रविवारी पुस्तक चर्चा में इस बार केंद्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित भोजपुरी-हिन्दी-इंग्लिश शब्दकोश के बहाने से कुछ हिन्दी की बात। इस कोश के प्रधान संपादक अरविंदकुमार हैं। संस्थान हिन्दी की 48 बोलियों में इस तरह के कोश निकालने की परियोजना पर काम कर रहा है जो हिन्दी की सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत करने की दिशा में महती कदम है।
भोजपुरी-हिन्दी शब्दकोश-खुशी की बात है केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा ने इस दिशा में महत्वपूर्ण पहल की है। संस्थान ने हिन्दी परिवार की 48 बोलियों की शब्द-संपदा को सहेजने की महती परियोजना शुरू की है जिसके प्रधान संपादक हैं सुप्रसिद्ध कोशकार अरविंदकुमार जिनके नेतृत्व में फिलहाल सात बोलियों- भोजपुरी, ब्रजभाषा, बुंदेली, मालवी, अवधी और छत्तीसगढ़ी के शब्दकोश बनाने का काम चल रहा है। इस योजना के अंतर्गत क्षेत्रीय बोलियों के शब्दकोशों के कुल 48 खंड प्रकाशित होने हैं। इस परियोजना का परिचय देते हुए पुस्तक के कवर पर लिखा गया है कि हिन्दी की कई बोलियां, उपभाषाएं और भाषाएं सकटग्रस्त और लुप्त हो रही हैं। इनके साथ अद्भुत नाद और अर्थ सौन्दर्य वाले शब्द भी गुम होते जा रहे हैं। यदि आगामी 10-15 वर्षों में इनकी सुध नहीं ली गई तो इन्हें हम हमेशा के लिए खो देंगे। इसे देखते हुए कतिपय बोलियों / भाषाओं / उपभाषाओं के लोक-शब्दकोशों के प्रकाशन / डिजीटलीकरण और इंटरनेट पर उपलब्ध कराने की योजना है जिससे न सिर्फ हिन्दी के विशाल शब्दभंडार का संरक्षण होगा बल्कि हिन्दी की सांस्कृतिक जड़ें भी पुष्ट होंगी। इस कड़ी की पहली प्रस्तुति भोजपुरी-हिन्दी-इंग्लिश लोक शब्दकोश के नाम से इसी सप्ताह प्रकाशित हो चुकी है। कोश का मूल्य 275 रुपए है और इसे केंद्रीय हिन्दी संस्थान ने ही प्रकाशित किया है। इसे प्रकाशन विभाग, केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा-282005 के नाम से 375 रुपए का बैंक ड्राफ्ट भेज कर मंगाया जा सकता है।
या खास पुस्तकालयों की शरण में जाकर धन, श्रम और समय का निवेश करना पड़ा है। जब भारतीय भाषाओं की यह दशा है तो विदेशी भाषाओं की तो बात ही अलग है। होना तो यह चाहिए कि हिन्दी में जिन पड़ोसी भाषाओं की महक समायी है, उन सभी भाषाओं के शब्दकोश देवनागरी में उपलब्ध होने चाहिए, मसलन तुर्की-हिन्दी, अरबी-हिन्दी, फारसी-हिन्दी आदि। इसका लाभ यह होगा कि अभी तक विदेशी भाषाओं से आए शब्दों की संख्या अनुमानित तौर पर ही बताई जाती है, उसका सही हिसाब मिल सकेगा। मसलन अरबी-फारसी से हिन्दी में आए शब्दों की संख्या करीब 6000 है या पुर्तगाली शब्दों की संख्या 100 के आसपास है। जब कोश परियोजना पर काम होगा तो संभव है यह संख्या कहीं ज्यादा निकले। इससे कई स्तरों पर लाभ होगा। भारत के विभिन्न क्षेत्रों स भाषाओं के जरिये विकसित सांस्कृतिक संबंधों को समझने में मदद मिलेगी। ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का भला होगा। हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश ज़रूर इस मामले में अपवाद कहे जा सकते हैं क्योंकि इनकी मांग लगातार बनी रहती है। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |
23 कमेंट्स:
वडनेरकर जी ,
