पिछली कड़ी> मुंडन और चाचा की शादी से आगे>
दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के पंद्रहवें पड़ाव और नब्बे-वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
ब रसात आरंभ हो गई, जुलाई शुरु होते ही दाज्जी ने पंचांग में देख कर तय किया कि सरदार का किस दिन स्कूल में दाखिला करवाना है। उस दिन छुट्टी ले कर पिताजी बाराँ में ही रहे, सांगोद न गए। स्कूल के अधिकतर अध्यापक पिताजी के छात्र थे। तीसरी क्लास में नाम लिखवा दिया गया, सरदार स्कूल जाने लगा। यहाँ नाम बदल कर दिनेश हो गया था, जो जन्म नक्षत्र के हिसाब से था। उस ने अब तक पढ़ने का काम तो खूब किया था, लेकिन कभी कागज-कॉपी में न लिखा था। अब तक बर्रू की कलम और चॉक बत्ती ही लिखने के औजार थे। लकड़ी की तख्ती को मुलतानी मिट्टी से रोज पोता जाता, सूख जाने पर वह खूब चमकने लगती। उस पर अम्माँ या बाबू-चाचा पेंसिल से लाइनें खींचते, फिर बर्रू की कलम से उस पर सुलेख लिखी जाती। इस के अलावा सारा काम स्लेट पर बत्ती से किया जाता।
पहले ही सप्ताह के अंत में मास्साब ने हुक्म दे दिया कि बाजार से कॉपी लानी है, निब वाली होल्डर लानी है और हिन्दी की किताब के पहले पाठ की नकल खूबसूरत लिखावट में कॉपी के पन्ने पर कर के लानी है सोमवार को दिखानी है। सरदार ने हुक्म मंदिर पहुँच कर दाज्जी को सुना दिया। दाज्जी को हुक्म पसंद नहीं आया। उन के हिसाब से पाँचवीं तक तो स्लेट-बत्ती, तख्ती और कलम ही पर्याप्त थे। कागज जैसे हिलते-डुलते ढुलमुल स्थान पर होल्डर से लिखना हस्तलिपि को सुंदर बनाने में अच्छा खासा रोड़ा था। उन्हों ने कहा नन्दकिशोर (पिताजी) आएगा, वह कॉपी, होल्डर, दवात, स्याही दिला लाएगा। सरदार को भी मौज हो गई। उसे लिखने में वैसे ही आलस आता था। किस्मत से उस शनिवार पिताजी सांगोद से न आए। रविवार निकला और सरदार बिना कॉपी के ही स्कूल पहुँचा। प्रार्थना समाप्त हुई और कक्षा शुरू। मास्साब ने आते ही कॉपी दिखाने को कहा। सब बच्चे कॉपी ले कर आए थे। सब ने कुछ न कुछ कॉपी में लिखा था। सरदार की बारी आई तो उस ने सीधे से कहा कि उस ने दाज्जी से कहा था, जिन्हों ने पिताजी के आने पर कॉपी-कलम लाने को कहा था। पिताजी आए नहीं, इस लिए कॉपी न आई। मास्साब गुस्सा गए, दाहिना हाथ चला और सीधे सरदार के बाएँ गाल पर जोर की आवाज के साथ टकराया। सरदार का सिर घूम गया, कुछ देर तक कुछ भी दिखाई न दिया, अंदर की साँस अन्दर और बाहर की बाहर रह गई। वह हिचकियाँ खाने लगा। रुलाई फूटने वाली थी, पर उस ने उसे रोक लिया। जैसे-तैसे सांस मुकाम पर आई तो गाल जलने लगा। वह समझ ही नहीं पा रहा था कि उस से क्या गलती हुई थी? जिस की सजा उसे मिली। तभी मास्साब का हुक्म हुआ –बस्ता उठाओ, घर जाओ। जब कॉपी-होल्डर आ जाएं, तब कॉपी में नकल कर लो तभी स्कूल आना सरदार ने बस्ता उठाया और स्कूल के बाहर आ कर जी भर रो-कर खुद को हलका किया।
