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प्रस्तुतकर्ता
अजित वडनेरकर
पर
3:55 AM
 
 
 बहुत शोधपरक, उपयोगी और महत्वपूर्ण जानकारियां। हिंदी में इतनी संलग्नता के साथ ऐसा परिश्रम करने वाले विरले ही होंगे।
बहुत शोधपरक, उपयोगी और महत्वपूर्ण जानकारियां। हिंदी में इतनी संलग्नता के साथ ऐसा परिश्रम करने वाले विरले ही होंगे। 'शब्दों का सफर' मुझे व्यक्तिगत रूप से हिन्दी का सबसे समृद्ध और श्रमसाध्य ब्लॉग लगता रहा है।
'शब्दों का सफर' मुझे व्यक्तिगत रूप से हिन्दी का सबसे समृद्ध और श्रमसाध्य ब्लॉग लगता रहा है।
 आप के समर्पण और लगन के लिए मेरे पास ढेर सारी प्रशंसा है और काफ़ी सारी ईर्ष्या भी।
 आप के समर्पण और लगन के लिए मेरे पास ढेर सारी प्रशंसा है और काफ़ी सारी ईर्ष्या भी। सच कहूँ ,ब्लॉग-जगत का सूर और ससी ही है शब्दों का सफ़र . बधाई.... अंतर्मन से
सच कहूँ ,ब्लॉग-जगत का सूर और ससी ही है शब्दों का सफ़र . बधाई.... अंतर्मन से  लिखते रहें. यह मेरे इष्ट चिट्ठों मे से एक है क्योंकि आप काफी उपयोगी जानकारी दे रहे हैं.
लिखते रहें. यह मेरे इष्ट चिट्ठों मे से एक है क्योंकि आप काफी उपयोगी जानकारी दे रहे हैं. थोड़े में कितना कुछ कह जाते हैं आप. आपके ब्लाँग का नियमित पारायण कर रहा हूं और शब्दों की दुनिया से नया राब्ता बन रहा है.
थोड़े में कितना कुछ कह जाते हैं आप. आपके ब्लाँग का नियमित पारायण कर रहा हूं और शब्दों की दुनिया से नया राब्ता बन रहा है. आपकी मेहनत कमाल की है। आपका ये ब्लॉग प्रकाशित होने वाली सामग्री से अटा पड़ा है - आप इसे छपाइये !
आपकी मेहनत कमाल की है। आपका ये ब्लॉग प्रकाशित होने वाली सामग्री से अटा पड़ा है - आप इसे छपाइये ! मुझे सबसे उल्लेखनीय बात लगती है, पहले से ही सजीली भाषा में अभिव्यक्ति और अर्थवत्ता के अनोखे गुण का विकास। आपके ब्लॉग में रोचकता भी है और सूचनारंजन भी। मंसूर अली   हाशमी
मुझे सबसे उल्लेखनीय बात लगती है, पहले से ही सजीली भाषा में अभिव्यक्ति और अर्थवत्ता के अनोखे गुण का विकास। आपके ब्लॉग में रोचकता भी है और सूचनारंजन भी। मंसूर अली   हाशमी
 बेहतरीन उपलब्धि है   आपका ब्लाग! मैं आपकी इस बात की तारीफ़ करता हूं और जबरदस्त जलन भी रखता हूं   कि आप अपनी पोस्ट इतने अच्छे से मय समुचित फोटो ,कैसे लिख लेते हैं.
बेहतरीन उपलब्धि है   आपका ब्लाग! मैं आपकी इस बात की तारीफ़ करता हूं और जबरदस्त जलन भी रखता हूं   कि आप अपनी पोस्ट इतने अच्छे से मय समुचित फोटो ,कैसे लिख लेते हैं. सोमाद्रि
सोमाद्रि  इस सफर में आकर सब कुछ  सरल और सहज लगने लगता है। बस, ऐसे ही बनाये रखिये. आपको शायद अंदाजा न हो  कि आप कितने कितने साधुवाद के पात्र हैं.
इस सफर में आकर सब कुछ  सरल और सहज लगने लगता है। बस, ऐसे ही बनाये रखिये. आपको शायद अंदाजा न हो  कि आप कितने कितने साधुवाद के पात्र हैं.
 शब्दों का सफर मेरी  सर्वोच्च बुकमार्क पसंद है -मैं इसे नियमित पढ़ता हूँ और आनंद विभोर होता  हूँ !आपकी ये पहल हिन्दी चिट्ठाजगत मे सदैव याद रखी जायेगी.
शब्दों का सफर मेरी  सर्वोच्च बुकमार्क पसंद है -मैं इसे नियमित पढ़ता हूँ और आनंद विभोर होता  हूँ !आपकी ये पहल हिन्दी चिट्ठाजगत मे सदैव याद रखी जायेगी. भाषिक विकास के साथ-साथ आप शब्दों के सामाजिक योगदान और समाज में उनके स्थान का वर्णन भी बडी सुन्दरता से कर रहे हैं।आपको पढना सुखद लगता है।
भाषिक विकास के साथ-साथ आप शब्दों के सामाजिक योगदान और समाज में उनके स्थान का वर्णन भी बडी सुन्दरता से कर रहे हैं।आपको पढना सुखद लगता है। आपकी मेहनत को कैसे सराहूं। बस, लोगों के बीच आपके ब्लाग की चर्चा करता रहता हूं। आपका ढिंढोरची बन गया हूं। व्यक्तिगत रूप से तो मैं रोजाना ऋणी होता ही हूं.
