Saturday, July 4, 2009

उत्सव का अवसाद, पीड़ा का पर्वत

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र्वों और उत्सवों में जहां हर्षोल्लास समाया है वहीं इनके साथ श्रम और थकान भी जुड़ी है। जयशंकर प्रसाद ने तो इससे भी आगे उत्सव के बाद अवसाद को अनिवार्य माना है। यह सच भी है। तीज-त्योहारों की वेला बीतने के बाद हर्ष की अनुभूति ज्यादा नहीं टिकती बल्की उदासी और शून्य का अहसास भीतर समाने लगता है जिसे प्रसाद ने अवसाद कहा है।
त्सव का सामान्य़ अर्थ होता है आनंद की घड़ी, खुशी का अवसर, कामना इच्छा आदि। यूं पर्व और त्योहार के अर्थ में भी इसका प्रयोग होता है किन्तु पर्व और त्योहारों का रिश्ता जहां किन्हीं तारीखों और काल विशेष से जुड़ा होता है साथ ही धार्मिक संदर्भ भी महत्वपूर्ण हो जात हैं वहीं उत्सव का अर्थ इनसे व्यापक है और हर्ष प्रकट करने के किसी भी सार्वजनिक मौके को उत्सव कहा जा सकता है। उत्सव बना है उद्+सू धातुओं के मेल से। उद् धातु में श्रेष्ठता, उच्चता, ऊपर उठना, खोलना, फुलाना, मुक्ति आदि भाव समाए हैं।

... आनंद का अतिरेकी उल्लास जब छलक पड़े वहीं उत्सव है... 610x

सू धातु में फल देने वाला, पैदा करनेवाला या उत्पन्न करनेवाला जैसे भाव हैं। भाव यही है कि दैनंदिन जीवन में होने वाले अनुभवों से ऊपर उठकर जो आचार-व्यवहार किए जाएं वह उत्सव है। डॉ राजबली पाण्डेय ऋग्वेद के हवाले से उत्सव शब्द का भाव बताते हैं-‘ऊपर उफन कर बहना’ अर्थात आनंद का अतिरेक। जाहिर है उत्सवों पर हर्षोल्लास उमड़ पड़ता है और यह सामूहिकता में होता है इसीलिए उत्सव के साथ खान-पान-गान, उपहार-सम्मान, दान-पुण्य आदि संस्कार जुड़े हैं।
सी कड़ी में आता है त्योहार शब्द। यह बना है तिथि+वार से। क्रम कुछ यूं रहा-तिथिवार > तिहिवार > तिहवार > तिवहार > त्योहार। इसका सम्बंध चंद्रकलाओं से है। तिथि शब्द बना है अत+इथिन से। अत् शब्द का अर्थ होता है घूमना, चक्कर लगाना, फिरना  और वार का मतलब होता है दिन। चंद्रमा की कलाएं चंद्रगतियों की वजह से ही होती हैं। दुनियाभर की संस्कृतियों में समय की गणना मनुष्य ने चंद्रमा के घूमने की आवृत्ति को ध्यान में रखकर ही की है। इस तरह तिथि का अर्थ हुआ चांद्रदिवस अर्थात वे दिन जब चंद्रमा आसमान में नज़र आता है। शुक्लपक्ष में ही अधिकांश पर्व आते हैं क्योंकि हमारी संस्कृति में अग्नि को ही आदिदेव माना गया है। अग्नि ही प्रकाशस्रोत है इसलिए शुक्लपक्ष को पवित्र और मांगलिक मानने के सहज निष्कर्ष पर प्राचीनकाल से ही मानव पहुंच चुका था। अक्सर मुहावरे के तौर पर तीज-त्योहार कहा जाता है। यहां तीज का अर्थ तृतीया से है अर्थात शुक्लपक्ष का तीसरा दिन।
त्सव, त्योहार या धार्मिक अवसरों का ही एक अन्य का एक अन्य महत्वपूर्ण अर्थ है पर्व। इसका संबंध गांठ, जोड़ या संधि जैसे अर्थों से है। प्राचीनकाल में सभी प्रमुख धार्मिक तिथियां ग्रहों की स्थितियों के आधार पर तय की जाती थीं। जैसे सूर्य ग्रहण या चंद्र ग्रहण। पूर्णिमा अथवा अमावस्या की समाप्ति। ऐसे संधिकाल को ही पर्वसंधि कहा गया । इन तिथियों पर पुण्यकर्म अथवा मांगलिक कार्य तय किये जाते थे। बाद में ये अवसर पर्व यानी त्योहार के अर्थ में प्रचलित हो गए।
ज्यादा मेहनत के बाद थकान की स्थिति का बखान करते वक्त आमतौर पर पोर-पोर दुखने का मुहावरा सुनने को मिलता है। पोर-पोर का अर्थ होता है एक- एक जोड़ में दर्द होना। थोड़ा और विस्तार में जाएं तो कह सकते हैं कि पर्व की मस्ती में चूर होने और पर्वतारोहण की मेहनत के बाद स्वाभाविक है कि शरीर का पोर-पोर दुखे अर्थात
Pain -----------------    पर्व की मस्ती में चूर होने और पर्वतारोहण की मेहनत के बाद स्वाभाविक है कि शरीर के पोर-पोर में पीड़ा रहे…..          
पोर-पोर, पर्व और पर्वत तीनों शब्दों के बीच रिश्तेदारी है। मगर ये अनायास नहीं है बल्कि इसलिए है क्योकि इनका जन्म एक ही मूल से हुआ है और अर्थ लगभग समान है। संस्कृत की मूल धातु पर्व् से इनका निर्माण हुआ है जिसके मायने हैं गांठ , जोड़ या संधि। हिन्दी में पहाड़ के लिए पर्वत या देशी बोलियों में परबत शब्द आम है। इसका जन्म भी इसी प्रक्रिया के तहत हुई है। गौर करें कि जोड़ या गांठ जहां भी होती है वह स्थान कुछ उभरा हुआ, खुरदुरा या ऊबड़-खाबड़ होता है। इसी आधार पर पहाड़ी उभारों के लिए भी पर्व की कल्पना की गई और नया शब्द बना पर्वत। चूंकि पहाड़ों में सर्वोच्च हिमालय है इसलिए इसीसे उसके लिए वैकल्पिक शब्द बने पर्वतराज, पर्वतपति या पर्वतेश्वर। पुराणों में हिमालय की पुत्री के लिए पार्वती नाम इसी से बना। बाद में पहाड़ों से निकलने के कारण नदियों के अनेक नामों में एक नाम पार्वती भी जुड़ गया।
सी तरह शरीर के संधि स्थल को भी पर्व कहते हैं जैसे घुटना , कहनी, कंधा आदि। इसीलिए लोकबोली में जोड़ के लिए पोर-पोर शब्द चल पड़ा। जोड़ या संधि के अर्थ में ही किसी पुस्तक या ग्रंथ के अध्याय को भी पर्व कहते हैं। गौर करें कि महाभारत में विभिन्न अध्यायों के नाम के साथ भी पर्व शब्द का प्रयोग हुआ है जैसे द्रोण पर्व, भीष्म पर्व।  [नए संदर्भों के साथ संशोधित पुनर्प्रस्तुति]

