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Wednesday, May 26, 2010
इनकी रामायण, उनका पारायण!!!
भा रतीय मनीषा का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है आस्था जिसकी वजह से उसने ज्ञान के विविध आयामों को छुआ है। समष्टि के प्रति आस्था के भाव ने न सिर्फ सृष्टि के स्थूल रूप को अनुभव किया बल्कि इस स्थूल भाव में भी जीवन के स्पंदन का चिंतन किया। इस विराट विश्व चिंतन का मार्ग आस्था की राह से ही होकर गुजरता रहा है। भारतीयता को अगर आस्था की संस्कृति कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इसी आस्था-संस्कृति से उपजा एक आम शब्द है पारायण। मोटे तौर पर इसमें किसी ग्रंथ के आदि से अंत तक पाठ करने का भाव है। वाणी की सत्ता और शब्दों की अर्थवत्ता में लगातार परिवर्तन और विस्तार होता रहता है सो पारायण parayana शब्द में भी घोटा लगाने का भाव समा गया। पारायण मूलतः ज्ञानमार्गी शब्द है। किसी धार्मिक ग्रंथ को नियमित रूप से आदि से उपसंहार तक पढ़ना ही पारायण है। पारायण में अखंड पाठ का भाव भी समाया है अर्थात पाठ का क्रम एक बार शुरू होने के बाद उसकी समाप्ति तक न रूके। नवरात्रों में इस तरह के अखंड पाठ होते हैं। देशज बोली में इसक किस्म के आयोजनों को रतजगा या जगराता कहा जाता है। हालांकि ग्रहस्थ लोग धार्मिक ग्रंथ का एक निश्चित भाग रोज पढ़ने का अनुशासन बांधना ज्यादा पसंद करते हैं और इस तरह एक निश्चित अवधि में ग्रंथ का पाठ सम्पूर्ण हो जाता है और फिर नया क्रम शुरू होता है।
पारायण बना है पारः + अयन से। संस्कृत में पारः या पारम् का अर्थ होता है दूसरा किनारा, किसी वस्तु या क्षेत्र का अधिकतम विस्तार, सम्पन्न करना, निष्पन्न करना, पूरा करना आदि। पारः बना है पृ धातु से जिसमें उद्धार करना, अनुष्ठान करना, उपसंहार करना, योग्य या समर्थ होना जैसे भाव हैं। स्पष्ट है कि मूल रूप से किसी क्रिया के सम्पूर्ण विस्तार के साथ सम्पन्न होने का भाव ही पार में निहित है। दूसरा किनारे की कल्पना तभी साकार होती है जब बीच का अन्तराल अपनी सम्पूर्णता के साथ सम्पन्न होता है। हिन्दी में परे हटना, परे जाना जैसे वाक्य आम बोलचाल में शामिल हैं। इनमें जो परे है उसका सम्बंध पृ धातु से ही है जिसमें निहित विस्तार का भाव दूर जाने, छिटकने जैसे अर्थों में उभर रहा है। पृ में निहित विस्तार का भाव पृथक में भी उभरता है और पृथ्वी में भी। असीम विस्तार की अनुभूति होने के बाद ही भारतीय मनीषियों नें धरती को पृथिवी कहा। अलग होना, छोडना, छिटकना में भी विस्तार का भाव है जो संस्कृत के पृथक में अभिव्यक्त हो रहा है।
पारायण का दूसरा हिस्सा है अयन् जिसका संस्कृत रूप है अयनम् या अयणम् जिसमें जाने, हिलने, गति करने का भाव है। अयनम् का अर्थ रास्ता, मार्ग, पगडण्डी, पथ आदि भी होता है। अवधि या संधिकाल जैसे भाव भी इसमें निहित हैं। अयनम् बना है अय् धातु से। इसमें फलने-फूलने, निकलने का भाव है जो गतिवाचक हैं। जाहिर है अयनम् में निहित गति, राह, बाट का स्रोत तार्किक है। उदय शब्द में छिपे अय् को पहचानिए और फिर इसमें निहित उदित होने, उगने जैसे मांगलिक भाव स्वतः स्पष्ट हो