आपकी मेहनत को कैसे सराहूं। बस, लोगों के बीच आपके ब्लाग की चर्चा करता रहता हूं। आपका ढिंढोरची बन गया हूं। व्यक्तिगत रूप से तो मैं रोजाना ऋणी होता ही हूं. आपकी पोस्ट पढ़ने में थोड़ा धैर्य दिखाना पड़ता है. पर पढ़ने पर जो ज्ञानवर्धन होताहै,वह बहुत आनन्ददायक होता है.
आपकी पोस्ट पढ़ने में थोड़ा धैर्य दिखाना पड़ता है. पर पढ़ने पर जो ज्ञानवर्धन होताहै,वह बहुत आनन्ददायक होता है. किसी हिन्दी चिट्ठे को मैं ब्लागजगत में अगर हमेशा जिन्दा देखना चाहूंगा, तो वो यही होगा-शब्दों का सफर.
किसी हिन्दी चिट्ठे को मैं ब्लागजगत में अगर हमेशा जिन्दा देखना चाहूंगा, तो वो यही होगा-शब्दों का सफर. निश्चित ही हिन्दी ब्लागिंग में आपका ब्लाग  महत्वपूर्ण  है. जहां भाषा विज्ञान पर मह्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध रह्ती है.
निश्चित ही हिन्दी ब्लागिंग में आपका ब्लाग  महत्वपूर्ण  है. जहां भाषा विज्ञान पर मह्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध रह्ती है. 
 good,innovative   explanation of well known words look easy but it is an experts job.My   heartly best wishes.
good,innovative   explanation of well known words look easy but it is an experts job.My   heartly best wishes. चयन करते हैं, जिनके अर्थ को लेकर लोकमानस में जिज्ञासा हो सकती हो। फिर वे उस शब्द की धातु, उस धातु के अर्थ और अर्थ की विविध भंगिमाओं तक पहुँचते हैं। फिर वे समानार्थी शब्दों की तलाश करते हुए विविध कोनों से उनका परीक्षण करते हैं. फिर उनकी तलाश शब्द के तद्भव रूपों तक पहुंचती है और उन तद्बवों की अर्थ-छायाओं में परिभ्रमण करती है। फिर अजित अपने भाषा-परिवार से बाहर निकलकर इतर भाषाओँ और भाषा-परिवारों में जा पहुँचते हैं। वहां उन देशों की सांस्कृतिक पृष्टभूमि में सम्बंधित शब्द का परीक्षणकर, पुनः समष्टिमूलक वैश्विक परिदृश्य का निर्माण कर देते हैं। यह सब रचनाकार की प्रतिभा और उसके अध्यवसाय के मणिकांचन योग से ही संभव हो सका है। व्युत्पत्तिविज्ञान की एक नयी और अनूठी समग्र शैली सामने आई है।
 चयन करते हैं, जिनके अर्थ को लेकर लोकमानस में जिज्ञासा हो सकती हो। फिर वे उस शब्द की धातु, उस धातु के अर्थ और अर्थ की विविध भंगिमाओं तक पहुँचते हैं। फिर वे समानार्थी शब्दों की तलाश करते हुए विविध कोनों से उनका परीक्षण करते हैं. फिर उनकी तलाश शब्द के तद्भव रूपों तक पहुंचती है और उन तद्बवों की अर्थ-छायाओं में परिभ्रमण करती है। फिर अजित अपने भाषा-परिवार से बाहर निकलकर इतर भाषाओँ और भाषा-परिवारों में जा पहुँचते हैं। वहां उन देशों की सांस्कृतिक पृष्टभूमि में सम्बंधित शब्द का परीक्षणकर, पुनः समष्टिमूलक वैश्विक परिदृश्य का निर्माण कर देते हैं। यह सब रचनाकार की प्रतिभा और उसके अध्यवसाय के मणिकांचन योग से ही संभव हो सका है। व्युत्पत्तिविज्ञान की एक नयी और अनूठी समग्र शैली सामने आई है।
16.चंद्रभूषण-
[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8 .9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26.]
 15.दिनेशराय द्विवेदी-[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22.]
15.दिनेशराय द्विवेदी-[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22.]
