Sunday, May 2, 2010

आस्था का अखाड़ा और दशनामी-1

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त्सवों और पर्वों के लिए ख्यात भारतीय संस्कृति में चार माह तक चलनेवाला कुम्भ पर्व सदियों से भक्ति और आस्था का परम प्रतीक बना हुआ है। देश के चार प्रमुख तीर्थों पर बारह वर्ष के अंतराल पर यह विराट आयोजन होता है। प्राचीनकाल में देश के करोड़ों धर्मप्राण लोगों को इस तरह प्रत्येक तीसरे वर्ष भक्ति, दर्शन की परम्परा से जुड़ने और खुद में ज्ञान चेतना जगाने का अवसर मिलता था। कु्म्भ अवसरों पर प्रति तीसरे वर्ष करोड़ों लोगों का यह समागम सिर्फ धार्मिक निमित्त भर नहीं था बल्कि यह देश भर के सुदूर अंचलों में बसे विभिन्न कुटुम्बों के आपस में मिलने-जुलने, सुख-दुख की सूचनाएं और विभिन्न समाजों की रीति-नीति को साझा करने का यह अवसर होता था। आज संचार के अत्याधुनिक साधन जो काम कर रहे हैं, वही काम सदियों पहले से कुम्भमेला करता रहा है। आज कुम्भ की पहचान दशनामी संन्यासियों के अखाड़े, शाही स्नान, साधुओं के डेरे और मठाधीशों-महामंडलेश्वरों का समागम है। आखिर क्या हैं ये अखाड़े और कैसी है दशनामियों की परम्परा?

