पिछली कड़ी> हिन्दी में शब्दकोशों की कमी… से आगे> ... टीवी चैनलों के मीडियाकर्मियों को शायद इस बात का एहसास नहीं है कि जिस हिन्दी के बूते वे इस सशक्त माध्यम पर तगड़ी छान रहे हैं, उसी के बूते वे करोड़ों हिन्दीवालों को भाषा का सही संस्कार भी दे सकते हैं, बशर्त वे खुद पहले सही बोलना सीख लें...
स रल और आसान भाषा लिखने की (कु)चेष्टा के चलते संचार माध्यमों में जो हिन्दी रची जा रही है, राष्ट्रभाषा और मातृभाषा जैसे विशेषणों के संदर्भों में लगता नहीं कि हम हिन्दी का सम्मान करते हैं। पिछले एक अर्से से लगातार संचार माध्यमों में हिन्दी का स्तर गिरा है। भाषाओं के संदर्भ में वर्तनी की गलती या अशुद्ध उच्चारण आमतौर पर किसी से भी हो सकता है मगर आसान भाषा की आड़ में बोलचाल के शब्दों से लगातार किनारा करते जाना भयावह है।
आसान भाषा का इस्तेमाल नारे की तरह इतनी तेजी से प्रसारित हुआ है कि लोग हिन्दी के आसान शब्द तलाशने की ज़रूरत से ऊपर उठ गए। सीधे सीधे अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल लिखित रूप में होने लगा है। चिकित्सक के स्थान पर वैद्य लिखने के आग्रही हम नहीं हैं क्योंकि हिन्दी परिवेश में वैद्य शब्द के साथ एक अलग व्यंजना जुड़ गई है मसलन देशी पद्धति से इलाज करनेवाला। आधुनिक चिकित्सा पद्धति के संदर्भ में डॉक्टर शब्द सर्वमान्य हो चुका है। अब इसे हिन्दी कोशों में जगह दी जानी चाहिए। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी हर साल प्रचलन के आधार पर अंग्रेजी में समाते जा रहे अन्य भाषाओं के शब्दों को अंग्रेजी भाषा में स्वीकार्य शब्दों के तौर पर शामिल करती है। बैंक, सैलरी, फंड, टीवी, जींस, पेंट, टी-शर्ट, जैसे दर्जनों शब्दों को हिन्दी कोशों में स्वीकार्य शब्द के तौर पर स्थान दिया जाना चाहिए तभी हम शुद्धतावादियों के दुराग्रह से भी बच पाएंगे। देश में संचार माध्यमों के बढ़ते प्रभाव के चलते संस्कृतियों के बीच अंतर्संबंध बढ़ने लगा है। आज मुंबइया शैली की हिन्दी भी सामने आई है। इस शैली के अनेक शब्दों की व्यंजना निराली है। फंटूश, बिंदास, फंडा, फंडू, भिड़ू, जैसे शब्द भी इसी कतार में आते हैं।
हमारी चिन्ता छात्र या विद्यार्थी के स्थान पर
स्टूडेंट, पीढ़ी के स्थान पर
जेनरेशन, जाति के स्थान पर
कास्ट, रोजगार के स्थान पर
कॅरियर, खरीदारी के स्थान पर
शॉपिंग, मार्केटिंग आदि अनेक शब्दों के बढ़ते प्रचलन पर है। बोलचाल में इनका इस्तेमाल सही हो सकता है पर प्रिंट मीडिया में पेज थ्री संस्कृति के बढ़ते विस्तार के मद्देनजर अब ऐसी भाषा इस्तेमाल की जा रही है जिसे हिंग्लिश कहा जाता है। हमने हिन्दी शब्दों को दुरूह मानते हुए, अपनी भाषा में अंग्रेजी शब्दों का गैरजरूरी निवेश शुरू कर दिया है जो खतरनाक है। हिन्दी का वह स्वरूप जो संस्कृत, अरबी, फारसी, तुर्की आदि अनेक भाषाओं के मेल से बीती क़रीब पांच सदियों में विकसित हुआ था, जिसमें हिन्दी की अनेक बोलियों की सुवास भी शामिल थी, अब लगातार ध्वस्त हो रहा है। बोलचाल की भाषा और रोजमर्रा के लेखन की भाषा में हर दौर में फर्क रहा है। हमारी शब्द संपदा बोलचाल की भाषा की तुलना में लिपि में आश्रय पाकर ही सुरक्षित रहती है। अगर बोलचाल के शब्दों का इस्तेमाल मुद्रित रूप में बहुत ज्यादा होता रहा तब
