ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |
Thursday, May 6, 2010
सैनिक सन्यासियों का स्वरूप/आस्था का अखाड़ा-2
देशभर में दशनामियों की कुल 52 मढ़ियां हैं जो शंकराचार्यों की चारों पीठों द्वारा नियंत्रित हैं। सर्वाधिक 27 मठिकाएं गिरि दशनामियों की है
पिछली कड़ी-आस्था का अखाड़ा और दशनामी-1
शंकराचार्य ने दशनामी परम्परा को महाम्नाय के अनुशासन से बांधा। आम्नाय का अर्थ है रीति, वैदिक ज्ञान, पुण्य-प्रेरित ज्ञान, कुल तथा राष्ट्र की परम्पराएं। जैन तथा बौद्ध दर्शन में भी आम्नाय शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। चारों दिशाओं में स्थापित मठों को जब महाम्नाय अर्थात सनातन हिन्दुत्व की नवोन्मेषी धारा से बांधा गया तो उसे मठाम्नाय कहा गया। इन्हीं मठाम्नायों के साथ दशनामी सन्यासी संयुक्त हुए। वन, अरण्य नामधारी सन्यासी उड़ीसा के जगन्नाथपुरी स्थित गोवर्धन पीठ से संयुक्त हुए, पश्चिम में द्वारिकापुरी स्थित शारदपीठ के साथ तीर्थ एवं आश्रम नामधारी सन्यासियों को जोड़ा गया। उत्तर स्थित बदरीनाथ के ज्योतिर्पीठ के साथ गिरी, पर्वत और सागर नामधारी सन्यासी जुड़े तो सरस्वती, पुरी और भारती नामधारियों को दक्षिण के शृंगेरी मठ के साथ जोड़ागया।
धर्मरक्षक सेना
मठाम्नायों के साथ अखाड़ों की परम्परा भी लगभग इनकी स्थापना के समय से ही जुड़ गई थी। चारों पीठों की देशभर में उपपीठ स्थापित हुई। कई शाखाएं-प्रशाखाएं बनीं जहां धूनि, मढ़ी अथवा अखाड़े जैसी व्यवस्थाएं बनी जिनके जरिये स्वयं सन्यासी पोथी, चोला का मोह छोड़ कर थोड़े समय के लिए शस्त्रविद्या सीखते थे बल्कि आमजन को भी इन अखाड़ों के जरिये आत्मरक्षा (प्रकारांतर से धर्मरक्षा ) के लिए सामरिक कलाए सिखाते थे। इस तरह अखाड़ों के जरिये धर्मरक्षक सेना का एक स्वरूप बनता चला गया। हिन्दूधर्म को इस्लाम की आंधी से बचाने के लिए सिख पंथ एक सामरिक संगठन के तौर पर ही सामने आया था। इसके महान गुरुओं ने अध्यात्म की रोशनी में लोगों को धर्मरक्षा के लिए शस्त्र उठाने की प्रेरणा दी। अखाड़ों का यह स्वरूप प्रायः हर धर्म-सम्प्रदाय में रहा है। दुनियाभर के धार्मिक आंदोलनों के साथ अखाड़ा अर्थात आत्मरक्षा से जुड़ी तकनीक को ध्यान-प्राणायाम से जोड़कर अपनाया गया। हर धार्मिक सम्प्रदाय के साथ शस्त्रधारी रहे हैं और धर्म या पंथ अथवा मठ पर आए खतरों का सामना इन्होंने किया है। बौद्ध धर्म चीन तक पहुंचाने का श्रेय पांचवीं सदी के जिन आचार्य बोधिधर्म को दिया जाता है उन्हें ही चीन की प्रसिद्ध मार्शल आर्ट शैलियों को विकसित करने का श्रेय दिया जाता है। अहिंसक धर्म के आचार्य ने मूलतः ध्यान केन्द्रित करने की तकनीक के तौर पर इस कला को जन्म दिया जिसे बाद में आत्मरक्षा की कला के तौर पर मान्यता दे दी गई। गौरतलब है कि ध्यान ही जापान पहुंच कर ज़ेन हुआ। मध्यकाल मे चारों पीठों से जुड़ी दर्जनों पीठिकाएं सामने आई जिन्हें मठिका कहा गया। इसका देशज रूप मढ़ी प्रसिद्ध हुआ। देशभर में दशनामियों की ऐसी कुल 52 मढ़ियां हैं जो चारों पीठों द्वारा नियंत्रित हैं। इनमें सर्वाधिक 27 मठिकाएं गिरि दशनामियों की है, 16 मठिकाओं में पुरी नामधारी सन्यासी काबिज है, 4 मढ़ियों में भारती नामधारी दशनामियों का वर्चस्व है और एक मढ़ी लामाओं की है। साधुओं में दंडी और गोसाईं दो प्रमुख भेद भी हैं। तीर्थ, आश्रम, भारती और सरस्वती दशनामी दंडधर साधुओं की श्रेणी में आते है जबकि बाकी गोसाईं कहलाते हैं।
अखाड़ों की शुरुआत
हिन्दुओं की आश्रम परम्परा के साथ अखाड़ों का अस्तित्व यूं तो प्राचीनकाल से ही रहा है। अखाड़ों का आज जो स्वरूप है उस रूप में पहला अखाड़ा अखंड आह्वान अखाड़ा सन् 547ई में सामने आया। इसका मुख्य कार्यालय काशी में है और शाखाएं सभी कुम्भ तीर्थों पर हैं। अखाड़ा शब्द के मूल में अखंड शब्द को भी देखा जाता है। कालांतर में अखंड का देशज रूप अखाड़ा हुआ। हालांकि भाषाशास्त्र की दृष्टि से अखाड़ा की यह व्युत्पत्ति सही नहीं है। आज जो अखाड़े प्रचलन में हैं उनकी शुरूआत चौदहवी सदी से मानी जाती है। वर्तमान में हरिद्वार के कुम्भ में शाही स्नान के क्रम में प्रसिद्ध सात शैव अखाड़ों में श्रीपंचायती तपोनिधि निरंजनी अखाड़ा, श्रीपंचायती आनंद अखाड़ा, श्रीपंचायती दशनाम जूना अखाड़ा, श्रीपंचायती आवाहन अखाड़ा, श्रीपंचायती अग्नि अखाड़ा, श्रीपंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा और श्रीपंचायती अटल अखाड़ा हैं। वैष्णव साधुओं के अखाड़ों के बाद कुछ अन्य अखाड़े भी आते हैं। गुरु नानकदेव के पुत्र श्रीचंद ने उदासीन सम्प्रदाय चलाया था। इसके दो अखाडे श्री पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा और श्री पंचायती नया उदासीन अखाड़ा भी सामने आए। इसी तरह सिखों की एक पृथक जमात निर्मल सम्प्रदाय का श्री पंचायती निर्मल अखाड़ा भी सामने आया। पहले सिर्फ शैव साधुओं के अखाड़े होते थे। बाद में वैष्णव साधुओं में भी अखाड़ा परम्परा शुरू हुई। शैव जमात के सात अखाड़ों के बाद वैष्णव बैरागियों के तीन खास अखाड़े हैं-श्री निर्वाणी अखाड़ा, श्रीनिर्मोही अखाड़ा और श्रीदिगंबर अखाड़ा। शैवों और वैष्णवों में शुरू से संघर्ष रहा है। शाही स्नान के वक्त अखा़ड़ों की आपसी तनातनी और साधु-सम्प्रदायों के टकराव खूनी संघर्ष में बदलते रहे हैं। हरिद्वार कुंभ में तो ऐसे अनेक बार हुए हैं। वर्ष 1310 के महाकुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े और रामानंद वैष्णवों के बीच हुए झगड़े ने खूनी संघर्ष का रूप ले लिया था। वर्ष 1398 के अर्धकुंभ में तो तैमूर लंग के आक्रमण से कई जानें गई थीं । वर्ष 1760 में शैव सन्यासियों व वैष्णव बैरागियों के बीच संघर्ष हुआ था। 1796 के कुम्भ में शैव संन्यासी और निर्मल संप्रदाय आपस में भिड़ गए थे। विभिन्न धार्मिक समागमों और खासकर कुम्भ मेलों के अवसर पर साधु संगतों के झगड़ों और खूनी टकराव की बढ़ती घटनाओं से बचने के लिए अखाड़ा परिषद की स्थापना की गई जो सरकार से मान्यता प्राप्त है। इसमें कुल मिलाकर उक्त तेरह अखाड़ों को शामिल किया गया है। प्रत्येक कुम्भ में शाही स्नान के दौरान इनका क्रम तय है।
क्या है अखाड़ा ?
