दोस्तों बकलमखुद की अगली कड़ी में पेश है ठुमरी जैसा सुरीला ब्लॉग चलानेवाले विमल वर्माकाआत्मकथ्य। विमलजी एक शानदार शख्सियत वाले इन्सान हैं और मुंबई के एक मनोरंजन चैनल से जुड़े हैं। खांटी रंगकर्मी हैं। विमल जी से हमारी ब्लागिंग की शुरूआत से ही बिना ये जाने निभ रही है कि रंगकर्म और संगीत में हमारी भी दिलचस्पी खूब रही है। अलबत्ता जैसा रियाज़ उन्होंने किया, वैसा कोई मौका हमें नहीं मिला। बहरहाल ,विमलजी को पढ़ने से पहले ये जान लें कि उनका ये आत्मकथ्य मेरे पास बरास्ता प्रमोदसिंह पहुंचा है। प्रमोदजी के पास ये आत्मकथ्य सिर्फ मश्वरे के लिए गया था मगर अज़दकी दिमाग़ ने तभी कुछ खेल रचना शुरू कर दिया था। पढ़िये उनकी बात-
विमल जिसे अपना बता रहा है दरअसल मेरी ही लिखी चीज़ है, जिसे पुरानी यारी के नाम पर वह अपने खाते में यूज़ करने की ज़िद कर रहा है.. अब चूंकि पुराने दिनों की सेंटिमेंटैलिटी वाली बात है जाने दे रहा हूं.. आप भी इस खाकसार को जाने दीजिए..
सीधी सी बात है , प्रमोदजी बकलमखुद लिखने से बचना चाहते हैं । और साथियों , बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि हम ऐसा होने नहीं देंगे। प्रमोदजी लिखेंगे और ज़रूर लिखेंगे। तो पढ़िये बकलमखुद की पांचवीं कड़ी में विमल वर्मा को।
टांग तोड़ देंगे जो संघ की शाखा में गए
पिता बैंक में थे, लिहाज़ा उनके तबादलों की वजह से नयी जगहों पर पहुंचने की खुशी और पुरानों को छोड़ने का दर्द हम लम्बे समय तक झेलते रहे। हम पाँच भाई बहनों में मैं तीसरे नंबर पर था... बचपन में हर दो-एक साल में तबादले की वजह से हमारा स्कूल बदल जाता। इससे हमारी पढ़ाई लिखाई में काफ़ी अव्यवस्थित रही। ज़्यादातर हम उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल यानी गोरखपुर और उसके आस पास। खेलना मुझे बहुत भाता था। एक बार हम आरएसएस की शाखा में गये वहाँ खो-खो कबड्डी वगैरह जम कर खेले। मगर जब लौट कर पिता को शाखा में जानें की बात बतायी तो उनकी खूब डांट खानी पड़ी.. उन्होने कहा- ‘ये सब गाँधीजी के हत्यारे हैं! आज के बाद अगर फिर शाखा में देखा तो टांग तोड़ देंगे’
क्रिकेट से अलगाव और अदाकारी से लगाव
संगीत और क्रिकेट हमेशा से मेरे प्रिय रहे हैं। बचपन में स्कूल के नाटकों में हिस्सा लेने का मौका और मैं इस विधा पर मोहित हो गया। फिर भी, लम्बे समय तक खेल की संगत ज़्यादा रही ...उसमें ही रमा रहा। क्रिकेट खेलने, मसखरी करने में मुझे मज़ा बहुत मिलता था। दोस्त लोग मेरी बातों पर बहुत हँसते। पर एक बार क्रिकेट के टीम सलेक्शन में मुझे बाहर कर दिया गया तो भाई, अपना दिल टूट-सा गया। सोचा था तेज़ गेंदबाज़ बनूंगा, पर दुखी होकर बल्ला - पुलोवर घर के स्टोर में फ़ेंक आया ! सोचता रहा कि एक लड़का था जो क्रिकेट वाले कील लगे जूते पहनकर रात में सड़कों पर चलता तो कीलों की रगड़ से चिन्गारियां फूटने लगती थी जिन्हें देख कर मन रोमांचित हो उठता था। मगर रोमांच का वो एहसास अब कहीं काफूर हो चुका था । कह नहीं सकता कि क्रिकेट ने विमल नाम के शख्स से आंखें फेरी या विमल ने क्रिकेट का साथ छोड़ा । खासतौर पर उस मोड़ पर जहां इसी क्रिकेट की बदौलत एक साल मैट्रिक में गंवाने का माइलस्टोन भी गड़ा था। खैर, मज़े का एक मोड़ मातमवाली गली में भी मुड़ता है। उस गली से निकलकर हमारे कदम रंगकर्म की ओर बढ़ चले।[सबसे पीछे विमल वर्मा (बाईं ओर)अमरेश मिश्र और उदय यादव। नीचे अनिलसिंह (दायीं ओर), प्रमोदसिंह तथा एक अन्य साथी]
