Friday, May 14, 2010

शुद्धतावादियों, आंखे खोलो…

Communication

भा षायी शुद्धतावाद के समर्थकों को इस बात का गुमान भी न होगा कि हिन्दी में बेरोजगार शब्द का कोई प्रचलित विकल्प ही नहीं है। ऐसे अनेक शब्द हैं जो अरबी, फारसी, तुर्की, पुर्तगाली, अंग्रेजी आदि भाषाओं से आकर हिन्दी में घुलमिल गए हैं और हम उनके साथ देशी बोलियों के घुले-मिले शब्दों जैसा ही बर्ताव करते हैं। कभी एहसास नहीं होता कि कुछ सौ साल पहले तक ये हमारे पुरखों के लिए अजनबी थे। साबुन के लिए हिन्दी में ढूंढे से कोई दूसरा शब्द नहीं मिलता। इसी तरह शर्त लगाने के लिए क्या हिन्दी के पास कोई आसान सी अभिव्यक्ति है? चाय पीने के लिए जिस पात्र का हम प्रयोग करते हैं उसके लिए फारसी मूल से प्याला, प्याली ( फारसी में पियालः) जैसे शब्द हिन्दी में बना लिए गए हैं मगर क्या हिन्दी में इनका कोई आसान विकल्प नजर आता है? सर्वाधिक लोकप्रिय जो शब्द इस संदर्भ में याद आता है वह कप है जो अंग्रेजी का है। संस्कृत का चषक शब्द जरूर हमारे पास है मगर वह ग्रंथों में है, दिल, दिमाग और जबान पर उसका कोई स्पर्श अब बाकी नहीं रहा। बोलचाल में सिफारिश ही की जाती है, शुद्धतावादियों के अनुशंसा जैसे शब्द से कलम को तो कोई परहेज नहीं पर जबान को जरूर है। अपने दिल से पूछ कर देखिए। शुद्धतावाद दरअसल एक किस्म की कट्टरता है जिससे न समाज का कल्याण होना है, न भाषा का और न ही साहित्य का। भाषा का भला होता है तभी संस्कृति भी समृद्ध होती है।
म कब तक किसी भी भाषा के एक काल्पनिक मूल स्रोत को ही पवित्रतम् और सर्वोपरि मानते रहेंगे? यात्रा के दौरान आंखों के आगे से गुजरते उन नजारों को हम क्यों उन शब्दों में नही कहना चाहते जिन्हें बयां करने को आतुर हमारी जबान ने मुंह खुले बिना ही हजारों लाखों बार कसरत की होगी। हजारों साल पहले का अनदेखा अतीत हमें सुहाता है और आज का वह यथार्थ हम नहीं देख पाते जो सिर चढ कर बोल रहा है। मेरा आग्रह है कि आप जो भाषा बोलते हैं उसमें  ऐसे शब्दों को तलाशें। अगर उनकी शिनाख्त विदेशज शब्द के रूप में होती है तो क्या आप हम उनसे पीछा छुड़ाने के बारे में सोच सकते हैं जिनसे हमारी भाषा-संस्कृति सदियों से  समृद्ध होती रही  है। आज से कुछ दशक पहले बनी फिल्मों की हिन्दी सुनना और नाटकीय अंदाज में बोलना मनोरंजक चाहे लगे पर व्यवहार में उसे बोलना नामुमकिन है।  हम कल्पना नहीं कर सकते  एक हजार साल पहले की उस भाषा को अपनाने की जो अरबी-फारसी के मिश्रण से मुक्त थी। हिन्दी ही नहीं, तमाम भाषाओं को अगर हम खांचों में बांट कर देखेंगे तब यही समस्या होगी। शुद्धतावादी भी आज ऐसी हिन्दी नहीं बोल सकते जिसमें अरबी-फारसी के शब्दों का इस्तेमाल न हो। फिर व्यर्थ का बवाल क्यों? भाषायी परिमार्जन अलग बात है और भाषायी शुद्धता अलग। तरह तरह के खाद्य पदार्थों के सेवन से जैसे काया पुष्ट होती है, से ही अलग अलग क्षेत्रों की बोलियों के आपसी मेल-जोल से भाषाएं भी समृद्ध होती हैं। भाखा बहता नीर जैसी उक्तियां यही साबित करती हैं कि किसी भी भाषा के विकास में उद्गम का नहीं, परिवेशी धाराओं का महत्व होता है। इस विषय पर फिलहाल इतना ही। आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है। अनुरोध है कि अन्य भाषाओं के उन शब्दों की आप भी पड़ताल करें जिन्होंने आपकी वाग्मिता को समृद्ध किया है।

