Tuesday, May 25, 2010

हिन्दी का संस्कृतीकरण-1

सुप्रसिद्ध प्रगतिशील आलोचक-विचारक डॉ रामविलास शर्मा भारत की भाषा समस्या पर आधी सदी तक लगातार लिखते रहे। उनके मुताबिक देश की जातीय समस्या का ही एक हिस्सा है भाषा समस्या। यहां पेश है तीन भागों में उनका एक महत्वपूर्ण आलेख जो उन्होंने  1948 में लिखा था।

Copy of Copy of Books 1

Copy of Books 11

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

17 कमेंट्स:

Anonymous said...

"स: विद्या व अर्थकरी’ का आज अर्थ बदल गया है। विद्या वही जो धन दिलाए, यही आज का युग सत्य है। कभी इस देश में मुड़िया सीख कर लाखों मुनीमों ने गृहस्थी चलायी है। आज अर्थ का केन्द्र चीन हो जाए तो आप भी चीं चीं चूँ चूँ करते फिरेंगे! नहीं? स्वाभिमान रहित देश के शासकों की बिना रीढ़ की नीतियाँ क्या नहीं करवा सकती। संस्कृत मे ही कहावत है ’राजा कालस्य कारणम"।

पंकज मिश्रा said...

क्या आप मुझे निगोड़ा शब्द का मतलब बता सकते हैं। मैं बहुत दिन से परेशान हूं। कृपया मदद कीजिए।
http://udbhavna.blogspot.com/

दिनेशराय द्विवेदी said...

जिसे लोग पसंद करेंगे और व्यवहार में लाएँगे वही भाषा प्रचलित रहेगी। अब लोग क्या पसंद करेंगे, इस का कोई पैमाना बनाया जा सकता है क्या?

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत उपयोगी और सारगर्भित लेख!
अगली कड़ी की प्रतीक्षा!

Udan Tashtari said...

आधार तो प्रचलन ही है..जो लोग पसंद करें.

अनुनाद सिंह said...

जो मैं कहना चाहता था वह पहली टिप्पणी में बहुत सुन्दर ढ़ंग से अनाम रहकर कह दी गयी है। इसलिये मैं दोहराना नहीं चाहता।

---xx --

पाठकों की सूचना के लिये बताना चाहता हूँ कि इसी विषय पर बहुत विस्तृत चर्चा वैज्ञानिक एवं तकनीकी हिन्दी समूह पर अभी तीन-चार दिन पहले हुई है। उसे भी देखना न भूलें।

--xx--

मुझे लगता है कि डॉ रामविलास जी शर्मा की सोच कहीं न कहीं गलत थी। तभी तो आज उनके इस लेख के लिखने के साठ साल बाद हिन्दी का संस्कृतीकरण न होकर अंग्लीकरण हो गया है। क्या इसे निकट दृष्टि दोष नहीं कहना चाहिये?

यहाँ 'संस्कृतीकरण' के दो अर्थ हो सकते हैं - 'संस्कृत भाषा जैसा बनाना' है या 'परिमार्जन करना' । दोनो ही काम किसी भी स्वाभिमानी देश के लिये बहुत आवश्यक हैं।

अजित वडनेरकर said...

अनुनादजी,
हिन्दी का आंग्लीकरण एक भ्रम है। इसका प्रभाव मीडिया में ही दिखता है और वैसे भी यह प्रक्रिया सहज है। वर्षों से जारी है भाषाओं में शब्दों की आवाजाही। निश्चित ही संस्कृत (या वैदिकी?) ने भी सदियों पूर्व द्रविड़ तथा अन्य पौर्वात्य बोलियों से शब्द लिए ही होंगे। द्रविड़ भाषाओं में भी संस्कृत के शब्द हैं। यह क्रम एकतरफा नहीं रहा होगा।

अजित वडनेरकर said...

