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Sunday, July 18, 2010
गरीब की दुहाई, सामंत का आह्वान और हाय-हलो!!!
ह र भाषा में कुछ खास शब्द होते हैं जिनका जन्म तो सामान्य रूप में होता है मगर जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में उनकी उभिव्यक्ति में नाटकीयता का समावेश भी होता जाता है। हिन्दी के दुहाई शब्द का महत्व भी इन्ही संदर्भों में है। किस्सों-कहानियों में दुहाई शब्द खूब प्रचलित रहा है। सर्वहारा वर्ग का आर्तनाद ही दुहाई है। शोषित समाज की दुखों से त्राण पाने की कामना जब मुखरित होती है तो वह पहले शासक वर्ग के सामने दुहाई के रूप में फूटती है। मगर दुहाई का असर जब नहीं होता तब हाहाकार मचता है, उससे क्रान्तियां जन्म लेती हैं। भाषा के नज़रिए से दुहाई और हाहाकार में रिश्तेदारी भी है। दुहाई शब्द में आमतौर पर मुसीबत के वक्त की गई पुकार का भाव है। आत्मरक्षार्थ किसी समर्थ, बलवान या ईश्वर के सम्मुख उच्चस्वर में की गई प्रार्थना ही दुहाई है। आमतौर पर ऊंचा सुर अशिष्टता का सूचक होता है और क्रोध से बड़ी अशिष्टता और कुछ नहीं। स्वाभिमानी व्यक्ति का स्वभाव होता है कि उसकी किसी भी भंगिमा से लाचारी प्रकट न हो जाए। किन्तु बेबसी जब हद से गुजरती है, तब कण्ठ से सिर्फ आर्तस्वर फूटते हैं, जिन्हें शिष्टाचार के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। दुनियावी मायनों में यही दुहाई है।
दुहाई का व्यापक अर्थ है जो धीरे धीरे संकुचित हो गया। मूलतः दुहाई में पुकारने का भाव है। वैसे यह दोहरी अर्थवत्ता वाला शब्द भी है। सामंती शब्दावली में जहां दुहाई मुनादी, घोषणा है वहीं आम आदमी के लिए दुहाई मदद की अभिव्यक्ति है। मध्यकाल में दुहाई का अर्थ घोषणा या मुनादी ही था। दुहाई फेरना मुहावरे से इसकी पुष्टि होती है जिसका अर्थ ही राज्यादेश की घोषणा करना होता है। घोषणा या मुनादी के दौरान एक ही बात को बार बार दोहराया जाता है। इसी तरह कष्ट से निस्तार पाने के लिए संकटग्रस्त व्यक्ति की प्रार्थना में भी दोहराव होता है। दुहाई शब्द की व्युत्पत्ति प्रोफेसर सुरेशकुमार वर्मा द्वि+आह्वान ( हिन्दी अर्थान्तर ) से मानते हैं अर्थात दो बार पुकारना। द्वि-आह्वान > द्विहावन > दुहाइन > दुहाई के क्रम में इस शब्द का विकास हुआ होगा, ऐसा लगता है। संस्कृत का आह्वान शब्द बना है ह्वै धातु से जिसमें पुकारने, नाम लेकर बुलाने, ललकारने, प्रतिस्पर्धा करने, चुनौती देने या गिड़गिड़ाने-प्रार्थना करने का भाव है। इस ह्वैमें सारा चमत्कार ह ध्वनि का है। हिन्दी शब्दसागर में दुहाई का अर्थ द्वि + हाहा दिया है। यूं व्युत्पत्ति के लिहाज से यह भी इसी कड़ी में आता है। दुहाई में खास बात दो बार आह्वान करने यानी पुकारने से है। दुहाई सरकार की इस वाक्य दो से अधिक बार प्रार्थना का भाव है। अदालतों में जब मुजरिमों को हाजिर करने की पुकार लगती है, उसे भी दुहाई फेरना कहा जाता है।
