देखा जाए तो प्रस्तुत पुस्तक जिसका नाम कलामे रूमी है, रूमी की कालजयी कृति मसनवी मानवी, जिसे बोलचाल में मसनवी कहते हैं, की चुनी हुई रचनाओं का सरलतम काव्यानुवाद है। मगर इस क़िताब की सबसे बड़ी ख़ूब मेरी निग़ाह में भूमिका है, जिससे गुज़रकर ही उस काव्यानुवाद का महत्व पता चलता है। मसनवी के हिन्दी काव्यानुवाद पर आज़माइश करने के लिए अभय ने पहले फ़ारसी सीखी। हालाँकि ऐसा करना उनके लिए कतई ज़रूरी नहीं था, क्योंकि अंग्रेजी के अनेक पद्यानुवाद और गद्यानुवाद मौजूद थे, जिनके जरिए वे रूमी को हिन्दी में उतार सकते थे। कविता या कहानी किसी भी शक्ल में। मगर उन्होंने फ़ारसी की ज़मीन पर उतर कर ही रूमी को पहचानने की कठिन कोशिश की। अभय की यह कोशिश रंग लाई है और ख़ासकर साहित्यिक अभिरुचि वाले उन हिन्दी भाषी पाठकों के लिए जो शायद ही अंग्रेजी में रूमी को पढ़ते, फ़ारसी सीखने की तो कौन कहे?
यूँ अभय अपने अनुवाद को कई मायनों में फ़ारसी से अंग्रेजी में हुए अनवाद से बेहतर मानते हैं, पर एहतियातन यह भी कहते हैं, “निश्चित ही मेरे इस अनुवाद को देखकर तिलमिलाने वाले लोग होंगे और वो मुझसे बेहतर अनुवाद करेंगे, ऐसी उम्मीद है।” अभय के अनुवाद की सबसे अच्छी बात हमें जो लगी वह यह कि यह सरल ही नहीं, सरलतम् है। कविताई के चक्कर में वे नहीं पड़े हैं। आमतौर पर शायरी की बात आते ही लोग रदीफ़ो-काफ़िया के फेर में पड़ जाते हैं। मगर जब खुद रूमी इस सिलसिले से दूर थे तो अभय क्या करते? अभय लिखते हैं कि रूमी की गज़लों में कोई बुनावट नहीं, कोई बनावट नहीं। फ़ारसी शायरी की काव्यगत बारीकियाँ हूबहू उतारने की कोशिश उन्होंने नहीं की, वर्ना इस क़िताब को आने में अभी कई साल लग जाते। एक मिसाल देखिए। रूमी का मूल फ़ारसी शेर है- बशनौ इन नै चूँ शिकायत मी कुनद। अज़ जुदाई हा हिकायत मी कुनद।। यानी- सुनो ये मुरली कैसी करती है शिकायत। हैं दूर जो पी से उनकी करती है हिक़ायत।। अभय ईमानदारी से कहते भी है कि रूमी के सम्पूर्ण अनुवाद का लक्ष्य उनकी कुव्वत से बाहर था।
रूमी को समझने के जितने पहलू हो सकते थे, यह क़िताब काफ़ी हद तक उन तक पहुँचाती है। बतौर मज़हब, कुरआन की नसीहतों के संदर्भ में सूफ़ी मत, उसकी अलग अलग शक्लों और उससे जुड़ी शख्सियतों से क़िताब बख़ूबी परिचित कराती है। जैसा कि होता है, महान लोगों के जीवन में घटी हर बात महान होती जाती है, उनके दीग़र मायने निकाले जाने लगते हैं। नसीहतों से शुरू होकर बात दिलचस्प क़िस्सों में एक फिल्म देखने के नाम पर पांच सौ रुपए खर्च कर देने वाले मध्यमवर्ग के पास अगर पांच सौ रूपए भी ताज़िंदगी साथ निभानेवाली क़िताब के लिए नहीं निकलते तब खुद पर शर्म करने के अलावा और क्या किया जा सकता है।
ढल जाती है। इसका फ़ायदा यह होता है कि उस क़िरदार के आध्यात्मिक विचारों का प्रचार कुछ अतिरंजित शक्ल में ही सही, आमजन तक होता है। इस तरह वह व्यक्ति लोकपुरुष के रूप में भी स्थापित होता है। रूमी के क़िस्सों को पढ़ते हुए आपको लगातार ऑफेन्ती, खोजा नसरुद्दीन याद आते रहेंगे। क़िस्सागोई के इन दो महान क़िरदारों की कुछ कहानियों से रूमी के क़िस्सों का घालमेल हुआ है। साफ़ है कि यहाँ लोक तक पहुँचनेवाली नैतिक शिक्षा का महत्व है। कहीं वह रूमी के नाम से पहुँची, कहीं ऑफेंन्ती के तो कहीं नसरुद्दीन के नाम से। रूमी की शायरी भी कुछ इस अंदाज़ में सामने आती है कि जो समझ ले उसके लिए रूहानी, इश्किया और सूफ़ियाना अनुभव और चाहे तो कोई उसे क़िस्सा कहानी जान ले। ईश्वरीय ज्ञान की बात समझाते हुए कभी रूमी अचानक दो धोबियों को माध्यम बना लेते हैं- देखो उन दो धोबियों