अनामभाई,
इस देश का नेतृत्व स्वाभिमान रहित लोगों के हाथों में रहा है, सही है। भाषा संबंधी ढुल-मुल नीतियां भी रहीं और हिन्दी आज तक सही अर्थों में राजभाषा नहीं बन सकी। पर अंग्रेज परस्ती क्या आजादी के बाद के नेतृत्व की देन है? मैकाले के नाम से तो मुहावरा चल निकला, दरअसल आंग्ल संस्कृति का प्रभाव तो उससे पहले से ही पड़ना शुरू हो गया था। अठारहवी सदी की शुरुआत में ही सूट-बूट वाले अंग्रेजीदां भारतीय दिखने लगे थे और जिन्हें आईसीएस भी नहीं बनना था। आजादी के बाद अचानक कोई नई हिन्दी नहीं पनपी है।

किसी जमाने में फारसी का हाल भी अंग्रेजी वाला था। फारसी पढ़नेवालों को उसी व्यंग्य और ईर्ष्या से देखा जाता था जैसे बाद में अंग्रेजी पढ़नेवालों को। कायस्थों ने भी मौड़ी-कैथी छोड़ कर फारसी अरबी सीखना बेहतर समझा। ब्राह्मण इस मौके को समझ नहीं पाए थे। सदियों बाद मैकाले ने उन्हें यह मौका दिया जिसका लाभ क्या ब्राह्मण, क्या कायस्थ दोनों ने उठाय। इस बार मुसमान समझ नहीं पाया। क्योंकि वह शासक वर्ग था। इसलिए आज के दौर की भाषायी समस्या के संदर्भ में मौड़ी-कैथी की चर्चा अप्रासंगिक है। ये दस्तावेजीकरण की भाषाएं थीं न कि सामान्य संवाद का जरिया। ये आम आदमी के रोजगार का जरिया भी नहीं थीं। हां, इस देश में जिस तरह से कोई भी सम्मानजनक रोजगार पाने के लिए अंग्रेजी लगभग अनिवार्य हो गई है उसके पीछे हमारा स्वाभिमानरहित नेतृत्व दोषी है।

अंग्रेज का बच्चा जहां गया, सबसे पहले वहां की भाषा सीखी, संस्कृति को समझा, भाषा-साहित्य-संस्कृति की थाह ली। विदेशी चैनल आज भारत में हिन्दी के जरिये करोड़ों अरबों का कारोबार कर रहे हैं। उधर अमेरिका को हिन्दी की तरक्की पर चिन्ता हो रही है। साहित्य में हिन्दी का क्या हाल है, इसे छोड़िए। सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी को कोई हिला नहीं सकता। अब हिन्दी फिल्मों के जरिये करोड़ों कमानेवालों को ही अगर हिन्दी बोलनें में शर्म आए तो इसमें सरकार का क्या दोष? रात दिन टीवी से चिपका रहनेवाला मध्यमवर्ग, जो इस देश का नेतृत्व चुनता है, अगर मीडिया को न सुधार पाए तो किसे दोष देंगे? सबको अपनी भूमिका समझनी होगी। ऐसी चर्चाएं चलती रहनी चाहिए।

संजय बेंगाणी said...

मेरा मत अनुनादजी जैसा ही है, यहाँ 'संस्कृतीकरण' के दो अर्थ हो सकते हैं - 'संस्कृत भाषा जैसा बनाना' है या 'परिमार्जन करना' । दोनो ही काम किसी भी स्वाभिमानी देश के लिये बहुत आवश्यक हैं।

किरण राजपुरोहित नितिला said...

पूरा लेख एक साथ देते तो और अच्छा लगता .

Anonymous said...