13.रंजना भाटिया-
12.अभिषेक ओझा-
[1. 2. 3.4.5 .6 .7 .8 .9 . 10]
11.प्रभाकर पाण्डेय-
10.हर्षवर्धन-
9.अरुण अरोरा-
8.बेजी-
7. अफ़लातून-
6.शिवकुमार मिश्र -
5.मीनाक्षी-
4.काकेश-
3.लावण्या शाह-
1.अनिताकुमार-
 शब्दों के प्रति लापरवाही से भरे इस दौर में हर शब्द को अर्थविहीन बनाने का चलन आम हो गया है। इस्तेमाल किए जाने भर के लिए ही शब्दों का वाक्यों के बाच में आना जाना हो रहा है, खासकर पत्रारिता ने सरल शब्दों के चुनाव क क्रम में कई सारे शब्दों को हमेशा के लिए स्मृति से बाहर कर दिया। जो बोला जाता है वही तो लिखा जाएगा। तभी तो सर्वजन से संवाद होगा। लेकिन क्या जो बोला जा रहा है, वही अर्थसहित समझ लिया जा रहा है ? उर्दू का एक शब्द है  खुलासा । इसका असली अर्थ और इस्तेमाल के संदर्भ की दूरी को कोई नहीं पाट सका। इसीलिए बीस साल से पत्रकारिता में लगा एक शख्स शब्दों का साथी बन गया है। वो शब्दों के साथ सफर पर निकला है। अजित वडनेरकर। ब्लॉग का पता है http://shabdavali.blogspot.com दो साल से चल रहे इस ब्लॉग पर जाते ही तमाम तरह के शब्द अपने पूरे खानदान और अड़ोसी-पड़ोसी के साथ मौजूद होते हैं। मसलन संस्कृत से आया ऊन अकेला नहीं है। वह ऊर्ण से तो बना है, लेकिन उसके खानदान में उरा (भेड़), उरन (भेड़) ऊर्णायु (भेड़), ऊर्णु (छिपाना)आदि भी हैं । इन तमाम शब्दों का अर्थ है ढांकना या छिपाना। एक भेड़ जिस तरह से अपने बालों से छिपी रहती है, उसी तरह अपने शरीर को छुपाना या ढांकना। और जिन बालों को आप दिन भर संवारते हैं वह तो संस्कृत-हिंदी का नहीं बल्कि हिब्रू से आया है। जिनके बाल नहीं होते, उन्हें समझना चाहिए कि बाल मेसोपोटामिया की सभ्यता के धूलकणों में लौट गया है। गंजे लोगों को गर्व करना चाहिए। इससे पहले कि आप इस जानकारी पर हैरान हों अजित वडनेरकर बताते हैं कि जिस नी धातु से नैन शब्द शब्द का उद्गम हुआ है, उसी से न्याय का भी हुआ है। संस्कृत में अरबी जबां और वहां से हिंदी-उर्दू में आए रकम शब्द का मतलब सिर्फ नगद नहीं बल्कि लोहा भी है। रुक्कम से बना रकम जसका मतलब होता है सोना या लोहा । कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी का नाम भी इस रुक्म से बना है जिससे आप रकम का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे तमाम शब्दों का यह संग्रहालय कमाल का लगता है। इस ब्लॉग के पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी अजब -गजब हैं। रवि रतलामी लिखते हैं कि किसी हिंदी चिट्ठे को हमेशा के लिए जिंदा देखना चाहेंगे तो वह है शब्दों का सफर । अजित वडनेरकर अपने बारे में बताते हुए लिखते हैं कि शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नज़रिया अलग अलग होता है। मैं भाषाविज्ञानी नहीं हूं, लेकिन जज्बा उत्पति की तलाश में निकलें तो शब्दों का एक दिलचस्प सफर नजर आता है। अजित की विनम्रता जायज़ भी है और ज़रूरी भी है क्योंकि शब्दों को बटोरने का काम आप दंभ के साथ तो नहीं कर सकते। इसीलिए वे इनके साथ घूमते-फिरते हैं। घूमना-फिरना भी तो यही है कि जो आपका नहीं है, आप उसे देखने- जानने की कोशिश करते हैं। वरना कम लोगों को याद होगा कि मुहावरा अरबी शब्द हौर से आया है, जिसका अर्थ होता है परस्पर वार्तालाप, संवाद । शब्दों को लेकर जब बहस होती है तो यह ब्लॉग और दिलचस्प होने लगता है। दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के नोएडा का एक लोकप्रिय लैंडमार्क है- अट्टा बाजार। इसके बारे में एक ब्लॉगर साथी अजित वडनेरकर को बताता है कि इसका नाम अट्टापीर के कारण अट्टा बाजार है, लेकिन अजित बताते हैं कि अट्ट से ही बना अड्डा । अट्ट में ऊंचाई, जमना, अटना जैसे भाव हैं, लेकिन अट्टा का मतलब तो बाजार होता