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Sunday, May 9, 2010
अपना हाथ जगन्नाथ…यानी महिमा कर्म की
भा रतीय मनीषियों ने हाथों का प्रतीकार्थ और उसका आध्यात्मिक महत्व बहुत पहले जान लिया था इसीलिए "प्रभाते करदर्शनम्" जैसे आत्मानुशासन की व्यवस्था की। वे हाथ, जो हमारे भाग्यविधाता हैं, उनकी स्तुति दर्शनमात्र से हो जाती है। मनुष्य के हाथों में ही पुरुषार्थ है। अथर्ववेद में कहा गया है कि अगर पुरुषार्थ मेरे दाएं हाथ में है तो सफलता बाएं में अवश्यंभावी है। इसी तरह श्रमार्जित सफलता (कर) के सामाजिक बंटवारे के बारे में भी वेदों में उल्लेख है कि सैकड़ों हाथों से अर्जित करो और हजारों हाथों से वितरित करो। वितरण के अर्थ में भी "कर" शब्द महत्वपूर्ण है। कर यानी भेंट, दक्षिणा, उपहार आदि। कुछ करने पर उत्पन्न पदार्थ की भेंट ही "कर" है। राज्य-प्रशासन की अवधारणा विकसित होने के साथ ही जब वाणिज्य-व्यवसाय का विकास भी होता गया तब इस श्रमार्जित कर के सामाजिक बंटवारे के लिए टैक्स tax के रूप में "कर" शब्द को नया अर्थ मिला। कर के रूप में समाज को मिलनेवाली भेंट या उपहार जब अनिवार्य हो गया तो उस व्यवस्था को कराधान कहा गया। तय है कि टैक्स यानी कर का संबंध कार्य करने से है, कर यानी हाथों से है। भारतीय संस्कृति में हाथ अर्थात "कर" को इतना ऊंचा दर्जा दिया गया है कि उसे सभी प्रकार के कर्मों का आवास कहा गया है। प्रातःकाल उठते ही स्व हस्त दर्शनम् के आध्यात्मिक अर्थ है। सुख-समृद्धि और कल्याण – मंगल के चिह्न भारतीय मनीषा हथेलियों में देखती है- कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वतीम्। करमूले स्थिता काली प्रभाते कर दर्शनम्।। अर्थात हथेली के अग्रभाग में लक्ष्मी, मध्य में सरस्वती, मूल में काली का निवास होने से सुबह हथेलियों को देखना शुभ होता है।
हाथ के लिए संस्कृत में "कर" शब्द है जो कृ धातु से बना है और जिसका अर्थ है करनेवाला। मनुष्य के शरीरांगों में हाथों के जरिये ही क्रियाएं सम्पन्न होती हैं इसलिए जो करता है या कराता है के अर्थ में हाथों के लिए कर शब्द स्थिर हुआ। सिखों में धार्मिक सामाजिक प्रयोजन से किए गए श्रमदान को कारसेवा कहा जाता है। अक्सर लोग इसे कार्यसेवा समझ बैठते हैं पर यह गलत है। इसका रिश्ता भी कर से है। कार्य भी एक क्रिया है और सेवा भी क्रिया ही है सो एक ही अर्थवाली दो क्रियाओं
गौर करें शरीर से बाहर निकलती दो भुजाएं वृद्धि का ही प्रतीक हैं। यूं भी भुजाओं का लम्बा होना शुभकारी माना जाता है। शास्त्रों में असमान भुजाओं वाले व्यक्ति को चोर कहा गया है। छोटी भुजाओवाला व्यक्ति दास होता है। घुटनों तक लम्बी भुजाओं वाला व्यक्ति दैवीय और राजसी गुणों से सम्पन्न होता है। ईश्वर को आजानुभुज कहा गया है क्योंकि उनकी भुजाएं लम्बी होती हैं।