अखाड़ा यूं तो कुश्ती से जुडा हुआ शब्द है मगर जहां भी दांव-पेच की गुंजाइश होती है वहां इसका प्रयोग भी होता है। आज की ही तरह प्राचीनकाल में भी शासन की तरफ से एक निर्धारित स्थान पर जुआ खिलाने का प्रबंध रहता था जिसे अक्षवाटः कहते थे। यह बना है दो शब्दों अक्ष+वाटः से मिलकर। अक्षः के कई अर्थ है जिनमें एक अर्थ है चौसर या चौपड़, अथवा उसके पासे। वाटः का अर्थ होता है घिरा हुआ स्थान। यह बना है संस्कृत धातु वट् से जिसके तहत घेरना, गोलाकार करना आदि भाव आते हैं। इससे ही बना है उद्यान के अर्थ में वाटिका जैसा शब्द। चौपड़ या चौरस जगह के लिए बने वाड़ा जैसे शब्द के पीछे भी यही वट् धातु झांक रही है। इसी तरह वाटः का एक रूप बाड़ा भी हुआ जिसका अर्थ भी घिरा हुआ स्थान है। वर्ण विस्तार से कही कहीं इसे बागड़ भी बोला जाता है। इस तरह देखा जाए तो अक्षवाटः का अर्थ हुआ जहां पर पांसों का खेल खेला जाए । जाहिर है कि पांसों से खेला जानेवाला खेल जुआ ही है सो अक्षवाटः का अर्थ हुआ द्यूतगृह अर्थात जुआघर। अखाड़ा शब्द कुछ यूं बना - अक्षवाटः > अक्खाडअ > अक्खाडा > अखाड़ा। द्यूतगृह जब अखाड़ा कहलाने लगा और खेल के दांव-पेंच से ज्यादा महत्व हार-जीत का हो गया तो नियम भी बदलने लगे। अब दांव पर रकम ही नहीं , कुछ भी लगाया जाने लगा । महाभारत का द्यूत-प्रसंग सबको पता है। इसी तरह अखाड़े में वे सब शारीरिक क्रियाएं भी आ गईं जिन्हें क्रीड़ा की संज्ञा दी जा सकती थी और जिन पर दांव लगाया जा सकता था। जाहिर है प्रभावशाली लोगों के बीच आन-बान की नकली लड़ाई के लिए कुश्ती इनमें सबसे खास शगल था , सो घीरे धीरे कुश्ती का बाड़ा अखाड़ा कहलाने लगा और जुआघर को अखाड़ा कहने का चलन खत्म हो गया। अब तो व्यायामशाला को भी अखाड़ा कहते हैं और साधु-सन्यासियों के मठ या रुकने के स्थान को भी अखाड़ा कहा जाता है। कहां जुआ खेलने की जगह और कहां साधु-सन्यासियों की संगत ! [समाप्त]
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
47 कमेंट्स:
एक से बढ़कर एक अराजक, दुराचारी, और मानसिक विकलांगों के अड्डे हैं ये अखाड़े. अब तो इनकी गद्दियों के लिए सुपारी भी दी जाने लगीं हैं.
आपके शब्द संधान से हमने हमेशा कुछ सीखा है। लेकिन पिछली दो पोस्ट में आपने ऐसे विषयों की चर्चा की है जिनसे मेरा थोड़ा परिचय है। रीलीजियस स्टडी के छात्र होने के नाते कुछ प्रश्न आपके सामने रखकर अपनी शंका का समाधान चाहता हूं।
ये सनातन हिन्दू धर्म क्या है ?? कृप्या स्पष्ट करें। आप यह भी स्पष्ट कर दें कि किस तरह से बौद्ध और जैन सनातन हिन्दू धर्म से निकले हुए शाखाएं थी और गौतम बुद्ध के समय में सनातम हिन्दू धर्म का क्या स्वरूप था ? इसमें वो कौन सी चीजें थीं जिनका गौतम ने विरोध किया था ?
