पिछली कड़ी-घर-शहर की बदलती सूरत [बकलम खुद-111]
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अजित वडनेरकर
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पिछली कड़ी-गंज-नामा और गंजहे [आश्रय-16]
चलते चलते - हिन्दी में चावल के स्टार्च को माण्ड कहा जाता है। गौर करें यह एक किस्म का फेन होता है जो चावल को उबाले जाने पर ऊपर की ओर उठता है। यहां उभरने के गुण की वजह से ही चावल से निसृत चिपचिपे पदार्थ को मण्डः कहा गया है जिससे हिन्दी में माण्ड या माड़ बना है।
मण्डल शब्द का इस्तेमाल होता है जैसे रेल मण्डल, मण्डल अधीक्षक आदि। अलग अलग विभाग भी अपने प्रशासनिक क्षेत्रों के लिए मण्डल शब्द का प्रयोग करते हैं। परगना, सूबा, जिला, उपनिवेश आदि भी इसी दायरे में आते हैं। मण्ड धातु की रिश्तेदारी इंडो-यूरोपीय धातु men ले भी है जिससे ऊंचाई, उभार, सजाना, आधार प्रदान करना जैसे भाव हैं। गौरतलब है कि अंग्रेजी का mount, mountain जैसे शब्द इसी मूल से बने हैं जिसमें आधार, उभार और ऊंचाई साफ झलक रही है। पर्वत शुरु से ही मनुष्य के आश्रय-आधार रहे हैं। मण्ड धातु में घेरा, घेरना जैसा भाव भी माऊंट में उजागर है। पर्वत एक विशाल क्षेत्र को घेरते हुए सीमांकन का काम करते हैं। हिन्दी में किसी खुले क्षेत्र की उठी हुई सीमारेखा या चहारदीवारी के लिए मेड़ शब्द प्रचलित है जो मण्ड् धातु से ही निकला है। इस धातु से ही बने हैं मण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वर, मण्डलाधीश, मण्डलाधिपति जैसे शब्द जिनमें राजा, सम्राट, शासक अथवा धर्मगुरु का भाव है। आजकल मण्डलाधिकारी शब्द चलता है जो आमतौर पर डिस्ट्रक्ट मजिस्ट्रेट यानी कलेक्टर होता है।
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अजित वडनेरकर
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ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें इलाहाबाद में हए ब्लागिंग सेमिनार में एक दिवसीय शिरकत के बाद हम दिल्ली चले गए थे। वहां से आज सुबह ही वापसी हुई। इस बीच नेट से दूर रहा। अब रवि जी के सौजन्य से उपलब्ध करीब ढाई दर्जन लिंक्स को बारी-बारी से देखा। ब्लागिंग नहीं करता, ब्लागर नहीं हूं पर इस विधा और इस मंच का उपयोगकर्ता होने की वजह से इस विधा को समझने का उतना ही भ्रम मुझे भी है जितना यहां मौजूद कई लोगों को है ,जिनमें हिन्दुस्तान के अलावा विदेशों में बसे ब्लागिंग के आधा दर्जन से ज्यादा भीष्म पितामह भी हैं। तमाम बातों को दिलचस्पी से पढ़ा। हिन्दी का नाम जिस भी आयोजन से जुड़ा हो, उसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप, बहस-मुबाहसा, वितंडा, मान-मनौवल, लगाई-बुझाई न हो, यह असंभव है। इस बार भी यह होना ही था। बहस के किन्हीं आयामों पर बात करना तभी संभव हो सकता है जब उद्धेश्य किसी नतीजे पर पहुंचना हो। सजा या फतवा सुनाने की हिम्मत किए बगैर बहस के नाम पर सिर्फ अतीतगान और पंडिताई हो, तब उबासी आनी स्वाभाविक है।
यह चित्र सुबह साढ़े नौ बजे का है। कार्यक्रम शुरु होने के करीब ढाई घंटे पहले। अनूप नजर आ रहे हैं और पीछे दीवार पर कुछ वायरिंग देख रहे हैं रवि जी। ब्रॉडबैंड के जरिये सबको तुरत-फुरत हाल बताने के प्रयासों में ये दोनों व्यस्त रहे। इनकी लगन को नमन् है। हम भी इनके साथ लगे थे, तमाशाई बन कर। आयोजन के आलोचक ज़रा ध्यान दें, ये दोनों आमंत्रित अतिथि थे।
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अजित वडनेरकर