मंदिर पहुँचा तो दाज्जी ने उसे रुआँसे चेहरे के साथ बस्ता उठाए आते देख लिया। वे मंदिर के अपने काम को छोड़, सीधे सरदार के पास आए। उस का चेहरा देखा तो गाल पर पांचों उंगलियों की सुर्ख छाप मौजूद थी। उन्हें कारण बताया, तो वे तुरंत अपनी हाड़ौती बोली में मास्टर को शापित करने लगे। उधर बा’ ने देखा तो वह रोने लगी और स्कूल को ही कोसने लगी। उन के हिसाब से इतनी छोटी उम्र में सरदार को स्कूल भेजना ही गलत था। रहा सवाल पढ़ाई का तो वह तो हो ही रही थी। स्कूल से भी तेज गति से। तभी पिताजी भी आ पहुँचे। उन्हें स्कूल के किसी काम से कोटा जाना पड़ा था और लौटते में घर संभालने आ गए थे। उन्हों ने सरदार को देखा, फिर देखा अपने पिता को मास्साब को शापित करते और फिर अपनी माँ को रोते हुए। अब तो मामला उन की भी बरदाश्त के बाहर था। वे अपने पिता जी को गुस्सा होते तो देख सकते थे लेकिन माँ का रोना? उन्हें किसी हाल में बर्दाश्त न था। वे तुरंत सरदार को ले स्कूल जा पहुँचे। स्कूल के प्रवेश द्वार के ठीक सामने कक्षा थी वहीं मास्साब से उन का मुकाबला हो गया।
अच्छा,
मुंडन के ठीक पहले बुआ के साथ सरदार
तुम पढ़ाते हो तीसरी कक्षा!!! पिताजी सीधे मास्साब से मुखातिब थे। यह प्रश्न था, या संज्ञान, यह सरदार को पता नहीं लगा। -तुम्हें हमने यही सिखाया था। तुम ने तो बीएसटीसी ट्रेनिंग भी की है। वहाँ यही सब सिखाया गया था? कि बच्चों से इसी तरह निपटा करो। तुम जैसे अध्यापकों के कारण ही अपने बच्चों को माँ-बाप स्कूल नहीं भेजते। गुस्से में पिताजी की आवाज बहुत तेज होती थी। सब मास्टर अपनी-अपनी कक्षाओं से निकल कर पिताजी को तीसरी कक्षा के मास्साब को डाँटते हुए देखने लगे। किसी को साहस न हुआ कि बीच में कुछ बोले। तभी दुमंजिले पर स्थित दफ्तर से हेड मास्साब उतरे और नरमी से पिताजी को समझा कर अपने दफ्तर में ले गए और तीसरी कक्षा के मास्साब को आने को कहा। सरदार अपना बस्ता लिए कक्षा के बरांडे के नीचे मैदान में खड़ा रहा। कई छात्रों ने उसे कक्षा में आ कर बैठने को कहा भी। लेकिन वह बिना मास्साब के कहे, दो सीढ़ी चढ़ कर कक्षा में जाने को तैयार न था। कुछ देर हेड मास्टर जी के दफ्तर में शिखर वार्ता हुई। फिर तीनों नीचे उतरे। सरदार को मास्साब ने कक्षा में बैठने को कहा तो वह कक्षा में चला गया।
नया हुक्म जारी हुआ कि अभी कुछ दिन किसी को कॉपी में लिखने की जरूरत नहीं। सब कुछ स्लेट-बत्ती और तख्ती-कलम से ही होगा। फिर हेड मास्साब के कहने पर सरदार को कक्षा से बुलाया और पिताजी उसे अपने साथ ले कर मंदिर आ गए। पिता जी ने उसी दिन एक के स्थान पर दो चौसठ पृष्ठ वाली कैपीटल कॉपियाँ, एक निब वाला होल्डर, एक दवात और कुछ नीली स्याही की टिकड़ियाँ ला कर दीं। बताया गया कि कैसे टिकड़ी को पानी में घोल कर स्याही बनानी है? और कैसे निब वाली होल्डर से कॉपी पर लिखना है? एक कॉपी तुरंत सरदार को अभ्यास के लिए दे दी गई। दूसरी दाज्जी ने संभाल कर रख ली, स्कूल में कहे जाने पर स्कूल का काम करने के लिए। कक्षा में कॉपी का प्रचलन फिर दो माह बाद ही हुआ। स्कूल में हिन्दी और गणित ही पढ़ाई जाती। सामान्य विज्ञान और सामाजिक ज्ञान की पुस्तकें तो थीं, लेकिन सिर्फ पढ़ने और जानकारी के लिए। उस की न कोई लिखाई होनी थी और न कोई परीक्षा। बस सप्ताह में एक-दो बार मौखिक सवाल पूछ लिए जाते। दीवाली तक ही इस स्कूल में जाना हुआ। उस के बाद तो सरदार पिताजी के साथ वापस सांगोद आ गया।
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17 कमेंट्स:
jai ho !