आपने और भी बहुत सी शंकाएं उठाई हैं। लेकिन अभी इसी मुख्य शंका को प्रस्तुत कर रहा हूं। हां,इस संदर्भ में आप मुझे कुछ पुस्तकें देखने की सलाह देना चाहें निसंकोच दें। बस मुझे उनके टाइटिल और लेखक या प्रकाशक का नाम बता दें।
hindizen.com से सहमत।
रंगनाथ भाई,
हिन्दू धर्म ही सनातन धर्म है। सनातन वहीं है जो शाश्वत है। अपने तमाम टिकाऊपन, गतिशील और सर्वग्राही गुणों की वजह से वृहत्तर भारत में जिसे हिन्दूधर्म कहा जाता है, वही दरअसल सनातन धर्म है। हिन्दूधर्म के संदर्भ में जब आज हम सनातन धर्म की बात करते हैं तब उदारवादी अर्थ में उसका उल्लेख हो रहा होता है। इसके कई स्वरूप, कई धाराएं रही हैं और कमोबेश कर्म की अनिवार्यता, पुनर्जन्म और अवतारवाद जैसी मान्यताएं इसमें व्याप्त रही हैं। बाद में इसमें कई खामियां पैदा हुईं जो दुनिया के हर धर्म, विचारधारा और वाद में आती रहीं। कोई भी विचारधारा जड़ता को तोड़ने के लिए जन्मती है, जब वह खुद जड़ हो जाती है, तब उसमें नए विचारों का आना ज़रूरी होता है। बौद्ध धर्म का जन्म इन्ही जड़ताओं को तोड़ने की प्रतिक्रिया थी। बाद में यह भी हिन्दूधर्म वाली बुराइयों का शिकार हो गया। किसी भी किस्म की जड़ता और बुराई को खत्म करने के लिए जब कोई नैतिक अनुशासन सामने आता है तब उसमें एक किस्म की कठोरता भी जरूरी होती है। बाद में सुधारवाद गौण हो जाता है और कठोरता या अनुशासन धीरे धीरे रूढ़ि बन जाता है। प्रभाववशाली वर्ग अपने ढंग से विचारधारा को व्याख्यायित करता है। रूढ़ियां उनके लिए सुविधाओं में बदलती हैं। बौद्धधर्म के ह्रास के पीछे भी वही वजह रहीं जो उसके जन्म के समय तत्कालीन हिन्दूधर्म के साथ जुड़ी थीं। सनातन धर्म या हिन्दूधर्म इसीलिए कायम है क्योंकि इसमें लगातार यह प्रक्रिया जारी है। सनातन धर्म के रूप में हम जिस धर्म की बात करते हैं वह टिकाऊपन, गतिशीलता और सर्वग्राह्यता वाली वही विचारधारा और संस्कार है जिसे हिन्दूधर्म का नाम दिया जाता है और जो सदियों से आज तक विभिन्न बदलावों के साथ आज भी अपना अस्तित्व कायम रखे है क्योंकि व्यापक रूप में विश्वबंधुत्व, सबका सम्मान जैसी उदात्त भावनाओं का समावेश इसमें रहा।
हिन्दूधर्म को इस्लाम की आंधी से बचाने के लिए सिख पंथ एक सामरिक संगठन के तौर पर ही सामने आया था। इसके महान गुरुओं ने अध्यात्म की रोशनी में लोगों को धर्मरक्षा के लिए शस्त्र उठाने की प्रेरणा दी।
गुरु नानक के पुत्र श्रीचंद का चलाया "उदासी" संन्यासी समुदाय उल्लेखनीय है जिसने सिखों के शतवर्षीय मुस्लिम संघर्षों के दौरान सिख ग्रंथों, मंदिरों और गुरुद्वारों की रक्षा की यद्यपि पिछले ९० वर्षों की धार्मिक राजनीति ने उन्हें लगभग गैर-सिख जैसा ही घोषित कर रखा है.
@स्मार्ट इंडियन
गुरु नानकदेव के पुत्र श्रीचंद ने उदासीन सम्प्रदाय चलाया था। इसके दो अखाडे श्री पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा और श्री पंचायती नया उदासीन अखाड़ा भी सामने आए। इसी तरह सिखों की एक पृथक जमात निर्मल सम्प्रदाय का श्री पंचायती निर्मल अखाड़ा भी सामने आया।
अजित जी,
इस संदर्भ में दो बातें कहना चाहुँगा। एक यह कि आज हमारे बीच हिन्दु धर्म जैसी एक चीज है लेकिन वह सनातम धर्म जैसी किसी दूसरी चीज का पर्यायवाची कत्तई नहीं कही जा सकती है। दूसरी यह कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म दो सर्वथा स्वतंत्र धर्म हैं। इनकी किसी तथाकथित सनातन धर्म से उत्पत्ति नहीं हुई है। यदि आप वेदान्तवादी वैष्णव धर्म को ही सभी भारतीय धर्मो का मूल स्रोत मानते हों मेरी इससे असहमति है।
आप भारतीय परंपरा को हिन्दू परंपरा मान रहे है तो इससे भी मेरी आपत्ति है। आपको ज्ञात ही होगा कि उन्नीसवीं सदी के कई प्रसिद्ध धर्मसुधारकों को स्वयं का हिन्दू कहलाना नापसंद था। वो अपने को ब्रह्म समाजी,सनातन धर्मी कहलाना पसंद करते थे। अभी इतना ही।
"आप भारतीय परंपरा को हिन्दू परंपरा मान रहे है तो इससे भी मेरी आपत्ति है। आपको ज्ञात ही होगा कि उन्नीसवीं सदी के कई प्रसिद्ध धर्मसुधारकों को स्वयं का हिन्दू कहलाना नापसंद था। वो अपने को ब्रह्म समाजी,सनातन धर्मी कहलाना पसंद करते थे। अभी इतना ही।"
बहस के कई आयाम होते हैं।
यहां बहस नहीं है, आपने मुझसे खलासा चाहा था, संक्षेप में बताया। आपके मन में क्या है, मै क्या जानूं? आपकी निगाह में भारतीय परम्परा क्या है, धर्म क्या है, संस्कृति क्या है, परिवेश क्या है इसका भी खुलासा करें या न करें। मैं नहीं सोचता कि अखाड़ा संबंधी लेख में ऐसा कुछ है जो वैचारिक रूप से उद्वेलित करे। वह महज संदर्भ सामग्रियों से बना एक हल्का फुल्का आलेख है।
यह भी स्पष्ट कर दूं कि मैं न वेदान्ती हूं और न इस या उस अर्थ में हिन्दू या सनातनी। हिन्दूधर्म को मैं चर्चा-संदर्भ के लिए सनातन हिन्दू धर्म मान सकता हूं। बाल की खाल निकालने के लिए नहीं। इस अर्थ में तो खुद को किसी भी किसी भी जाति का साबित किए जाने के लिए तैयार हूं। भाषा, संस्कृति, धर्म आदि क्षेत्रों में उदार दृष्टिकोण चाहिए। यही ज़रूरी है। सृष्टि कम से कम मेरे बाप ने तो नहीं बनाई थी:)
'सन्यासी' का शुद्ध रूप 'संन्यासी' है।
भाऊ ! आज तो आप मुग्ध कर दिए। बहुत से प्रश्नों के उत्तर बिना पूछे मिल गए। मैंने पीडीएफ बना लिया है।
@ सनातन बनाम हिन्दू - विदेशी विचारधाराओं के लिए हिन्दुत्त्व की सर्वसमाहित करने वाली प्रवृत्ति हमेशा कंफ्यूजिंग रही है। असल में मज़हब वाले खाँचे में ईसाई, इस्लामादि की तरह हिन्दू धर्म फिट नहीं होता। सेकुलरों को समझने में बहुत दिक्कत होती है।
अब तो अखाड़े बाज़ भी कानूनसाज़* है,
प्रजा का तंत्र, यानि की अपना ही राज है,
शरिया, धरम-सभा भी है,निरपेक्षता भी है,
डफली भी अपनी-अपनी है अपना ही राग है.
*MLA [members of Legislative assemblies] etc.
