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Thursday, December 2, 2010
दूर की कौड़ी या कौड़ी की इज्ज़त…
कि सी ज़माने में घर घर में कौड़ी देखने को मिल जाती थी। आखिर क्यों न मिलती, प्रमुख मुद्रा जो थी। व्यापार व्यवसाया का जो काम बाद के दौर में सिक्कों और नोटों के जरिए होने लगा, अत्यंत प्राचीनकाल में पहले कौड़ियों के जरिए ही होता था। कुछ दशक पहले तक ठेठ ग्रामीण अंचलों में कौड़ियों के बदले लेन-देन हो जाता था। धार्मिक पर्वों पर ग्रामीण क्षेत्रों में पशुओं को कौड़ियों की माला पहनाई जाती है जो इसी बात का प्रतीक है कि किसी ज़मानें में कौड़ी को मूल्यवान समझा जाता था। कहते हैं कि इसके पीछे उनके स्वास्थ्य की सुरक्षा का भाव भी था। कौड़ी का महत्व इसी बात से समझा जा सकता है कि इससे बने मुहावरे आज भी हिन्दी भाषियों की ज़बान पर ताज़ा हैं मसलन दो कौड़ी का आदमी, कौड़ी की इज्ज़त, कौड़ियों के मोल बिकना, दूर की कौड़ी आदि। कंगाली की परिस्थिति बतानेवाले मुहावरे पाई पाई को मोहताज होना की तरह ही हिन्दी में कौड़ी कौड़ी का मोहताज हो जाना मुहावरा भी प्रचलित है जिसमें कौड़ी का मौद्रिक महत्व साफ़ पता चल रहा है। कौड़ी मुद्रा के चलन के पीछे मुख्य वजह निश्चित ही सबसे प्रमुख वजह यही थी कि उसमें एक आदर्श मुद्रा के तत्कालीन समाज की ज़रूरत को पूरा करनेवाले अधिकांश गुण उपस्थित थे। इन्हें गिनने में आसानी थी और न ही ये खराब होती थीं।
बतौर मुद्रा कौड़ी का सबसे पहले चीन ने प्रयोग शुरु किया । ईसा से करीब डेढ़ हजार वर्ष पूर्व चीन के हिन्द महासागरीय क्षेत्रो में कौड़ी का मुद्रा के तौर पर चलन शुरू होने के प्रमाण मिले हैं। कौड़ी शब्द बना है संस्कृत के कपर्दिका से जिसका क्रम कुछ यूँ रहा- कपर्दिका > कअडिका> कअडिआ > कौडिआ > कौड़ी । कौड़ी मुद्रा चीन के बाद भारत से होते हुए लगभग समूची दुनिया में प्रचलित हो गई और तब तक कायम रही जब तक संसार भर में उपनिवेशकाल का अंत नहीं हो गया। कपर्दिका शब्द यूं संस्कृत का है मगर इसे द्रविड़ मूल का माना जाता है। आप्टे कोश मे इसकी व्युत्पत्ति संस्कृत धातु पर्व् से बताई गई है जिसका अर्थ होता है पहाड़,गांठ,जोड़ आदि। कौड़ी के उभार को देखते हुए इसे समझा जा सकता है। महादेव के लिए कपर्दिन् विशेषण भी इसी मूल से निकला है। अंग्रेजी का काउरी cowrie शब्द भी इसी मूल से निकला है। कौड़ी मुख्यत घोंघा, शंख प्रजाति का जलीय जीव होता है। यह पेट के बल रेंगता है और इसका पृष्ठभाग बेहद कठोर आवरण से मढ़ा रहता है। जलीय जीवों की मौत के के बाद ये कठोर आवरण लहरों के साथ बह कर समुद्र तट पर आ जाते हैं। प्राचीनकाल से ही इनका प्रयोग आभुषणों और मुद्रा के तौर पर होता रहा है। मुद्रा के तौर पर एक खास आकार वाली कौड़ियों का ही प्रयोग होता रहा है । एक अन्य जलीय जंतु के आवरण को सीप कहते हैं। यह भी सजावटी वस्तुओं और आभुषणों के काम आता है। गौरतलब है कि सीप से ही बेशकीमती मोती बनते हैं। गौरतलब है कि सीप से ही बेशकीमती मोती बनते हैं। हिन्दी उर्दू का सीप शब्द बना है संस्कृत के शुक्ति से।
कौड़ी प्राचीन मौद्रिक व्यवस्था की सबसे छोटी इकाई थी । हालांकि इसकी यह स्थिति तभी बनी जब मुद्रा के रूप में धातु के सिक्के प्रचलित हो गए। पूरी दुनिया में इसकी क्रय शक्ति अलग अलग थी। अगर कौड़ी के मौद्रिक संदर्भों की जानकारी हो तो भी दूर की कौड़ी मुहावरे की अर्थवत्ता तक पहुंच पाना आसान नहीं है। इस मुहावरे का मतलब है बहुत दूर की बात से रिश्ता जोड़ना या असम्भव सी बात से चर्चित विषय का संबंध स्थापित करना। कौड़ियों की सर्वव्यापी उपस्थिति की वजह से ही इसके प्रयोग में खतरे भी थे। इसीलिए प्राचीन मुद्रा विशेषज्ञों ने विशेष आकार-प्रकार एवं वज़न