भई, ऐसा झन्नाटेदार चाँटा तो हमें भी अपने बचपन से याद है..सभी खाये होंगे उस जमाने के तो. मस्त रहा.
अच्छा संस्मरण है।
बधाई।
मुझे अपने प्राईमरी के दिन की बचपन की यादे आ गयीं !
थर्ड पर्सन में वृत्तांत की यह उपयुक्त संस्मरणात्मक शैली है
बढ़िया रोचक प्रस्तुति ।
अगर वाकई कोई गलत बातों और गलत लोगों से टकराता है तो उसे कुछ न्याय तो मिलता ही है।
संस्मरण रोचक है.
बहुत पीटे हैं अपन भी,बचपन मे।पु्रानी यादों का रिकार्ड अप-टू-डेट है वकील साब का।
वाकई में अपने स्कूल की याद दिला दी आपने !
अजित जी ये संमरण मजेदार है ...बचपन में बड़े भाई के हाथों हमने भी चांटा खाया था ...स्कूल का कोट ना पहनने की जिद में ....सर्वोत्तम ...
अच्छा संस्मरण वचपन में ले जाता है.बधाई.
कलम से हिंदी और निब होल्डर से अंग्रेजी लिखवाई जाती थी हमें . और पिटाई यह तो रोज़ का ही काम था
शैशव का रसपूर्ण वर्णन ग्रहण किया जा रहा है ।
Bahot achcha raha puranee yaadon ko yun hee
prastut kijiye
बचपन की यादें... अच्छी चल रही है. अगले स्कूल के किस्सों का इंतज़ार रहेगा.
आजकल तो टीचर हाथ भर लगा दे स्कूल में हडताल हो जाती है अखबारों मे छप जाता है बहरहाल लिखने वाला प्रसंग अच्छा लगा मेरी भी लिखावट (अच्छी) का राज़ यही है
बहुत तब्दीलियाँ आ गयीं तब से अब तक | क्या शिक्षक क्या अभिभावक क्या छात्र और क्या शिक्षा ! शैली से लेकर सोच तक सब कुछ बदल गया | स्लेट बत्ती बर्रू टाटपट्टी पेडों की छांव मास्साब , ये सब इतिहास हो गए | अब तो सुविधासम्पन्नता भागदौड़ अंग्रेजी दासता और अभिभावकों की महत्वाकांक्षा सब कुछ मिल कर बचपन, बचपन ही न रहा कि रोचक किस्से बनें |
शैली में अद्भुत लालित्य है | प्रौढ़ता की दहलीज़ पर पहुंचे लोग कही खुद को भी पात्र के रूप में पा रहे होंगे |
मुझे यह पढ़कर अपनी दीदी के साथ हुई एक घटना याद आ गई.. दीदी को किसी कारण से स्कूल के एक मास्टर ने छड़ी से इतनी जोड़ से मारा कि दीदी से 4-5 दिनों तक चला भी नहीं गया.. दीदी उस समय मात्र 6 साल की थी.. पापाजी कि साख उस शहर में बहुत थी और वह मास्टर नहीं जानता था कि जिसे उसने मारा था वह किसकी बेटी है.. पापाजी ऐसे तो बहुत शांत स्वभाव के हैं मगर जब कभी बच्चों के साथ ऐसा होता है तो आपा खो देते है, कुछ वैसा ही उस समय भी हुआ और स्कूल जाकर हेडमास्टर को जम कर फटकार लगायी.. जब स्कूल पर केस करने की बात पापाजी ने कही तब हेड मास्टर ने उस मास्टर को नौकरी से निकाल दिया, तब कहीं जाकर पापाजी का गुस्सा शांत हुआ था..
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