दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही सफर के पंद्रहवें पड़ाव और नवासीवें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
ब ताते-बताते सरदार चूक गया। मुन्नी जिज्जी का ब्याह तो अगले साल जब वह तीसरी पास कर चुका था तब हुआ था। उस साल तो गर्मी में मोहन चाचाजी का ब्याह हुआ था और उस से पहले सर्दी में मुंडन भी हो चुका था। राखी के दूसरे दिन जब उस का पांचवां जन्म दिन था तभी दाज्जी ने घोषणा कर दी थी कि उस का मुंडन इसी साल होगा। छठे साल में मुंडन नहीं हो सकता। सातवें साल तक बहुत देर हो चुकी होगी। इतनी उम्र तक तक गर्भ के बाल रखना ठीक नहीं है। संक्रांति के बाद मुंडन का मुहूर्त तय हो गया। बारां से कोई सौ किलोमीटर उत्तर में पीपल्दा तहसील का डूंगरली ग्राम, जहाँ कोई सोलह फुट ऊंचे एक चबूतरे पर हनुमान जी की आदमकद मूर्ति थी। यहीं मुण्डन होना था। वहाँ तक जाने के लिए पीपल्दा के आगे सड़क नहीं थी। आगे खेतों में हो कर ही जाना होता था। सूखणी नाम की एक बारहमासी नदी बहती थी जो घूम फिर कर पीपल्दा और डूंगरली के बीच तीन बार आ जाती थी। सर्दियों में खेत खाली रहते, जिन में हो कर बस जा सकती थी। बाराँ से वहाँ तक जाने के लिए एक बस ठीक कर ली गई।
सरदार के मन में बहुत कुछ चल रहा था। बचपन से सिर के बाल जूड़े में बंधे रहते थे। जिस ने उसे सरदार बना दिया था। सिख सरदारों की सारी चिढ़ें उसे झेलनी पड़ती थीं। हर कोई कभी भी बारह बजा देता था। पर इस से उसे एक विशिष्टता मिली थी। इस विशिष्टता के कारण बालों से एक तरह का मोह हो गया था। दशहरे पर या जब भी कोई जीवंत झाँकी बनानी होती, तुरंत मेकप कर राम बना दिया जाता। जो उसे अच्छा लगता था। राम उस की सब से प्रिय कहानी के नायक जो थे। अब उन बालों के कटने और सिर गंजा हो जाने के सोच से रुलाई फूट पड़ती थी। लेकिन जब वह दूसरे बच्चों को देखता, तो सब के करीने से कटे हुए अंग्रेजी ढंग के बाल। कोई झंझट नहीं, बस नहाए, बालों को तेल लगाया, कंघी की और झट तैयार। खुद भी नहा सकते थे। अभी तक तो अम्मा या कोई और ही इस काम को करता था। फिर बाल संवार कर जूड़ा बंधवाने के लिए दूसरे के भरोसे। अम्माँ को कोई काम आ गया तो बस बालों को बिखेर कर बैठे रहो। सोचते सोचते सरदार के बालों से विरह की रुलाई रुक जाती। सोचता कि फिर वह भी औरों की तरह दूसरों के भरोसे न रहेगा, अपने बहुत से काम खुद करने लगेगा। आखिर वह दिन नजदीक आ गया।
सुबह ही बस बारां से रवाना हुई, बारह बजते-बजते डूंगरली पहुँच गए। सब से पहले सरदार ने चाचा जी के साथ हनुमान जी के दर्शन किए। हनुमान जी बहुत बड़े थे, एक हाथ कमर पर, दूसरा सिर पर और एक पैर के नीचे कोई उकडूँ हो कर दबा हुआ। जैसे किसी राक्षस को मार कर उस की जीत पर नृत्य कर रहे हों। फिर बुआ उसे मंदिर से नीचे ले आई। वहाँ नाई कैंची ले कर तैयार था। उस क्षण सरदार को नाई उसी राक्षस की तरह लगा जिसे पैर के नीचे दबा हनुमान जी नृत्य कर रहे थे। वहाँ पिता जी के सांगोद के साथी चम्पाराम जी चौबे कैमरा ले कर हाजिर थे। यह कैमरा उन्हें विशिष्टता प्रदान करता था। सरदार से विशेष स्नेह के कारण वे उस के हर जन्मदिन पर बाराँ आते थे। उन्हों ने बुआ के साथ एक फोटो खेंचा। उस के बाद नाई ने बिठा कर कैंची से सारे बाल उतार डाले। बाद में
ब्लागजगत के वकीलसाब बचपन में सरदार थे। सफर के पाठकों के लिए उन्होंने कुछ खास चित्र भेजे हैं।
बुआ ने सिर पर गीली हल्दी का लेप कर दिया।