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संबंधित कड़ियां-1.लीक छोड़ तीनौं चलै, सायर-सिंघ-सपूत [लकीर-1]2.रेखा का लेखा-जोखा (लकीर-2)3.कोलतार पर ऊंटों की क़तार [लकीर-3]4.मेहरौली, मुंगावली, दानाओली, दीपावली[लकीर-4]5.सूत्रपात, रेशम और धागा [रेखा-5]
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अजित वडनेरकर
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पिछली कड़ी-आशियाना दर आशियाना [बकलमखुद-110]
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अजित वडनेरकर
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2:58 AM
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अजित वडनेरकर
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11:59 AM
संबंधित पोस्ट-1.लीक छोड़ तीनौं चलै, सायर-सिंघ-सपूत [लकीर-1] 2.रेखा का लेखा-जोखा (लकीर-2)3.कोलतार पर ऊंटों की क़तार [लकीर-3] 4.पतली गली से गुज़रना [सफर के रास्ते-1]
क़ तार के अर्थ में हिन्दी के के अवलि, पंक्ति जैसे शब्द इस्तेमाल होते हैं। हालांकि अवलि मूलतः संस्कृत का शब्द है। इसका देशज रूप अवली है। बोलचाल की हिन्दी में यह कम प्रयुक्त होता है मगर कई शब्दों में इसकी अर्थछाया नज़र आती है। कई कोशों में इसके अवलि, अवली, आवलि, आवली, औली, आलि जैसे रूप मिलते हैं। मूलतः इस शब्द में रेखा, पंक्ति, कतार, सजावट आदि का भाव है। दीपावली, दीवाली, दिवाली जैसे विभिन्न शब्दरूपों में यही आवलि झांक रही है जिसका अर्थ है दीयों की क़तार। संस्कृत में आलि शब्द है जिसका प्रयोग काव्य में किसी स्त्री की सहेली के तौर पर भी होता है। आलि में रेखा, लकीर, पुल, पुलिया का भाव है। आलि शब्द बना है अल् धातु से जिसमें साज-सज्जा का भाव प्रमुख है। इसके अलावा इसमें रोकना, थामना जैसे भाव भी है। स्तम्भ को परिनिष्ठित हिन्दी में आलम्ब कहते हैं अर्थात लम्बवत स्थिति। एक पुल कई आलम्बों पर टिका रहता है जो एक पंक्ति में होते हैं। आलि शब्द में पुल और क़तार शब्द का भाव एक साथ स्पष्ट हो रहा है। यही नहीं ध्यान दें तो कतार या पंक्ति सज्जाविधान का एक प्रमुख अंग भी है। सो पंक्ति के रूप में आलि में निहित सजावट का भाव भी स्पष्ट है। अल् से बने हैं अलंकार, आलंकारिक, अलंकरण जैसे शब्द जिनमें गहना, सजावट, शृगार के भाव हैं। सजावट के बिना दीपावली की कल्पना नहीं की जा सकती।
इस आलि में निहित पंक्ति, कतार के भाव की तुलना और आलि शब्द की ध्वनियों की तुलना अवली, अवलि से की जा सकती है। ये दोनों ही शब्द निकट के हैं। आप्टे कोश में अवलि शब्द नहीं मिलता इसकी जगह आवलि शब्द है। हिन्दी शब्दसागर में अवलि शब्द को संस्कृत का बताया गया है और अवली को देशज हिन्दी शब्द। संस्कृत का आवलि शब्द वल् धातु से बना है जिसमें जाने का, गति का, आगे बढ़ने का, मुड़ने का, घेरने, लुढ़कने, लुढ़काने का भाव है। बिंदु को रेखा का उद्गम माना जाता है। बिंदुओं का वृद्धिक्रम ही रेखा कहलाता है। सो रेखा में गति और वृद्धि का भाव स्पष्ट है। क़तार में क़तरा-क़तरा यानी बूंदों के टपकने का भाव साफ नजर आ रहा है जो एक लम्बवत लकीर ही होती हैं। वृद्धिक्रम ज़रूरी नहीं कि सीधा हो। रेखाएं सरल भी होती है और वक्र भी। ऊर्ध्व भी होती है और क्षैतिज भी। गोल घेरा भी रेखा से ही निर्मित होता है। वल् शब्द में घेरने और मुड़ने का भाव भी निहित है। जाहिर है किसी पदार्थ को मोड़ने, घुमाने के अर्थ में हिन्दी में बल शब्द का प्रयोग किया जाता है जो शक्ति वाले बल से अलग होता है। माथे पर बल पड़ना में यही बल झांक रहा है। वल्लरी में भी यही बल है जो वृक्ष के सहारे घूमते हुए ऊपर चढ़ती है। इसका ही देशज रूप है बेल। रोटी बनाने का उपकरण बेलन भी इसी मूल से जन्मा है क्योकि इसे घुमाया जाता है।