सभ्यता के विकास के साथ मनुष्य ने एक-दूसरे का ध्यानाकर्षण करने के लिए जिन ध्वनियों का प्रयोग किया, दुनियाभर में उनमें आश्चर्यजनक समानता है। ज्यादातर कण्ठ्य ध्वनियां हैं जो सीधे गले से निकलती हैं। जिसके लिए जीभ, दांत अथवा तालु का कोई काम नहीं है जैसै अ-आ अथवा ह-हा-हो। एक अन्य दिलचस्प समानता यह भी है कि यह शब्दावली पूर्व में भी और पश्चिम में भी मल्लाहों द्वारा बनाई गई है। भारत के ज्यादातर मांझी या मल्लाह ओssssहैsया, हैय्या होsss जैसी ध्वनियों का प्रयोग करते हैं। सामान्यतौर पर ध्यानाकर्षण के लिए ऐ भाई, या ओ बाबू जैसे सम्बोधन ही इस्तेमाल होते हैं। अरबी, फारसी, उर्दू में शोर-गुल के लिए “हल्ला” शब्द प्रचलित है जिसका रिश्ता भी इन्हीं ध्वनियों से है। इसे ही “हो-हल्ला” या “हुल्लड़” कहते हैं। यूरोप में भी नाविकों के बीच ध्यानाकर्षण का प्रचलित ध्वनिसंकेत था ahoy यानी हॉय। इसके अलावा पुरानी जर्मन में भी hola / hala जैसे संकेत थे जो अंग्रेजी के hallo / hello में तब्दील हो गए। मूल रूप से इन ध्वनियों को किसी भाषा परिवार में नहीं बांटा जा सकता। ये आदिम ध्वनियां हैं और मनुष्य के कंठ में भाषा का संस्कार आने से पहले से पैठी हुई हैं और सहजता से उच्चारी जाती रही हैं। आप्टे के संस्कृत कोश में हंहो शब्द का उल्लेख है जिसका प्रयोग प्राचीनकाल में आवाज देने के लिए संबोधनात्मक अव्यय के रूप में होता था। वही आदिम ध्वनियां आज भी हाय और हैलो के रूप में समाज में धाक जमाए हुए हैं। भारत में नमस्कार-चमत्कार की तरह अभिवादन की औपचारिकता के लिए हाय-हलो मुहावरा भी प्रचलित हो गया है। पंजाबी में इसे हलो-शलो कह लिया जाता है।
आप्टेकोश के मुताबिक ह्वैमें जब आ उपसर्ग लगता है तब आह्वान बनता है। आह्वान शब्द में अ-ह-व-न ये चार वर्ण हैं। जब इनमें विपर्यय होता है तो हिन्दी का देशज शब्द आवाहन बनता है जिसमें यज्ञ या धार्मिक क्रिया के जरिये किसी देवता को आमंत्रण दिया जाता है। यही आह्वान है। हिन्दी में इसका आहवान रूप भी अब चल पड़ा है। कष्ट की सामूहिक अवस्था से हाहाकार मचता है। यह हा शब्द की दो बार उपस्थिति पर गौर करें। हा शब्द में ही कष्ट निहित है। हाहा का उच्चार यानी हाहाकार। आप्टेकोश में हा शब्द का अर्थ है शोक, उदासी, खिन्न को प्रकट करनेवाला अव्यय। इसके अलावा इसमें आश्चर्य का भाव भी है। इस हा में निहित खिन्नता-उदासी का जो भाव है वह निश्वास से जुड़ता है। हा के अन्य कई अर्थ हैं जो इसे स्पष्ट करते हैं जैसे जाना, हिलना-डुलना, त्यागना, छोड़ना, कम होना, मुर्झाना, क्षीण होना आदि। हा मूलतः ध्वनिमूलक शब्द है। इससे बना है हाय जिसमें पीड़ा की अभिव्यक्ति होती