सफर की पिछली कड़ी-हिन्दी में शब्द कोशों की कमी पर कई सुधी पाठकों की बेहतरीन प्रतिक्रियाएं मिली हैं जिन्हें संक्षिप्त रूप में इस आलेख के साथ दे रहे है ताकि नए पाठक भी विषय से जुड़ सकें।
अशोक पाण्डेय …भाषा का रूप परिवर्तनशील होता है और उसी के अनुरूप शब्दकोशों में भी लगातार संशोधन और परिवर्धन की जरूरत पड़ती है, लेकिन अफसोस कि हमारे यहां इसके लिए भाषाशास्त्रियों और साहित्यसेवियों के पास अवकाश और त्याग-भाव नहीं है।गिरिजेश राव ... यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य है क्यों कि एक ही बोली के अनेक रूप मिलते हैं और शब्द/अर्थ सम्पदा में भी पर्याप्त भेद हैं।कोष का सृजन बहुत ही समय और धन की माँग करता है। राजकीय संरक्षण में ही यह काम हो सकता है। चलिए हिन्दी संस्थान ने शुरुआत तो की। डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल …असल में हमने अपनी भाषा के श्रेष्ठता का जितना बखान किया है, अगर उसका एक अंश भी अगर वाकई इसे बेहतर बनाने में किया होता तो स्थिति आज इतनी बुरी नहीं होती.हमारी संस्थाएं और संस्थान उतना नहीं कर पाए हैं जितना उनको करना चाहिए. लोगों का ज़्यादा ज़ोर सर्जनात्मक साहित्य, और उसमें भी कविता लिखने पर है.बालसुब्रमण्यम ...हमारे यहां पुराने विद्वान कंप्यूटर के मामल में अंगूठा छाप हैं, और नई पीढ़ी के लोग अंग्रेजी से इतने प्रभावित हैं, कि उनके लिए हिंदी का मतलब रोमन में लिखा हिंगलिश ही है। शब्दकोश रचना उनके बस की बात नहीं है।शब्दकोश निर्माण श्रम और व्यसाध्य काम है और कोई सर्वांगीण शब्दकोश निर्माण किसी संस्था के बस की ही बात है। दिनेशराय द्विवेदी... भारत में पढ़ने और बोली जाने वाली भाषाओं के एक संयुक्त नागरी कोष की महति आवश्यकता है। यह भारतीय भाषाओं को समीप लाने और हिन्दी को समृद्ध करने का काम करेगा। इस काम को कोई दल ही मिल कर कर सकता है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान को इस विषय में किसी परियोजना को मूर्त रूप देना चाहिए। RDS..दोष तंत्र का है। शोधार्थियों को तंत्र रुकावट न डाले तो इस देश में भी विदेशियों से बेहतर शब्दकोष , विज्ञान के बेहतर शोध संभव हैं। वैसे इधर शोध के क्षेत्र में जुनूनी लोग भी नगण्य ही समझें।
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बड़े-बड़े शब्दकोश भी सिर्फ भार बनकर रह जाएंगे क्योंकि उनमें सुरक्षित शब्द संपदा को हम प्रचलन से बाहर कर चुके होंगे। संचार माध्यमों की अभिव्यक्ति अब कितनी दरिद्र हो चुकी है उसकी मिसाल असरदार जैसा बेहतर और आसान शब्द होने के बावजूद असरकारक जैसा शब्द गढ़ने और उसके इस्तेमाल में नज़र आती है।
अफ़सोसनाक की बजाय
अफ़सोसजनक छपा देखना विडम्बना है। बेहतर है
खेदजनक शब्द का इस्तेमाल कर लिया जाए। ऐसे प्रयोग बोलचाल में धकाए जा सकते हैं, मगर इनका मुद्रित रूप भाषा के प्रति खुली अनुशासनहीनता को बढ़ावा देता है।
