Thursday, July 9, 2009

मुहब्बत करनेवाले कम न होंगे…

पिछली कड़ियों>प्रेमलता और इश्क के पेचोख़म और इश्क से ईश्वर और ईंट तक से आगे>
... द्वैत से एकत्व के नैसर्गिक क्रिया-कलाप में सन्नद्ध सृष्टि के कण-कण में प्रतिक्षण सिर्फ प्रेम की हलचल हो रही है। प्रेम गति में ही सद्गति है।... omar_khayyam_ba18

श्क की ही तरह मुहब्बत शब्द भी प्रेम के अर्थ में खूब इस्तेमाल होता है। यह मूलतः सेमेटिक भाषा परिवार का शब्द है और अरबी भाषा से फारसी, उर्दू और हिन्दी में आया है। मुहब्बत की रिश्तेदारी भी एक जैसे मिलते-जुलते अर्थ वाले कई शब्दों से है और इन तमाम शब्दों से हिन्दी वाले भी कमोबेश परिचित हैं।
जिस तरह इश्क शब्द की रिश्तेदारी इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार से भी है (कुल-गोत्र को और छोटे दायरे में देखें तो इसे भारत-ईरानी परिवार का भी कह सकते हैं) और सेमेटिक भाषा परिवार से भी और दोनों ही परिवारों में इश्क का रिश्ता प्रकृति यानी वनस्पति से जुड़ता है। अरबी में ‘श्क’ (shq) धातु को इश्क का मूल माना जाता है वहीं इश्क भारोपीय मूल का है इसके भी पुख्ता प्रमाण हैं और इसका संबंध संस्कृत-अवेस्ता (प्राचीन ईरानी) के इश्-इष् से है जिनमें लगाव, गतिवाचक, प्रेम, चाह से लेकर कामना, इच्छा जैसे भाव हैं। प्रेम का तादात्म्य प्रकृति से है, सृष्टि की गति से है। द्वैत से एकत्व के नैसर्गिक क्रिया-कलाप में सन्नद्ध सृष्टि के कण-कण में प्रतिक्षण सिर्फ प्रेम की हलचल हो रही है। प्रेम गति में ही सद्गति है। अरबी भाषा में बीज के लिए एक धातु है हब्ब (habb/hibb) जिसमें मित्र, प्रिय, पात्र, जैसे भाव हैं।

श्क की रिश्तेदारी प्रेमवल्लरी यानि अरबी की आशिका और फारसी की इश्क-पेचाँ से है उसी तरह हब्ब धातु में भी मित्रता, प्रिय आदि जो भाव हैं वह यूं ही नहीं हैं। एक तरह जहां इसका अर्थ मित्र है, दूसरी ओर इसका मतलब होता है बीज। गौर करें बीज और प्रिय में भाव एक ही है। यही बात पात्र अर्थात बरतन में भी है। एक बीज को धरती के गर्भ में स्थान मिलता है। धरती का स्नेह-स्पर्श पा कर उसमें अंकुरण होता है और बीज से हटकर धीरे-धीरे एक समूचा पृथक अस्तित्व नजर आने लगता है। जीवन का स्पंदन आकार लेने लगता है। बिना प्रेम के जीवन संभव नहीं है। सदियों से वनस्पति जगत का विस्तार विकिरण के जरिये होता है। विकिरण यानी बीजों का बिखरना, फैलना। अरब के रेगिस्तान में बीजों के बिखरने की क्रिया को हिब्बत कहते हैं। बीज यानी हब्ब और बीजों का बिखरना यानी हिब्बत। यह अरबी प्रत्यय (अत) संज्ञा-सर्वनाम को क्रियारूप में बदलता है।
शुष्क रेगिस्तान में बीजों का बिखराव यानी हिब्बत!!! धरती से बीजों के मिलन का क्षण। बीज, जिनमें जीवन की धड़कन है, अजाने-अजन्मे से रूपाकार जिनमें कुलबुला रहे हैं। और धरती, किसी बीज के भीतर पनपती जीवन की संभावनाओं को अपनी कोख में सुरक्षित स्नेहgrape&wine की गर्मी से तपाना चाहती है। यह बीज कुदरत का है। ख़ल्क यानी सृष्टि की सृजन भावना का प्रतीक है यह बीज जो धरती की कोख में पलता है। यही प्रेम है। हिब्बत में अरबी उपसर्ग जुड़ने से बनता है महब्बत जिसे हिन्दी में मुहब्बत कहा जाता है। इश्क के नज़रिये से भी देखें तो और भी दिलचस्प नतीजे मिलते हैं। अरबी हिब्ब का एक अर्थ होता है अंगूर या अंगूर का बीज। अंगूर का पौधा भी इश्क-पेचां की तरह ही बेलदार पौधा होता है। प्रकृति में अंगूर की बेल भी किसी न किसी छोटे-बड़े, तने वाले वृक्ष का सहारा लेकर ही फैलती है। वृक्ष से लिपटने, चढ़ने की क्रिया में चाहत, कामना, समर्पण जैसे भाव यहां भी सार्थक हो रहे हैं। अंगूर के रस में नशा होता है। यह नशा प्यार का नशा है। यह यूं ही नहीं आ जाता। इसमें धरती की गर्माहट, बसी है। स्नेहसिक्त है यह रस जो धरा की कोख से निकला है।
रबी में मित्र को हबीब कहते हैं जो इसी धातुमूल से जन्मा है। हबीबी का मतलब होता है प्रियतम, सुप्रिय, प्यारा, दुलारा।  महब्बत का मतलब होता है स्नेह-स्पर्श अथवा प्रेमाभिव्यक्ति। प्यार जताना। जिससे प्यार किया जाता है वह पुरुष पात्र कहलाता है महबूब और स्त्री पात्र कहलाती है महबूबाहब्ब में मित्र का भाव है इसीलिए इसका बहुवचन हुआ हुबूब। इसमें उपसर्ग लगने से बनता है महबूब या महबूबा। कई बार यह अंगूरी ही किन्ही प्रेमपात्रों के लिए महबूब और महबूबा साबित होती है। नतीजा वही होता जो प्रेम का चरित्र है। दो में से किसी एक को अपना अस्तित्व खोना पड़ता है। इसे चाहें समर्पण कहें या कुर्बानी!!!! अक्लमंद इस प्रेम को बेवकूफी भी कहते हैं। अरबी में पत्नी को यूँ तो ज़ौजा कहते हैं किन्तु रफ़ीक़ा शब्द भी है जबकि रफ़ीक़ का अर्थ होता है मित्र। स्वाभाविक है मित्र अगर प्रिय है तो प्रियतमा भी हो सकती है। इस नज़रिये से पत्नी के अर्थ में अरबी, फ़ारसी में बीबी शब्द भी प्रचलित है। हबीबा का अर्थ होता है मित्र, मित्रवत। मुमकिन है हबीबा / हबीबी का ही संक्षिप्त रूप बीबी है जिसका एक रूप बीवी ज्यादा प्रचलित हुआ जिसका अर्थ है पत्नी जबकि बीबी आमतौर पर भद्र महिला के लिए सम्बोधन है। हब्बाखातून पर गौर करें। बीबी फात्मा, बीबी नाजरा, बीबी अख़्तरी जैसे नामों पर गौर करें। ये सम्बोधन समाज के दिए हुए हैं। इनमें पत्नी का भाव नहीं।
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28 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