इस सिलसिले में यह हमारे विश्वविद्यालय और उनमे पदस्थ मूर्धन्य अध्यापक ही शोध द्वारा श्रेष्ठ शब्द संकलन दे सकते हैं | खेद सिर्फ यह कि सारी प्रतिभाएं सरकारी तंत्र साधना की बलि चढी चली जाती हैं और नौकरियों को अपने निजी आर्थिक उत्थान के उपाय का माध्यम मात्र बना लेती हैं |
दोष तंत्र का है | शोधार्थियों को तंत्र रुकावट न डाले तो इस देश में भी विदेशियों से बेहतर शब्दकोष , विज्ञान के बेहतर शोध संभव हैं | वैसे इधर शोध के क्षेत्र में जुनूनी लोग भी नगण्य ही समझें |
भोजपुरी शब्दकोष के माध्यम से आपने एक अच्छा विषय उठाया है जो विचारणीय है |
एक बात और, ऐसी कई क्षेत्रीय बोलियाँ हैं जो शब्द संपदा से सम्पन्न हैं परन्तु अनाथ हैं |
मालवी को ही लें , मालवी के अनेकानेक शब्द सीधे संस्कृत से निकटता रखते हैं जिनका अपभ्रंश खडी बोली में नागर वृन्द ने सिर माथे पर लिया लेकिन मालवी को वह महत्व नहीं मिल सका | ले दे के, स्व. डा० श्याम परमार के शोध इसे कुछ महिमा दे गए | आकाशवाणी इंदौर के भैराजी ( स्व. सीताराम वर्मा ) ने मालवी को जो ऊँचाई दी वह भी कायम नहीं रह सकी | बेशक प्रहलाद सिंह टिपान्या और रामावतार अखंड सरीखे लोक गायक मालवी की नाक बचाए हुए हैं परन्तु लोक गायन के गुणी कितने लोग हैं ? और नागर वृन्द के मन में लोक - गायन से परे कोई छवि बने तो कैसे ?
निस्संदेह शब्द कोष होता तो मालवी साहित्य को भी मान मिलता |
केंद्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित भोजपुरी-हिन्दी-इंग्लिश शब्दकोश के बहाने से कुछ हिन्दी की बात। इस कोश के प्रधान संपादक अरविंदकुमार हैं। संस्थान हिन्दी की 48 बोलियों में इस तरह के कोश निकालने की परियोजना पर काम कर रहा है जो हिन्दी की सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत करने की दिशा में महती कदम है।
आशा है कि इस कोश से अपनी भाषा धन्य होगी।
पुस्तक चर्चा अच्छी रही।
आपके इस पोस्ट से सहमति और असहमति दोनों है .
भारत में पढ़ने और बोले जाने वाली भाषाओं के एक संयुक्त नागरी कोष की महति आवश्यकता है। यह भारतीय भाषाओं को समीप लाने और हिन्दी को समृद्ध करने का काम करेगा। इस काम को कोई दल ही मिल कर कर सकता है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान को इस विषय में किसी परियोजना को मूर्त रूप देना चाहिए।
भोजपुरी-हिन्दी-इंग्लिश लोक शब्दकोश का प्रकाशन निश्चय ही प्रसन्नता की बात है। इस खुशखबरी के साथ आपने बहुत ही जरूरी मुद्दा उठाया है। अंग्रजी-हिन्दी शब्दकोश की ही बात लें तो आज भी हमारे पास फादर कामिल बुल्के के शब्दकोश से बेहतर कुछ भी नहीं है। भाषा का रूप परिवर्तनशील होता है और उसी के अनुरूप शब्दकोशों में भी लगातार संशोधन और परिवर्धन की जरूरत पड़ती है, लेकिन अफसोस कि हमारे यहां इसके लिए भाषाशास्त्रियों और साहित्यसेवियों के पास अवकाश और त्याग-भाव नहीं है। आजाद भारत की सरकार तो स्वनामधन्य है ही। (मुझे तो कभी-कभी लगता है कि भारतीय भाषाओं के क्षेत्र में ब्रितानी सरकार ने ही कहीं ज्यादा काम किया है।)
अरविन्द कुमार जी की कोशिशों की जितनी प्रशंसा की जाय कम है। उनका समानांतर कोश अनूठा है। भोजपुरी-हिन्दी शब्दकोश भी उसी स्तर की कृति जान पड़ती है।श
बहुत सुंदर आलेख। आपकी शब्द-साधना को शत् शत् प्रणाम।
यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य है क्यों कि एक ही बोली के अनेक रूप मिलते हैं और शब्द/अर्थ सम्पदा में भी पर्याप्त भेद हैं।