है। हाय लगना एक मुहावरा भी है जिसमें अभिशाप का अभिप्राय है। गौर करें निश्वास पर। निश्वास यानी सांस छोड़ना जिससे अ या ह ध्वनि ही निकलती है। शब्द करने, ध्वनि करने की प्रक्रिया श्वास लेने अर्थात आश्वास की नहीं, बल्कि निश्वास की प्रक्रिया है। फेंफड़ो से छोड़ी गई वायु जब कण्ठ, तालु, जीभ और दांतो के बीच से, इन सब अवयवों की हरकतों में सम्मिलित होती हुई गुजरती है, तभी ध्वनियां जन्म लेती हैं जिससे शब्दो का निर्माण होता है। शब्द ही भाषा का आधार हैं। जाना, छोड़ना, कम होना जैसे अर्थ भी निश्वास में स्पष्ट हैं। फेफड़ो में एकत्र वायु कण्ठ मार्ग से जब निकलती है, तब उसकी मात्रा में कमी और गति उत्तरोत्तर क्षीण होती जाती है।
प्रसिद्ध भाषाविद, चिन्तक रामविलास शर्मा भारोपीय परिवार में ह ध्वनि में छुपे संकेतों का दिलचस्प रिश्ता चीनी भाषा परिवार से जोड़ते हैं। वे लिखते है कि चीनी शुओ का अर्थ है बोलना। संस्कृत में शब्द ( ध्वनि करना) क्रिया है। चीनी हुआ या ह्वा का अर्थ है, शब्द, भाषा। संस्कृत धातु ह्वै का अर्थ है पुकारना। श-ह का विनिमय भारत की तरह चीन में भी पाय जाता है। व्हा के लिए परिनिष्टित चीन में शिह-ती है, दक्खिनी चीनी मे हैई है। शुओ और हुआ का मूल शब्द एक ही जान पड़ता है, उसी शुओ से शब्द और ह्वै का संबंध है। स्पष्ट है कि सियार कि हुआँ हुआँ सिर्फ ध्वनि भर नहीं बल्कि शब्द की भूमिका है क्योंकि मनुष्य की प्रारम्भिक भाषा प्रकृति में व्याप्त ध्वनिसंकेतों के अध्ययन पर आधारित ही थी जिसमें पशुओं के ध्वनिसंकेत भी शामिल हैं।
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10 कमेंट्स:
आनन्दमिश्रित प्रसन्नता कि तीनों एक हैं। अब तो हाय के माध्यम से दुहाई दी जा सकती है।
'फेंफड़ो' से निकल के आयी है,*
'कंठ','तालू' के रास्ते से गुज़र,
'जीभ', 'दांतों' को अलविदा कह कर,
*चाह है, 'आह!' ये 'दुहाई' है.
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'आह' हम 'वान'[van] ले नहीं पाएं,
'हा-हा' अब 'कार' ही मचाएंगे,[चलाएंगे]
वैसे तो हम दहेज-दुश्मन है,
अब दुहाई किसे सुनाएंगे !
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'हा' से 'हल्ला' मचाते आये थे,
अब सुना- 'कष्ट' है, 'निहित' इसमें,
'हा-शमी', हा-स्य 'छोड़ना' होगा,
क्योंकि, 'निश्वास' सम्मिलित इसमें.
-mansoorali हा-श्मी
http://aatm-manthan.com
@ मंसूर अली साहब , :)
@ अजित भाई ,
हर दिशा के मल्लाह बुनियादी तौर पर एक हैं और ध्वनियां भी ! हमें ये तो पता था कि पूरब के निर्बल की हाय क्या है पर पश्चिम से उसे आपने जोडा ,बहुत खूब !
एक हाय जो सहायता की अपील / दुख का आर्तनाद है वही सहज अभिवादन बतौर भी प्रचलन में है क्योंकि वह मनुष्य जाति के पारस्परिक 'सहाय' होने के प्रतीक बतौर अस्तित्व में है !