-mansoor ali hashmi
अजित जी,
आपने अपने विचार बताए थे मैंने अपनी आपत्ति सामने रखी। मेरी विशेष आपत्ति आपकी इस बात से थी कि बौद्ध और जैन धर्म को हिन्दू धर्म से निकला हुआ धर्म बताया है। जबकि आज कोई पढ़ा-लिखा आदमी ऐसी बात नहीं कहता। बस यही मूल आपत्ति है शेष तो आनुषंगिक बातें थीं। मेरा आपसे बहस का इरादा नहीं है।
अच्छा हो कि आप एक दिन हिन्दू शब्द की व्युत्पत्ति और ऐतिहासिक प्रयोग की चर्चा करें।
अवांतर प्रसंग - मेरा शोध इसी विषय पर है कि किसी तरह भारत के नव-हिन्दू दूसरे धर्मांे-परंपराओं को उसी तरह से देखते हैं जैसे कि सामी धर्म देखते हैं। खास तौर पर इस्लाम और ईसाई धर्म। जिस धार्मिक सहिष्णुता का भारत दावा करता रहा है उसका तो इनमें दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं मिलता।
दूसरी खतरनाक बात यह है कि आजकल अर्द्धशिक्षितों में किसी नए तरह के ज्ञान को विदेशी कह कर खारिज करने का जड़वाद भी जड़ जमाता जा रहा है। समय-समय पर इसकी पुष्टि आपके ब्लाग पर आई टिप्पणियों से होती रही है। ज्ञान के प्रति ऐसी विद्रोही भावना तो भारत में बिल्कुल ही नई है !! वैसे ऐसे लोगों से सवाल-जवाब सिर्फ वही लोग कर सकते हैं जो भारतीय ज्ञान परंपरा को 'देशी' कहकर ठुकराते रहे हैं !
वाह बहुत ही बढ़िया और ज्ञानवर्धक लेख। बहुत से प्रश्नों का स्वतः उत्तर मिल गया।
@Rangnath Singh said...
मेरी विशेष आपत्ति आपकी इस बात से थी कि बौद्ध और जैन धर्म को हिन्दू धर्म से निकला हुआ धर्म बताया है। जबकि आज कोई पढ़ा-लिखा आदमी ऐसी बात नहीं कहता।
जिन पढों लिखों की बात आप कर रहे हैं, संत कबीर ने शायद उन्हीं लकीर के फकीरों के बारे में कहा होगा, "पोथी पढ़ पढ़..."
आपने कहा कि आप religious studies के छात्र हैं तो फिर इस विषय पर कभी दलाई लामा के विचार सुनिए. काफी गलतफहमियां छट सकती हैं.
स्मार्ट इण्डियन जी
पढ़े-लिखे से मेरा आशय उन लोगों से नहीं था जो नियमित रूप से अखबार या कामिक्स पढते रहते़ हैं। न ही उन लोगों की तरफ मेरा इशारा था जो साक्षरता मिशन के तहत अक्षर ज्ञान प्राप्त हैं। आपको ध्यान रखना था कि हम उस ब्लाग पर बात कर रहे हैं जहाँ शब्दों की व्युत्पत्ति पर पोस्ट लगती रहती है। अतः यहाँ पढ़े लिखे कहने से सीधा तात्पर्य स्कालरों से था न कि साक्षरों से !
आपने मुझे दलाई लामा को पढ़ने को कहा। दलाई लामा एक धार्मिक गुरू(तिब्बती बुद्धधर्म ) हैं उनको सुन/पढ़ कर हम समूचे बौद्ध धर्म के बारे में कोई राय कैसे बना सकते हैं। जबकि वो खुद बौद्ध धर्म की दो बड़ी शाखाओें थेरवादी और महायान से कोई संबंध नहीं रखते।
खेद है कि आपने मेरे ज्ञान के परिमार्तन के लिए आपने किसी ऐसे स्कालर का नाम नहीं बताया जो बौद्ध धर्म का अध्ययन करता हो। कृप्या आप मुझे ऐसे दो-चार नाम सुझाएं जो इसी विषय के आधिकारिक विद्वान माने जाते हैं। जिन्हें मुझे इस संदर्भ में पढ़ना चाहिए।
आपको यह जानकार थोड़ी निराशा होगी कि फिलवक्त दुनिया में बौद्ध धर्म के जाने माने स्कलारों में से मेरे जाने कोई मार्क्सवादी नहीं है ! थोड़ा-मोड़ा भी नहीं। शेष आप की दी गई रीडिंग लिस्ट को देखने के बाद।
स्मार्ट जी, मेरी टिप्पणी में परिमार्तन को परिमार्जन पढ़ें। साथ ही यह भी बता दूँ कि आपके एक अन्य कुतर्क का जवाब अगले दो-तीन दिन में फुर्सत होते ही बहुत छोटी से पोस्ट लिख कर दूँगा।
@Rangnath Singh,
रंगनाथ जी यह सर्वविदित तथ्य है कि महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी तथा संत नानक स्वयं हिन्दू थे तो यदि इन धर्मों को हिन्दू से निकला हुआ कहा जाय तो क्या गलत है। जिस प्रकार ईसाई धर्म को यहूदी से निकला कहा जा सकता है वही बात यहाँ लागू होती है।
रंगनाथ जी,
१. बुद्ध धर्म के विश्व मानी विद्वान् दलाई लामा को रिजेक्ट करके धर्म व्याख्या के लिए एकमेव किसी धर्म-हन्ता मार्क्सवादी के वाक्य को ही मानने की जिद पर अड़ जाना और
२. आपके अपने ही संशय के उत्तर के जेनुइन प्रयास को कुतर्क कहना, आदि से आपके पूर्वाग्रह स्पष्ट हैं. सोते को जगाया जा सकता है मगर आँखों पर एक आत्म-मुग्ध और मृत विचारधारा की पट्टी बांधे पूर्वाग्रहियों को जगाने की ज़िम्मेदारी मेरी नहीं है न ही मेरे पास इतना फ़िज़ूल वक्त है.
हाँ, इतना ज़रूर है कि संस्कृत विद्यालयों को आग लगाने वालों से संस्कृत का ज्ञान नहीं मिल सकता है और धर्म को अफीम का फतवा देने वालों से धर्म का ज्ञान नहीं मिल सकता.
विश्व मानी को कृपया विश्व-मान्य पढ़ें.
शुभकामनाएं!