खुद को आधुनिक माननेवालों को शायद पता नहीं कि हिन्दी के प्रति उनका यह बर्ताव भी भदेसपन की श्रेणी में ही गिना जाएगा। शहरी भद्रलोक में यह भाषायी देहातीपन इसलिए भी बढ़ रहा है क्योंकि लोगो नें शब्दों को लेकर कोश देखना बंद कर दिया है। लोग यह मानकर चलते हैं कि वे जो कुछ लिख-बोल रहे हैं, वह सत्य है या फिर साथी से पूछ कर वे खुद को दुरुस्त करते हैं चाहे बतानेवाला खुद भी गलत क्यों न हो। अक्सर आप्रवासी को अप्रवासी लिखा जाता है। कई लोगों को ये दोनों शब्द हमने लिख कर दिए और कहा कि सही पर निशान लगा दीजिए, अफ़सोस की बात है कि ज्यादातर ने अप्रवासी को ही सही चुना। जब आप्रवासी ही अप्रवासी है तो उसे प्रवास करने की ज़रूरत क्यों पड़ी यह समझाने में हमें सिर्फ एक मिनट लगा, और वे समझ गए। आ उपसर्ग में ‘सहित’, ‘सीमा सूचक’ या ‘से लेकर’ जैसे अर्थ शामिल हैं। प्रवासी के साथ इसके जुड़ने से बनता है आप्रवासी जिसका अर्थ होता है बाहर से आकर किसी अन्य देश में बसना अर्थात इमिग्रैंट। जब इसके साथ भारतीय विशेषण लगता है तो स्पष्ट है कि भारत से जाकर कहीं और बसनेवाले हिन्दुस्तानियों की बात हो रही है। इसके विपरीत अ उपसर्ग में रहित या विलोम का भाव होता है। इस तरह अप्रवासी का अर्थ हुआ जो प्रवासी नहीं है। अभयारण्य को अक्सर अभ्यारण्य लिखा जाता है। यह इसलिए होता है क्योंकि हम कोश को देखने की ज़रूरत से ऊपर उठ चुके हैं।
भाषा वह माध्यम है जिसने मनुष्य जाति को अभिव्यक्ति की ऐसी विरल और निराली सुविधा दी है जो किसी अन्य प्राणी के पास नहीं है। मगर खुद को अभिव्यक्त करने के इस जरिये को हम लगातार प्रदूषित कर रहे हैं। खाने में कंकर की उपस्थिति को तुरंत अनुभव करनेवाली रसेन्द्रियों जैसी सजगता का कर्णेन्द्रियों से लुप्त होते जाना चिंताजनक है। सही बोलनेवाला ही सही लिख सकता है। घर से लेकर टीवी तक अशुद्ध हिन्दी सुनने के आदी लोगों से सही लिखने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। मज़े की बात यह कि इन्ही में से आते हैं वे तमाम लोग जो संचार माध्यमों में अपना उज्जवल भविष्य देखते हैं। टीवी चैनलों के मीडियाकर्मियों को शायद इस बात का एहसास नहीं है कि जिस हिन्दी के बूते वे इस सशक्त माध्यम पर वे तगड़ी छान रहे हैं, उसी के बूते करोड़ों हिन्दीवालों को भाषा का सही संस्कार भी दे सकते हैं, बशर्त वे खुद पहले सही बोलना सीख लें।
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24 कमेंट्स:
सीख देता हुआ,
जानकारियों से परिपूर्ण लेख।
बधाई।
शुद्ध की कल्पना इस युग में -कदापि नहीं . जैसा चल रहा चलने दे एक दिन ऐसा आएगा कभी संस्कृत की तरह हिंदी भी कोर्स में ही पढाई जयेगी सिर्फ
हम अपने रूप के प्रति सजग रहते हैं तो अपनी भाषा के रूप के प्रति क्यों नहीं। आखिर हमारी भाषा हमारे व्यक्तित्व से भी तो जुड़ी है। जिनका भी भाषा से जुड़ाव है, उन्हें चाहिए कि वैसे शब्दों के इस्तेमाल को बढ़ावा न दें, जो कृत्रिम लगें। सहज शब्दों से भाषा का विकास होता है और उसमें निखार आता है।
