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Monday, July 26, 2010
लिंगम् आलिंगन और लंडूरा
लिं ग हिन्दी का बहुप्रचलित शब्द है जिसका अर्थ भी पहचान, चिह्न, लक्षण, निशान, प्रतीक, बिल्ला आदि होता है। हिन्दी में लिंग शब्द का इस्तेमाल होता है। स्त्रीलिंग-पुल्लिंग के संदर्भ में गौर करें तो चिह्न या लक्षण अर्थ एकदम साफ हैं। लिंग शब्द में अंगों की छाया देखें तो इनका प्रतीक रूप स्पष्ट है। बहुधा लिंग को शिश्न का पर्याय समझ लिया जाता है जो गलत है। हिन्दू धर्मकोश के अनुसार अव्यक्त अथवा अमूर्त स्थूल प्रतीक ही यह लिंग है। दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध सम्प्रदाय है लिंगायत (वीरशैव) जो शैव मत के होते हैं। प्रकृति की आराधना, प्रकाश, रोग के लक्षण, साधन, प्रमाण आदि इसके गूढ़ार्थ हैं। अठारह महापुराणों में ग्यारहवां महापुराण लिंगपुराण है। यह शैव मत का पुराण है। इसका महत्व वैष्णवों के अग्नि और गरुड़ पुराण से कम नहीं है। प्रचलित अर्थों में लिंग का अभिप्राय स्त्री और पुरुष के जननांग है। गले मिलने के अर्थ में आलिंगन शब्द इसी मूल से बना है। ध्यान दें कि गले मिलने की क्रिया के पीछे भी हर्ष, विषाद जैसे कई प्रतीक और लक्षण छुपे हैं। परस्पर दो जनों के बीच इनके उद्घाटन की क्रिया ही आलिंगन है।
हिन्दू धर्मकोश के अनुसार लिंग मूलतः ज्योति का प्रतीक है न कि शिश्न का। लिंगायतो शैवों में लिंग पूजा इसी रूप में होती है। प्राचीनकाल की अधिकांश संस्कृतियों में लिंगपूजा का रुझान मिलता है। मिस्री, सामी, यूनानी, बेबिलोनियाई, असुरी आदि सभ्यताओं में लिंगपूजा के चिह्न मिले हैं। ऋग्वेद में भी प्राचीन लिंगपूजा के संकेत शिश्नदेवः के उल्लेख से मिलते हैं। विद्वानों का मानना है कि यह संकेत अनार्यों के धार्मिक अनुष्ठान का सूचक है। बाद में यही लिंगपूजा आर्य संस्कृति से भी जुड़ गई। जो भी हो, विभिन्न संस्कृतियों में इसकी मौजूदगी से यह सिद्ध होता है कि यह मूलतः प्रजननशक्ति की उपासना थी। बाद में इसके दार्शनिक निहितार्थ तलाशे गए। दक्षिण भारत के वीरशैव भी लिंगायत समुदाय से ही हैं। इस सम्प्रदाय का जन्म बारहवीं सदी के मध्य में कर्नाटक तथा महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों में हुआ।
संस्कृत की लिङ्ग धातु से ही लिंगम् शब्द की व्युत्पत्ति भी हुई है जिसमें झूलने, हिलने, डोलने का भाव है। इसके अलावा इसमें पहचान चिह्न, खूंटा, बिल्ला आदि भाव भी हैं। खूंटे के अर्थ में ही इसका एक अन्य अर्थ है हल की शक्ल का एक शहतीर। इसके अलावा बहुत वजनी चीज को लंगर कहते हैं। गौर करें लंगर चाहे पानी में डाला जाए या सतह पर गाड़ा जाए, उसका उद्धेश्य किसी अस्थिर रचना को मजबूती प्रदान करना, आधार देना ही होता है। किसी भी चीज की पहचान उसके आधार से ही बनती है। प्रतीक, पहचान, चिह्न आदि भी पहचान के द्योतक ही हैं। बंगला में लांगल का अर्थ भी हल ही होता है। गौर करें हल की उपयोग पर। हल एक नुकीली शहतीरनुमा रचना है जो कठोर भूमि को उथल-पुथल करती है, उसे जोतने योग्य, उर्वरा बनाती है। डॉ रामविलास शर्मा लिखते हैं कि लिंग का रिश्ता आस्ट्रिक परिवार के लंग से जोड़ा जाता है। लंग चाहे आस्ट्रिक परिवार का हो चाहे न हो, वह कश्मीर और बंगाल जैसे सुदूर प्रदेशो में प्राप्त है। लंग और लिंग का संबंध दिलचस्प है। हल का काम वृक्ष की डाली से लिया गया और यह हल प्रजनन क्रिया का प्रतीक बनकार लिंगवाचक हो गया। इसी पद्धति से कश्मीरी लंडू शब्द शाखा, बाहें या पैर के लिए प्रयुक्त होता है। उसी से उसके समरूप लिंगवाचक हिन्दी शब्द की उत्पत्ति मानी जा सकती है।