है। अट्टा बाजार । तो पहले से बाजार है उसके पीछे एक और बाजार । बाजार के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द हाट भी अट्टा से ही आया है। इसलिए हो सकता है कि अट्टापीर का नामकरण भी अट्ट या अड्डे से हुआ हो। बात कहां से कहा पहुंच जाती है। बल्कि शब्दों के पीछे-पीछे अजित पहुंचने लगते हैं। वो शब्दों को भारी-भरकम बताकर उन्हें ओबेसिटी के मरीज की तरह खारिज नहीं करते। उनका वज़न कम कर दिमाग में घुसने लायक बना देते हैं। हिंदी ब्लॉगिंग की विविधता से नेटयुग में कमाल की बौद्धिक संपदा बनती जा रही है। टीवी पत्रकारिता में इन दिनों अनुप्रास और युग्म शब्दों की भरमार है। जो सुनने में ठीक लगे और दिखने में आक्रामक। रही बात अर्थ की तो इस दौर में सभी अर्थ ही तो ढूंढ़ रहे हैं। इस पत्रकारिता का अर्थ क्या है? अजित ने अपनी गाड़ी सबसे पहले स्टार्ट कर दी और अर्थ ढूंढ़ने निकल पड़े हैं। --रवीशकुमार [लेखक का ब्लाग है http://naisadak.blogspot.com/  ]
 शब्दों के प्रति लापरवाही से भरे इस दौर में हर शब्द को अर्थविहीन बनाने का चलन आम हो गया है। इस्तेमाल किए जाने भर के लिए ही शब्दों का वाक्यों के बाच में आना जाना हो रहा है, खासकर पत्रारिता ने सरल शब्दों के चुनाव क क्रम में कई सारे शब्दों को हमेशा के लिए स्मृति से बाहर कर दिया। जो बोला जाता है वही तो लिखा जाएगा। तभी तो सर्वजन से संवाद होगा। लेकिन क्या जो बोला जा रहा है, वही अर्थसहित समझ लिया जा रहा है ? उर्दू का एक शब्द है  खुलासा । इसका असली अर्थ और इस्तेमाल के संदर्भ की दूरी को कोई नहीं पाट सका। इसीलिए बीस साल से पत्रकारिता में लगा एक शख्स शब्दों का साथी बन गया है। वो शब्दों के साथ सफर पर निकला है। अजित वडनेरकर। ब्लॉग का पता है http://shabdavali.blogspot.com दो साल से चल रहे इस ब्लॉग पर जाते ही तमाम तरह के शब्द अपने पूरे खानदान और अड़ोसी-पड़ोसी के साथ मौजूद होते हैं। मसलन संस्कृत से आया ऊन अकेला नहीं है। वह ऊर्ण से तो बना है, लेकिन उसके खानदान में उरा (भेड़), उरन (भेड़) ऊर्णायु (भेड़), ऊर्णु (छिपाना)आदि भी हैं । इन तमाम शब्दों का अर्थ है ढांकना या छिपाना। एक भेड़ जिस तरह से अपने बालों से छिपी रहती है, उसी तरह अपने शरीर को छुपाना या ढांकना। और जिन बालों को आप दिन भर संवारते हैं वह तो संस्कृत-हिंदी का नहीं बल्कि हिब्रू से आया है। जिनके बाल नहीं होते, उन्हें समझना चाहिए कि बाल मेसोपोटामिया की सभ्यता के धूलकणों में लौट गया है। गंजे लोगों को गर्व करना चाहिए। इससे पहले कि आप इस जानकारी पर हैरान हों अजित वडनेरकर बताते हैं कि जिस नी धातु से नैन शब्द शब्द का उद्गम हुआ है, उसी से न्याय का भी हुआ है। संस्कृत में अरबी जबां और वहां से हिंदी-उर्दू में आए रकम शब्द का मतलब सिर्फ नगद नहीं बल्कि लोहा भी है। रुक्कम से बना रकम जसका मतलब होता है सोना या लोहा । कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी का नाम भी इस रुक्म से बना है जिससे आप रकम का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे तमाम शब्दों का यह संग्रहालय कमाल का लगता है। इस ब्लॉग के पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी अजब -गजब हैं। रवि रतलामी लिखते हैं कि किसी हिंदी चिट्ठे को हमेशा के लिए जिंदा देखना चाहेंगे तो वह है शब्दों का सफर । अजित वडनेरकर अपने बारे में बताते हुए लिखते हैं कि शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नज़रिया अलग अलग होता है। मैं भाषाविज्ञानी नहीं हूं, लेकिन जज्बा उत्पति की तलाश में निकलें तो शब्दों का एक दिलचस्प सफर नजर आता है। अजित की विनम्रता जायज़ भी है और ज़रूरी भी है क्योंकि शब्दों को बटोरने का काम आप दंभ के