जाएंगे। संस्कृत की उद् धातु में ऊपर उठने का भाव है। उद् + अय् के योग का अर्थ हुआ अपनी सम्पूर्णता का, सकारात्मकता के साथ ऊपर उठना। प्रकृति में सूर्य और चंद्र ही इस भव्यता और मंगल रूप में दिखते हैं। सूर्य और चंद्र मनुष्य के आदि-शुभंकर हैं और इसीलिए सूर्योदय, चंद्रोदय मांगलिक हैं। उदय से बने कुछ अन्य शब्द हैं अभ्युदय, भाग्योदय आदि। उत्तरायण, दक्षिणायन, चान्द्रायण जैसे शब्द भी इसी कड़ी से जन्मे हैं।
रामायण ramayana इस कड़ी का सबसे महत्वपूर्ण शब्द है जिसका अर्थ हुआ राम का चरित्र मगर इसका भावार्थ है राम का अनुगमन करना, राम शब्द के पीछे जाना। चरित्र शब्द चर् धातु से बना है जिससे चरण भी बना है। राह –बाट चलने की शैली से ही किसी व्यक्ति का किरदार यानी चरित्र बनता है। घर के बुजुर्गों की चरणवंदना भी “चलते रहने” अर्थात उनकी अनुभवी जीवन यात्रा का सम्मान करना है क्योंकि जिन चरणों से वे चले हैं उन्हें छूकर, प्रकारांतर से उनके ज्ञानी होने को मान्यता देने की विनम्रता और कृतज्ञता ही चरणस्पर्श का उद्धेश्य है। सो राम की राह है रामायण। इसीलिए तुलसीदासजी द्वारा रामायण अर्थात रामकथा का भावानुवाद रामचरितमानस् अद्भुत है। यही भाव कृष्णायन मे भी है। आज हिन्दी में घोटा लगाने, रटने के रूप में पारायण को नई अर्थवत्ता मिल मिल गई है और रामायण का भी असमाप्त कथा या ऊबाऊ किस्से के रूप में अर्थ-पतन हो गया है।
अय् से बने अयनम् में जब पारः जुड़ता है तब बनता है पारायणम् जिसका भावार्थ हुआ किसी एक बिन्दु से यात्रा शुरू कर धीरे-धीरे विस्तार में जाना और उसे सम्पन्न कर अंतिम बिन्दु तक पहुंचना। पारायण में राह, गति, विस्तार और फिर विराम का भाव है। आदि से अंत तक ग्रंथ के नियमित पाठ का भाव इसमें रूढ़ हुआ, मगर पारायण में निहित दार्शनिक भाव में शून्य से अनंत की जीवन यात्रा का संकेत छुपा हुआ है। अगर हम जिंदगी की किताब के पन्ने भी पारायण वाली शिद्दत से पलटते रहे तो यकीनन जिंदगी का असली मज़ा भी ले पाएंगे। वर्ना शेल्फ में सजी-संवरी किताबों जैसी जिंदगी किसी काम की नहीं। याद रखें पारायण इन्सान के हिस्से ही आया है, दीमकें कभी पारायण नहीं करती अलबत्ता हर पृष्ठ से गुजरना उन्हें भी आता है। सजी संवरी जिंदगी का विद्रूप ठहराव है। पारायण रट्टा या घोटा नहीं, जीवन से गुजरना है।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 3:18 AM लेबल: god and saints, उत्सव, संस्कृति
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21 कमेंट्स:
पारायण के विषय में विस्तार से जानना ज्ञानवर्धक रहा. आभार!
आनंद आ गया ....रामायण का अर्थ कुछ विद्वानों ने राम का वन गमन भी बाताया है -मगर राम की राह पर चलना ज्यादा जंच रहा है -रामचरित मानस का वाक्यांश यहाँ अनावश्यक सा लग रहा है -उस पर पृथक चर्चा की दरकार है ....
शब्दो का परायणम करवाते है आप , धन्यवाद
परायणता यात्रा है ।
रामायण और पारायण
दोनों की जानकारीपूर्ण विवेचना, अच्छी लगी।
अजित भाई
टिप्पणी देने के ख्याल से आये थे पर पोस्ट लिखने के ख्याल से लौट दिए अब वो पोस्ट आपको समर्पित है !
ज्ञानवर्धक पोस्ट!
आद्योपांत पारायण ज्ञानवर्धक !!