वाली कौड़ियों को ही मुद्रा के रूप में परखा था और राज्य व्यवस्था ने उन्हें लेन-देन के लिए मान्यता प्रदान की थी। दुनिया के कई इलाकों में कौड़ी मुद्रा का प्रचलन था। समुद्रद्वीपीय कौड़ियाँ की गुणवत्ता उत्कृष्ट मानी जाती थी। शोभनाथ पाठक की भारतीय सास्कृतिक प्रतीक कोश के मुताबिक मालदीव कौड़ी व्यापार का बड़ा केन्द्र था, जहाँ से दूर देशों की मुद्रा के रूप में कौड़ियों की लदान होती थी। इसी प्रकार वेस्ट इंडीज़, थाईलैंड, अफ्रीका, चीन, सूडान, कांगो, अरब एवं मिस्र में कौड़ियों का प्रचलन था। दूर देशों के व्यापारी जब उस देश की मुद्रा के रूप में कुछ भिन्न आकार की कौड़ियाँ लाते और धीरे धीरे उनका प्रचलन भी बाज़ार में हो जाता तब आमजन में कौतुहलवश दूर की कौड़ी लाना मुहावरा प्रचलित हुआ होगा। यह ठीक उसी तरह है जैसे आज भी नया सिक्का या नोट जारी होने के बाद उसकी व्याप्ति होने में समय लगता है। ऐसे में जिसके पास नई मुद्रा पहले पहुँचती है, वह थोड़े समय के लिए सही, एक सीमित समूह में कुछ खास तो हो जाता है।
कौड़ी की मौद्रिक महत्ता आज भी पर्वों के अवसर पर सामने आती है। विभिन्य समाजों में लक्ष्मी पूजन की शुभ सामग्रियों में कौड़ी का भी समावेश होता है। लक्ष्मीपूजन के थाल में सिक्कों के साथ कौड़ियाँ भी रखी जाती हैं। मालवांचल में कुँआरी लड़कियां संझा का त्योहार मनाती है। इसके तहत वे दीवार पर गोबर से आकृतियाँ उकेरती हैं और कौड़ियों से उसकी सज्जा करती हैं। हालाँकि अब इसका स्थान रंगबिरंगे काग़ज की पन्नियों ने ले लिया है। लोकाँचलों में कौड़ियों से बने आभूषण आज भी पहने जाते हैं और इन्हें मूल्यवान समझा जाता है। राजस्थान के बाड़मेर अंचल की कौड़ी कला का बड़ानाम है। यहां रंगबिरंगी झालरों में बड़ी खूबसूरती से कौड़ियों को टाँका जाता है।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 3:02 AM लेबल: government, nature, तकनीक, रहन-सहन
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10 कमेंट्स:
कौडियाँ किस काल में चलती थी मुद्रा के रूप में . टका,आना से पहले या साथ में .स्वर्ण मुद्राओं का तो जिक्र आता है लेकिन कौड़ियो का सूना नहीं
बहुत दिनों तक कौड़ियों से कई खेल खेलते रहे।
वस्तुतः कौडी का प्रयोग बार्टर सिस्टम से आगे के लेन देन के उन्नत दिनों के समय( जब मोती, रन्गीन पत्थर आदि भी मौद्रिक्भाव में प्रच्लित हुए) व धातु के सिक्के के चलन से पहले था. बाद में भी सिक्के की सबसे छोटी इकाई छदाम= २० कौडियां होतीं थी ।भारत में छदाम शब्द का प्रयोग आज़ादी पूर्व भी होता था, परन्तु कौडी से तादाम्य शायद बहुत पहले ही बन्द हो चुका था।
अजित वडनेरकरजी
नमस्कार !
आपके हर आलेख की तरह यह भी बहुत रोचक और ज्ञानवर्द्धक आलेख है .
हमारे घर में भी बचपन में बहुत कौडियां देखते थे , हम उनसे खेला करते थे .
कुछ पुरानी कौडियां अब भी हैं .
बहरहाल , बधाई और आभार स्वीकारें .
राजेन्द्र स्वर्णकार
"कौड़ियो का भी कभी मूल्य था" - आज के उच्च पदासीन लोगो के सन्दर्भ में ये सोच उपजती है:-
कौड़िया बेमोल होती जा रही,
प्रतिष्ठाए गोल होती जा रही.
'थाम-स'कते हो तो थामो साख को,
कैच उट्ठी बोल* होती जा रही. *CVC
.........आगे और भी है...
http://aatm-manthan.com पर
बहुत ही अच्छा आलेख |इस इतिहास को जानकर ऐसा लगता है भविष्य में कभी सिक्को की जगह फिर से कोडियो का चलन हो जाय?अक और कहावत है -"पास में नहीं कौड़ी और नाक छिदाने दौड़ी "
बहुत दिनों बाद कौड़ियो का भेद खुला!
--
कभी यही मुद्रा के रूप में प्रयोग में लाई जातीं थी!
सारगर्भित पोस्ट , अब पता चला कोडियों का भाव ...शुक्रिया
तुम्हे फूटी कौड़ी भी naheen मिलेगी
तत
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