आवलि शब्द का सर्वाधिक प्रयोग बसाहटों के अर्थ में हुआ है। वल् में निहित घेरने का भाव किसी ग्राम-नगर की सीमा में स्पष्ट हो रहा है। किसी भी बसाहट के लिए सीमांकन ज़रूरी है। गांव-आबादी की कैसी भी बसाहट हो, बिना घेरे के पूरी नहीं होती। घेरा का अर्थ गोल-चक्र ही नहीं होता बल्कि वह समूचा क्षेत्र जो चारों दिशाओं में किसी कृत्रिम रचना से आवृत्त हो, घेरा हुआ कहलाता है। जगप्रसिद्ध कुतुबमीनार दुनियावालों के लिए दिल्ली में है मगर हमारे लिए वह मेहरौली में स्थित है जो दिल्ली के पास स्थित एक प्राचीन बसाहट है। जब दिल्ली का नाम इंद्रप्रस्थ था, तब प्रख्यात खगोलशास्त्री वराहमिहिर का इस इलाके में आश्रम था। इतिहासकारों के मुताबित चंद्रगुप्त विक्रमादित्य द्वारा वहां में 27 मंदिरों का निर्माण कराया जा रहा था। यह काम वराहमिहिर के मार्गदर्शन में चलता रहा। इन मंदिरों को मुस्लिम शासको द्वारा नष्ट किया गया मगर इस स्थान को मिहिरावली यानी वराहमिहिर की देखरेख में बन रहे मंदिरों की पंक्ति के नाम से जाना गया। इसी तरह चंदौली, अतरौली, मुंगावली, डबवाली, बिलावली जैसी आबादियों के नामों के पीछे भी यही आवलि छुपी नजर आती है। भण्डौली शब्द का मतलब हुआ बरतनों की कतार। यही नहीं एक वनौषधि का नाम होता है पंचौली क्योंकि उसके फूल में पांच दल होते हैं जिसकी वजह से उसे पंचावलि कहा गया जो पंचौली हो गया। ब्राह्मणों का एक गोत्र पंचौली होता है। संभवतः इस व्युत्पत्ति से उसका रिश्ता नहीं है। पंचाल जनपद के ब्राह्मण पांचाल कहलाते होंगे जो कालांतर में पंचौली हो गया। मराठी में ओळी किसी गली या कतारनुमा रिहाइश को कहते हैं। मराठा शासकों की राजधानी ग्वालियर में इस शब्दमूल से जुडे कई स्थाननाम मिलते हैं जैसे दानाओली जिसका अर्थ हुआ जहां दाना यानी अनाज मिलता हो। साफ है कि आशय ग्रेन मार्केट से है। इसी तरह दर्जीओली का मतलब हुआ जिस गली में दर्जियों की दुकानें हों।यहां अवलि का मतलब कतार, पंक्ति से ही है जो अंत में गली के अर्थ में रूढ़ होता है।
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
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अजित वडनेरकर
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5:12 AM
संबंधित पोस्ट-1.लीक छोड़ तीनौं चलै, सायर-सिंघ-सपूत [लकीर-1] 2.रेखा का लेखा-जोखा (लकीर-2) 3.घासलेटी साहित्य और मिट्टी का तेल 4.ममी की रिश्तेदारी भी केरोसिन से…
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अजित वडनेरकर
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4:34 AM
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nature
बहुत शोधपरक, उपयोगी और महत्वपूर्ण जानकारियां। हिंदी में इतनी संलग्नता के साथ ऐसा परिश्रम करने वाले विरले ही होंगे।
'शब्दों का सफर' मुझे व्यक्तिगत रूप से हिन्दी का सबसे समृद्ध और श्रमसाध्य ब्लॉग लगता रहा है।
आप के समर्पण और लगन के लिए मेरे पास ढेर सारी प्रशंसा है और काफ़ी सारी ईर्ष्या भी।
सच कहूँ ,ब्लॉग-जगत का सूर और ससी ही है शब्दों का सफ़र . बधाई.... अंतर्मन से
लिखते रहें. यह मेरे इष्ट चिट्ठों मे से एक है क्योंकि आप काफी उपयोगी जानकारी दे रहे हैं.