से बने समास का औचित्य नहीं है। कारसेवा कर + सेवा से मिलकर बना है। पंजाबी में प्रथमाक्षर के साथ स्वरविस्तार हो जाता है सो करसेवा का कारसेवा रूप प्रचलित है। संस्कृत की कृ धातु से बना है "कर" जिसका अर्थ होता है हाथ, हथेलियां। कृ धातु बहुत महत्वपूर्ण है और इसकी व्याप्ति भारोपीय भाषाओं के कई शब्दों में नजर आती है। हिन्दी की सर्वाधिक प्रयुक्त क्रियाओं करना का शुमार है जो इसी कृ से बनी है। क्रिया शब्द का निर्माण भी कृ से ही हुआ है। कृ में मूलतः रचना, बनाना, नष्ट करना, छितराना, बिखराना, फैलाना जैसे भाव है जिनमें सृष्टि विस्तार का संकेत निहित है। कृ धातु में निर्माण से जुड़े सारे भाव समाहित हैं। लिखना, जन्म देना, काम लेना या आज्ञा मानना, धारण करना, पहनना, सोचना, इस्तेमाल करना जैसी क्रियाएं भी इसमें शामिल हैं। कृ की महिमा किराना या किरानी जैसे शब्दों में भी नजर आ रही है जो हिन्दी के सर्वाधिक इस्तेमालशुदा शब्दों में हैं। कृ का ही एक अन्य रूप है क्री इसका मतलब होता है खरीदना, मोल लेना। किराए पर लेना या बेचना। कृ में निहित करने का क्रियाभाव क्री में सिर्फ खरीदने-बेचने की क्रिया में सीमित हुआ है। विनिमय या अदला बदली भी इसमें शामिल है। क्री से ही एक अन्य क्रियारूप बनता है क्रयः जिसका अर्थ भी खरीदना, मूल्य चुकाना है। इसमें वि उपसर्ग लगने से बना विक्रय जिसका मतलब हुआ बेचना। जाहिर है क्रय से ही हिन्दी के खरीद, खरीदना जैसे शब्द बने और विक्रय से बिक्री बना। इससे ही बने क्रयणम् या क्रयाणकः जिसने हिन्दी उर्दू में किरानी और किराना का रूप लिया। किरानी का एक दूसरा मतलब है क्लर्क, बाबू। खाताबही लिखने वाला। अब इन अर्थो में इस शब्द का प्रयोग हिन्दी में लगभग बंद हो गया है मगर अंग्रेजीराज से संबंधित संदर्भों में यह शब्द अनजाना नहीं है। यह बना है करणम् से जिसका मतलब है कार्यान्वित करना, धार्मिक कार्य, व्यापार-व्यवसाय, बही, दस्तावेज, लिखित प्रमाण आदि । गौरतलब है कि यह लफ्ज भी बना है संस्कृत धातु कृ से जिसका मतलब है करना, बनाना, लिखना, रचना करना आदि। हाथ को संस्कृत में "कर" कहते हैं। यह इसीलिए बना क्योंकि हम जो भी करते हैं, हाथों से ही करते हैं सो कृ से ही बना कर यानी हाथ। मोरक्को का प्रसिद्ध यात्री अबु अब्दुल्ला मुहम्मद जिसे हम इब्न बतूता के नाम से जानते हैं चौदहवीं सदी में भारत आया था और उसके यात्रा वर्णन में भी किरानी शब्द का उल्लेख है जो एकाउंटेंट के अर्थ में ही है।
कृ धातु का एक अर्थ हाथी की सूंड भी होता है। गौर करें सूंड ही हाथी के लिए हाथ का काम करती है। संस्कृत में हाथ के लिए हस्तः शब्द है। हस्तः से ही बना है हस्तिन् जिसका मतलब हुआ हाथ जैसी सूंडवाला। गौरतलब है कि वो तमाम कार्य, जो मनुष्य अपने हाथों से करता है, हाथी अपनी सूंड से कर लेता है इसीलिए पृथ्वी के इस सबसे विशाल थलचर का हाथी नाम सार्थक है। हस्तिन् का एक अर्थ गणेश भी होता है जो उनके गजानन की वजह से बाद में प्रचलित हुआ। इसी तर्ज पर कर यानी जो करता है अर्थात मनुष्य के धड़ से जुड़े अंगों के लिए हाथ का भाव स्थिर हुआ। हस्ति की तरह ही कर में भी हाथी की सूंड का भाव स्थिर हुआ और इससे बने करटः या करटिन् का मतलब हुआ हाथी। कर से बने करिन् का अर्थ भी हाथी होता है। हाथी के बच्चे को करिनशावक कहते हैं। गणेश का एक नाम गजानन की तरह करिनमुख भी है। करिणी यानी हथिनी। करतालिका का