दु निया में ऐसा कौन है जिसे कभी किसी के साथ की इच्छा न हो, जिसे किसी साथी की तलाश न हो। साथी यानी सहयोगी, सहकारी, मित्र। ये अलग बात है कि ज्यादातर लोग हम साथ साथ हैं का नारा बुलंद तो करते हैं मगर साथ-साथ रहने के फ़र्ज़ और क़ायदे तोड़ते हैं। साथी या साथ-साथ जैसे शब्द हिन्दी उर्दू में समान रूप से प्रचलित हैं और बारहा इनका मुहावरेदार इस्तेमाल भी होता है। कुछ और लफ़्ज़ भी हैं जो इस कड़ी से जुड़ते हैं। साथी का अंत चाहे ई स्वर से होता हो पर यह है पुल्लिंग। साथी का स्त्रीवाची शब्द बना साथिन। इसी साथी के साथ जब लोकभाषाओं की महक पैबस्त हुई तो इया प्रत्यय लगने से साथिया बन गया। साथ शब्द का शुमार भी हिन्दी के सर्वाधिक इस्तेमालशुदा शब्दों में होता है। सुबह से शाम तक न जाने कितनी बार हम अलग अलग संदर्भों वाले वाक्यों में इसका प्रयोग करते हैं। मसला तो यह है कि इस साथ की लोकप्रियता के आगे इसी भाव वाला सहित शब्द न सिर्फ अकेला पड़ गया बल्कि इसमें उतनी उर्वरता भी नहीं रही कि हिन्दी में इसके विविध रूपांतर सामने आ सकें।
सार्थ की व्युत्पत्ति के बारे में विभिन्न विद्वानों के अलग अलग मत हैं। मराठी के महान भाषाविद, पुरातत्वविद् विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े (1785-1763 ) के डेढ़ सौ साल पुराने शोध के अनुसार साथ शब्द संस्कृत के स्वस्ति का रूपांतर है। यह व्युत्पत्ति उन्होंने मराठी के साथ शब्द के मद्देनज़र स्वस्ति > सत्थि > साथी... बताई थी जिसका हिन्दी रूप भी यही है और अर्थ भी। कृ.पा. कुलकर्णी अपने मराठी शब्द व्युत्पत्ति कोश में स्थापना को सही नहीं मानते। कोशकार का कहना है कि साथ शब्द संस्कृत के सार्थ से जन्मा है न कि स्वस्ति से। गौरतलब है कि संस्कृत स्वस्ति में मंगल, कल्याण, शुभता का भाव है। साहचर्य या साथ में भी शुभ-मंगल की कामना ही इच्छित है मगर स्वस्ति इसका पर्याय नहीं है। हिन्दी शब्दसागर साथ की व्युत्पत्ति संस्कृत के सहित या सह > सथ्थ से बताता है जिसमें मिलकर या संग रहने का भाव है। जॉन प्लैट्स और कृ.पा. कुलकर्णी के कोश साथ की व्युत्पत्ति संस्कृत के सार्थ से बताते हैं। सार्थ का मतलब है समूह, झुण्ड, रेवड़, जत्था, यूथ, ग्रुप, समाज, अनुचर, अनुगामी, मित्र, सहचर आदि। आपटे कोश के मुताबिक सार्थ बना है-सह अर्थेन् से यानी जो अर्थयुक्त हो, सार्थक हो, सौद्धेश्य हो। ... सार्थवाह का अर्थ हुआ, जो समूह को अपने साथ ले जाए वह है सार्थवाह अर्थात् दलपति, मीरे कारवाँ या व्यापारी दल का प्रमुख। बाद में सार्थवाह का प्रयोग भी सिर्फ व्यापारिक कारवाँ के तौर पर होने लगा। इन के साथ सशस्त्र सैनिक होते थे। लम्बी दूरी के सामान्य यात्री भी इन सार्थ की संगत चाहते थे ताकि उनकी सुरक्षा का बंदोबस्त हो जाए। ...