ओ मेरे हबीब..आपको पढ़्कर एकाएक ज्ञानी होने का अहसास अपने उपर होने लगता है...और कहीं से भी ऐसी खबर आई है क्या?

Arvind Mishra said...

तुझे मुहब्बत करने वाले कभी कम न होंगें .....
अफ़सोस तेरी महफ़िल में मगर हम न होगें
उम्दा सफ़र

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

मुहब्बत करने वाले ते कभी भी कम नही होंगें।
मगर अफ़सोस दुनिया में कभी ग़म नही होगें।।

"अक्लमंद इस प्रेम को बेवकूफी भी कहते हैं।"
सफर अच्छा चल रहा है।
बधाई।

Himanshu Pandey said...

पढ़ के ही रह जाऊं ? सम्मोहित हूँ प्रस्तुति से ।

RDS said...

आपके आलेख से इतना स्पष्ट हुआ कि दैहिक नैसर्गिक चाह की स्थिति का मतलब ही 'मोहब्बत' है | शाब्दिक रूप से इसका कोई सम्बन्ध अलौकिक मस्ती से नहीं है ; जैसा कि मालिक मोहम्मद जायसी, घनानंद और कुछ छायाकालीन तुकाबंदीकारों की रचनाओं पर समीक्षाकारों ने भ्रम फैला रखा है |

ये बात तो तय है कि मोहब्बत की आकांक्षा नैसर्गिक है परन्तु नैसर्गिक कामनाओं की पूर्ती के बाद भी समाज में कचरा फैलाने की कोशिश को मोहब्बत नाम देना सरासर दूषित और असंयमित मनोवृत्ति ही समझना चाहिए |

इस लिहाज़ से प्रेम शब्द की महिमा 'मोहब्बत' से जुदा और गुरुतर है | प्रेम झरना है, जो बहता है सबके लिए, दैहिक कामना से परे | प्रेम भाव की दशा में व्यक्ति स्वयं में भी मगन रहता है प्रकृति से एकात्म होते हुए ! उसके लिए अद्वैत कहीं है ही नहीं | सब कुछ एकत्व का विस्तार है उसके स्वयं का अस्तित्व भी !

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह said...

भाई जी ,इश्क ,महब्बत , मुहब्बत के रिश्ते इतनीं खूबसूरती से सुलझा दिए कि एक बार फिर सलाम को दिल हो आया ,हो भी क्यों न ,दिन रात कलम गीरी के बाद भी इतनी ऊर्जा ,इतना नवोन्मेष ,इतना संकल्प कि सूरज की तरह नियम से उग जाये कोई हंसी खेल नहीं ,पहले भी आप के स्तुत्य कार्य के लिए प्रशंसा छोटी पड़ती थी ,आज भी पड़ती है .
मेरा हार्दिक आदर पुनः .
आपका ही
डॉ.भूपेन्द्र

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

वाह! क्या बात है। इश्क, मोहब्बत, प्यार की चर्चा तो चाहे जितना करिए यह विषय पूरा होने वाला नहीं है। जमाए रहिए जी।

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह said...