साथ तो नहीं कर सकते। इसीलिए वे इनके साथ घूमते-फिरते हैं। घूमना-फिरना भी तो यही है कि जो आपका नहीं है, आप उसे देखने- जानने की कोशिश करते हैं। वरना कम लोगों को याद होगा कि मुहावरा अरबी शब्द हौर से आया है, जिसका अर्थ होता है परस्पर वार्तालाप, संवाद । शब्दों को लेकर जब बहस होती है तो यह ब्लॉग और दिलचस्प होने लगता है। दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के नोएडा का एक लोकप्रिय लैंडमार्क है- अट्टा बाजार। इसके बारे में एक ब्लॉगर साथी अजित वडनेरकर को बताता है कि इसका नाम अट्टापीर के कारण अट्टा बाजार है, लेकिन अजित बताते हैं कि अट्ट से ही बना अड्डा । अट्ट में ऊंचाई, जमना, अटना जैसे भाव हैं, लेकिन अट्टा का मतलब तो बाजार होता है। अट्टा बाजार । तो पहले से बाजार है उसके पीछे एक और बाजार । बाजार के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द हाट भी अट्टा से ही आया है। इसलिए हो सकता है कि अट्टापीर का नामकरण भी अट्ट या अड्डे से हुआ हो। बात कहां से कहा पहुंच जाती है। बल्कि शब्दों के पीछे-पीछे अजित पहुंचने लगते हैं। वो शब्दों को भारी-भरकम बताकर उन्हें ओबेसिटी के मरीज की तरह खारिज नहीं करते। उनका वज़न कम कर दिमाग में घुसने लायक बना देते हैं। हिंदी ब्लॉगिंग की विविधता से नेटयुग में कमाल की बौद्धिक संपदा बनती जा रही है। टीवी पत्रकारिता में इन दिनों अनुप्रास और युग्म शब्दों की भरमार है। जो सुनने में ठीक लगे और दिखने में आक्रामक। रही बात अर्थ की तो इस दौर में सभी अर्थ ही तो ढूंढ़ रहे हैं। इस पत्रकारिता का अर्थ क्या है? अजित ने अपनी गाड़ी सबसे पहले स्टार्ट कर दी और अर्थ ढूंढ़ने निकल पड़े हैं। --रवीशकुमार [लेखक का ब्लाग है http://naisadak.blogspot.com/  ] 
मुहावरा अरबी के हौर शब्द से जन्मा है जिसके मायने हैं परस्पर वार्तालाप, संवाद। 
लंबी ज़ुबान -इस बार जानते हैं ज़ुबान को जो देखते हैं कितनी लंबी है और कहां-कहा समायी है। ज़बान यूं तो मुँह में ही समायी रहती है मगर जब चलने लगती है तो मुहावरा बन जाती है । ज़बान चलाना के मायने हुए उद्दंडता के साथ बोलना। ज्यादा चलने से ज़बान पर लगाम हट जाती है और बदतमीज़ी समझी जाती है। इसी तरह जब ज़बान लंबी हो जाती है तो भी मुश्किल । ज़बान लंबी होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है ज़बान दराज़ करदन यानी लंबी जीभ होना अर्थात उद्दंडतापूर्वक बोलना।
दांत खट्टे करना- किसी को मात देने, पराजित करने के अर्थ में अक्सर इस मुहावरे का प्रयोग होता है। दांत किरकिरे होना में भी यही भाव शामिल है। दांत टूटना या दांत तोड़ना भी निरस्त्र हो जाने के अर्थ में प्रयोग होता है। दांत खट्टे होना या दांत खट्टे होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है -दंदां तुर्श करदन
अक्ल गुम होना- हिन्दी में बुद्धि भ्रष्ट होना, या दिमाग काम न करना आदि अर्थों में अक्ल गुम होना मुहावरा खूब चलता है। अक्ल का घास चरने जाना भी दिमाग सही ठिकाने न होने की वजह से होता है। इसे ही अक्ल का ठिकाने न होना भी कहा जाता है। और जब कोई चीज़ ठिकाने न हो तो ठिकाने लगा दी जाती है। जाहिर है ठिकाने लगाने की प्रक्रिया यादगार रहती है। बहरहाल अक्ल गुम होना फारसी मूल का मुहावरा है और अक्ल गुमशुदन के तौर पर इस्तेमाल होता है।
दांतों तले उंगली दबाना - इस मुहावरे का मतलब होता है आश्चर्यचकित होना। डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक इस मुहावरे की आमद हिन्दी में फारसी से हुई है फारसी में इसका रूप है- अंगुश्त ब दन्दां ।
21 कमेंट्स:
ऋग्वेद में विष्णु को कोई स्थान नहीं दिया गया है ,मेरी जानकारी में अग्नि,इन्द्र आदि देवता ही उस दौर के प्रधान देवता थे.