इसका अर्थ मालदार पुरुष, दौलतमंद या धनवान भी होता है मगर ये सार्थ के परवर्ती विकास हैं। सार्थ शब्द प्राचीनकाल से समूहवाची रहा है और इसमें टोली अथवा यात्रियो के दल का भाव रहा। पुराने ज़माने में अधिकांश यात्राएं समूह में ही होती थी जिसका मुख्य कारण सुरक्षा ही था। दूरस्थ स्थानों की यात्रा के लिए बड़े बड़े दल चला करते थे चाहे सौदागरों के हों या तीर्थयात्रियों के। सार्थ में सौदागरों का कारवाँ या व्यापारी दल का भाव रहा है और सामान्य यात्री समूह का भी। व्यापार एक निरन्तर प्रक्रिया थी सो व्यापारियों के कारवाँ वर्षाकाल को छोड़कर सालभर गतिशील रहते थे जिन्हें सार्थ या सार्थवाह कहते थे। इन सार्थवाहों के स्वामी आज की मेट्रों सिटीज़ के बड़े कारपोरेट घरानों की तरह तत्कालीन महानगरियों-उज्जयिनी, पाटलीपुत्र, वैशाली, काशी और तक्षशिला के श्रेष्ठिजन होते थे। सुदूर पूर्व से पश्चिम में मिस्र तक इनका कारोबार फैला हुआ था। ईसा पूर्व मिस्र में भारतीय व्यापारियों की एक बस्ती होने का भी उल्लेख मिलता है। आप्टे कोश के मुताबिक सार्थवाह का अर्थ धार्मिक श्रद्धालुओं का जत्था अर्थात तीर्थयात्री भी है। सार्थवाह बना है संस्कृत के सार्थ+वाह से। सार्थ यानी समूह, जत्था आदि। वाह शब्द संस्कृत की वह् धातु से बना है जिसमें जाना, ले जाना जैसे भाव हैं। बहाव इससे ही बना है जिसमें गति और ले जाना स्पष्ट हो रहा है। वह् का वर्ण विपर्यय हवा हुआ जिसमें बहाव और गति है। ले जाने वाले कारक के तौर पर वाहन शब्द का निर्माण भी वह् मूल से ही है। कम्पनी, टुकड़ी या ब्रिगेड के लिए हिन्दी में वाहिनी शब्द भी इसी मूल का है। गौर करें कि इस अर्थ में वाहिनी स्वयं ही कारवां हैं। स्पष्ट है कि सार्थवाह का अर्थ हुआ, जो समूह को अपने साथ ले जाए वह है सार्थवाह अर्थात् दलपति, मीरे कारवाँ या व्यापारी दल का प्रमुख। बाद में सार्थवाह का प्रयोग भी सिर्फ व्यापारिक कारवाँ के तौर पर होने लगा। इन के साथ सशस्त्र सैनिक होते थे। लम्बी दूरी के सामान्य यात्री भी इन सार्थ की संगत चाहते थे ताकि उनकी सुरक्षा का बंदोबस्त हो जाए।
प्राचीनकाल में ऐसे ही अच्छे समूह की संगत मिलना भाग्य की बात मानी जाती थी। निश्चित ही इस रूप में सार्थ शब्द से साथ की व्युत्पत्ति तार्किक लग रही है। प्राचीनकाल के वणिक का रूप उत्पादनकर्ता का न होकर थोक या खुदरा व्यापारी का ही अधिक था और इसके लिए उसे एक स्थान का माल दूसरे स्थान पर बेचने की जुगत में लगे रहना पड़ता था। सार्थवाह इस अर्थ में महत्वपूर्ण व्यवस्था थे। व्यापारी को अर्थ की प्राप्ति की दृष्टि से भी सार्थवाह सार्थक थे। साथ से जुड़े कुछ मुहावरे भी हिन्दी में प्रचिलित हैं जैसे साथ साथ जिसमें साहचर्य या संगत का भाव है। इसके अलावा साथ लगाना, साथ करना यानी किसी काम में शामिल करना। साथ छूटना यानी मेल मिलाप न होना अथवा अंतिम विदा, साथ देना अर्थात सहयोग देना, कंधे से कंधा मिलाकर काम करना। साथ लेना यानी साथ मिलाना। साथ साथ जीना यानी मिल बांट कर भोगना। साथ सोना यानी अनैतिक यौन संबंध रखना। साथ का खेला यानी बालसखा, आदि।
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12 कमेंट्स:
शब्दो के सफ़र की वाहिनी के सार्थवाह आप ही तो है .
हम साथ साथ हैं।
शायद उस वक़्त 'एकल' का निरर्थक होना और 'संयुक्त' का स+अर्थ+क जैसा कोई भाव रहा हो ! एकजुटता / सामूहिकता की यात्रा की सार्थकता से सार्थ+वाह के प्रचलन का ख्याल भी आता है ...बस ख्याल ही वर्ना , आपका कहना ही सही माना जाये !
'साथिया' की परिभाषा फिल्मो से ली,
शब्द-साहित्य को कौन पढ़ता भला !
अर्थ जिस को मिला,सार्थक वो बना,
'सार्थवाह' बनके इक 'कारवाँ' ले चला.[shabdon ka]
कितना लम्बा है शब्दों का ये सिल्सिला,
'फर्क' से 'साथियों' के पता ये चला.
'तीर्थ' करना भी तो एक 'व्यापार' है,
कोई 'कावड़िया' तो, है कोई मनचला.
पहले भी साथ की व्युत्पति पढ़ चुके हैं, अब साथ में और लोगों के विचार जानकार यह अधिक तार्किक लग रागी है.
साथी की गुणानुरूप व्याख्या।
इसीलिये कहा गया है ----
मित्र बनाओ जानकर , पानी पीओ छानकर !
वाह पार्थ वाह सार्थ वाह :-)
हमेसा की तरह शब्दों का ज्ञान बढ़ाने वाली पोस्ट
ग्यानवर्द्धक आलेख।} शुभकामनायें।
शब्दों का सफर हर दिन के साथ आगे जा रहा है .
धन्यवाद ज्ञान बढाने के लिए
एक साधारण उपयोग में आने वाले शब्द की कितनी सुन्दर विवेचना की आपने..ज्ञान वर्धन हुआ...
बहुत बहुत आभार..
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