अजित भाई एक बात और ,उड़न तश्तरी की बात भी एक दम सटीक है ,कभी कभी आपका ज्ञान हमें खुद को ज्ञानी मान बैठने का मिथ्या बोध कराने लगता है ,सही बात मेरे हबीब .
डॉ.भूपेन्द्र

Unknown said...

jee karta hai padhte rahen.......... padhte rahen............

dhnya ho ajitji
waah
bahut khoob kar rahe ho..
ABHINANDAN !

के सी said...

कान बजते हैं मोहब्बत के, सुकूते-नाज़ को
दास्ताँ का ख़त्म हो जाना समझा बैठे थे हम !

ओम आर्य said...

ज्ञान बाटने से बढता है यह सुना था .......पर अच्छी पोस्ट पढकर भी बढता है.बहुत ही सुन्दर ..............ऐसे ही लिखते रहे ताकि ज्ञान की गंगा मे डुबकी लगाते रहे ...............धन्यावाद

Alpana Verma said...
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Alpana Verma said...
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Alpana Verma said...

आप का लेख दोबारा रुक रुक कर पढ़ा......इस लिए पहला कमेन्ट हटा दिया..:)

सागर said...

इतना ज्ञान... चाशनी में डूबा मारा उस्ताद... अब बाहर भी निकालो

जय हो....

रंजना said...

डूबकर पढ़ा और शब्दातीत आनंद पाया....बहुत बहुत आभार.

निर्मला कपिला said...

बहुत उमदा है शब्द ग्यान आभार्

IMAGE PHOTOGRAPHY said...

ऎ मुहब्बत के हमसफर के राही ये तेरा इश्क का फलसफा अजीज लगा

IMAGE PHOTOGRAPHY said...

आज ही आप के ब्लोग पर आया और आप का मुरीद हो गया ,शब्दो के जाल मे उलझ गया

अजित वडनेरकर said...

@rds
रमेश भाई, इश्क, प्रेम, मुहब्बत, ये तमाम शब्द सिर्फ एकाकार होने की ही बात करते हैं। इनके दैहिक और आध्यात्मिक पक्ष की बात तो संदर्भों और प्रसंगों पर निर्भर करती है। इश्क और हिब्ब/हब्ब में कहीं भी देह की बात नहीं है बल्कि द्वैत से एकत्व पर ही जोर है। मिलन, एकत्व में आनंद महत्वपूर्ण है। देह से देहान्तर के बियाबान में तो बड़े बड़े ऋषि-मुनि-योगी-ब्रह्मचारी-आचार्य भटके हैं। सबके अपने अपने निष्कर्ष रहे हैं। बस, इतना ही कहेंगे कि प्रेम, इश्क, मुहब्बत सब एक हैं। साकार और निराकार के संदर्भ में इनमें कोई फर्क नहीं है। मिलन का आनंद अगर समष्टि का आनंद बनता है तो वह मिलन सफल है। धरती से बीज का मिलन ऐसा ही है।

रवीन्द्र व्यास said...

यह पोस्ट पसंद आई

विपिन चौधरी said...

जीवन से प्यार करनेवाले मुहब्बत करने से कैसे बच सकते हैं।

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

इश्क मोहब्बत(शब्द ) की उत्पत्ति इतनी विस्तृत रूप से शायद ही कहीं मिले .आपको मै हबीब नही कह सकता क्योकि उस्ताद को शायद हबीब नहीं कह सकते

अनिल कान्त said...

बेहतरीन ज्ञान मिला

शरद कोकास said...

एकदम बरोब्बर

Mansoor ali Hashmi said...

साहित्य के चमन में शब्दों की जो खेती आप कर रहे है, यह भी साहित्य-प्रेम का अनूठा अंदाज़ है. आपके मुहब्बत के इस शजर पर तो फूल और फल [समर] दोनों हासिल हो रहे है, ये आपकी खुश नसीबी है, वरन एक शाईर ने तो मेहनत पर ही इकतिफा किया है:-
"चमनज़ारे मुहब्बत में उसी ने बागबानी की,
कि जिसने अपनी मेहनत को ही मेहनत का समर जाना."

Anonymous said...

ये तो पता था की आप ज्ञान की गंगा हैं - आपका ज्ञान कितना विस्तृत है धीरे धीरे ज्ञात हो रहा है :) बहुत खूब लिखा - पहली बार इन प्यारे से शब्दों के भीतर जा कर देखा. धन्यवाद्.

Vivek Gupta said...

अल हबीबी :) कुछ दिन पहिले ही ये शब्द मैंने अपने लीबिया के दोस्त से सिखा |

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