अर्थ हुआ दोनों हथेलियों को आपसे में थपकने से पैदा होने वाली ध्वनि जिसे करतल ध्वनि कहते हैं अर्थात हथेलियों के तल से उत्पन्न आवाज। इसका ही संक्षिप्त रूप ताली हुआ। हाथ के लिए संस्कृत में हस्त शब्द है। हथेली बना है हस्त+तालिकः = हथेली से। हस्त यानी हाथ और तालिकः यानी खुला पंजा जिसकी सतह नजर आती है। यही हाथ का तल या सतह है जो भूमि पर टिकती है। हाथ का महत्व अपना हाथ जगन्नाथ जैसी कहावत में भी नजर आता है। कर शब्द में विशालता का भाव भी है जो मूलतः वृद्धि अर्थात समृद्धि से जुड़ा है। गौर करें शरीर से बाहर निकलती दो भुजाएं वृद्धि का ही प्रतीक हैं। यूं भी भुजाओं का लम्बा होना शुभकारी माना जाता है। शास्त्रों में असमान भुजाओं वाले व्यक्ति को चोर कहा गया है। छोटी भुजाओवाला व्यक्ति दास होता है। घुटनों तक लम्बी भुजाओं वाला व्यक्ति दैवीय और राजसी गुणों से सम्पन्न होता है। ईश्वर को आजानुभुज कहा गया है क्योंकि उनकी भुजाएं लम्बी होती हैं। इसी अर्थ में अपना हाथ, जगन्नाथ जैसी लोकोक्ति को भी समझना चाहिए।
कृ धातु का एक अर्थ प्रकाश भी है जिसका रिश्ता किरण से है। किरण में यही कृ धातु उभर रही है। किसी भी प्रकाश पुंज से निकलती आलोक-रेखाओं को आमतौर पर रश्मि कहते हैं। बोलचाल की भाषा में इसके लिए किरण शब्द खूब चलता है। किरणों का बिखरना ही उजाला होना है। किरण और बिखराव में गहरी रिश्तेदारी जो ठहरी। कृ धातु में फैलाना, बिखेरना, इधर-उधर फेंकना, छितराना, तितर-बितर करना, भरना, प्रहार करना, काटना आदि भाव शामिल हैं। इसके खुदाई करना भी इसमें शामिल है। विकिरः, विकिरण या विकीर्ण शब्द इससे ही बने हैं और बिखराव, बिखरना, बखरना या बिखराना जैसे शब्द इसी विकिरण के रूपांतर हैं। खेती किसानी के काम आने वाले उपकरणों में हल-बक्खर आम हैं। इसमें जो बक्खर है उसकी रिश्तेदारी भी विकिरः यानी बिखराने से है। बीजों को बोने से पहले भूमि को जोता जाता है। जुताई में मिट्टी को छितराने, फैलाने और बिखेरने जैसी क्रियाएं ही तो शामिल हैं। खेती के लिए कृषि शब्द की मूल धातु है कृष् जिसमें भी यही कृ नज़र आता है। कृष् का अर्थ हुआ हल चलाना, खींचना आदि। प्रतिमाओं को तराशने , नक्काशी करने के लिए संस्कृत में उत्कीर्ण शब्द है। ध्यान दें, कृ में शामिल काटना, खुदाई करना या चोट पहुंचाने जैसे अर्थों पर। कृ में उद् उपसर्ग [ यानी ऊपर से ] लगने से बना उत्कीर्ण जिसका भाव हुआ शिला या प्रस्तर पर ऊपर से काट-छांट कर प्रतिमा की आकृति तराशना। तराशने, उत्कीर्ण करने के अर्थ में अंग्रेजी के कार्व [CARVE] में भी कृ में मौजूद खोदने का भाव झांक रहा है। आकृति शब्द भी कृ धातु की ही देन है।
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15 कमेंट्स:
कर कमलो से उद्घाटन इसी लिये करवाते है नेताओ से कि उनका हाथ बना रहे उपर
इस पाठ से ऐसा लगा मनुष्य की सारी संपदा कर शब्द में ही समाहित हो गई है। बहुत विस्तृत और श्रमोत्पन्न आलेख।
अन्दर ही अन्दर शब्द कितने हिले मिले हैं ।
बहुत सुंदर पोस्ट, काफ़ी समय बाद आना हुआ, अब पीछे की पोस्ट पढनी पडेंगी तब घाटा पूरा होगा.