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11 कमेंट्स:

Himanshu Pandey said...

उत्सव का अर्थ महत्वपूर्ण है । अत्यन्त सारगर्भित अर्थ-संप्रेषण । आभार ।

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

अधिक नहीं कह सकता। मेरे पोर पोर दु:ख रहे हैं और मन अवसाद या विषाद(?) ग्रस्त है। क्यों? आप स्वत: जान जाएंगें।

अरे! विषाद को तो आप भूल ही गए।

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर आले। उत्सव का अर्थ जान कर प्रसन्नता हुई कि हम भी यही समझते थे।

डॉ. मनोज मिश्र said...

सही लिखा है .

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

दुआ करो कि वर्षा जम कर बरसे,
तभी तो उत्सवों का लुत्फ उठाया
जायेगा।
लेख बढ़िया रहा।

Anil Pusadkar said...

हमेशा की तरह ज्ञानवर्धक्।

निर्मला कपिला said...

उत्सव त्योहार और पर्व की विस्तरित जानकारी बहुत अच्छी लगी धन्यवाद और शुभकामनायें

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

उत्सव के बाद अवसाद या थकान तो होते ही है . क्यों आज पता चला .

vijay kumar sappatti said...

bahut sudnar mere mitr ... bahut hi accha warnaan ...

meri badhai sweekar karen...

Gyan Dutt Pandey said...

शब्द की बात एक तरफ; जहां उत्सव है, वहां भीड़ है और जहां भीड़ है वहां अवसाद!

शोभना चौरे said...

utsav aur parv ke bare me vistrat jankari ke liye dhnywad .
shubhkamnaye

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