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28 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

शुद्धतावादी भी आज ऐसी हिन्दी नहीं बोल सकते जिसमें अरबी-फारसी के शब्दों का इस्तेमाल न हो। फिर व्यर्थ का बवाल क्यों?

-१०० टके की बात कही आपने.

Baljit Basi said...
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उम्मतें said...

पारस्परिक स्वीकृतियां ...समृद्धि और सामर्थ्य का विस्तार करती हैं फिर शुद्धतावाद की पैरवी ...?
भाषाओं और संस्कृतियों की शुद्धता की चिंता से पूर्व उन्हें स्वयं की जैव शुद्धता के परीक्षण करवा लेना चाहिये :)

Baljit Basi said...

बिलकुल सही बात कही आप ने. मैंने देखा है कि यह शुधतावाद हिंदी में बहुत है. यह एक हंकार और संकीरण रुची का परणाम है. हिंदी वालों में अभी तक रघुवीरा का भूत हावी है. पंजाबी इसके बिलकुल उल्ट है और ये बात भी ठीक नहीं. आप समय समय पर यह मुद्दा उठाते रहें तो कुछ बात बने.

दिनेशराय द्विवेदी said...

एक जीवन्त भाषा वही है जिस में नए शब्द जन्म लेते हैं, विकसित होते हैं, बाहर से आते हैं और घर के हो कर रह जाते हैं और आश्रय पाते हैं। हिन्दी की यही सब से बड़ी विशेषता है कि यहाँ शब्द भी खूब जन्मते हैं, बाहर से अंगीकार किए जाते हैं, यही उस की सब से बड़ी विशेषता है। लेकिन बहुत से हिन्दी वाले इन विशेषताओं से महरूम हैं। होता है, अक्सर माँ के जाए गोद लिए बच्चों से डाह करते हैं।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

..संस्कृत का चषक शब्द जरूर हमारे पास है मगर वह ग्रंथों में है, दिल, दिमाग और जबान पर उसका कोई स्पर्श अब बाकी नहीं रहा..
..शासकीय उपेक्षा व पेट से दूरी किसी भी भाषा की दुर्गति के लिए पर्याप्त है. रोजी-रोटी से जुडी भाषाएँ एक दूसरे के संपर्क में आकार खिचड़ी हो ही जाती हैं.

rajmohan said...

ajitji there is no word for "shaan" or "shaandar". we have to use " bhavya" instead. "bhavya udghaatan" for "shaandar opening" and "bhavya personility" for " shaandaar Personility". jabki "bhavya" ka matlab to " to be" " hone waalaa" hota hai.

अनुनाद सिंह said...

मुझे नहीं लगता कि कोई शुद्धतावादी सरल और लोकप्रिय शब्दों का विरोध करता है। एक बात आप छिपा रहे हैं (या कहना नहीं चाहते ) कि जो प्रयोग होने लगता है वही 'प्रचलित' कहा जाने लगता है। उदाहरण के लिये अधिकांश 'शिक्षित' लोग आजकल 'एग्जाम' कहते सुने जाते हैं इसका यह अर्थ नहीं कि 'परीक्षा' कठिन है; कोई सन्डे इसलिये नहीं कहता कि भारत में प्रचलित 'रविवार' कठिन है। संस्कृत और भारतीय भाषाओं की शब्दराशि से अरबी-फारसी की शब्दराशि की कोई तुलना ही नहीं है।

अनुनाद सिंह said...