और वो मुंबई में एके हंगल से मुलाकात
इस दौर को मैं अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दौर मानता हूँ। शहर था उत्तर प्रदेश का आज़मगढ़। संस्था थी समानान्तर... शुरुआत बादल सरकार के वर्कशॉप से हुई। फिर तो नाटकों का सिलसिला बहुत लम्बा चला। अस्सी के दशक में यह वो समय था जब रंगकर्म में खूब प्रयोग हो रहे थे- इन्टीमेट थियेटर, फिजिकल ,थियेटर, साइकोफिज़िकल थियेटर, थर्ड थियेटर, प्रोसीनियम थियेटर। एक वर्ग का कहना था कि प्रोसीनियम मंहगे ताम झाम की वजह खुद ब खुद मर जायेगा। प्रोसीनियम थियेटर अपने जैसे गरीब देश में चल नहीं सकता। तो ऐसे माहौल में मेरी रंगमंचीय यात्रा की शुरूआत थर्ड थियेटर से हुई ... थर्ड थियेटर के फ़ॉर्म में मेरा पहला नाटक बादल सरकार का लिखा भोमा था जिसे हमने मुंबई में खेला। जब हम नाटक कर रहे थे तो इसे देखने मशहूर चरित्र अभिनेता ए.के हंगल आए हुए थे। मैं अभिभूत होकर उनसे मिला और उनसे पूछा कि आप रंगमंच पर कम और फ़िल्मों में ज्यादा दिखाई देते है, तो उनका जवाब था- पेट के लिये सब कुछ करना पड़ता है । मैं चकित हुआ.. । आहत भी, कि बताइये हम तो बिना स्वार्थ के नाटक कर रहे हैं, घर से पैसे लगाकर नाटक करते हैं और ए.के हंगल जैसा अभिनेता कह रहा है कि पेट के लिये सब करना पड़ता है ! मैं अन्दर ही अंदर उन पर हँस रहा था कि हंगल साहब से तो बेहतर ! हम हैं, जो बिना किसी स्वार्थ के नाटक करते हैं! मुझे क्या पता था कि एक दिन मैं भी इन्हीं सवालों से जूझ रहा होऊंगा !
मुक्तिबोध यानी विचारधारा !
खैर, हमने आज़मगढ़ में आदि विद्रोही स्पार्टाकस , बाकी इतिहास, जुलूस, रस गंधर्व, पगला घोड़ा जैसे मशहूर नाटक खेले। इसके अलावा और भी बहुत से नाटक किये। मैं नाटक करते हुए हमेशा सोचता कि इन लोगों से पहले क्यों नही मिला। नाटक के निर्देशक अनिल भौमिक का तो मै एकदम दीवाना बना हुआ था। उनके घर में जितनी किताबें थी, सब पढ़ गया था। गज़ब का एहसास था उस समय। हमारे बीच एक चित्रकार थे अशोक भौमिक - उनसे बहुत मै बहुत प्रभावित था क्योंकि उनसे मुझे बहुत सी बातें पता चलती थीं। उन्होंने ही पहली बार मुक्तिबोध के बारे में मुझे बताया वर्ना तो मुझे यही लगता था कि मुक्तिबोध भी कोई विचारधारा है ! तब उनकी मुक्तिबोध पर एक पेंटिंग एग्जिबिशन हुई थी जिसमें उन्होंने मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में पर एक पूरी सिरीज़ तैयार की थी। मैं अपने जीवन की पहली पेंटिंग प्रदर्शनी देख रहा था। भौमिक दा से बहुत सी बात होतीं। वो अक्सर बौद्धिक स्तर पर बातें करते जो मेरे क्रिकेटिया दिमाग में बहुत समा नहीं पाती थीं।
इंटेलेक्चुअलपन यानी सिगरेट के कश !