संशोधन: 'गुजराती भक्ति कवियों' के स्थान पर 'गुजराती भक्त कवियों' और 'कर्मकांडों का महत्व बढ़ने पर यह माना जाने लगा कि पुण्यफल तभी मिलेंगे जब विष्णु की उपासना न हो जाए।' के स्थान पर 'कर्मकांडों का महत्व बढ़ने पर यह माना जाने लगा कि पुण्यफल तब तक नहीं मिलेंगे जब तक विष्णु की उपासना न हो जाए।'
सूर्य पूजा से विष्णु पूजा का सीधा सम्बन्ध है। इसके बारे में वृहद चर्चाएँ मुंशी और चतुरसेन साहित्य में भी मिलती हैं। वास्तव में ज्योतिर्लिंगों और शक्ति पीठों की तरह ही प्राचीन काल में सूर्य पूजा के स्थापित केन्द्र थे जो धीरे धीरे बौद्ध धर्म के उत्थान के साथ समाप्त हो गए। परवर्ती विष्णु पूजा परम्परा ने इसे अपने में समाहित कर एकदम समाप्त कर दिया। आज भी जगह जगह सूर्य मन्दिरों के अवशेष मिलते रहते हैं- पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार में। हमारे कुशीनगर जिले में सूर्य की एक सुन्दर नीलम प्रतिमा कुछ वर्षों पहले मिली थी। वहाँ अब एक आधुनिक मन्दिर है जिसका वास्तु किसी भी तरह से प्रतिमा के सौन्दर्य से मेल नहीं खाता।
शैव पूजा का केन्द्र बनने से पहले काशी विष्णु पूजा का केन्द्र थी। पुराणों में शैवों द्वारा काशी को वैष्णवों से छीनने के प्रसंग हैं। गंगा किनारे का प्रसिद्ध बिन्दु माधव मन्दिर पहले सूर्य पूजा का केन्द्र था। एक घाट पर आज भी पुरानी वेधशाला विद्यमान है। बिन्दु माधव मन्दिर को भी बाकी प्रसिद्ध मन्दिरों की तरह ही मुसलमान शासकों ने तोड़ कर मस्जिद बना दिया। आज वहाँ मस्जिद विद्यमान है, जो बिन्दु माधव के इतिहासकारों द्वारा वर्णित भव्यता और सौन्दर्य के ध्वंश जैसी नजर आती है।
हाँ, ऋक् संहिता में 'विष्णु' शब्द का सूर्य के 'अर्थ' में प्रयोग हुआ है। सूर्य पूजा के केन्द्रों के विष्णु मन्दिरों में परिवर्तित हो जाने को इससे समझा जा सकता है।
ऐसे बहुत से दृष्टांत मिलते हैं। जैसे:
वेद मंत्र 'गणानांत्वा गणपति...' का गणेश के अर्थ में प्रयोग नहीं हुआ है या महामृत्य्ंजय मंत्र 'त्रयम्बकम् यजामहे...' का महादेव से कोई सम्बन्ध नहीं है। वास्तव में सनातन मत परम्परा बहुत ही रोचक और विशद रूप में विकसित हुई है।
बस, पढ़ लिये..प्रसन्न हो लिए. बाकी लोगों की जिज्ञासा देख रहे हैं और कुछ भी उससे जान जायेंगे जब आप जबाब देंगे.
"मंगलम भगवान् विष्णु मंगलम गरुड़ ध्वजः
मंगलम पुन्डरीकाक्ष मंगलायतनो हरिः "
विशालतम यवन -राष्ट्र इंडोनेशिया की सरकारी एयर लाइन का नाम विष्णु -वाहन 'गरुड़' ही क्यूं है ? इस की भी किंचित व्याख्या हो एवम पुरातत्व अनुरागी ये बतलावें की विश्व का विशालतम प्राचीन मंदिर जो विष्णु को अर्पित था वो कम्बोडिया में क्यूं कर है ? आखिर क्यूं ?कोई तो बतावे , कोई पोस्ट चढावे !
Pta nahi kya ho raha hain,hindi likhne vaale box me type karne ke bad vah comment box me copy-paste nahi ho raha hain .khair mujhe viththl vishnu ka hi naam hain yah to pta tha,lekin dono shbdo me bhi sambandh hain yah nahi pta tha ,isi tarah vishwa Aur viththl shbd me sambandh hain yah main soch bhi nahi sakti thi .yah chiththa vakai kamal ka hain.aap sachmuch mahan kaam kar rahe hain dada.
गिनती की सीमा भी कभी बीस रही होगी। बीस (विश) पर ही पूर्णता रहती होगी? ये तो बाद वाले उसे अनन्त तलक ले गये!
नहीं?
@गिरिजेश राव
टिप्पणी के लिए शुक्रिया भाई। संशोधन कर दिया है।
@डॉ मनोज मिश्र
विष्णु शब्द बहुत प्राचीन है और वेदों में इसका उल्लेख है। प्रस्तुत पोस्ट में विद्वानों के संदर्भ दिए हैं। वैसे गिरिजेश राव की टिप्पणी भी इसे स्पष्ट कर रही है। विष्णु का महत्व पुराणों की रचना के बाद बढ़ा है। वेद में निश्चित ही प्राक् देवताओं का ही महात्म्य है।
@munish
मुनीश भाई, गरुड़ महाराज विष्णु के वाहन हैं और एक पूर्वी देश की वायुसेवा में नज़र आते हैं उधर जर्मनी की वायुसेवा lufthansa में सरस्वती का वाहन हंस झांक रहा है। जर्मन में लुफ्त यानी हवा है। संस्कृत में लुप्त यानी गायब है। यहां गायबाना भाव को गति से जोड़ कर देखा जाना चाहिए क्योंकि प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार में lopt जैसी ध्वनियों में ऊपर उठना का भाव शामिल था जिसमें ऊंचाई के साथ वायु भी शामिल है। जाहिर है गायब यानी लुप्त होना भी इसमें निहित है। हवा में भी ऊपर उठने का गुण होता है। बहाव और गतिवाचक तो यह है ही।
आप जो कह रहे हैं उसे साबित करने की जरूरत नहीं है। एशिया-यूरोप के बीच इस तरह के सांस्कृतिक एकता सूत्र बहुत से हैं। पूर्वी देशों में तो भारतीय संस्कृति की बहुत गहरी छाप साफ देखी जा सकती है। सदियों पुराना लेन-देन का रिश्ता है। हमारी अयोध्या उधर भी नज़र आती है और उधर की गंगा इधर पूजी जाती है।
भारत माता की जै...