थोड़े में कितना कुछ कह जाते हैं आप. आपके ब्लाँग का नियमित पारायण कर रहा हूं और शब्दों की दुनिया से नया राब्ता बन रहा है.
आपकी मेहनत कमाल की है। आपका ये ब्लॉग प्रकाशित होने वाली सामग्री से अटा पड़ा है - आप इसे छपाइये !
बेहतरीन उपलब्धि है आपका ब्लाग! मैं आपकी इस बात की तारीफ़ करता हूं और जबरदस्त जलन भी रखता हूं कि आप अपनी पोस्ट इतने अच्छे से मय समुचित फोटो ,कैसे लिख लेते हैं.
सोमाद्रि
इस सफर में आकर सब कुछ सरल और सहज लगने लगता है। बस, ऐसे ही बनाये रखिये. आपको शायद अंदाजा न हो कि आप कितने कितने साधुवाद के पात्र हैं.
शब्दों का सफर मेरी सर्वोच्च बुकमार्क पसंद है -मैं इसे नियमित पढ़ता हूँ और आनंद विभोर होता हूँ !आपकी ये पहल हिन्दी चिट्ठाजगत मे सदैव याद रखी जायेगी.
भाषिक विकास के साथ-साथ आप शब्दों के सामाजिक योगदान और समाज में उनके स्थान का वर्णन भी बडी सुन्दरता से कर रहे हैं।आपको पढना सुखद लगता है।
आपकी मेहनत को कैसे सराहूं। बस, लोगों के बीच आपके ब्लाग की चर्चा करता रहता हूं। आपका ढिंढोरची बन गया हूं। व्यक्तिगत रूप से तो मैं रोजाना ऋणी होता ही हूं.
आपकी पोस्ट पढ़ने में थोड़ा धैर्य दिखाना पड़ता है. पर पढ़ने पर जो ज्ञानवर्धन होताहै,वह बहुत आनन्ददायक होता है.
किसी हिन्दी चिट्ठे को मैं ब्लागजगत में अगर हमेशा जिन्दा देखना चाहूंगा, तो वो यही होगा-शब्दों का सफर.
निश्चित ही हिन्दी ब्लागिंग में आपका ब्लाग महत्वपूर्ण है. जहां भाषा विज्ञान पर मह्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध रह्ती है. 
good,innovative explanation of well known words look easy but it is an experts job.My heartly best wishes.
चयन करते हैं, जिनके अर्थ को लेकर लोकमानस में जिज्ञासा हो सकती हो। फिर वे उस शब्द की धातु, उस धातु के अर्थ और अर्थ की विविध भंगिमाओं तक पहुँचते हैं। फिर वे समानार्थी शब्दों की तलाश करते हुए विविध कोनों से उनका परीक्षण करते हैं. फिर उनकी तलाश शब्द के तद्भव रूपों तक पहुंचती है और उन तद्बवों की अर्थ-छायाओं में परिभ्रमण करती है। फिर अजित अपने भाषा-परिवार से बाहर निकलकर इतर भाषाओँ और भाषा-परिवारों में जा पहुँचते हैं। वहां उन देशों की सांस्कृतिक पृष्टभूमि में सम्बंधित शब्द का परीक्षणकर, पुनः समष्टिमूलक वैश्विक परिदृश्य का निर्माण कर देते हैं। यह सब रचनाकार की प्रतिभा और उसके अध्यवसाय के मणिकांचन योग से ही संभव हो सका है। व्युत्पत्तिविज्ञान की एक नयी और अनूठी समग्र शैली सामने आई है।
16.चंद्रभूषण-
[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8 .9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26.]
15.दिनेशराय द्विवेदी-[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22.]