कठिन शब्द भी प्रयोग में आकर प्रचलित आसान शब्दों को पीछे ढ़केल देते हैं और कुछ समय बाद आँख मूंदकर कहा जाने लगता है कि 'फला शब्द तो संस्कृत में है किन्तु प्रचलन में नहीं है ।'

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

शुद्ध और वर्तमान युग में ......... असम्भव

shyam gupta said...

अनुनाद सिन्ह का अनुनाद बिल्कुल सही है,---कप या प्याला के लिये कटोरी, कटोरा, व लोटा, लुटिया, पात्र( कोई भी प्रत्यय लगाकर--यथा दुग्ध-पात्र) शब्द है हिन्दी में; सिफ़ारिस के स्थान पर अनुशंसा क्यों नहीं लिखी जा सकती; बेरोज़्गार के लिये बेकार(बैठा),बिना धन्धे, ठलुआ शब्द हैं; साबुन( शब्द की उत्पत्ति कहां से है बताएं--शायद हिन्दी है) -जब होता नहीं था-फ़ारसी के समय भी साबुन नहीं था - अतः चन्दन बट्टी कहा जाता था।
---भव्य का अर्थ ’शानदार, सुन्दर,ही है, होने वाला तो भवितव्य होना चाहिये।
------इसका अर्थ यह नहीं कि हम अन्य भाषाओं से शब्द न लें, परन्तु शब्द क्षमता-मात्रा,शब्दावली बढाने के लिये नकि सरलता हेतु अपने स्वयं की भा्षा के शब्द गंवाने के लिये.

shyam gupta said...

---पुनश्च, बोलचाल में जो बचपन से सीखा जाता है व्यक्ति वही बोलता है परन्तु हिन्दी -साहित्य लिखते समय तो शुद्ध भाषा लिखी जासकती है।

Ashok Kumar pandey said...

मुझे तो शुद्धता का आग्रह ही प्रतिगामी लगता है…चाहे वह भाषा में हो या तथाकथित रक्त शुद्धता के संदर्भ में। शुद्ध तो सभी शब्द हैं हां उनका मूल कहीं से भी हो सकता है। अपनी ट्रेनिंग के कारण मैं लेखों में प्रांजल शब्दों का ही चाहे-अनचाहे प्रयोग करता हूं, परंतु किसी और मूल का कोई अर्थव्यंजक शब्द आ जाये तो उसका स्वागत करता हूं। जैसे एक शब्द है बरक्स - अब इसका मुझे कोई बेहतर विकल्प नहीं मिलता- समानान्तर है पर उसमें वह बात नहीं। ऐसे ही भदेस शब्द है -चिरकुट- जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के हैं वे जानते हैं कि इस शब्द का कोई समानार्थी नहीं। ऐसे अनेक शब्द हैं और इनका उपयोग करना ही चाहिये। असली समस्या संप्रेषण और जीवंतता की है।

प्रवीण पाण्डेय said...

जब सभ्यताओं को अपनी संस्कृति में घोले बैठे हैं तो शब्दों से कैसा बैर ।

Unknown said...

