हिन्दी में अरबी, फारसी समेत कई भाषाओं के शब्द इसी तरीके से समाए हुए हैं। हिन्दी में क़यामत शब्द भी एक ऐसा ही शब्द है। यह अरबी ज़बान का है। हिन्दी में क़यामत का प्रयोग अक्सर आफ़त, मुश्किल, हंगामा, उथल-पुथल, उधम आदि के अर्थ में होता है। अरबी में क़यामत का सही रूप है क़ियामत जो बना है क़ियामाह से। इस शब्द की रिश्तेदारी अरबी में भी बहुत गहरी है और इस कुनबे के कुछ शब्द बरास्ता फारसी-उर्दू होते हुए हिन्दी में भी आ गए हैं। क़ियामाह की मूल सेमिटिक धातु क़ाफ़-वाव-मीम या q-w-m है जिसमें मुख्यतः स्थिर होने अथवा किसी के सम्मुख खड़े रहने की बात है। अरबी में क़ियामाह या क़ियामत का अर्थ होता है महाप्रलय अथवा महाविनाश का दिन। विभिन्न सभ्यताओं में इस तरह कि कल्पना की गई है कि सृष्टि में सृजन और विध्वंस का क्रम चलता रहता है।
महाप्रलय या महाविनाश की कल्पना के अंतर्गत नई दुनिया के जन्म की बात भी शामिल है। हर चीज़ का वक्त मुकर्रर है। मौत का एक दिन मुअय्यन है। नींद क्यों रात भर नहीं आती।। ग़ालिब साहब के इस शेर में इसी तयशुदा दिन की फिक्र की ओर दार्शनिक अंदाज में संकेत किया गया है। क़यामत का अर्थ ज़लज़ला, विप्लव,विध्वस आदि नहीं बल्कि खुदा के दरबार में इन्सान के गुनाहों की पेशी का भाव है। क़ियामाह का अर्थ होता है वह दिन जब प्रभु संसार के कर्मों का हिसाब करने बैठेंगे और मनुष्य ईश्वर के सामने खड़ा होगा। इस्लामी संस्कृति में क़यामत का अर्थ होता है वह दिन जब अच्छाई और बुराई के बीच फैसला होता है। वह दिन जब फिर से सृष्टि नया रूप लेती है, वह दिन जब प्रभु न्याय करते हैं, वह दिन जब सब लोग ईश्वर के सामने एकत्रित होते हैं और वह दिन जब वापसी होती है अर्थात फिर जीवन के आरम्भ का दिन।
इस तरह साफ है कि क़यामत में मूलतः खुदा के सामने खड़े होने का भाव है। सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है...क़यामत का दिन वो दिन है जब ईश्वर सिर्फ फैसला सुनाते हैं। उस दिन किसी को घुटनों के बल झुक कर सिर नवाने या फिर चरणों में लोट लगा कर अपने गुनाह बख्शवाने का मौका भी नहीं दिया जाता। जाहिर है सर्वशक्तिमान के सामने पेशी का दिन आखिर क़यामत का दिन ही तो होगा। ईश्वर से कुछ छुपा नहीं है, यह सब जानते हैं और इसीलिए इस दिन का सामना करने से कतराते हैं। संसार में व्याप्त बुराइयों को हटा कर ईश्वर क़यामत के दिन फिर नवसृजन करते हैं। ऐसे में सब कुछ पूर्ववत नहीं रहता। इसीलिए क़यामत के दिन से सभी ख़ौफ खाते हैं। हिन्दी में इसी लिए क़यामत का दिन, क़यामत की रात जैसे मुहावरेदार प्रयोग भी इसके साथ होते हैं। यूं सामान्य आफ़त, मुश्किल घड़ी या भारी गड़बड़ी को भी क़यामत से जोड़ा जाता है। [अगली कड़ी में जारी]
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें
|
15 कमेंट्स:
आज एक नया अंदाज-बहुत भाया!!
कुछ दिनों के बाद पढ़ रहा हूँ, संतुष्ट हो रहा हूँ । बेहतर आलेख ।
शेष भाग की प्रतीक्षा में...
---
पढ़िए: सबसे दूर स्थित सुपरनोवा खोजा गया
.क़यामत का दिन वो दिन है जब ईश्वर सिर्फ फैसला सुनाते हैं...
सही है.
खुदा करे की कयामत हो और...... :)
अच्छी जानकारी.... अगले पोस्ट का इंतज़ार है.
आज तो शब्दों के बहाने दर्शन मिला। बृहस्पति की उक्ति कि जो जन्म लेता है वह मरता है बहुत सही है। मानवों घऱ यह पृथ्वी भी कभी वर्तमान स्वरूप में नष्ट होगी और सूरज भी। लेकिन उन का पदार्थ नष्ट नहीं होगा। वह अविनाशी है। वह नया रूप ग्रहण करेगा। तो कयामत तो है लेकिन जब वह होगी तो न दिन होगा न रात न उसे कोई देखने वाला।
कयामत तो आप भी ढा रहे है इतनी आसानी से एक महा विप्लव को गले उतर कर.
मगर अहमद नदीम कासमी ने यूं भी कहा है:-
वो बुतों ने डाले है वसवसे की दिलो से खौफ-ए-खुदा गया,
वो पड़ी है रोज़ क़यामतें की खयाले रोज-ए जजा गया.
"ईश्वर क़यामत के दिन फिर नवसृजन करते हैं। ऐसे में सब कुछ पूर्ववत नहीं रहता। इसीलिए क़यामत के दिन से सभी ख़ौफ खाते हैं। हिन्दी में इसी लिए क़यामत का दिन, क़यामत की रात जैसे मुहावरेदार प्रयोग भी इसके साथ होते हैं।"
क़यामत शब्द की सुन्दर व्याख्या की है।
आभार!
bahut achhi vykhya aur utna hi acha lekhan srjan
kal ka intjar rhega .
abhar
खुदा के वजूद को जब पूछता हूँ मै
लोग काफिर कह कयामत के इंतज़ार को कहते है
क़यामत से क़यामत तक ....वाह ...आपने तो क़यामत ही बरपा दी है ....जिक्र होता है जब क़यामत का , तेरे जलवों की बात होती है ....तू जो चाहे तो दिन निकलता है , तू जो चाहे तो रात होती है .....
वाह शब्दों से खूब खेले हैं आप ...क़यामत की बात करके क़यामत ही ढा दी है
अक़ीदा उस पर रखो जो हम तुम पे मेहरबान हैं
जो हाथों से छुटकर बिखर जाए वो ख़ुदा नहीं होते
Written by M Islam Choudhary
अक़ीदा उस पर रखो जो हम तुम पे मेहरबान हैं
जो हाथों से छुटकर बिखर जाए वो ख़ुदा नहीं होते
Written by M Islam Choudhary
अक़ीदा उस पर रखो जो हम तुम पे मेहरबान हैं
जो हाथों से छुटकर बिखर जाए वो ख़ुदा नहीं होते
Written by M Islam Choudhary
Post a Comment