भोजपूरी को ही लें तो बिहार के कस्बे गाँव, बनारस, कुशीनगर, गोरखपुर. . . आदि क्षेत्रों में न जाने कितने रूप मिलते हैं। बोली होने के कारण मानकीकरण तो है नहीं। हाँ, कॉमन और स्थापित शब्दों को लेकर प्रारम्भ तो किया जा सकता है।
कोष का सृजन बहुत ही समय और धन की माँग करता है। राजकीय संरक्षण में ही यह काम हो सकता है। चलिए हिन्दी संस्थान ने शुरुआत तो की।
भोजपुरी को लेकर यह काम ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है । भोजपुरी के विशाल क्षेत्र में अनेकों रूप प्रचलित हैं भोजपुरी के । गिरिजेश जी ने मानकीकरण की बात भी ठीक ही रख दी है ।
हम सबके लिये तो इस शब्दकोष का आना बहुत सुखद है । भोजपुरी क्षेत्र से हैं हम । दैनंदिन व्यवहार में है यह बोली । इस शब्दकोष को देखने के बाद ही कुछ कह सकते हैं । खैर अरविन्द जी का नाम जुड़ने से आश्वस्त हुआ जा सकता है । आभार ।
आपने बहुत सही कहा है. असल में हमने अपनी भाषा के श्रेष्ठता का जितना बखान किया है, अगर उसका एक अंश भी अगर वाकई इसे बेहतर बनाने में किया होता तो स्थिति आज इतनी बुरी नहीं होती.हमारी संस्थाएं और संस्थान उतना नहीं कर पाए हैं जितना उनको करना चाहिए. लोगों का ज़्यादा ज़ोर सर्जनात्मक साहित्य, और उसमें भी कविता लिखने पर है. मैं उसके महत्व को कम करके नहीं आंक रहा पर असंतुलन तो असंतुलन है. आशा है आपका लेख विद्वज्जन का ध्यान इस कमी की पूर्ति की तरफ ले जाने में सफल होगा.
@ डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
हाँ, कविता पर कुछ अधिक ही जोर है। हिन्दी जगत में बौद्धिक काहिली के कारण असंतुलन भी है।
आप ने बहुत ही सामयिक बात कही।
ajitji,
bahut dino se me bhi soch rahaa thaa is vishya par. sachmuch hindi me shbdkosh ki aavyashkataa he../
mujhe to kaafi jaroorat padhh jaati he. likhne padhhne vaalo ko is samsya se do haath karna hi padhhta he.
aapne mere man ki baat kah di, ab sukoon he..kuchh is vishaya par me kaam karne ki bhi soch rahaa hoo. jab bhi upyukt samay milega aour gati tez hogi, aapse jaroor mukhatib hounga.
dhnyavaad
Amitabh
हमारा तो यत्न रहता है घर में उपलब्ध जो शब्दकोश हैं - टटोल लें। उनसे काम न चले तो शब्द क्वाइन कर ठेल लें। काम चलाना है। भाषा की सेवा को ज्यादा टाइम नहीं! :-)
शब्दकोष का उपयोग तो आप जैसे पढ़े लिखे काबिल लोग ही करते है . हम जैसे तो अपनी बात रखने के लिए किसी भी शब्द का बिना उसकी जात जाने इस्तेमाल कर लेते है .
शब्दकोश विज्ञान में हिंदी में काफी कुछ करने को रहता है। रामचंद्र शुक्ल आदि के प्रयत्न से क शताब्दी से अधिक समय पूर्व जो हिंदी शब्दसागर रचा गया था, उसके बाद कोई उल्लेखनीय कार्य हुआ हो,ऐसा नहीं लगता,कम से कम मुझे इसकी जानकारी नहीं है। हिंदी शब्दसागर का भी अब रीप्रिंट ही हो रहा है। जो सैकड़ों शब्द नित्य बन रहे हैं (जिनमें से काफी कुछ ज्ञानदत्त पांडे जैसे लोगों की कलम से निकलते रहते हैं!) को हिंदी शब्दसागर में शामिल करके अद्यतन करते रहने की ओर भी कोई प्रयास नहीं हो रहा है।
इसके विपरीत अंग्रेजी के बड़े शब्दकोषों के, जैसे आक्सफोर्ड, वेबस्टर आदि, हर साल नए संस्करण निकलते हैं, और हर नए संस्करण में न केवल हजारों नए शब्द जोड़े जाते हैं, बल्कि पुराने और अप्रयुक्त शब्दों को छोड़ भी दिया जाता है। इस तरह वे भाषा की वर्तमान स्थिति का अच्छा परिचय देते हैं। उनके लिए यह सब कंप्यूटर के व्यापक उपयोग के कारण संभव हुआ है। पूंजी तो उनके पास है ही।