प्रिय अजित भाई, ये जरूरी बहस है। शुद्धतावाद से भाषा सड़ेगी। इसे तो बहता नीर ही बनना होगा। जो भी शब्द आम बोलचाल में शामिल हो चुके हों या जिन्हें लोग आसानी से समझ लें, उन्हीं का इस्तेमाल बेहतर है।
लेकिन बात इतनी सरल है नहीं जितनी दिखती है। आजकल तमाम लोकप्रिय और आसानी से समझ में आने वाले हिंदुस्तानी शब्दों की जगह अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग बढ़ा है। मुझे लगता है कि अगर हमें दो कठिन शब्दों के बीच चुनाव करना हो तो हमें हिंदी का कठिन या तत्सम शब्द चुनना चाहिए। अनुशंसा, सिफारिश के मुकाबले कठिन हो सकता है, लेकिन रिकमेंडेशन के मुकाबले आसान है। इसी तरह आजकल अखबार भी धड़ल्ले से आर्डिनेंस, रिजोल्यूशन, बिलियन, का इस्तेमाल हो रहा है, तो अध्यादेश, संकल्प या अरब कहां जाएं। शब्दों को चलन से बाहर करना कोई अच्छा चलन नहीं है।
एक महत्वपूर्ण बात इस्तेमाल की भी है। आकाशवाणी शब्द जब बना था तो बेहद कठिन था। आज गांव-गांव समझा जाता है। मैंने अभियंता शब्द की स्वीकार्यता को आसमान चढ़ते अपनी आंख से देखा है। ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी के शब्द आसान होने की वजह से चलन में आ रहे हैं, बल्कि प्रभुवर्ग उन्हें लाने की कोशिश कर रहा है। साइकोलॉजी आसान और मनोविज्ञान कठिन कैसे है भाई।
हमें एक बात और ध्यान देनी होगी। तत्सम हिंदी गैरहिंदी इलाके में ज्यादा समझी जाती है, क्योंकि अधिकतर भारतीय भाषाओं का मूल संस्कृत है। मैं अवध का हूं औ उर्दू-हिंदी के मेल से बनी हिंदुस्तानी में मेरा दिल धड़कता है, लेकिन यह नहीं चाहता कि हिंदी सिर्फ लखनऊ इलाहाबाद, अलीगढ़ के दायरे में रहे।
आखिरी बात ये कि शुद्धतावादियों को भी लोकतंत्र में रहने की आजादी है। डाक्टर गांव-गांव बोला जाता है, लेकिन चिकित्सक बोलने वाला हंसी का पात्र न हो जाए, ये ध्यान रखना होगा। वरना हम अपनी भाषा को दरिद्र करेंगे। बेहतर स्थिति ये होगी किसी एक चीज या स्थिति को बताने के लिए हमारे पास तमाम पर्याय हों। इसके लिए बोलियों के नाम पर बिसरा दिए गए शब्दों की वापसी का प्रयास भी किया जाना चाहिए।

Baljit Basi said...

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DR. ANWER JAMAL said...

स्वर्ग-नर्क का विवरण


ईश्वर एक है


तो उसने जब कभी किसी ऋषि के अन्तःकरण पर सत्य प्रकट किया तो उसे जन्म और मृत्यु के विषय में स्पष्ट ज्ञान दिया । जन्म और मृत्यु के बीच की अवधि को हम जीवन के नाम से जानते हैं लेकिन जीवन तो मृत्यु के बाद भी है बल्कि यह कहना ज़्यादा सही होगा कि वास्तव में जीवन तो है ही मृत्यु के बाद । आदमी अपने मन में भोग की जो कामनाएं लिए रहता है वे यहां पूरी कब हो पाती हैं ?


और जो लोग पूरी करने की कोशिश करते हैं उनके कारण समाज में बहुत सी ख़राबियां फैल जाती हैं । वजह यह नहीं है कि भोग कोई बुरी बात है । सीमाओं के बन्धन में रहते हुए तो भोग की यहां भी अनुमति है और जीवन का व्यापार उसी से चल भी रहा है लेकिन अनन्त भोग के लिए अनन्त भोग की सामथ्र्य और अनन्त काल का जीवन चाहिये और एक ऐसा लोक भी चाहिये जहां वस्तु इच्छा मात्र से ही प्राप्त हो जाये और उसका कोई भी बुरा प्रभाव किसी अन्य पर न पड़ता हो । प्रत्येक ईशवाणी मनुष्य के मन में बसी हुई इस चिर अभिलिषित इच्छा के बारे में ज़रूर बताती है ।


पवित्र कुरआन में इसका बयान साफ़ साफ़ आया है लेकिन वेदों से भी यह ग़ायब नहीं किया जा सका है बल्कि इनका बयान तो बाइबिल में भी मिलता है ।


इस बयान का मक़सद सिर्फ़ यह है कि आदमी दुनिया के सुख भोगने के लिए बेईमानी और जुल्म का तरीका अख्ितयार न करे बल्कि ईमानदारी से अपना फ़र्ज़ पूरा करे चाहे इसके लिए उसे प्राप्त सुखों का भी त्याग करना पड़े या फिर मरना ही क्यों न पड़े ?