@रंगनाथ सिंह
"मेरी विशेष आपत्ति आपकी इस बात से थी कि बौद्ध और जैन धर्म को हिन्दू धर्म से निकला हुआ धर्म बताया है। जबकि आज कोई पढ़ा-लिखा आदमी ऐसी बात नहीं कहता।"
इस संदर्भ में आपकी स्थापनाएं क्या हैं, जानना चाहूंगा। मेरे पढ़ने में अभी तक किसी ने भी बौद्ध विचारधारा की हिन्दूधर्म से रिश्तेदारी नहीं नकारी है। आज के पढ़े लिखों की जमात की बात मैं नहीं जानता कि वे क्या सोचते हैं और क्या नए शोध इस संदर्भ में सामने आए हैं, पर बौद्धधर्म में ऐसी कौन सी बात हैं जिनका उल्लेख हजारों वर्षों की सनातनी परम्परा में नहीं हुआ। बुद्ध का बौद्धमत भी कुछ वर्षों में रूपांतरित हो गया था। बुद्ध की मूर्तिपूजा ही अपने आप में यह स्थापित करने के लिए पर्याप्त है। बौद्धमत के जरिये हिन्दुत्व की किन्हीं बातों का परिष्कार ही हुआ था।
जब मार्क्सवाद हिन्दू और बौद्ध धर्मों जितना पुराना हो जाएगा तब शायद उसके 'अनुयाइयों' में वह अक्ल आ जाय जिसे सहिष्णुता कहते हैं। अभी तो इनके लिए मार्क्स दादा के अलावा जो भी है, प्रतिक्रियावादी,पिछड़ा हुआ, अर्धशिक्षित, अनपढ़ वगैरा वगैरा नज़र आता है। हर जगह इन सबों ने जनता का सत्यानाश कर के रखा है और बातें ऐसी करते हैं जैसे सारे मानव कल्याण का ठेका इन्हों ने ही ले रखा है। ढूँढ़ कर लाइए कोई थेरवादी या महायानी इनके लिए, तब ये कहेंगे कि वह तो वज्रयानी नही हैं अत: सम्पूर्ण बौद्ध धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करता । दुराग्रही के तर्क की कोई सीमा नहीं होती। कहाँ आप लोग इनसे मथ्था मार रहे हैं !
@गिरिजेश राव
बहुत गहरी बात कही है महाराज आपने।
अजित जी
विद्वान मानते हैं कि भारत में ब्राह्मणिक और श्रमणिक दो धर्म परंपराएं समांतर चलती रही है। मैं आपको बताना चाहुंगा कि वर्तमान हिन्दू धर्म में अहिंसा और शाकाहार इन्हीं श्रमणिक धर्मों से आया है। बौद्ध के जन्म काल के कारण कुछ लोगों को भ्रम होता है। लेकिन महावीर तो जैनों के चैबिसवे तीर्थकर माने जाते हैं। उससे पहले के तेईस के समय का अंदाजा लगा लीजिए। आज जो भी हिन्दू धर्म है वह बौद्ध धर्म और जैन धर्म के बाद की चीज है।
मुझे उम्मीद थी कि आपको कुछ बुनियादी मालूमात होगी। जैसी कि बौद्ध,जैन और चार्वाक को नास्तिक धर्म माना जाता था। इसलिए नहीं कि इन्हें ईश्वर में यकीन नहीं था। क्योंकि ईश्वर में यकीन तो सांख्यवादियों समेत दूसरे वैदिक दर्शनों को भी नहीं था। इन तीनों को नास्तिको वेद निन्दकः के आधार पर नास्तिक माना जाता था। आज जिस धर्म को बहुत से लोग हिन्दू धर्म कहते हैं वो मूलतः पौराणिक हिन्दु धर्म था। जिसके खिलाफ शंकराचार्य,दयानन्द समेत बहुत से लोगों ने आदोलन चलाए लेकिन वह पूरी तरह बदला नहीं। आपको पता होना चाहिए कि मूर्ति पूजा जो कि हिन्दू धर्म की विशिष्ट पहचान है उसके इनने ओर बहुत से दूसरे बड़े सुधारकों ने समर्थन नहीं किया लेकिन वो आज भी बरकरार है। बहुत सी बाते हैं लेकिन एक टिप्पणी की सीमाएँ हैं।
मैंने आपको संबोधित पहली ही टिप्पणी में कहा था कि आप एक पोस्ट हिन्दू,हिन्दुत्व इत्यादि की व्युत्पत्ति के बारे में लिखिए। पाठकों को बहुत से प्रश्नों का जवाब स्वतः मिल जाएगा। आप 'सनातन धर्म में मूर्तिपूजा' पर एक पोस्ट लिख दें तो मामला और साफ हो जाएगी।
मैंने अपनी पहली ही टिप्पणी में स्पष्ट कर दिया था कि बौद्ध/जैन धर्म को कोई भी नामी विद्वान मेरे जाने मार्क्सइस्ट नहीं है ! लेकिन जिन्हे न पढ़ने की बिमारी है वो क्यो कर पढें ! उन्हें तो बस आरोप मढ़ने की बिमार है वो तो वही करेंगे।
एक स्वर में आवाज मिलाकर चिल्लाने से कोई बात सही हो जाती तो दुनिया के सभी दार्शनिक सियारों से दीक्षित हो जाते।
(साफ कर दूं कि टाइपिंग या प्रूफ की त्रुटियों को नजरअंदाज किया जाए। बार-बार स्पष्टीकरण देना सही नहीं लगता।)
स्मार्ट जी, आपके जवाब से जाहिर है कि आपके पास मेरे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। आपने मेरे जैसों-तेरे जैसों की शुरूआत की। आपने बताया नहीं कि किस थेरवादी या महायान के विद्वान ने बौद्ध धर्म को एक स्वतंत्र धर्म के बजाए हिन्दू धर्म से निकला हुआ धर्म बताया है ? खैर,आप यही बता दीजिए कि दलाई लामा ने किस पुस्तक में यह बात कही है। मैं कम से कम उन्हीं की पूरी राय जान लूँ !
शेष आपका झल्लाहट आपकी भाषा से जाहिर हो रही है। आपसे अनुरोध है कि आप आत्म संयम न खोएं। आपने पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ का दुष्प्रयोग करके जिस कुतार्किक ढंग से पढ़ने लिखने के खिलाफ उग्र ढंग से झण्डा उठाया था मैं उसे जाने देता हूँ। मैं उस पर कोई पोस्ट भी नहीं लिखुंगा !
आप कृप्या मूल बहस में अपनी जानकारी से पाठकों के ज्ञान में इजाफा करें। जहां टिक नही सकते वहां से भागने का बहाना न ढूढ़ें। ऐसा व्यवहार किसी स्वघोषित स्मार्ट इण्डियन के लिए शोभा नहीं देता।
गिरिजेश राव, आपने जिस अभद्र ढंग से जवाब दिया है उसके बाद आपको कोई जवाब देना जरूरी नहीं था। लेकिन मैं आपको एक मौका और दे रहा हूँ। आखिरकार लम्बी जड़ता टूटने में वक्त तो लगता है ही !
साथ ही आपने जिस सहिष्णुता की बात की है उसका जरा सा निदर्शन आपने अपने कमेंट कर दिया होता तो क्या बात होती....लेकिन नहीं आपमें जो चीज है नहीं उसे कहाँ से लाएंगे ??
आपका तथाकथित महान तर्क कि दलाई लामा ने जो कह दिया वो सभी बौद्धों के लिए अंतिम सत्य माना जाए !! हद है भई, आपके तर्क को मान लिया जाए तो कहना होगा कि मूर्ति पूजा हिन्दूओं के लिए त्याज्य है क्योंकि दयानन्द सरस्वती इत्यादि ने उसे गलत माना था। मान लिया जाए कि शंकराचार्च का दर्शन अपूर्ण था क्यांेकि माधवाचार्यय इत्यादि ने उसे गलत माना था। एक ही धर्म के विभिन्न शाखाओं-प्रशाखाओं में विभिन्न बातों पर मतभेद में किसी एक के मत को सही क्यों मान लिया जाए ?? क्या सिर्फ इसलिए कि गिरिजेश राव उसे सही मानते है !!