हमारे यहां पुराने विद्वान कंप्यूटर के मामल में अंगूठा छाप हैं, और नई पीढ़ी के लोग अंग्रेजी से इतने प्रभावित हैं, कि उनके लिए हिंदी का मतलब रोमन में लिखा हिंगलिश ही है। शब्दकोश रचना उनके बस की बात नहीं है।
शब्दकोश निर्माण श्रम और व्यसाध्य काम है और कोई सर्वांगीण शब्दकोश निर्माण किसी संस्था के बस की ही बात है। और यहां तो सभी विश्वविद्यालय, शोध संस्थाएं, साहित्यिक संस्थाएं, सरकारी संस्थाएं आदि सब अंग्रेजी की चपेट में हैं। वहां इतनी बड़ी परियोजना के लिए पैसे जुटाना संभव नहीं लगता है। दूसरे, वे सब गंदी राजनीति में भी फंसी हुई हैं।
ऐसे में अभी ऐसा ही लगता है कि व्यक्तिगत प्रयास के भरोसे ही चलना पड़ेगा।
पर इस आवश्यकता को ध्यान में रखना जरूरी है। आपने इस नए शब्दकोश के बहाने उस पर प्रकाश डालकर अच्छा किया।
हिन्दी में स्तरीय शब्दकोश का अभाव सभी हिन्दी प्रेमियों को सालता है.आपने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है.
रविवार.कॉम पर आपके ब्लॉग की जानकारी मिली. पहली बार इतना सुंदर और सधा हुआ ब्लॉग देख रही हूं. आप बहुत ही आकर्षक तरीके से शब्दों को लेकर लिखते हैं. कई पोस्ट पढ़ गई. हमारी ओर से साधुवाद लें.
रजनी
तमाम कमज़ोरियों, कमियों आदि के बावजूद कहीं न कहीं से आरम्भ तो करना होगा। इस विषय पर व्यापक चर्चा की जानी चाहिए। कब तक हम कठिनाईयों को बाधा मानते रहेंगें। यह कार्य कठिन अवश्य है पर इसका समाधान भी हम जैसे लोग ही निकाल सकते हैं।
प्रिय अजित जी
भोजपुरी लोक शब्दकोश पर आपका चिट्ठा बेहतरीन है.
हम सभी आपके आभारी हैं कि आपने इस सुन्दरता और गहराई से भोजपुरी लोक शब्दकोश और हमारी परियोजना पर लिखा है.
आपके ब्लाग पर लोगों की प्रतिक्रियाएं परियोजना से जुड़े सभी लोगों का पुरजोर उत्साह बढ़ा रही है।
आशा है आप इसी तरह परियोजना के आगामी कोशों को अपना भरपूर समर्थन देंगे।
पुन: धन्यवाद
(अभिषेक अवतंस केन्द्रीय हिन्दी संस्थान की शब्दकोश परियोजना से जुड़े हैं)
@रजनी
शुक्रिया रजनी जी। आपको शब्दों का सफर अच्छा लगा इसकी हमें भी खुशी है। बनी रहें इस सफर के साथ।
आप सबका बहुत बहुत आभार।
----वास्तव में मेरा विचार कुछ भिन्न है--- मेरे विचार में हिन्दी की किसी भी आंचलिक/क्षेत्रीय, बोली/भाषा --भोजपुरी, ब्रज भाषा, अवधी आदि आदि के साहित्यिक प्रसार-प्रचार को अधिक महत्व नहीं देना चाहिये अपितु इन सभी को हिन्दी भाषा मानकर,सभी शब्दों को हिन्दी में समेटकर व्यापक हिन्दी को बढावा देना चाहिये।कोई किसी भी हिन्दी आन्चलिक भाषा में लिखे उसे हिन्दी कवि ही कहा जाना चाहिये।( रामचरित मानस को कोई अवधी या सूरदास व भारतेन्दु की रचनाओं को ब्रजभाषा आदि नहीं कहता अपितु वे सब हिन्दी के कवि/रचनाएं माने जाते हैं।)---आन्चलिक भाषाओं के प्रसार से हिन्दी की महान क्षतिहुई है एवं प्रगति में बाधा पड रही है तथा कला व साहित्य में भी अलगाववाद व राजनीति को प्रश्रय मिलता है।
---हिन्दी के शब्दकोश में सभी आन्चलिक भाषाओं के शब्द समाहित करने चाहिये, तभी हिन्दी का समुचित रूप सेप्रसार होकर वह राष्ट्र-भाषा व विश्व भाषा हो पायेगी ।
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