डॉ. हरदेव बाहरी का स्मरण कराने के लिए आभार। यह पुस्तक पढ़ने का सौभाग्य तो नहीं मिला, लेकिन उनके हिन्दी शब्दकोश का इस्तेमाल बहुत दिनों से करता रहा हूं।
शब्दों के सफर में शब्दकोश ओर शब्द-संपदा से जुड़े सवालों से गुजरना अच्छा लग रहा है।
किशोरीदास वाजपेयी ने यह प्रयास 1960-70 के दशक में किया था, और काफी हद तक सफल भी हुए थे। तब हिंदी वर्तनी के सामने कुछ मूलभूत समस्याएं थीं, जैसे पिए-पिये, हुई-हुयी, लताएं-लतायें, आदि द्विरूप, पंचम वर्ण के स्थान पर अनुस्वार का उपयोग (गंगा या गङ्गा?), विभिक्ति चिह्नों को शब्द के साथ जोड़कर लिखना है या अलग (राम ने या रामने) इत्यादि। इन सब पर गंभीरता से विचारकर उन्होंने प्रथम विकल्प को सही सिद्ध किया। आज अधिकांश सजग लेखक इन नियमों को मानते हैं और इससे हिंदी में अधिक व्यवस्था आई है।
पर अभी भी वर्तनी के कुछ अनसुलझे मामले हैं, जिन पर जल्द विद्वानों में एकमत लाने और आम लेखकों का मार्गदर्शन करने की जरूरत है -
1. हिंदी में चंद्रबिंदु का स्थान, क्या उसका उपयोग बंद कर देना चाहिए?
2. पूर्ण विराम की जगह खड़ी पाई (।) और फुलस्टोप (.) दोनों चल रहे हैं। मेरा सुझाव है कि खड़ी पाई ही रखी जाए।
3. क्या अरबी-फारसी शब्दों में नुक्ता लगाना चाहिए? किशोरीदास वाजपेयी जैसे धाकड़ वैयाकरण इसके कट्टर विरोधी थे। पर आज अधिकांश लेखक नुक्ता लगाते देखे जाते हैं, पर अव्यवस्थित रूप से। क्या जगह, कानून, जरूर आदि आम बोलचाल के शब्दों में भी नुक्ता लगना चाहिए, जिन्हें अधिकांश हिंदी भाषी बिना नुक्ता के ही बोलते हैं?
वर्तनी से जुड़े इस तरह के मूलभूत विषयों का निराकरण बहुत जरूरी है, और यह बहुत जल्द किया जाना चाहिए।
पता नहीं भारत में इस बात को इतना प्रचारित करने/कराने का कारण क्या है कि आक्सफोर्ड डिक्शनरी में यह शब्द जुड़ गया, वह शब्द जुड़ गया। दुनिया में हजारों भाषाएँ हैं ; दूसरी भाषाओं में कितना भी बड़ा काम/परिवर्तन हो तो इस देश को कुछ भी पता नहीं रहता। साथ ही दूसरी भाषाएं अंग्रेजी में होने वाले इन तुच्छ बातों/नाटकों पर ध्यान नहीं देतीं। बस हम ही हैं जिनके सिर पर गुलामी का हैंगओवर च।दता ही जा रहा है।
आप स्वयं लिख रहे हैं कि किसी भी भाषा का वर्ताव शब्दकोश के आधार पर नहीं चलता। शब्दकोश तो भाषा को कृत्रिम तरीके से और परोक्ष रूप से मानकीकृत करने का प्रयासमात्र है। भारत शायद दुनिया का वह देश है जहाँ शब्दकोश का निर्माण काम सबसे पहले शुरू हुआ।
पता नहीं आपको पता है कि नहीं कि आपका यह टिप्पणियाने का बक्सा फायरफाक्स में नहीं चलता है। विवश होकर मुझे इंटरनेटेक्सप्लोरर का सहारा लेना पड़ा।
अनुनाद सिंह का कमेन्ट देखने के बाद मैंने अपने सर को खुजाया कि भला मेरे दिमाग में ये बात क्यों नहीं आई कि फायरफॉक्स से हट कर एक बार इन्टरनेट एक्स्प्लोरर में आपका पेज खोलूँ और टिप्पणी कर के देखूं. मजे की बात ये है कि ऐसा हमेशा नहीं होता या तो डाटा डाउन होने की स्पीड से भी कुछ वास्ता होगा या फिर मेरी ब्राउसर में ही दिक्कत है, ऐसा सिर्फ आपके यहाँ ही नहीं होता कुछ और ब्लॉग पर भी समस्या है. पर अब देखिये मेरी ये टिप्पणी किसी भाषा विज्ञानी की तरह निरपेक्ष भाव से जा रही है.