यह बना है संस्कृत की लङ्ग धातु से जिसमें झूलने, हिलने, डोलने का भाव है। इसके अलावा इसमें पहचान चिह्न, खूंटा, बिल्ला आदि भाव भी हैं। खूंटे के अर्थ में ही इसका एक अन्य अर्थ है हल की शक्ल का एक शहतीर। इसके अलावा बहुत वजनी चीज को भी लंगर कहते हैं। इससे बना है संस्कृत का लङ्घ जिसका अर्थ है उछलना, कूदना, दूर जाना, झपट्टा, आक्रमण करना, अतिक्रमण करना आदि। उल्लंघन इसी मूल से आ रहा है। बंदर के लिए संस्कृत में लांगुलिन् शब्द है। लँगूर इसका ही देशी रूप है। लांगुल का अर्थ पूंछ भी है। पूंछ का लटकने, डोलने का भाव स्वतः ही स्पष्ट है। वैसे लँगूर की एक परिभाषा लम्बी पूंछ वाला बंदर भी है। बुंदेलखंड का लांगुरिया भी इसी कड़ी में है। लंडूरा शब्द भी इसी मूल से आ रहा है जिसका अर्थ है आवारा, भटकैयां, भटकल, लापरवाह, गैरजिम्मेदार, बदचलन, बेशर्म, नालायक आदि। लंगूर में जहां लम्बी झब्बेदार पूंछ खास है, वहीं लंडूरा का एक अर्थ दुमकटा भी होता है। दुम या मूंछ शान की पर्याय होती हैं। जाहिर है दुमकटा यानी छुट्टा या आवारा। जिसकी कोई इज्जत न हो। जिसकी पहचान ही तय हो चुकी है।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 11:48 PM लेबल: animals birds, सम्बोधन, संस्कृति
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15 कमेंट्स:
बहुत अच्छा लेख है !
मेरा ब्लॉग है -
http://humarihindi.blogspot.com/
धन्यबाद !
बढ़िया रही यह जानकारी भी.
बढिया जानकारी
आभार
एक शब्द को आप इतने विस्तार से बताते हैं कि फिर वह दिमाग मे फीड हो जाता है .......आभार ।
कईयों के संशय मिटा दिये आपने।
"लिंग-पुराण" !
अब समझ आया क्यूँ ज़रूरी है,
होते रहना यहाँ पे 'उद्घाटन',
राजनेता या धर्म के रक्षक,
पा रहे मुक्ति, करके 'आलिंगन',
'बंदरो' से तो हमने सीखा है,
अपनी सीमाओं का भी 'उल्लंघन'.
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खूब लाये है, ढूंढ कर 'प्रतीक',
हो गया; जा, कहाँ-कहाँ पर फिट, [fit]
'हल' बना, खेड़ डाला धरती को,
तो कहीं हो गया ज़हन में फीड!
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'हिलना-डुलना' भी इसको आता है,
'खूँटा', 'लंगर' भी बन ये जाता है,
हो जो 'दुम' तो 'लंगूर' कहलाता,
दुम कटी तो 'भटक' भी जाता है.
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-मंसूर अली हाश्मी
http://aatm-manthan.com
ek anokha safar :)
कुछ हटके पढने मिला/////
शब्दो के मामले में मै लंडूरा किस्म का हूं . आज आपने लिंग का सही अर्थ बता बहुत उपकार किया है . ज्योति का प्रतीक को ज्योतिपुंज्य भी कह सकते है क्या ?
कितना गन्दा लेख है !
ज्ञानवर्धक प्रविष्टि !
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया. सोच रहा हूँ अभी तक क्यों नहीं ढूँढ पाया!
अच्छी तरह अनुसन्धान करके लिखा हुआ पोस्ट है - जो कि हिंदी ब्लॉग में दुर्लभ है. मैं भी शब्द व्युत्पत्ति विज्ञानं [etymology ] में रूचि रखता हूँ. आपका ब्लॉग देख अच्छा लगा. अगर आपको उचित लगे तो अपने अनुसन्धान स्रोतों को भी जाहिर करें.
धन्यवाद.
@तफरी बाज
आपको आलेख गंदा लगा, पर आपने इसका कोई आधार या कारण नहीं गिनाया। आपकी प्रतिक्रिया हमें अच्छी लगी।
@सौरभ
बहुत स्वागत है सौरभ शब्दों के सफर में। संदर्भ-सामग्री स्रोत का उल्लेख मैं हमेशा करता हूं। गौर करें कि इस पोस्ट में भी किया है। सफर के पुराने पाठक इससे परिचित हैं। बने रहें सफर में।
यहाँ बनारस में लोगों के बीच यह शब्द खूब प्रचलित है...
क्या यार, बड़े लंडूरे झाम हो..!
..इस पोस्ट से ज्ञान चक्षु कुछ और खुल गए.
अच्छा आलेख।
इस में गंदा क्या है? शब्द को तो ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। उस की चर्चा कैसे गंदी हो सकती है?
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