DSCF0755 भक्ति द्राविड़ ऊपजी…
क्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण भारत से मानी जाती है और महाराष्ट्र की संत-बानी के जरिये यह उत्तर भारत पहुंची। कबीर ने कहा भी है कि- भक्ति द्राविड़ ऊपजी, लाए रामानंद। परगट किया कबीर ने, सात द्वीप नवखण्ड।। यह वह दौर था जब देश में विदेशी आक्रमण बढ़ने लगे थे। हिन्दूधर्म की ज्ञानमार्गी परम्परा शास्त्रार्थों और कर्मकांडों के जाल में उलझ चुकी थी और निम्नवर्ग पर तथाकथित धर्मप्रेरित अत्याचार बढ़ गए थे। इस ऐतिहासिक वक्त में इसी वर्ग से क्रान्तिचेतना पैदा हुई। दलित सन्तों ने अपनी निर्गुण आस्था की तरल-सरल धारा से समाज को राह दिखाई। यह वक्त बारहवीं सदी का था। इससे चार सदी पहले भी दक्षिण भारत में पैदा हुई एक महान विभूति ने हिन्दूधर्म ध्वजा फहराने के लिए एक विराट अभियान छेड़ा था। तत्कालीन भारत में बौद्धधर्म की आंधी नें सनातन हिन्दू परम्परा के प्रति समाज की आस्था को हिला कर रख दिया था। हिन्दू धर्म की मान्यताओं, परम्पराओं में आ रही गिरावट को देखते हुए आदिशंकराचार्य ने ज्ञानमार्गी परम्परा को पुनर्जीवित किया और अद्वैतदर्शन की मूल अवधारणा ‘बृह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ को स्थापित किया। इसके लिए उन्होने समूचे देश में अद्वैत और वेदांत के विचार का प्रसार किया। काशी के महान विद्वान मंडनमिश्र के साथ उनका शास्रार्थ इस सिलसिले की महत्वपूर्ण कड़ी था जिसने उन्हें समूचे देश में धर्म दिग्विजयी के रूप में स्थापित कर दिया।
बौद्ध परम्परा का असर
शंकराचार्य के सुधारवाद पर बौद्ध संस्कृति का असर भी है। दिलचस्प तथ्य है कि स्वामी विवेकानंद ने भी अमेरिका प्रवास के दौरान कहा था-“ बुद्ध अपने ढंग से एक महा वेदांती थे। बौद्ध धर्म वेदांत की एक शाखा मात्र है। इसलिए शंकराचार्य को भी अनेक लोग प्रच्छन्न बौद्ध कहते हैं। बुद्ध ने विश्लेषण किया था, शंकर ने उसका संश्लेषण किया था।” भारतीय संस्कृति में प्राचीनकाल से ही विभिन्न विचारधाराएं एक दूसरे पर असर डालती रही हैं। भिक्षु संघ, संघाराम, विहार आदि के जरिये बौद्ध धर्म की समाज में महत्ता सिद्ध होती थी। शंकराचार्य ने इसी का अनुकरण कर प्राचीन आश्रम और मठ परम्परा में नए प्राण फूंके। शंकराचार्य ने अपना ध्यान संन्यास आश्रम पर केंद्रित किया और समूचे देश में दशनामी संन्यास परम्परा और अखाड़ों की नींव डाली।
दशनामी परम्परा
दिशंकराचार्य ने देश के चार कोनों में बौद्ध विहारों की तर्ज पर दक्षिण में शृंगेरी, पूर्व में  पुरी, पश्चिम में द्वारका व उत्तर में बद्रीनाथ में मठ स्थापित किए जिनका प्रबंध-संचालन विहारों की तरह ही होता था। शंकराचार्य ने सन्यासियों की दस श्रेणियां- गिरी, पुरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ और आश्रम बनाईं जिसके चलते ये दशनामी सन्यास प्रचलित हुआ। उन्होंने दशनामियों के दो कार्यक्षेत्र निश्चित किए। पहला था शस्त्र दूसरा शास्त्र। गौरतलब है कि सन्यासियों की आदि-व्यवस्था अद्वैतवाद और वेदांत दर्शन के संस्थापक महर्षि वेदव्यास के पुत्र 016बालयोगी शुकदेव ने पिता से प्रेरित होकर की थी। पौराणिक काल से वह व्यवस्था चली आ रही थी जिसका पुनरुद्धार आदिशंकराचार्य ने दशनामी सम्प्रदाय बनाकर किया। सभी दशनामी शैवमत में दीक्षित हैं। दशनामी साधुओं के दो कर्तव्य शंकराचार्य ने निश्चित किए। पहला, वे शास्त्र-प्रवीण हों ताकि धर्म-परम्परा भुला चुके समाज को दिशा मिल सके, दूसरा वे शस्त्र-प्रवीण हों ताकि विदेशी आक्रमणकारियों से देश की रक्षा हो सके। यह भी कहा जाता है कि शंकराचार्य के सुधारवाद का तत्कालीन समाज में खूब विरोध भी हुआ था और साधु समाज को उग्र और हिंसक साम्प्रदायिक विरोध से जूझना पड़ता था। काफी सोच-विचार के बाद शंकराचार्य ने वनवासी समाज को दशनामी परम्परा से जोड़ा ताकि उग्र विरोध का सामना किया जा सके। वनवासी समाज के लोग अपनी रक्षा करने में समर्थ थे और शस्त्र प्रवीण भी। इन्ही शस्त्रधारी वनवासियों की जमात नागा साधुओं के रूप में सामने आई।
सनातन हिन्दू परम्परा का असर
गौरतलब है कि जैन और बौद्ध धर्म भी सनातन हिन्दू परम्परा से ही निकले थे। इन दोनों धाराओं के चिन्तन और शब्दावली पर यह असर साफ दिखता है। इसी तरह जब शंकर ने हिन्दूधर्म के अभ्युदय का बीड़ा उठाया तब बौद्धधर्म की तूती बोल रही थी, जाहिर है शंकर के सुधारवाद पर बौद्ध असर दिखना ही था-शैली और शब्दावली दोनों पर।  -जारी
[यह आलेख मूलतः दैनिक भास्कर के रविवारीय परिशिष्ट के लिए लिखा गया था। दो हफ्ते पहले प्रकाशित भी हुआ, पर अपने मूल आकार का चौथाई। यहां हम इसे दो किस्तों में छाप रहे हैं। संचार माध्यम कुम्भमेले को सिर्फ शाहीस्नान की तिथियों से जोड़ते हैं। मगर ये तिथियां तो एक तरह से व्यवस्थागत और सरकारी स्नान की होती हैं। आम आदमी तो इसके बाद कुम्भ का पुण्य लेता है। कुम्भ चलता रहेगा।]
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13 कमेंट्स:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत ही उपयोगी जानकारियाँ मिलीं!
धन्यवाद!