हनुमान जी की पूजा की गई, हवन हुआ और उस के बाद साथ आए सभी मेहमानों ने सरदार को कपड़े पहनाए। उन में एक मखमल का पाजामा, मेहरून रंग का कोट था और गोल टोपी थी। तीनों पर सलमे-सितारे जड़े थे। वह कीमती पोशाक वहाँ से दो किलोमीटर दूर स्थित खेड़ली-बैरीसाल की जागीर के जमींदार के यहाँ से आई थी, जिन्हें इलाके के लोग राजा साहब कहते थे। सरदार के परदादा राजा के पुरोहित थे। दादा जी के एक रिश्ते के भाई अब भी यही काम करते थे। वह पोशाक सरदार को पहना दी गई, बालों की विदाई का सारा रंज जाता रहा। इस के बाद भोजन शुरू हो गया जिस के निपटते निपटते रात हो गई। कोई नौ बजे बस वापस रवाना हुई। सड़क तो थी नहीं ऊपर से रात का अंधेरा। बस खेतों में रास्ता भूल गई। जिधर जाती उधर सूखणी नदी आ जाती और उसे पार करने का रास्ता नदारद। थक हार कर ईंधन समाप्त होने के भय से बस को खड़ा कर दिया गया। सुबह जब प्रकाश होने लगा तो रास्ता तलाश कर बस ने पीपल्दा पहुँच कर सड़क पकड़ी। दोपहर होते-होते बारां पहुँचे।
केश विदा हो चुके थे। लेकिन सर गंजा हो गया था। नाई ने इस बेतरतीबी से उन्हें काटा था कि कहीं बाल दिखते थे तो कहीं गंजा सिर, हाथ बार-बार सिर पर जाता। दो दिन बाद दाज्जी की निगाह उन पर पड़ गई थी। दोपहर में नाई को बुलवा कर सिर पर उस्तरा चलवा दिया। जिस से सर बिलकुल साफ हो गए। गंजा सिर अच्छा नहीं लगता था तो सरदार अक्सर टोपी पहने रहता। गर्मियों में मोहन चाचा जी की शादी आ गई। बारात कोटा जानी थी। होने वाली चाची चाचा की तरह ही बीए पास थी। सरदार को यह अच्छा लग रहा था। ‘बा’ तो बिलकुल अनपढ़ थीं। अम्मा भी चार कक्षा ही पढ़ी थी। दादा जी भी बहुत प्रसन्न थे, उन्हें पढ़े लिखे लोग बहुत अच्छे लगते थे। वे लोगों को कहते -मोहन की लाडी (दुल्हन) बी.ए. का इम्तहान दे रही है। बारात में कोटा पहली बार देखा। वहाँ जगह-जगह पानी के खूबसूरत नल देखे, जिन से चौबीसों घंटे पानी आता। बारात नगर बीच की सुंदर धर्मशाला में दो दिन रुकी। पास ही चाची का घर था।
शादी हो गई, चाची आ गई। वह बहुत गोरी और सुंदर थीं। सरदार को बहुत प्यार से बुलाती, बात करतीं। सरदार भी बस हर दम चाची-चाची कहते उन के ही साथ चिपका रहता। इतना कि उन्हें और चाचा को परेशानी भी होने लगती। तभी अम्माँ या दादी सरदार को बुला कर ले जातीं किसी और खेल में लगा देतीं। चाचा ने कहीं से तीसरी कक्षा की पुस्तकें ला कर सरदार को दे दी। सरदार को उन्हें पढ़ने में मजा आ रहा था। गर्मियाँ बीतते बीतते उस ने हिन्दी, सामाजिक ज्ञान और विज्ञान की पुस्तकें पढ़ डालीं थीं। उन में कुछ समझ में आया था और कुछ नहीं आया। हाँ गणित की किताब के अधिकतर सवाल उस ने खुद हल कर डाले थे। जो नहीं आ रहे थे उन्हें दाज्जी ने हल करवा दिया था। स्कूल खुलने के दिन आ गए थे। अगले मंगलवार भी जारी
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16 कमेंट्स:
वाह भई असरदार सरदार
बहुत बढ़िया संस्मरण. साथ-साथ पढ़ रहे थे कि स्कूल खुलने के दिन आ गए. आजकल भी वही समय चल रहा है वैसे तो...
दिलचस्प वर्णन....आगे की कड़ी का इंतज़ार....
नीरज
बचपन के दिन कैसे पूरे जीवन की आधारशिला बन जाते हैं -यह दीखने लगा है !
आज ही सारी कड़ियाँ पढी. 'सरदार' की दास्तान अद्भुत है. आगे की कड़ी का इंतजार रहेगा.
्रोचक दास्ताँ अगली कडी का इन्तज़ार रहेगा आभार्
जल्दी से पूरा पढना चाहता हूँ सरदार के जीवन यात्रा को
संस्मरण रोचक और जानदार है।
संस्मरण सुनाने का बहुत रोचक अंदाज है.
अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा.
मजा आ गया दिनेश जी की बचपन गाथा जान कर.
बहुत बढिया लिखा है ..
अगली कडी का इँतज़ार बना रहेगा जी
- लावण्या
माननीय द्विवेदी जी से क्षमायाचना सहित।
वो जो बाल मुंडन में गए थे लगता है अभी तक नदारद हैं।
संस्मरण रोचक के साथ सोचक भी है। अगली किश्त का इंतजार रहेगा। पर आप यह खंड खंड विखंडन क्यों करते हैं, एक बार में ही पढ़वा देते। अगली किश्त जब पढ़ेंगे तो इसे भी दोबारा पढ़ना होगा।
जोरदार सरदार
बचपन मे जो सरदार होता है वह बडा होकर असरदार हो जाता है और जो बचपन मे ही असरदार हो वो ?
behad rochak sasmarn bhasha sheeli bandhe rkhti hai agli kdi ka intjar rhega .
मूंढ दिये गये सरदार जी।
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