को साथ करते काम। बिलकुल हैं उलट एक दूसरे से नज़रे आम।। लगते हैं ये दोनों एक दूसरे के दुश्मन। मगर एक दिल है एक जाँ, उनमें एकपन।। या फिर-किसी शाह ने एक शेख़ से बोला कभी। मांगते हो क्या मुझसे, ले लो अभी।। हर सूफ़ी की तरह रूमी का ईश्वर ही उसका प्रेमी है। उनके एक शेर का अनुवाद अभय ने देखिए किस खूबसूरती से किया है- मैं दुनिया से लूँ न कुछ बस तुझे चुनूँ। सही मानते हो कि मैं ग़म को ही गुनूँ? दुखों में ही प्रेम का सुख पाया जाता है, यह बात हर दर्शन, हर मज़हब का मूल है। रूमी यही बात कुछ इस अंदाज़ में कहते हैं कि लोग मुरीद हो जाते हैं उनके। अभय हमारे मित्र हैं और कुछ ख़ास भी। यह जगह उनके लिए हमारी अनुभूतियाँ बताने के लिए नहीं हैं, पर इस क़िताब को पढ़कर उनके लिए यह कहने की इच्छा ज़रूर है- जियो प्यारे। किताब बहुत सस्ती है। हम कहेंगे कि किताबें अब सस्ती हो गई हैं। एक फिल्म देखने के नाम पर मल्टीप्लैक्स में जाकर हजार रुपए खर्च कर देने वाले मध्यमवर्ग के पास अगर पाँच सौ रूपए भी ताज़िंदगी साथ निभानेवाली क़िताब के लिए नहीं निकलते तब खुद पर शर्म करने के अलावा और क्या किया जा सकता है। वैसे कलामे रूमी का मूल्य सिर्फ 195 रुपए है। हिन्द पॉकेट बुक्स ने इसे बड़े करीने से छापा है। प्रूफ़ की ग़लती न के बराबर है। एक कमी का ज़िक़्र ज़रूर करना होगा। हर काव्यानुवाद से पहले अगर ग़ज़ल के सिर्फ़ पहले शेर का ही मूल फ़ारसी रूप देवनागरी में दे दिया जाता तो अभय का श्रम भी लगातार पाठकों की आँखों के आगे होता और क़िताब को चार चांद लग जाते। मुमकिन हो, तो प्रकाशक को अगले संस्करण में ऐसा कर लेना चाहिए। सफ़र के साथियों को क़िताब ख़रीदने की सलाह दूंगा।
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16 कमेंट्स:
अनुवाद के कुछ और उद्धरण दिए जाने चाहिए थे !
अभय जी का यह काम कालजयी है !
कुछ और उद्धरण दीजिए न भाऊ!
सूफी काव्य का आनन्द ही अलग है।
अभय जी के ब्लॉग में नियमित जाना होता है, प्रभावित हूँ उनके व्यक्तित्व से।
हम भी कह रहे हैं जियो प्यारे !!!
इस जानकारी के लिये धन्यवाद। जरूर मंगवायेंगे।
सच कहा आज लोगों में फिल्मों के नाम पर सस्ते मनोरंजन पर हजारों रुपए लुटाये जा रहे है,जबकि जायज जगहों पर पैसे खर्च करने में भी उन्हें परहेज है...
ज़ज़्बा तो समझ में आ रहा है अब ज़रा पढकर भी देखें ! बहरहाल कैसे दस्तेयाब होगी ये ?
अजित भाई की जै हो!
मेरी अदना कोशिश को उन्होने अपने अमूल्य ब्लौग पर चर्चा के लायक़ समझा! धन्य हूँ।
सभी उदारमना मित्रों का शुक्रिया है!
behatreen kitaab hai
बहुत सुना था रूमी के बारे मे . आज कुछ जाना . किताब पढनी ही पडेगी .
आपका धन्यवाद, एक सरसरी नज़र मारी है, पढ़ना अभी बाकी है.
ये किताब तो हमारी इस भारत यात्रा में हमें अभय जी से गिफ्ट मिलेगी, पक्का!! :) उम्मीद पर आसमांटिका है भाई..वरना अपनी बल्ली लगा लेंगे..खरीद कर पढ़ेंगे.
लाजवाब समीक्षा...हम खरीदते हैं इस पुस्तक को तुरंत.
नीरज
सुगम शब्दों में विरल समीक्षा !
आजकल मैं किताबें खरीदने के मिशन पर लगी हुयी हूँ. इस पुस्तक के बारे में पढ़ा तो था, पर आपने इतनी सुंदरता से पुस्तक-चर्चा की है कि अब इसे पढ़ने की ज़ोर से इच्छा हो रही है. जल्दी बताइये कि ऑनलाइन कहाँ से मंगा सकते हैं?
@mukti
आजकल मैं किताबें खरीदने के मिशन पर लगी हुयी हूँ. इस पुस्तक के बारे में पढ़ा तो था, पर आपने इतनी सुंदरता से पुस्तक-चर्चा की है कि अब इसे पढ़ने की ज़ोर से इच्छा हो रही है. जल्दी बताइये कि ऑनलाइन कहाँ से मंगा सकते हैं?
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