अच्छा सुझाव .
अजीत भाऊ अभयारण्य को अभ्यारण्य तो मै भी लिखता था,और पत्रकारिता के शुरुआती दिनो मे अंग्रेजी के शब्दो का उपयोग करता था।तब कुछ लोगों को ज़रूर आपत्ति हुआ करती थी मगर धीरे-धीरे सबने इस्तेमाल करना शुरू कर दिया और अब तो कई शीर्षक देख कर लगता है कि शायद अंग्रेजी का समाचार पढ रहे हों।
मैंने तो कई सरकारी संस्थानों, कार्यालयों में भी अशुद्ध हिंदी लिखी देखी है. ऐसा जान पड़ता है जैसे कि खानापूर्ति की जा रही हो.
बहुत बडिया आलेख मैं भी अप्रवासी ही लिखती थी शुक्रिया सही शब्द बताने के लिये
ajit ji ki bato ko ghyan me rakhte huye ummid hai mai apni hindi sudhar paunga. kyi bar aisa hota h ki prachalit galat sabd hi humara sanskar ban jata h.
ajit ji ka aabhari hu ki wo apna kimati samay dekar hum jaiso ki madad kar rhe h
बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है आपने | यदि लोग अनजाने में अशुद्ध शब्दों का प्रयोग करते तो भी गनीमत थी किन्तु अब तो यह फैशन बन गया है और शुद्ध हिन्दी बोलना हास्यास्पद | दूसरी बात अंगरेजी माध्यम (घर और विद्यालय)से पढ़कर निकालने वालों से हिंगलिश के अलावा और किस भाषा की उम्मीद की जा सकती है |
लेकिन लेखन में एक मानक होना भाषा को बचाने के लिए आवश्यक है |
यह हिंदी लिखने का बॉक्स आपने बहुत बढिया लगाया हुआ है |
बहुत ही दक्षता से परिवर्तित करता है |
सही कहा अजित भाई, सरल होने होने का नारा अब मूर्खता का संगठित धावा बन गया है। हाल ये है कि समावेशी की जगह इन्क्लूसिव, बुनियादी ढांचे की जगह इन्फ्रास्ट्रक्चर के इस्तेमाल की जिद हो रही है। सिलसिला कहां तक जाएगा, कहना मुश्किल है।
इस गति से अशुद्ध हिन्दी ब्लॉगकोश भी छपने की गुंजाइश बनेगी भविष्य में!
और मानक वाले जेब में धर लें अपनी हिन्दी!
यह मानकता का नारा ही क्रोध लाता है! :-)
आपकी बात से सौ फीसदी यानि शतप्रतिशत सहमत हूँ। लिखी जाने वाली भाषा में अशुद्ध वर्तनी बहुत तक़लीफ देती है।
आपने जिन शब्दों में का जिक्र किया है. उनके तो गलत रूप ही ज्यादा प्रचलन में हैं !