13.रंजना भाटिया-
12.अभिषेक ओझा-
[1. 2. 3.4.5 .6 .7 .8 .9 . 10]
11.प्रभाकर पाण्डेय-
10.हर्षवर्धन-
9.अरुण अरोरा-
8.बेजी-
7. अफ़लातून-
6.शिवकुमार मिश्र -
5.मीनाक्षी-
4.काकेश-
3.लावण्या शाह-
1.अनिताकुमार-
शब्दों के प्रति लापरवाही से भरे इस दौर में हर शब्द को अर्थविहीन बनाने का चलन आम हो गया है। इस्तेमाल किए जाने भर के लिए ही शब्दों का वाक्यों के बाच में आना जाना हो रहा है, खासकर पत्रारिता ने सरल शब्दों के चुनाव क क्रम में कई सारे शब्दों को हमेशा के लिए स्मृति से बाहर कर दिया। जो बोला जाता है वही तो लिखा जाएगा। तभी तो सर्वजन से संवाद होगा। लेकिन क्या जो बोला जा रहा है, वही अर्थसहित समझ लिया जा रहा है ? उर्दू का एक शब्द है खुलासा । इसका असली अर्थ और इस्तेमाल के संदर्भ की दूरी को कोई नहीं पाट सका। इसीलिए बीस साल से पत्रकारिता में लगा एक शख्स शब्दों का साथी बन गया है। वो शब्दों के साथ सफर पर निकला है। अजित वडनेरकर। ब्लॉग का पता है http://shabdavali.blogspot.com दो साल से चल रहे इस ब्लॉग पर जाते ही तमाम तरह के शब्द अपने पूरे खानदान और अड़ोसी-पड़ोसी के साथ मौजूद होते हैं। मसलन संस्कृत से आया ऊन अकेला नहीं है। वह ऊर्ण से तो बना है, लेकिन उसके खानदान में उरा (भेड़), उरन (भेड़) ऊर्णायु (भेड़), ऊर्णु (छिपाना)आदि भी हैं । इन तमाम शब्दों का अर्थ है ढांकना या छिपाना। एक भेड़ जिस तरह से अपने बालों से छिपी रहती है, उसी तरह अपने शरीर को छुपाना या ढांकना। और जिन बालों को आप दिन भर संवारते हैं वह तो संस्कृत-हिंदी का नहीं बल्कि हिब्रू से आया है। जिनके बाल नहीं होते, उन्हें समझना चाहिए कि बाल मेसोपोटामिया की सभ्यता के धूलकणों में लौट गया है। गंजे लोगों को गर्व करना चाहिए। इससे पहले कि आप इस जानकारी पर हैरान हों अजित वडनेरकर बताते हैं कि जिस नी धातु से नैन शब्द शब्द का उद्गम हुआ है, उसी से न्याय का भी हुआ है। संस्कृत में अरबी जबां और वहां से हिंदी-उर्दू में आए रकम शब्द का मतलब सिर्फ नगद नहीं बल्कि लोहा भी है। रुक्कम से बना रकम जसका मतलब होता है सोना या लोहा । कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी का नाम भी इस रुक्म से बना है जिससे आप रकम का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे तमाम शब्दों का यह संग्रहालय कमाल का लगता है। इस ब्लॉग के पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी अजब -गजब हैं। रवि रतलामी लिखते हैं कि किसी हिंदी चिट्ठे को हमेशा के लिए जिंदा देखना चाहेंगे तो वह है शब्दों का सफर । अजित वडनेरकर अपने बारे में बताते हुए लिखते हैं कि शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नज़रिया अलग अलग होता है। मैं भाषाविज्ञानी नहीं हूं, लेकिन जज्बा उत्पति की तलाश में निकलें तो शब्दों का एक दिलचस्प सफर नजर आता है। अजित की विनम्रता जायज़ भी है और ज़रूरी भी है क्योंकि शब्दों को बटोरने का काम आप दंभ के साथ तो नहीं कर सकते। इसीलिए वे इनके साथ घूमते-फिरते हैं। घूमना-फिरना भी तो यही है कि जो आपका नहीं है, आप उसे देखने- जानने की कोशिश करते हैं। वरना कम लोगों को याद होगा कि मुहावरा अरबी शब्द हौर से आया है, जिसका अर्थ होता है परस्पर वार्तालाप, संवाद । शब्दों