क्योंकि अगर वह अपने फ़र्ज़ को पूरा करते हुए मर भी गया तब भी उसका मालिक उसे अमर जीवन और सदा का भोग देगा । यही विश्वास आदमी के लड़खड़ाते क़दमों को सहारा देता है और उसके दिल से दुनिया का लालच और मौत का ख़ौफ़ दूर कर देता है ।


यत्रानन्दाश्च मोदाश्च मुदः प्रमुद आसते ।


कामस्य यत्राप्ताः कामास्तत्र माममृतं कृधीनन्द्रायंन्दां परि स्रव ।।


-ऋग्वेद , 9-113-11


मुझे उस लोक में अमरता प्रदान कर , जहां मोद , मुद और प्रमुद तीन प्रकार के आनन्द मिलते हैं और जहां सभी चिर अभिलिषित कामनाएं इच्छा होते ही पूर्ण हो जाती हैं ।


मोद , मुद और प्रमुद ये तीन आनन्द जिनका उल्लेख इस मंत्र में किया गया है संभोग से संबंधित आनन्द हैं और विशेषकर ‘प्रमुद‘ तो वेदों में संभोग के आनन्द के लिए ही आता है । इससे मालूम हुआ कि स्वर्ग में लोगों को पत्नियां भी मिलेंगी । इसका प्रमाण दूसरे वर्णनों से भी मिलता है ।


भोजा जिग्युः सुरभिं योनिमग्ने भोजा जिग्युर्वध्वंवया सुवासाः ।


भोजा जिग्युरन्तः पेयं सुराया भोजा जिग्युर्ये अहूताः प्रयन्ति ।


ऋग्वेद, 10-107-9


दान करने वालों ने पहले सुखकर स्थल अर्थात स्वर्ग को प्राप्त किया है ।


फिर अच्छे सुन्दर वस्त्र वाली सुन्दर स्त्रियां और तेज़ शराब के जाम को ।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

आपसे पूरी सहमति।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

पंकज जी की बात व्यापक सन्दर्भ में अधिक स्वीकार्य है। योजनाबद्ध ढंग से हिन्दी के शुद्ध शब्द जबरिया बाहर ठेल दिये जाँय और उनका स्थान विदेशी भाषा के शब्दों को दे दिया जाय, यह अच्छा तो नहीं ही लगता।

अजित वडनेरकर said...

@अनुनादसिंह/पंकज
आप दोनों की बातों से सहमत हूं और यह पोस्ट इस विचार का कहीं से भी विरोध नहीं करती। आप दोनों जो बातें कह रहे हैं उन पर एकाधिक पोस्ट शब्दों का सफर में लिख चुका हूं। आपके दृष्टिकोण का समर्थन करती हुई। इस बार सिर्फ फारसी-अरबी के शब्दों के बहाने कुछ कहना चाहा था, क्योंकि ऐसे अनुभव भी हुए हैं कि छांट छांट कर आमफहम विदेशज शब्दों को बाहर किए जाने की मानसिकता से जुड़े थे। मैं कलेक्टर शब्द के प्रयोग को भी गलत नहीं मानता और जिलाधीश को भी कठिन नहीं मानता। दोनों शब्द समान प्रचलित हैं। कठिन शब्दों का हौवा तो मीडिया ने शुरू किया है। पत्रकारिता में बढ़ती साहित्यिक शब्दों की घुसपैठ से बचने के लिए सरल शब्दों की हिमायत शुरू हुई। यह वाजिब था पर इसका अर्थ यह भी नहीं था कि दंडाधिकारी, जिलाधीश, पाठशाला, चिकित्सक जैसे दर्जनों शब्दों, जिनका अर्थ पूरा हिन्दी समाज जानता है, से परहेज बरता जाए, पर मूर्ख सम्पादकों ने यही किया। अपना (अ) ज्ञान जाहिर करने और पत्रकारिता में खुद का योगदान देने के लिए उन्होंने इन शब्दों को ही कठिन मान लिया और हाशिया दिखाना शुरू कर दिया। दरअसल साहित्यिक शब्दों से तो वे खुद भी परिचित नहीं थे। गड़बड़ यहीं से शुरू हुई और हिन्दी मीडिया लगातार मातृभाषा की अभिव्यक्ति क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए परीक्षा की जगह एक्जाम जैसे शब्दों को तवज्जों देता चला गया।