गिरजेश राव की टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है। वैदिक देवताओं में विष्णु बहुत उपेक्षित हैं। वैदिक आर्यों और भारतीय द्रविड़ सभ्यता में जो संघर्ष वर्षों तक विद्यमान रहा उस ने प्रमुख वैदिक देवता इंद्र को पददलित कर दिया। इंद्र के चारित्रिक पतन की इतनी कथाएँ प्रचलित हो गई कि उसे एक प्रमुख देवता बनाए रखना कठिन हो गया। तब सामंजस्य के रूप मे उपनिषदों का ब्रह्म, वैदिक विष्णु जो इंद्र का छोटा भाई या सहायक है और द्रविड़ों के महादेव/पशुपति को मिला कर एक त्रिदेव की स्थामना हुई जो सनातन धर्म की रीढ़ बन गया। पश्चिम में जब एकेश्वरवाद पनपा तो उस ने लोक देवताओं और उन की मूर्तियों और चिन्हों को नष्ट किया। लेकिन भारत में बहुदेववाद एकेश्वरवाद के साथ कायम रहा। प्रत्येक देवता में ब्रह्म की छवि देखी जाने लगी। दूसरे के देवता को भी अपने देवता के समान सम्मान मिला। यही भारतीय धर्म के विकास की सब से बड़ी विशेषता है। आर्य वैदिक धर्म सिर्फ कर्मकांड में रह गया। लोक ने अपनी परंपराओं को सुरक्षित रखते हुए एकेश्वरवाद को ग्रहण किया।
आज का आप का आलेख बहुत महत्वपूर्ण है शब्द के विकास की दृष्टि से भी और चर्चा के उद्देश्य से भी।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः
विष्णु का नाम वेदों से लेकर पुराणों तक विविध रूपों में मिलता है। वेदों में इन्हें सौरदेवता कहा गया है और सूर्य का प्रतिरूप व इंद्र का सहायक माना गया है।
बिल्कुल सही विश्लेषण किया है।
बधाई!
JAI HO !
चलिये सबसे पीछे मै ही सही, लोकोक्ति मे कहा जाता है " विटे वर जो उभा तो विट्ठल " अर्थात ईट पर जो खडा है वह विट्ठल . यह पंढरपुर के विट्ठल के बारे मे है . यह कथा इस प्रकार है कि श्रीकृष्ण की पटरानी रुख्मीणी का अन्य रानी से झगडा हुआ तथा वह दन्डकारण्य चली गई तथा भीमा नदी के किनारे वर्तमान मे पंढरपुर मे झोपडी बनाकर रहने लगी.श्रीकृष्ण उसे ढूंढते हुए वहाँ गये पर उसने आने से मना कर दिया .उसने कहा कि यदि तुम विष्णु के अवतार हो अर्थात देव हो तो तुम्हे पत्नी की अपेक्षा भक्त अधिक प्रिय होना चाहिये और उसे पुंडलीक नामक एक भक्त का पता बताया जो वहीं पास ही झोपडी बनाकर रहता था और अपने माता-पिता की सेवा करता था .जब कृष्ण उसके पास पहुंचे तो वह माता पिता की सेवा कर रहा था उसने एक ईट कृष्ण की ओर फेंकी और कहा इस पर खडे रहो .तबसे विट्ठल-रुखमाई ( रुख्मीणी) वहीं ईट पर खडे हैं . कालांतर में इस कथा का प्रचार अनेक संतों ने किया .रही असल (?) विष्णु की बात तो इस त्रयी से षडयंत्र पूर्वक ब्रह्मा को निकाल दिया गया (शैव और वैष्णव वाद) इसलिये आज ब्रह्मा के मन्दिर नहीं मिलते .खैर यह हरिकथा तो अनंत है
बहुत दिनों से टीप नहीं पाया. टिपण्णी में तो बड़ी अच्छी चर्चा हो गयी है.
कल श्यामसखा श्यामजी से बात हुई शब्दों के उद्भव के बारे में मैंने आपके ब्लॉग का जिक्र किया आते ही होंगे.मेरे फ्रेंच में उच्चारण वाली पोस्ट पर उन्होंने बड़ी अच्छी जानकारी दी थी फिर कुछ और शब्दों के बारे में भी बताया था उन्होंने. शब्दों के सफ़र में बड़े अच्छे सहयात्री होंगे वो.
''ॐ नमो भगवते वासुदेवाय''
3 0f our 4 pious 'dhaams' are abodes of Vishnu--Badri,Dwarika and Jagannath . Badri Vishal is also the presiding deity of mighty Garhwal Rifles. Their war cry ,while attacking the enemy, is--'' Jai Badri Vishaal !''