ई गुरू जी, आपका बात तब तक सही है जब तक यह मान लिया जाए कि बुद्ध और महावीर हिन्दू घर में जन्मे थे। गुरू नानक के बारे में आपका तर्क एक हद तक सही है। लेकिन बुद्ध और महावीर के बारे में कत्तई नहीं। महावीर का जन्म तो जैन परिवार में ही हुआ था। जैनों की चैबिस तीर्थकरों में से तेईसवें तीर्थकर तो ऐतिहासिक पुरूष माने जाते हैं। महावीर ने जैन धर्म की शिक्षाओं मे थोड़ा फेरबदल किया लेकिन वो पूरी तरह नया धर्म लेकर नहीं आए थे जैसे कि बुद्ध। बुद्ध के माता पिता का क्या धर्म था यह तो मेर सामने अस्पष्ट है। लेकिन जो भी हो गौतम ने स्वयं वैदिक धर्म (जिसे हम ब्राह्णमइज्म कह सकते हैं) की पूरी तरह मुखालफत की।
कुछ लोग कुछ मिलती-जुलती दार्शनिक स्थापनाओं के आधार पर बौद्ध को उपनिषद से जोड़ देते हैं। जबकि सच है कि प्रत्ययवादी दर्शन में परस्पर स्वतंत्र होने के बावजूद सामान्यताएं होना बड़ी बात नहीं है। आपको पता होगा कि जब इण्डोलाजी की शुरूआत हो रही थी तो बहुत से अंग्रेज विद्वान उपनिषदों इत्यादि की शिक्षा को ग्रीकों से उधार ली गई शिक्षा बताते थे। क्योंकि प्रत्येक वैदिक दार्शनिक स्कूल का किसी न किसी ग्रीक स्कूल से साम्य था। अंगेज अपने को श्रेष्ठ मानते थे सो यह भी मान कर चलते थे कि यदि समानता है तो इसका अर्थ इन लोगों ने हमसे ही सीखा होगा !! बाद में यह स्थापित हुआ कि ऐसा कत्तई नहीं है।
गुरू नानक के संबंध मंे कहना चाहुंगा कि यह जितना हिन्दू ध्र्म से निकला है उतना ही इस्लाम से। इसमें दोनों धर्मों को मिलाकर नया धर्म बनाने का प्रयास था। नानक जी का धर्म बहुत हद तक सूफियों के जैसा था। जिसमें हिन्दू-मुस्लिम का कोई भेद नहीं था। उम्मीद है मैं अपनी बात स्पष्ट कर पाया हूं।
मैंने आपको संबोधित पहली ही टिप्पणी में कहा था कि आप एक पोस्ट हिन्दू,हिन्दुत्व इत्यादि की व्युत्पत्ति के बारे में लिखिए। पाठकों को बहुत से प्रश्नों का जवाब स्वतः मिल जाएगा। आप 'सनातन धर्म में मूर्तिपूजा' पर एक पोस्ट लिख दें तो मामला और साफ हो जाए।
@रंगनाथ सिंह
"मुझे उम्मीद थी कि आपको कुछ बुनियादी मालूमात होगी। जैसी कि बौद्ध,जैन और चार्वाक को नास्तिक धर्म माना जाता था।"
प्रियवर, मुझे लगता है संभवतः आप ज्यादा जानते हैं। अपनी बुनियाद कहीं नहीं है। इतना ही कहना चाहूंगा कि चार्वाक अपन को दिलचस्प लगते हैं। बृहस्पति और लोकायत जैसे शब्दों का अर्थ भी जानता हूं। थेरवाद, महायान, हीनयान, सहजयान मेरे लिए कभी कैप्सूल की शक्ल में नहीं आए बल्कि शर्बत की तरह चुसकियां ली हैं। अलबत्ता कुछ बातों को आपने जरूर बहुत रूढ़ और खास चश्मे से देखा जान पड़ता है। ज्ञान के कई मार्ग हैं। अभी तक आपको उदार समझता रहा हूं। पर लग रहा है, कोई खास कोना, फ्रेम या वाद का आग्रह आपके साथ भी जुड़ा है।
ब्राह्मण और श्रमण जैसे शब्दों के संदर्भ में संस्कृति का उल्लेख आधुनिक इतिहासबोध की देन है। यह तरीका चीज़ो को समझने-समझाने के लिए सुविधाजनक रहा है। स्तुत्य हैं वे विचारक, चिन्तक, मनीषी जो इतिहास के संदर्भ में भाषा और संस्कृति के विविध आयामों को समझाने के लिए विविधरूपी विश्लेषण प्रणाली का प्रयोग करते हैं।
सनातन धर्म, हिन्दू धर्म, श्रमणिक, ब्राह्मणिक और न जाने क्या क्या शब्द हैं। चौबीस तीर्थंकरों का नामोल्लेख मात्र है, पर इसके आधार पर हिन्दूधर्म या सनातन धर्म के न होने की बात कैसे साबित हो रही है?
रंगनाथ जी,
वैचारिक असहमति जताने वालों को बिना जाने बूझे अर्धशिक्षित, कॉमिक्स पढ़ने वाले, साक्षर, जड़वाद आदि कहना भद्रता है ?मार्क्सवादियों की ये विशेषता रही है कि खुद करे तो लीला और करे तो व्यभिचार। खाँचे में फिट करने के लिए नए शब्द गढ़ लेना एक और प्रवृत्ति है। ये नव-हिन्दू कौन हैं? आप की स्कॉलरी की परम्परा में होते होंगे, आम जन या समाज या इस देश का विधान तो नव-हिन्दू शब्द को जानता भी नहीं। अपनी सुविधा के लिए आप लोग कंफ्यूजन क्यों फैलाते हैं?