इस विषय पर विस्तार से फिर कभी चर्चा होगी।

Gyan Dutt Pandey said...

यह ललकार है शुद्धतावादी संस्कृतनिष्ट दुरुह हिन्दी पण्डितों के लिये?!

Arvind Mishra said...

पंकज जी ने गम्भीरता और उत्तरदायित्व से अपनी बात रखी है -सहमत !

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर पोस्ट! उसके नीचे की बतकही भी मजेदार है।

ePandit said...

आपके विचारों से सहमत हैं तथा ऊपर अनुनाद जी द्वारा व्यक्त किये गये पहलू से भी।

अभय तिवारी said...

ज़िन्दाबाद है जी!

drdhabhai said...

हिंदी दुरूह नहीं होनी चाहिये....अतिशुद्धता वाद सही नहीं है...भाषा बहते पानी की तरह हो कि सरलता से बोली और समझी जा सके....पर उसका खिचङीकरण भी गलत है...स्टूडेंट्स ने स्ट्राईक की ...प्रकार की भाषा क्या स्वीकार्य है

Anonymous said...

वास्तविकता यह है कि मीडिया एवं साहित्य में एक ऐसा वर्ग है जो अतीत की अच्छी बातों से पुनुरुत्थान के नाम पर नाक भौंह सिकोड़ते हैं| छात्र को स्टुडेंट कहना तो इनको अखरता है पर सिफारिश को अनुशंसा कहना इन्हें कट्टर वादियों की सनक प्रतीत होती है| क्या प्रचलन में है और क्या प्रचलन से बाहर करार दे दिया गया है इसका फैसला कौन करेगा? वास्तविकता यह है कि जो हम कर रहे है, बस उसी को सही समझो| वैसे मैंने आज तक इंग्लिश को सरल बनाने की बात करते हुई किसी को नहीं देखा| जबकि मध्यम वर्ग एवं छोटे शहरों के लिए शिक्षा एवं "कैरिएर" की सबसे बड़ी समस्या अंग्रेजी ही है| हिंगलिश बोलना तो शान की बात है पर "इन्ग्दी" (इंग्लिश + हिंदी, यह नाम मैंने दिया है ) बोलने वाले तो अनपढ़, जाहिल, गंवार समझे जाते हैं| एक बात और, "शब्दों का सफ़र" के माध्यम से अजीत जी हिंदी माँ की महती सेवा कर रहे हैं, जिसके लिए आपको साधुवाद एवं कोटिशः प्रणाम| के० जैन

चंदन कुमार मिश्र said...

मेरा खयाल है कि अरबी फारसी के शब्दों के बिना हमारा काम शायद ही चलनेवाला है। भोजपुरी में करीब अरबी फारसी 1000 शब्द ऐसे दिख रहे हैं जिनका प्रयोग अत्यंत साधारण जन कर रहे हैं।

नीचे दिया गया बक्सा प्रयोग करें हिन्दी में टाइप करने के लिए

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