विठ्ठल तो महाराष्ट्र के जन जन के देव हैं । विठ्ठल मूर्ती के सिर पर पर शिवलिंग है, इसीसे वे शैव और वैष्णवों के बीच एकात्मता स्थापित करते हैं । आपका लेक छोटा है परंतु टिप्पणियों ने जानकारी बढा दी खास कर गिरजेश राव , दिनेश राय त्रिवेदी और कोकास जी की ।
कण-कण में भगवान है।विष्णु सार्वलौकिक है। प्रमाण हमारे अपने ही अंदर है इसे स्वामी परेशानंद रामकृष्ण आश्रम ने अपने पुस्तक-रामकृष्ण शारदा गीता में कुछ इस तरह से बताया है- आत्मा ब्रम्ह है-मांडूक्या उपनिषद अथर्ववेद
सभी कुछ ब्रम्ह है-सामवेद
चेतना ही ब्रम्ह है-एतरेव उपनिषद ऋग्वेद
तुम ही वह हो- सामवेद
मै ब्रम्ह हूं-यजुर्वेद
हरि ऊं तत्सत।
अलौकिक लेख बहुत-बहुत शुभकामनायें।
अजित वडनेरकर अपने विश्लेषण में व्युत्पत्तिशास्त्र के समस्त संभव प्रतिमानों का उपयोग करते हैं. वे सावधानी के साथ लोकव्यवहार में प्रचलित उन शब्दों का चयन करते हैं, जिनके अर्थ को लेकर लोकमानस में जिज्ञासा हो सकती हो. फिर वे उस शब्द की धातु, उस धातु के अर्थ और अर्थ की विविध भंगिमाओं तक पहुँचते हैं. फिर वे समानार्थी शब्दों की तलाश करते हुए विविध कोनों से उनका परीक्षण करते हैं. फिर उनकी तलाश शब्द के तद्भव रूपों तक पहुंचती है और उन तद्बवों की अर्थ-छायाओं में परिभ्रमण करती है. फिर अजित अपने भाषा-परिवार से बाहर निकलकर इतर भाषाओँ और भाषा-परिवारों में जा पहुँचते हैं. वहां उन देशों की सांस्कृतिक पृष्टभूमि में सम्बंधित शब्द का परीक्षणकर, पुनः समष्ठिमूलक वैश्विक परिदृश्य का निर्माण कर देते हैं. यह सब रचनाकार की प्रतिभा और उसके अध्यवसाय के मणिकांचन योग से ही संभव हो सका है. व्युत्पत्तिविज्ञान की एक नयी और अनूठी समग्र शैली सामने आई है. बहुत संभव है, आगे चलकर यह 'अजित-शैली' के नाम से आख्यात हो. अब 'विष्णु' शब्द को ही लें, तो हम देखते हैं कि अपनी संपूर्ण समग्रता में उसका विवेचन किया गया है. अजित ने भाषा और व्युत्पत्तिविज्ञान से आगे बढ़ते हुए संस्कृति, धर्मं, इतिहास और लोकविश्वासों का आधार ग्रहण करते हुए अपनी विवेचना को परिपुष्ट किया है. यह सही है कि वैदिक देवताओं के बीच विष्णु को समुचित महत्व नहीं मिल पाया था. इसका मुख्या कारन यह था कि वैदिक देवता भौतिक शक्तियों के अधिष्ठाता के रूप में मान्य हुए थे. किसी परम आध्यात्मिक शक्ति या परमब्रह्म कि अवधारणा तब तक भलीभांति विकसित नहीं हो पाई थी. बाद के औपनिषदिक चिंतन में जब एक परम सत्ता के रूप में ब्रह्म का विचार विकसित हुआ, तब कहीं जाकर विष्णु को यथोचित स्थान और सम्मान मिला. फिर तो न केवल वे महेश और ब्रह्म के साथ वृहत्रयी में सम्मिलित हुए, अपितु उनसे सर्वोपरि भी मान्य हुए. यह उनके अनन्य महत्व का सूचक है कि धारणा भी विकसित हुई कि ब्रह्म जब अवतार लेता है, तो विष्णु शक्ति से ही अवतार लेता है. यही नहीं, यह भी कि पूर्णावतार केवल विष्णु का ही हुआ करता है, जैसे राम और कृष्ण. भगवन विष्णु पर एक प्रामाणिक अनुशीलन प्रस्तुत करने के लिए अजित को बधाई. विश्वास है कि उनकी लेखनी से अधीत चिंतन का प्रवाह अजस्र ज़ारी रहेगा. भगवान विष्णु कि अनुकम्पा उन पर सतत बनी रहे.
डॉ सुरेश कुमार वर्मा
आपका वाक्य कि “निराकार ब्रह्म की पूर्णता विश्वरूप में साकार होने में ही है “ आध्यात्म जगत की विशद् स्थिति को अत्यंत सरल कर रहे हैं । इसी प्रकार डॉ. गिरजेश राव जी के उद् गार कि - ज्योतिर्लिंगों और शक्ति पीठों की तरह ही प्राचीन काल में सूर्य पूजा के स्थापित केन्द्र थे जो धीरे धीरे बौद्ध धर्म के उत्थान के साथ समाप्त हो गए; स्थिति को बहुत स्पष्ट कर देते है । अनेक सुधी पाठकों सहित डॉ सुरेश कुमार वर्मा की टीप इस आलेख को उच्चतर स्थान प्रदान कर रही है ।
आलेख संग्रहणीय है बारम्बार पठनीय भी । लेखक सहित सभी टिप्पणीकारों को भी नमन !
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