@अनुनाद सिंह
पता नहीं भारत में इस बात को इतना प्रचारित करने/कराने का कारण क्या है कि आक्सफोर्ड डिक्शनरी में यह शब्द जुड़ गया, वह शब्द जुड़ गया। ....बस हम ही हैं जिनके सिर पर गुलामी का हैंगओवर चढ़ता ही जा रहा है...भारत शायद दुनिया का वह देश है जहाँ शब्दकोश का निर्माण काम सबसे पहले शुरू हुआ।
भाई, बुरा न मानें, आपकी प्रतिक्रिया विचित्र और विचलित सी लगी। ऊपर लिखी पंक्तियों का भला हमारी पोस्ट की मूल भावना से क्या लेना देना....गुलामी, हैंगओवर जैसे शब्दों की मार किस पर? सिर्फ इसलिए कि ऑक्सफोर्ड का उल्लेख किया? हम भी जानते हैं कि सभी सतर्क,सजग और सुसंस्कृत समाजों में भाषाओं के प्रति संवेदनशीलता होती है। कई भाषाओं के कोश लगातार अद्यतन होते हैं। क्या मुझसे ग़लती हुई? आपकी प्रतिक्रिया किसी ग्रंथि की ओर इशारा करती है:)
माना कि अधिकांश महान चीज़ों की तरह शब्दकोश की शुरुआत भी भारत से हुई थी, मगर क्या आप उल्लेखित वर्गों में कुछ शब्दकोशों का नाम मुझे बता सकते हैं जो सहजता से उपलब्ध हैं? शब्दकोशों की भूमिका गुरुग्रंथ साहिब की तरह ही है। हम किसी भी चीज़ के सुसंस्कृत और देशज दोनों रूप देखने के आदी हैं। होना भी चाहिए। यह फर्क घर-बाहर का भी है। बल्कि घर के अंदर भी ड्राईंग रूप का संस्कार अलग और भीतरी कक्षों का अलग होता है। ...जाहिर है मै जब हिन्दी की बात कर रहा हूं तो बोलचाल की हिन्दी नहीं, बल्कि संस्कारी हिन्दी की ही बात है। बोलचाल में भी अशुद्धियां होती हैं और लिखावट में भी। वैय्याकरणों की हिन्दी में भी वर्तनी की त्रुटियां संभव है जिन्हें प्रूफ पढ़कर ही ठीक किया जा सकता है। मैं तो बर्ताव की तरफ इशारा कर रहा हूं कि हिन्दी गरीब की जोरू, सबकी भाभी क्यों? सरलता का मतलब गरीब की जोरू तो नहीं है न! यही कर रहे हैं संचार माध्यम हिन्दी के साथ खिलवाड़। किसी ज़माने में आकाशवाणी सुन सुन कर लोगों ने अपना उच्चारण सुधारने की आदत डाली थी। सुकून मिलता था कि कोई तो आईना है जो शक्ल दिखाता है। टीवी माध्यमों का हवाला इसी लिए दिया है कि अब उन जिम्मेदारी है, मगर वो सरलता का नारा देकर निभाना नहीं चाहते।
आप के राष्ट्रप्रेम, प्रखर स्वदेशी संवेदना से परिचित हूं। इस संदर्भ में मूल विषय पर आपके विचार जानने को मिलते तो ज्यादा लाभ मिलता। वैसे आपकी स्पष्टवादिता को पसंद करता हूं, मगर कई बार आप जल्दबाजी में गूढ़ हो जाते हैं, संवाद का लक्ष्य अधूरा रह जाता है। आशा है अन्यथा नही लेंगे।
सादर, साभार
अजित
इस गहन जानकारी का आभार.
हमारा तो फायर फॉक्स में चल रहा टिप्पणी बॉक्स...उसी से कर रहे हैं.