@ आपका तथाकथित महान तर्क कि दलाई लामा ने जो कह दिया वो सभी बौद्धों के लिए अंतिम सत्य माना जाए !! - ऐसा तो मैंने नहीं कहा। आप के इस दुराग्रह को काटा भर कि दलाई लामा का कहना सिर्फ इसलिए महत्त्व नहीं रखता कि वह थेरवादी या महायानी नहीं हैं। उपर्युक्त तर्क के आधार पर तो आप भी असहिष्णुता के उस कटघरे में खड़े हो जाते हैं जिसका आरोप मुझ पर लगा रहे हैं।
@ बौद्ध/जैन धर्म को कोई भी नामी विद्वान मेरे जाने मार्क्सइस्ट नहीं है ! - हो ही नहीं सकता। बुद्ध तो स्वयं पर भी प्रश्न उठाने को प्रेरित करते हैं। उनका मत तो inquiry वाला मत है - सतत गतिशील, प्रवाहशील, परिवर्तनशील - इस हद तक कि आज के बौद्ध मत को स्वयं बुद्ध देखें तो मथ्था पीट लें। महायान के रास्ते क्या क्या नहीं आ गया - यक्ष, रक्ष, ढेर सारे अभिचार, मांस भक्षण, मूर्तिपूजा। कितने मार्क्सवादी मार्क्स पर प्रश्न उठा कर रह पाएँगे? ऐसा ही कुछ सनातन मत के साथ हुआ। आप लोग सुविधानुसार कालखण्डों में बाँट कर उसे देखने के अभ्यस्त हैं जब कि जन उसे एक पुरानी प्रवाहशील परम्परा मानता आया है जिसमें अनेक धाराएँ मिलती गईं।
आप टुकड़े में समझना चाहते हैं जो कि शोध के लिए आवश्यक भी है लेकिन टुकड़ों को ही सच मानेंगे तो हिन्दू धर्म को समझने में परेशानी होगी। आज भी एक हिन्दू घोषित रूप से नास्तिक और मूर्ति पूजा विरोधी हो सकता है। आज के हिन्दू धर्म को बौद्ध और जैन के बाद का कह कर आप क्या कहना चाहते हैं - वेद उपनिषद समाप्त हो गए? उन्हें मानने वाले हिन्दू नहीं हैं? गंगा गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक कहलाती है - अलकनन्दा, भागीरथी वगैरह धाराए हैं, रहेंगी अनेकों लेकिन गंगा एक ही रहेगी।
आप शोधार्थी हैं - सन्दर्भ स्वयं ढूढ़िए। स्वयं ढूढ़िए कि कोई बौद्ध विद्वान मार्क्सवादी क्यों नहीं है ? बहुत अर्थगुरु प्रश्न है यह। मार्क्सवाद कोई यूनिवर्सल कसौटी नहीं है जिस पर सबकी परख की जाय। आप करना चाहते हैं कीजिए।
"आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:"
@गिरिजेश राव
"ढूढ़िए कि कोई बौद्ध विद्वान मार्क्सवादी क्यों नहीं है ? बहुत अर्थगुरु प्रश्न है यह। मार्क्सवाद कोई यूनिवर्सल कसौटी नहीं है जिस पर सबकी परख की जाय। आप करना चाहते हैं कीजिए।
"आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:"
अब मैं मुग्ध हूं इन पंक्तियों पर....
वाह....वाह...
@Rangnath Singh said...
विद्वान मानते हैं कि भारत में ब्राह्मणिक और श्रमणिक दो धर्म परंपराएं समांतर चलती रही है। मैं आपको बताना चाहुंगा कि वर्तमान हिन्दू धर्म में अहिंसा और शाकाहार इन्हीं श्रमणिक धर्मों से आया है।
१. जो तथाकथित विद्वान् इस गलतफहमी में हैं वे शायद योग दर्शन को भी जैन या बौद्ध (या फिर मार्क्सवादी) परम्परा समझते होंगे. अष्टांग योग के प्रथम अंग यम के पांच बिन्दुओं में अहिंसा ही पहला बिंदु है. 2. अन्य हिन्दू धर्मग्रंथों में भी भूतदया, करुणा का सन्देश इस गहराई से भरा है कि उसे वही नकार सकता है जिसने सिर्फ नकारने के लिए उन्हें न पढने की कसम खाई हो. यहाँ तक कि रणभूमि के बीच गाई गीता भी अहिंसा, करुणा और प्रेम की महानता दर्शाने से बची नहीं (एक बार पढ़ तो लें.)
बौद्ध के जन्म काल के कारण कुछ लोगों को भ्रम होता है। .... खैर,आप यही बता दीजिए कि दलाई लामा ने किस पुस्तक में यह बात कही है। मैं कम से कम उन्हीं की पूरी राय जान लूँ !
तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रमुख महामहिम दलाईलामा सदा ही यह कहते रहे हैं कि महात्मा बुद्ध जन्मतः हिन्दू थे और यह दोनों धर्मों जुड़वां संतानों की तरह हैं. कुछ उदाहरण
Historically, Buddha Sakyamuni was a Hindu.
Hinduism has a long tradition and Buddhism draws many practices from the old, ancient traditions of India. In many ways Hinduism and Buddhism are twins.
Describing the Hindu and Buddhist religions as 'twin sisters',spiritual leader the Dalai Lama today lauded the marevellous tradition of communal harmony and coexistance in the country
"आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:"
क्या इस विश्व में मार्क्सवाद भी आता है ? अगर आता है तो इस सूक्ति को उद्धरित करने वालों को अपने बारे में सोचना चाहिए।
यदि आपने मार्क्सवाद से कुछ अच्छी बात सीखी है तो कुपया उसे जरूर बताएं। जिससे हमें पता चले कि आप जो उद्धरित करते हैं उस पर अमल भी करते हैं।
"विदेशी विचारधाराओं के लिए" "सेकुलरों को समझने में बहुत दिक्कत होती है।" ये है आपकी पहली टिप्पणी से लिए गए स्वीपिंग जनरलाइजेशन और कैटेगराइजेशन के नमूने। आपने बिना जाने-सुने मुझे कई प्रमाणपत्र दे दिए। जबकि मैंने अब तक आपको किसी और को इस तरह के कैटेगराइजेशन या स्वीपिंग जनराइलेशन से नहीं नवाजा है।
आपने आपको जवाब में लिखी मेरी टिप्पणी से वाक्यांश कोट किए हैं। लेकिन जिन बातों का उनमे जवाब है उसे कोट न करना बौद्धिक बेईमानी ही है।
"जिन पढों लिखों की बात आप कर रहे हैं, संत कबीर ने शायद उन्हीं लकीर के फकीरों के बारे में कहा होगा, "पोथी पढ़ पढ़"
आपको जिस विषय पर अध्ययन नहीं है, जिन विद्वानों का नाम तक नहीं पता है उन्हें आपने लकीन का फकीर कह कर खारिज कर दिया।
बौद्धधर्म के विद्वानों जैसे कि पी एस जैनी,गेल ओम्वेट,पाल डूण्डस्,हिराकावा,ग्रेगरी शापन इत्यादि को लकीन का फकीर बताना वो भी उनका नाम और काम जाने बिना ये आप ही कर सकते थे !
साथ ही कबीर दास को मिसकोट किया। इसका मैंने जवाब दिया तो उसका आपके पास उसका कोई जवाब नहीं था। इसलिए आपने फिर से मुझे प्रमाणपत्र बांटे। आधिकारिक ज्ञान के प्रति ऐसे वैमनस्य का नतीजा ही है कि आज भारत में विश्वख्यात विद्वान नाम गिनाने भर के हैं।
स्मार्ट जी,
आपने इस संदर्भ में मुझे दलाई लामा की कोई किताब नहीं बताई। मुझे नहीं पता कि आपने पढ़ी भी है या नहीं। खैर कोई बात नहीं। आपने कुछ अखबारी कटिंग के लिंक दिए हैं। जिनके आधार पर आपकी स्थापना टिकी है। अफसोस कि उनसे जाहिर हो गया है कि आपने दलाई लामा को भी मिसकोट किया है।
"In many ways Hinduism and Buddhism are twins."