को लेकर जब बहस होती है तो यह ब्लॉग और दिलचस्प होने लगता है। दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के नोएडा का एक लोकप्रिय लैंडमार्क है- अट्टा बाजार। इसके बारे में एक ब्लॉगर साथी अजित वडनेरकर को बताता है कि इसका नाम अट्टापीर के कारण अट्टा बाजार है, लेकिन अजित बताते हैं कि अट्ट से ही बना अड्डा । अट्ट में ऊंचाई, जमना, अटना जैसे भाव हैं, लेकिन अट्टा का मतलब तो बाजार होता है। अट्टा बाजार । तो पहले से बाजार है उसके पीछे एक और बाजार । बाजार के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द हाट भी अट्टा से ही आया है। इसलिए हो सकता है कि अट्टापीर का नामकरण भी अट्ट या अड्डे से हुआ हो। बात कहां से कहा पहुंच जाती है। बल्कि शब्दों के पीछे-पीछे अजित पहुंचने लगते हैं। वो शब्दों को भारी-भरकम बताकर उन्हें ओबेसिटी के मरीज की तरह खारिज नहीं करते। उनका वज़न कम कर दिमाग में घुसने लायक बना देते हैं। हिंदी ब्लॉगिंग की विविधता से नेटयुग में कमाल की बौद्धिक संपदा बनती जा रही है। टीवी पत्रकारिता में इन दिनों अनुप्रास और युग्म शब्दों की भरमार है। जो सुनने में ठीक लगे और दिखने में आक्रामक। रही बात अर्थ की तो इस दौर में सभी अर्थ ही तो ढूंढ़ रहे हैं। इस पत्रकारिता का अर्थ क्या है? अजित ने अपनी गाड़ी सबसे पहले स्टार्ट कर दी और अर्थ ढूंढ़ने निकल पड़े हैं। --रवीशकुमार [लेखक का ब्लाग है http://naisadak.blogspot.com/ ]
मुहावरा अरबी के हौर शब्द से जन्मा है जिसके मायने हैं परस्पर वार्तालाप, संवाद।
लंबी ज़ुबान -इस बार जानते हैं ज़ुबान को जो देखते हैं कितनी लंबी है और कहां-कहा समायी है। ज़बान यूं तो मुँह में ही समायी रहती है मगर जब चलने लगती है तो मुहावरा बन जाती है । ज़बान चलाना के मायने हुए उद्दंडता के साथ बोलना। ज्यादा चलने से ज़बान पर लगाम हट जाती है और बदतमीज़ी समझी जाती है। इसी तरह जब ज़बान लंबी हो जाती है तो भी मुश्किल । ज़बान लंबी होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है ज़बान दराज़ करदन यानी लंबी जीभ होना अर्थात उद्दंडतापूर्वक बोलना।
दांत खट्टे करना- किसी को मात देने, पराजित करने के अर्थ में अक्सर इस मुहावरे का प्रयोग होता है। दांत किरकिरे होना में भी यही भाव शामिल है। दांत टूटना या दांत तोड़ना भी निरस्त्र हो जाने के अर्थ में प्रयोग होता है। दांत खट्टे होना या दांत खट्टे होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है -दंदां तुर्श करदन
अक्ल गुम होना- हिन्दी में बुद्धि भ्रष्ट होना, या दिमाग काम न करना आदि अर्थों में अक्ल गुम होना मुहावरा खूब चलता है। अक्ल का घास चरने जाना भी दिमाग सही ठिकाने न होने की वजह से होता है। इसे ही अक्ल का ठिकाने न होना भी कहा जाता है। और जब कोई चीज़ ठिकाने न हो तो ठिकाने लगा दी जाती है। जाहिर है ठिकाने लगाने की प्रक्रिया यादगार रहती है। बहरहाल अक्ल गुम होना फारसी मूल का मुहावरा है और अक्ल गुमशुदन के तौर पर इस्तेमाल होता है।
दांतों तले उंगली दबाना - इस मुहावरे का मतलब होता है आश्चर्यचकित होना। डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक इस मुहावरे की आमद हिन्दी में फारसी से हुई है फारसी में इसका रूप है- अंगुश्त ब दन्दां ।