बहुत अच्छी जानकारी है धन्यवाद।
अजित भाई क्षमा चाहता हूँ बहुत दिनो बाद आना हुआ । इस लेख में भी हमेशा की तरह आपका परिश्रम दिखाई दे रहा है । रामविलास जी का भी काफी काम है इस क्षेत्र में ।
वडनेरकर जी, "दुहाई" पर अपने ग़ज़ब निबंध लिख डाला है, शब्दार्थ, परिभाषा, शब्द-इतिहास, और उसको वर्तमान परिप्रेक्ष्य में टटोलने पर आपकी कड़ी मेहनत स्पष्ट नज़र आती है . और हम है कि उस पर से हलके -फुल्के गुज़र लेते है. ख़ास कर मैं तो अपनी उल-जलूल काव्यात्मक टिप्पणी देते समय [या शब्दों को वाक्यों में प्रयोग के अभ्यास में ] विषय वस्तु पर दाद देना ही भूल जाता हूँ; जिसका मुझे खेद है. तीन हर्फ़ कि 'दुहाई' को आपने जो विस्तार दिया है, लाजवाब है. निम्न व्याख्याएँ बतौरे ख़ास ध्यानाकर्षित करती है:-
# "आमतौर पर ऊंचा सुर अशिष्टता का सूचक होता है और क्रोध से बड़ी अशिष्टता और कुछ नहीं। स्वाभिमानी व्यक्ति का स्वभाव होता है कि उसकी किसी भी भंगिमा से लाचारी प्रकट न हो जाए। किन्तु बेबसी जब हद से गुजरती है, तब कण्ठ से सिर्फ आर्तस्वर फूटते हैं, जिन्हें शिष्टाचार के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। दुनियावी मायनों में यही दुहाई है।"
#"ये आदिम ध्वनियां हैं और मनुष्य के कंठ में भाषा का संस्कार आने से पहले से पैठी हुई हैं और सहजता से उच्चारी जाती रही हैं। आप्टे के संस्कृत कोश में हंहो शब्द का उल्लेख है जिसका प्रयोग प्राचीनकाल में आवाज देने के लिए संबोधनात्मक अव्यय के रूप में होता था। वही आदिम ध्वनियां आज भी हाय और हैलो के रूप में समाज में धाक जमाए हुए हैं।"
#"गौर करें निश्वास पर। निश्वास यानी सांस छोड़ना जिससे अ या ह ध्वनि ही निकलती है। शब्द करने, ध्वनि करने की प्रक्रिया श्वास लेने अर्थात आश्वास की नहीं, बल्कि निश्वास की प्रक्रिया है। फेंफड़ो से छोड़ी गई वायु जब कण्ठ, तालु, जीभ और दांतो के बीच से, इन सब अवयवों की हरकतों में सम्मिलित होती हुई गुजरती है, तभी ध्वनियां जन्म लेती हैं जिससे शब्दो का निर्माण होता है। शब्द ही भाषा का आधार हैं। जाना, छोड़ना, कम होना जैसे अर्थ भी निश्वास में स्पष्ट हैं। फेफड़ो में एकत्र वायु कण्ठ मार्ग से जब निकलती है, तब उसकी मात्रा में कमी और गति उत्तरोत्तर क्षीण होती जाती"
-मंसूर अली हाश्मी
बहुत शुक्रिया मंसूर साहब,
आपकी टिप्पणियों के मुरीद हैं। जिसे आप हलका-फुलका गुजरना कहते हैं, हमे लगता है कि हमारी विवेचना को नए मायने मिल जाते हैं।
आभार
शानदार लिखा है.. क्या बात है!
गरीब की दुहाई ...... पढ़ा . मज़ा आ गया .शब्दों की क्या जानदार मीमांसा की है ....अजित जी , ज्ञान के भण्डार है आप!!
अक्षर फिर शब्द ,शब्द से निकले अर्थ स्पष्ट हुए । मतलब शब्द का अर्थ समझी...आभार ।
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