"Hinduism has a long tradition and Buddhism draws many practices from the old, ancient traditions of India. Describing the Hindu and Buddhist religions as 'twin sisters"
"Historically, Buddha Sakyamuni was a Hindu. So I would like to call Hinduism and Buddhism twin brothers."
आप ही बता दें कि दलाई लामा ने किस पंक्ति में बौद्ध धर्म को हिन्दू धर्म से निकला हुआ बताया है ? उन्होंने दोनों धर्मों के समान भारतीय गर्भ से उत्पन्न होने के कारण बार-बार उन्हें जुड़वे भाई मानने का आग्रह किया है। अब यह आप ही कह सकत हैं कि एक जुड़वे भाई ने दूसरे जुड़वे भाई को जन्म दिया था !!
"He explained that... Buddhism and Jainism believe that there is no 'soul' and no creator. The Hindu religion believes that Lord Brahma is creator.''
दलाई लामा ने बौद्ध/जैन और हिन्दूओं के बीच जो भेद बताया है उस पर भी आपके विचार जानना चाहुंगा।
रंगनाथाजी
आपने तो कमाल कर दिया. मैं जानता हूँ आप क्या कर रहे हैं.
स्मार्ट जी से तो मंजूर करवा ही लिया की दोनों धर्म जुड़वां संतान हैं. और अजितजी को आपकी दो पोस्ट रिमूव करने को बाध्य कर दिया. मैं जानता हूँ अजितजी के सनातन धर्म मानने का कारण. उन्ही के शब्द "पर लग रहा है, कोई खास कोना, फ्रेम या वाद का आग्रह आपके साथ भी जुड़ा है।" (भी)
कृपया ज्यादा पीछे न पड़ें. और शब्दों का जितना संकलन मिल रहा है उसका मजा लें.
आपकी दोनों बातों के मेरे जवाब कृपया फिर से पढ़ें और बताएं कि दोनों प्रश्नों में से किस का उत्तर यहाँ पर नहीं है. बेहतर होगा कि आप स्पष्ट करें कि यहाँ उत्तर ढूंढें जा रहे हैं या तथाकथित विद्वानों के नाम जानने की प्रतियोगिता.
@Rangnath Singh said...
विद्वान मानते हैं कि भारत में ब्राह्मणिक और श्रमणिक दो धर्म परंपराएं समांतर चलती रही है। मैं आपको बताना चाहुंगा कि वर्तमान हिन्दू धर्म में अहिंसा और शाकाहार इन्हीं श्रमणिक धर्मों से आया है।
१. जो तथाकथित विद्वान् इस गलतफहमी में हैं वे शायद योग दर्शन को भी जैन या बौद्ध (या फिर मार्क्सवादी) परम्परा समझते होंगे. अष्टांग योग के प्रथम अंग यम के पांच बिन्दुओं में अहिंसा ही पहला बिंदु है. 2. अन्य हिन्दू धर्मग्रंथों में भी भूतदया, करुणा का सन्देश इस गहराई से भरा है कि उसे वही नकार सकता है जिसने सिर्फ नकारने के लिए उन्हें न पढने की कसम खाई हो. यहाँ तक कि रणभूमि के बीच गाई गीता भी अहिंसा, करुणा और प्रेम की महानता दर्शाने से बची नहीं (एक बार पढ़ तो लें.)
बौद्ध के जन्म काल के कारण कुछ लोगों को भ्रम होता है। .... खैर,आप यही बता दीजिए कि दलाई लामा ने किस पुस्तक में यह बात कही है। मैं कम से कम उन्हीं की पूरी राय जान लूँ !
तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रमुख महामहिम दलाईलामा सदा ही यह कहते रहे हैं कि महात्मा बुद्ध जन्मतः हिन्दू थे और यह दोनों धर्मों जुड़वां संतानों की तरह हैं. कुछ उदाहरण
Historically, Buddha Sakyamuni was a Hindu.
....
आप गोलमोल बात करने और विद्वानों के नाम गिनाने के बजाय मुद्दे पर बात करें तो बेहतर हो.
१. अहिंसा और शाकाहार पर आपके स्टैंड में अब परिवर्तन आया या अष्टांग योग, गीता आदि के सन्दर्भ के बाद अभी भी वहीं अड़े है?
२. दलाई लामा पहले ही कथन में स्पष्ट कह रहे हैं कि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि "बुद्ध शाक्यमुनि स्वयं हिन्दू थे"
३. यह सही है कि मैं आपकी विद्वान्-सूची में से किसी को नहीं जानता मगर आप भूल गए कि नाचीज़ आपकी तरह religious studies का छात्र नहीं है. कभी फिर से छात्र बनना भी पडा तो इतिहास बदलने के बजाय भविष्य बदलने वाले विषयों का छात्र बनना पसंद करूंगा.
४. मैंने पहले भी कहा था कि एक शताब्दी के भीतर ही संसार भर से दुत्कार दी गयी धर्म, परिवार और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता विरोधी मृत विचारधारा मार्क्सवाद की पट्टी बाधकर दुनिया और इतिहास को पुनर्परिभाषित करने की जिद पर अड़े पूर्वाग्रहों को बदलने की ज़िम्मेदारी मेरी नहीं है और न ही मेरे पास इतना फ़िज़ूल वक्त है. आप बहस में अपने को और मार्क्सवाद को विजयी घोषित कर सकते हैं मगर मेरा यह उत्तर इस पोस्ट पर अंतिम समझा जाए.
सच कहूं तो मुझे मार्क्सवाद को गरियाने के लिये एकत्र हुई इस सतरंगी भीड़ को देखकर मैनिफ़ेस्टो का पहला वाक्य याद आता है…अब वह भूत सारी दुनिया को सता रहा है। जिसे मृत कहा जाता है उसे ख़ारिज़ करने के लिये इतनी बेक़रारी!
अशोक भाई,
मैने इस दृष्टिकोण से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
रंगनाथ भाई ने भी खुद अपनी किन्ही टिप्पणियों को डिलीट किया है, मैने नहीं।
यहां हर सार्थक चर्चा का स्वागत है।
यहां प्रच्छन्न का संदर्भ आभासी, प्रभावित के रूप में आया है।
स्मार्ट इंडियन,
अहिंसा और शाकाहार, वैदिक परम्परा में प्राचीन नहीं अवार्चिन है.
आप ने भी संदर्भ : अष्टांग योग, गीता आदि (जो शाश्वत वैदिक परम्परा यानि वेद काल से अवार्चिन है.) का दिया है.
यह हिन्दू धर्म, जैन धर्म, बौध धर्म की बाडेबंदी अदि शंकराचार्य काल की है. पहले तो ये धर्म नहीं मार्ग कहे जाते थे.
जींवन (आत्मा) के सर्वोत्तम ध्येय की प्राप्ति के उपाय- मार्ग. आद्यात्म ही वांछित था. फिर महावीर किस कुल मान्यता में जन्मे, बुद्ध कहाँ जन्मे प्रश्न ही नहिं था.
कृपया शाश्वत की जगह सनातन पढ़ें.
Post a Comment