कलमी पहलवानों के इस दौर में कुछ भी लिखा लिखाया जा सकता है। पश्चिमी प्रभाव १८वीं नहीं १६ वीं सदी में ही पड़नें लगा था, राजाओं, नवाबों और धनवानों और व्यापारियों के माध्यम से। लेकिन भारत में इसको जिस प्रकार आदर्श बना दिया गया वह विचारणीय है। रूस, फ्रांस, जर्मनी की भाषाऎ क्या हैं? दुनिया की ९०% आबादी की दैनंदिन की भाषा अंग्रेजी नहीं है। जिस देश के राष्ट्र भाषा से रोजी रोटी कमानें वाले लिख्खाड़ अंग्रेजी की वकालत करनें लगें, तो मतलब और भविष्य तो सामनें है। अभी ४-५ दिन पहले ’फोटो सहित’ सम्पादकीय गुरुता बघारनें वाले दैनिक हिन्दुस्तान नें इसकी विज्ञापन देकर घोषणा की है। ८ आनें की फीस अदा कर तीन महिनें में मुड़िया सीख कर ऊत्तर भारत के हजारों लोगों नें घर-गृहस्थी चलायी है, मुड़िया व्यापार के एकाउण्ट की भाषा थी न कि आम बोल चाल की। बही-खाते रखनें का प्रचलन जो सामान्यत: मुड़िया में लिखे जाते थे, अभी भी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है। इसके बावजूद कि डबल इण्ट्री सिस्टम ७० के दशक में प्रचलन में आ गया था। यह तब से था जब से फारसी इलीट क्लास की भाषा बन गयी थी। यह कुछ ऎसा ही है जैसे आज टैली सीख कर हजारों लोग घर चला रहे हैं। क्या कोई ब्लागर यह दावे से कह सकता है कि वह कम्प्यूटर में लोडेड सभी साफ्टवेयर चला लेता है?

अंग्रेजों के राज्य संभालनें के बाद ही "पढ़े फारसी बेंचे तेल" का मुहावरा बना और चरितार्थ हुआ। जिस दिल्ली के नवधनाढ्य वर्ग में अंग्रेजी मोह ’साडा पुत्तर ठीक से नईं ईटदा’ के रूप मे प्रचलित हो वहाँ संस्कृत तो क्या हिन्दी की आबरू भी खतरे में रहेगी। कुल मिला कर इतना कि रोजी-रोटी के दबाव के आगे जब इज्जत-आबरू बेकार लगती हो तो भाषा किस खेत की मूली है?

Vinay said...

सारगर्भित लेख!

उम्मतें said...

शायद पूरा पढने के बाद टिप्पणी कर पाऊंगा !

रंजना said...

यहाँ तो गंभीर परिचर्चा चल रही है...

मैंने दूसरा भाग पहले पढ़ फिर पहला भाग पढ़ा...
लेकिन कुल मिलाकर परिचर्चा सार्थक है...

प्रवीण पाण्डेय said...

भाषा जब राजनैतिक शक्ति का पर्याय बन चुकी हो, तो भाषा की श्रेष्ठता कौन देखता है । ।

बालमुकुन्द अग्रवाल,पेंड्रा said...

आपके ब्लाग वारिधी पर अक्सर आता हूं. हर बार नए मोती हाथ लगते हैं. किताबों के बिना ऐसा सार्थक ज्ञान बांटने का प्रयास स्तुत्य है.

ममता said...

मेरे विचार से किसी भाषा को जिंदा रहने के लिए जनप्रियता जरूरी नहीं है, जरूरी ये भी नहीं है कि वो बेहद आसान हो और वह किसी नियमों में बंधा नहीं हो, भाषा को जिंदा रहने के लिए जरूरी है कि वो समाज को कुछ ऐसी चीज दे रही हो, जिसकी समाज को जरूरत है. वो अनुसंधान, ज्ञान-विज्ञान की भाषा हो. क्या हिंदी लोकप्रिय नहीं है, क्या भारत की जनता उसे नहीं चाहती है, लेकिन लोग अपने बच्चे को अंग्रेजी क्यों सिखाना चाहते है, बस इसका कारण ये है कि विज्ञान, तकनीक, कोर्ट, कचहरी की भाषा यही है. हिंदी को जिंदा रखना है तो इसे तकनीक की भाषा बनाइये, शोध करिए. समाज को कुछ ऐसा दीजिए जो समाज की जरूरत है. लफ्फाजी, दलीली मुरख-से मुरख भी करना जानता है मगर उसे कोई शोध नहीं करता है न.

नीचे दिया गया बक्सा प्रयोग करें हिन्दी में टाइप करने के लिए

Post a Comment


Blog Widget by LinkWithin