीशन रहता। खाडे का न्हाण बाद में होता तो वही इक्कीस रहता। उसे देखने खूब भीड़ जुटती। इन दिनों कस्बे में सजे-धजे हिजड़े खूब आते। वे माता ब्रह्माणी को मानते और न्हाण को उस का पर्व मान कर समारोह में खूब नाचते। वे किसी को तंग भी न करते। होली के तेरहवें दिन न्हाण होता। उस दिन पानी का रंग खूब खेला जाता। बच्चों को पिचकारियाँ मिलतीं। बड़े लोग बाल्टियों और ड्रमों में रंगीन पानी भर कर डोलचियों से फेंकते। पिताजी के दोस्त घर आते तो माँ की मरम्मत हो जाती, उसे इतनी डोलचियाँ झेलनी पड़तीं कि उस की पीठ लाल पड़ जाती। आखिर माँ भी डंडा उठा लेती। डोलचियों में भगदड़ मचती वे डोलचियाँ छोड़ भागते। फिर माँ
बारां का बरड़िया बालाजी मंदिर
उन सब को बुला कर मिठाई-पापड़ियाँ खिलाती। फिर चाय होती।
न्हाण के बाद सारे बच्चे न्हाण की सवारियों करतबों की नकल करने के जुगाड़ करते और अनुकरण में गली-गली में अनेक सवारियाँ निकलने लगतीं। पड़ौस का घर एक लखेरे का था। वहाँ दिन भर लाख की चूड़ियाँ बनतीं और बिकतीं। लखेरे का लड़का बनवारी सरदार का दोस्त हो गया था। उन के एक घोड़ी थी। बनवारी की माँ कहती घोड़ी को पानी दिखा ला। बनवारी घोड़ी को पानी दिखा कर लाता। छोटा सा बनवारी अच्छा घुड़सवार था। सरदार को पानी दिखाना पहेली लगता। वह एक दिन बनवारी के पीछे गया। बनवारी ने घोड़ी नदी किनारे ले जा कर खड़ी कर दी, पानी देख वह पानी की ओर बढ़ी और पेट भर पानी पिया। धीरे-धीरे सरदार भी घोड़ी पर बनवारी के पीछे बैठ पानी दिखाने जाने लगा।
गर्मी होने लगी थी। बच्चे खेल छोड़ इम्तिहान की तैयारियों में जुटे थे। पिताजी के पास भी बहुत बच्चे रात को पढ़ने आते। रात को जलाने को लालटेन साथ लाते। सब छत पर सोते और पिताजी से पढ़ते। बाराँ के मंदिर, दाज्जी और बा की याद सताने लगी थी। इम्तिहान के बाद मई में छुट्टियाँ हो गईं। सब बाराँ आ गए। तभी यह खबर सुन कर सरदार का दिल खुश हो गया कि मामा के यहाँ मनोहरथाना जाना है। मामा जी की इकलौती बटी मुन्नी जीजी का ब्याह है। ब्याह की तैयारियाँ शुरू हो गईं। माँ को और सरदार को नए कपड़े दिलाए गए। नए कपड़ों में एक फुल पेंट भी थी। वह तुरंत उसे पहनना चाहता था। पर माँ ने मना कर दिया। इस से ब्याह तक तो पेंट पुरानी हो जाएगी। पेंट बक्से में बंद हो गई। सरदार पेंट को अपने अंदर रखे बक्से को हसरत से देखता रहता। [अगले मंगलवार भी जारी]
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15 कमेंट्स:
साहित्य देखना हो तो ब्लॉग पढ़ॉ। अब मैं यह बेहिचक कह सकता हूँ। ग़जब की रवानी है ! इसे छ्पवाइये।
अगले मंगलवार तक का सब्र करना पड़ेगा । पैंट पहनने की तीव्र इच्छा बालमन का सहज स्वभाव प्रदर्शित करती है । कब पहनना हुआ, यह तो अगले मंगलवार तक के लिये स्थगित ।
आभार ।
दीनेश भाई जी आपने बहुत ही बढिया सँस्मरण लिखा है - मेरी भी राय है आप इसे छपवायेँ
- लावण्या
पसंद आया ,अगली कड़ी की भी प्रतीक्षा है .
बहुत दिल्चस्प बहाव है. शुभकामनाएं.
रामराम.
वकील साब की तारीफ़ के लिये शब्द नही है मेरे पास्।शुद्ध लेखन और ईमानदार लेखन्।
बहुत ही रोचक संस्मरण |
एक बात है ,गाँव se जुडे सस्मरण में इतनी आत्मीयता क्यों होती है ?
बहुत सुन्दर पोस्ट
बधाई
रोचक संस्मरण.
सफर अच्छा चल रहा है।
बचपन सबने जिया होता है, पर संस्मरणों को तरतीबवार याद करना और उन्हें झाड़-पोंछ कर सजाना महत्वपूर्ण है। ऐसा करते हुए बासी स्मृतियों के नए आयाम खुलते हैं। कुछ संदर्भ बेहतर रुप में रिफ्रेश होते हैं, कुछ नए विश्लेषण भी जुड़ते हैं। कई यादें खुशनुमा रूप में फिर सुरक्षित हो जाती हैं। मेरे साथ ऐसा होता है...
बढ़िया श्रंखला चल रही है दिनेश भाई...
बढिया सँस्मरण लिखा है।अगली कड़ी की भी प्रतीक्षा है .
रोचक रहा यह ..बहुत बढ़िया लिख रहे हैं आप
बाकलम खुद के द्वारा सरदार का सफ़र बांधे हुए है बहुत ही रोचक
कहते हैं शब्द हो तो बहते पानी जैसा , इसे पढ़कर बस यह कहना ही सही प्रतीत हो रहा है .
अगली किश्त की प्रतीक्षा बेसब्री से रहेगी
Very Interesting documnt of the customs nd rituals of goo old days !
प्रेम वहीं छूट गयी! ये होता है नुकसान जगह बदलने का।
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