आलेख जिस चिंता से उद्भूत है वह भाषा की कम, रुझान की ज्यादा है | शायद हमें आनुवांशिक तौर पर मिली अंग्रेजी - दासता का ही नतीजा है कि हम हिन्दी से कतराते हैं | बजाय इसके कि हिन्दी का प्रसार विदेशों में भी करके आनंदित हों, हमें अंग्रेजी को अपनी साँसों में, रग-रग में, बसा लेने की व्याकुलता है | हम चाहते हैं कि हमारा मिठ्ठू भी बोले तो 'इंग्लिश' ही बोले |
हमने अपने आप को गुलाम हवा के अनुकूल बना लिया है | हिन्दी बोलना हमारी निरक्षरता का प्रतीक न हो इसीलिये हिन्दी इस तरह बोलते हैं जैसे कि उसे जानते ही न हों | हिंगलिश बोलते हैं यह सिद्ध करने के लिए कि हम गर्भ में से ही अंग्रेजी में सोचते विचारते आये हैं |
हिन्दी की शुद्धता का मखौल उडाया जाता है | सायकल / रेल गाडी पर बेतुके शब्द गढ़कर हिन्दी की खिल्ली उडाई जाती है | ये दूषित मानसिकता का परिचायक है | वरना ठेठ हिन्दी के सरल शब्द अभिव्यक्ति में चार चाँद लगा देते हैं | हिन्दी शब्दों के रोचक प्रयोग के लिए कभी भोपाल के समाचारपत्र दैनिक भास्कर में जय प्रकाश चौकसे का स्तम्भ 'परदे के पीछे' बांचियेगा | इधर बीबीसी की हिन्दी सेवा भी कई दशकों से शुद्धता परोस रही है |
समाज की धारा को पत्रकारिता ही दिशा देती है | लांछन किसे, यदि पत्रकारिता में ही खोटे सिक्के चलने लगें ?
manojkhalatkar2007
अजित सर...शानदार लेख के लिए साधुवाद..!
एक २४ वर्षीय युवक और अभियांत्रिकी महाविद्यालय की पृष्ठभूमि से होने की वजह से ,यहाँ स्वघोषित युवा प्रतिनिधि के बतौर आपसे एक बात कहना चाह रहा हूँ... आज के समय में हिंदी बोलचाल को खुद की तौहीन के तौर पर लिया जाता है.. अंग्रेजी गलत ही बोलें ..पर उसे बोलने में हमारे साथियों को एक बड़ेपन का एहसास होता है... हिंदी बोलने..लिखने...वाले को HMT - Hindi Medium Type कह कर माखौल उड़ाया जाता है... अक्सर मेरी बातचीत के दरमियाँ कोई ना कोई मुझे चचा या दादू कह कर खुद को GenX और Yo Man साबित करने की कोशिश भी करता है...मजे की बात ये है उनमे से अधिकांशतः छात्र छात्राएँ वाकई हिंदी माध्यम / मराठी माध्यम से पढाई पूरी किये हुए हैं... पर उनके भाषा ज्ञान की अल्पज्ञता से परिलक्षित हो जाता है...विद्यालाओं में भाषा पढाने वाले अध्यापक कितनी रूचि..और चाव से पढाते हैं..!! ;-)
मुख्य बिंदु जो मै सामने लाना चाह रहा हूँ... की विद्यालयीन स्तर पर जो शिक्षक हैं..वो सिर्फ पाठ्यक्रम मान कर हिंदी ना पढाएं..वरण हिंदी के प्रति छात्रों में एक प्रेम जगाएं...हिंदी के प्रति उनके ह्रदय में वही सम्मान आये जो किसी चीनी जापानी या रूसी के दिल में उनकी अपनी मातृभाषा के प्रति नज़र आता है..!!
एक पत्रकार के नाते आप अगर इस दिशा में अगर कुछ सद्प्रयास कर सकें तो मै सह्रदय आपका आभारी रहूँगा..!!
प्रणाम...
"सारांश गौतम (पुणे)"
खाने में कंकर की उपस्थिति को तुरंत अनुभव करनेवाली रसेन्द्रियों जैसी कर्णेन्दियों की सजगता ...
वाह, क्या ख़ूब कहा है ! महाभाष्यकार के वचन का स्मरण हो आया विद्वान् लोग वाणी का प्रयोग / शब्दापशब्द-विवेक ठीक वैसे ही करते हैं जैसे लोग सत्तुओं को चालनी से छानकर साफ़ करते हैं -
'सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत ।'
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