उम्मतें said...

हमेशा की तरह ज्ञानवर्धक आलेख !


" ये तिथियां तो एक तरह से व्यवस्थागत और सरकारी स्नान की होती हैं। आम आदमी तो इसके बाद कुम्भ का पुण्य लेता है । कुम्भ चलता रहेगा । "
अत्यंत फिलोसोफिकल !

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

हमारे यहा तो आखाडो मे सम्पत्ति के लिये खून खराबा तक हो रहा है

Mansoor ali Hashmi said...

आस्था 'नंगी' भी हो तो पूज्य है,
नास्तिकता 'राजसी' भी शून्य है,
आदमी के सोचने का फर्क है,
आस्तिक में भी कहाँ अब पुन्य है?

mansoorali हाश्मी
http://aatm-manthan.com

किरण राजपुरोहित नितिला said...

पूनम को ही हरिद्वार जाकर आई हु .और अब ये पढ़ना वाकई में बेहद रोचक है .
वह के पंडितो की पन्दिताइने और उनका परिवार हरिद्वार से चार कोस की दुरी पर ज्वालापुर में रहते है .
देश की हर जाति के ,गाव के गोत्र के वहा अलग अगलग पंडित है जिनके पास वह कब कोन आया वह दर्ज है .
हमारे गाव खराबेरा के सेवड गोत्र के राज्पुरोहितो का सबसे पहला कागज़ पर दर्ज आमद है संवत १७८० का. यानी सन १७2३ में .


photo ke liye dekhe ---http://www.orkut.co.in/Main#AlbumZoom?uid=4895851346023716186&pid=1272780714609&aid=1272755357

दिनेशराय द्विवेदी said...

कई नई जानकारियाँ हासिल हुई।

प्रवीण पाण्डेय said...

कुछ और ज्ञान बढ़ गया ।

Udan Tashtari said...

अच्छी जानकारी प्राप्त हुई...

ePandit said...

"इसलिए शंकराचार्य को भी अनेक लोग प्रच्छन्न बौद्ध कहते हैं।"
प्रच्छन्न बौद्ध या प्रच्छन्न बुद्ध? विकिपीडिया पर दूसरे वाला है, सही शब्द क्या है?

आपने कहा कि श्री शंकर का वेदान्त बौद्ध धर्म से प्रेरित था। हमने तो पढ़ा है कि बौद्ध धर्म की एक शाखा (ध्यान नहीं दोनों में से कौन सी) वेदान्त और गीता से प्रेरित है। शंकर का वेदान्त अनीश्वरवादी बौद्ध धर्म से प्रेरित कैसे हो सकता है, दोनों दर्शन धुरविरोधी हैं। दूसरी बात ये कि बाद वाली चीज ही पहले वाली से प्रेरित हो सकती है। शंकर ने वेदान्त की पुनर्व्याख्या तथा प्रचार किया उसकी शुरुआत नहीं की, वेदान्त की शुरुआत बहुत प्राचीन है जैसा कि आपने कहा संभवतः व्यास पुत्र शुकदेव के द्वारा की गई। तो बौद्ध धर्म (अथवा उसकी शाखा) वेदान्त से प्रेरित होनी चाहिये न कि वेदान्त बौद्ध धर्म से। हाँ आश्रम व्यवस्था के मामले में हो सकता है शंकर बौद्ध धर्म की परम्परा से प्रेरित रहे हों।

सुज्ञ said...

प्रच्छन्न शब्द का शाब्दिक अर्थ और भावार्थ क्या है.

ePandit said...

मैंने कुछ विद्वानों से पता किया, प्रच्छन्न बौद्ध सही शब्द है, विकिपीडिया वाले लेख में सुधार देता हूँ।

@Sugya,
प्रच्छन्न - गुप्त, छिपा हुआ, अप्रकट

Goswami said...

ये जानकारियां काफी अहम् हैं वैसे एक आदि गुरु शक्रचार्य द्वारा स्थापित मढ़ी तिब्बत में है जो लामा के नाम से जानी जाती है

Goswami said...

आप ठीक कहते हैं

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