निशंक पारायण का भाव अनुगमन वा अनुकरण ही गति लिए हुए है. जैसे पति-पारायण, चरित्र-पारायण,
शानदार अजित भैय्या !!
ज्ञानवर्धक,जानकारीपूर्ण विवेचना
आपसे रामायण और अली भाई से नारायण मिलने पर यूं रचित हुआ:-
हाथो में रामायण, होंठों पे पारायण,
नारायण-नारायण, नारायण-नारायण.
शब्दों में योगासन, अर्थो में प्राणायाम, ,
नरायन-नारायण, नारायाण-नारायण.
बग़ल में रामायण, मधुशाला ग्च्छाय्म,
नारायण-नारायण, नारायण-नारायण.
पित्राज्ञा पालन को, भटके वो वन दर वन,
नारायण-नारायण, नारायण-नारायण.
जीवन की पुस्तक पढ़,कर गहरा अध्ययन,
नारायण-नारायण, नारायण-नारायण.
जीवन है संयोजन, मृत्यु है विसर्जन,
नारायण-नारायण, नारायण-नारायण.
धरती धधक उठी, आएगा कब सावन,
नारायण-नारायण, नारायण-नारायण.
जीवन है संयोजन, मृत्यु है विसर्जन,
नारायण-नारायण, नारायण-नारायण.
नारायण की टेर खूब उठाई आपने....
इसमें सिर्फ-
लानत है, लानत है ही ध्वनित होता है:)
इसे इस तरह कहना ज़्यादा उचित रहेगा..
"जीवन की पुस्तक का, कर गहरा अध्ययन ,
नारायण-नारायण, नारायण-नारायण".
गुज़ारिश है कि इसका अर्थ तो positive लिया जाए.
क्या 'अय् धातु' 'या' धातु से अलग है जिस से बने हैं जलयान, शयनयान,महायान आदि? अर्थ कुछ मिलते जुलते हैं.
@ अजित भाई
ये क्या गज़ब किया आपने मंसूर अली साहब के लिखे में ,
छुपा कर रखी गई ध्वनियां रिकार्ड कर लीं ...... :)
@ मंसूर अली साहब
अजित भाई के लिए एक क्लू दे रहा हूँ कभी फुर्सत से निपटाइयेगा.... :)
टीप को पीट के वो कह उट्ठे
लानत है लानत है लानत है
बलजीत भाई,
या धातु में गति, जाना, आना, घूमना, टहलना जैसे भाव है। यान, यात्री जैसे कई शब्द इससे बने हैं। अय् की इससे रिश्तेदारी है, पर अर्थवत्ता कहीं व्यापक है।
अय् से बने अयनम् में जब पारः जुड़ता है तब बनता है पारायणम् जिसका भावार्थ हुआ किसी एक बिन्दु से यात्रा शुरू कर धीरे-धीरे विस्तार में जाना और उसे सम्पन्न कर अंतिम बिन्दु तक पहुंचना।
बेहद रोचक शब्दों की ये जानकारी आभार
आपकी इस पोस्ट ने राजगढ़ के पारायण चौक की याद दिला दी.
@gs
ताज्जुब है कि शब्दों का सफर में एक ऐसा पाठक भी है जो राजगढ़ के पारायण चौक को याद कर रहा है। भाई, अपनी पहचान गुप्त न रखें कम से कम मुझ राजगढ़ी के सामने। मेरा व्यक्तिगत मेल आईडी मेरे प्रोफाईल में दर्ज है। कृपया सम्पर्क करें।
पारायण तो बहुत देखे परंतु मर्म तक पहुंचते बिरले ही मिले । माला कहे ये काठ की, तू क्यों फेरे मोय, मन का मनका फेर ले, तुरत मिला दूं तोय !! जिसने समझा, वो ही दीवाना, बावरा और (पार) पहुंचा हुआ !
आज, पारायण की मायने ही बदल गये । नया घर, नई बहू कहीं आफत न बन जाये इस भय से पारायण । पार उतरने का, अनुगमन करने का बोध ही किसे ? तभी तो नारायण का उच्चार ही लानत का पर्याय बन गया है । बालपन में भोर बेला में हृदय के कपाट खोल से देते थे ये स्वर – भजमन्नारायण नारायण नारायण ; सुमिर सुमिर भव पारायण .. !!
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