रामराम.
कमेंटबॉक्स पूरा नही खुलता है! इसलिए कमेंट नही कर पाता हूँ!
अजित जी,
कांग्रेस जीती तो आम आदमी के हाथ का साथ देने के वादे से जीती थी...
लेकिन ये नीरा राडिया के प्रकरण से आपको नही लगता कि कांग्रेस का हाथ भ्रष्टाचारियों के साथ हैं, जिसमें पत्रकारिता के कुछ कथित पुरोधाओं ने भी अपना महत्ती योगदान दिया है...
जय हिंद...
हमने श्लोक में "करमूले तु गोविन्द" पढ़ा है अजित भाई [ करतल ध्वनि के साथ [ :-) - मनीष
@ द्विवेदी जी आपकी टिप्पणी पढने के बाद और कुछ लिखने की हिमाकत नहीं कर रहा हूँ !
आपके हाथ बहुत लम्बे हैं सर जी, जबरदस्त। हमेशा की तरह उम्दा जानकारी लेकर आये। शुक्रिया।
पंजाबी में 'कार' स्वतंतर शब्द है और इसका व्यापक प्रचलन है. इसका मतलब काम ही है:
जो तुधु भावै साई भली कार - गुरू नानक
संजोगु विजोगु दुइ कार चलावहि लेखे आवहि भाग- गुरू नानक
नानक सचे की साची कार -गुरू नानक
एक मुहावरा है: हाथ कार वल, चित यार वल.
यहाँ कर 'संज्ञा' ही है. कारसेवा वाली बात ज़रा स्पष्ट करें.वैसे आप 'कार्य' और 'सेवा' को किर्याएँ बता रहे हैं , क्या यह भाववाचक संज्ञाएँ नहीं हैं?
आप शायद क्रिया का वैयाकर्नक अर्थों में प्रयोग नहीं कर रहे.
@बलजीत बासी,
कारसेवा के संदर्भ में पंजाबी का हवाला इसलिए दिया क्योंकि कारसेवा का हिन्दी में जो प्रचलित प्रयोग है वह समाचार माध्यमों के जरिये पंजावी वाले कारसेवा की तरह अधिक होता है, अन्यथा कारसेवा, करसेवा ही है। करसेवा हिन्दी में भी है, पर अल्पप्रचलित। महाराष्ट्र में भी मंदिरों में करसेवा होती है। मराठी में भी यह प्रचलित है। वृहत प्रामाणिक हिन्दी कोश समेत अनेक कोशों में यह करसेवा ही दर्ज है जिसमें धार्मिक आयोजनों या धार्मिक निर्माण हेतु किया जानेवाला श्रमदान का भाव ही है। बाकी आप सही हैं।
आपकी लेखनी से शब्द का सफ़र, लगता है कोई शब्दों की इतिहास नाटिका हो, और शब्द विभिन्न रूप बदल कर,अपनी उत्पत्ति गाथा गा रहे है.
ज्ञानदान के लिए धन्यवाद.
पिछले ५ दिन पचमढ़ी-भोपाल में गुज़रे, सो आमद में ताख़ीर हुई है....
'जुड़े हाथ' करते दुआ, 'खुला हाथ' झापट लगे*,
कर की महिमा जान कर, बाकी सब औसत* लगे,
'कर सेवा' से 'CAR' तक पहुँच हुई आसान,
'कृ' धातु में छुपे हुए भाव हमे 'चौंसठ' लगे.
[*बकौल खुश्दीपजी ]
[*बकौल द्विवेदी जी ]*
कर का कार होना चक्कर में डाल गया. यदी "करसेवा" कहा जाता तो "कर" माने हाथ से लेते या फिर मानते की आदेश है "सेवा कर" :) .
जानकारी के लिए आभार.
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