घर में भी मेरे नाटक करने को लेकर सब प्रसन्न रहते थे। कोई मेहमान आ जाए तो बताया जाता कि विमल आजकल नाटक कर रहे हैं ! मगर इस मामले में भाई बहनों का रुख थोड़ा अलग था। वे हमारे इस नए बदलाव की ख़बर तो देते थे मगर साथ में यह जोड़ने से बाज नहीं आते कि आजकल विमल वो वाला नाटक कर रहे है जो समझ में नहीं आता ! मॉडर्न नाटक कर रहे हैं भई... शहर के इंटेलेक्चुअल इनके मित्र हैं ! और मेरे इंटेलेक्चुअलपन का अब यह हाल कि सबकी देखा-देखी मैंने भी सिगरेट पीना शुरू कर दिया। किसी होटल, गुमटी के आगे बैठे चाय पीते इंटेलेक्चुअल बने बातें करते। संस्था जो भी नाटक करती सारे व्यवस्था विरोधी हुआ करते थे।
कुछ उचाटपन भी...
भारतीय राजनीति से मुझे घृणा थी। मेरे लिये राजनीति का मतलब गंदा दलदल था। पर हम नाटक के लिये नाटक कर रहे थे। एक बार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का लिखा नाटक कल भात आएगा हमने किया जिसमें मैने जड़ होते समाज के प्रतीक के रूप में लेटर बॉक्स की भूमिका निभाई थी। पर उस नाटक के करने की तुक मुझे समझ में नहीं आ रहा था। किसी दर्शक को मैने कहते सुन लिया कि कैसा नाटक करते हैं समझ में ही नही आता है , कि हम ही मूर्ख हैं ! मुझे अब कुछ बातें कचोटती लगतीं कि चीज़ें साफ़-साफ़ होनी चाहियें, समझ में आनी चाहिए। हमारे नाटकों का कोई सामाजिक दायित्व होना चाहिये। बिना सरोकार के इस नाटकबाजी का कोई औचित्य नहीं। तभी बादल सरकार के वर्कशॉप के दौरान इलाहाबाद के लड़कों से मिलने का मौका मिला...
दिन इलाहाबाद के... नयी ज़िंदगी, नये सबक...
इलाहाबाद के लड़कों से मिलकर मुझे लगा इनके साथ काम करने में मज़ा आएगा । और एक दिन मैं बोरिया बिस्तर लेकर पहुंच गया इलाहाबाद! वहाँ प्रमोद सिंह, अनिल सिंह( अनिल रघुराज) , उदय यादव और अन्य दूसरे साथियों से पहली बार मिला। पता चला सभी प्रगतिशील छात्र संगठन (पीएसओ) के सदस्य हैं और इस राजनीतिक इकाई से जुड़ी सांस्कृतिक संस्था दस्ता है जिसके लिए ये लोग नाटक वग़ैरह करते हैं। अनिल सिंह उन दिनों इस दस्ता के ग्रुप लीडर हुआ करते थे। इनकी बातों से, इनके साथ काम करके ये तो महसूस करने लगा था कि हमारे देश की गंदी राजनीति से लड़ने के लिए पढ़े-लिखे लोगों को ही आगे आना होगा। दस्ता के साथी उस काम को बाकायदा कर रहे थे।
जुड़ना दस्ता से...ज़िंदगी की दूसरी पारी
तो इस तरह मैने इलाहाबाद में दस्ता के साथ जुड़ कर नुक्कड़ नाटक करने का फ़ैसला ले लिया । इस नये माहौल में नाटक करते हुए जनता से संवाद करना ग़ज़ब लगता। आस पास के गाँव-शहर के छोटे-छोटे मोहल्ले, यहां तक की कोई हॉस्टल नहीं छूटा जहां हमने नाटक ना किया हो। यहां हम जो कह रहे थे उससे नाटक खत्म होने के बाद भी जूझने की कोशिश में लगे रहते। दस्ता के साथ काम करते हुए लगता कि भगत सिंह, चन्द्र शेखर आज़ाद के सपनों को साकार करने के लिये आज भी लोग काम कर रहे हैं। मुझे तसल्ली थी कि मैं भी इस बड़े समाजिक बदलाव में कोई भूमिका अदा कर रहा हूं। तो यहां से शुरू हुई जीवन की दूसरी पारी। शुरू हुआ राजनीतिक नाटकों का दौर ! खूब जम के नुक्कड़ नाटक किया। बड़ा जोश था मुझमें । शहर और उसके आस - पास तो हम नाटकों के प्रदर्शन कर ही रहे थे, इसके अलावा हमने इस दौर में पंजाब, दिल्ली, बिहार, बंगाल, मुंबई में खूब सारे प्रदर्शन किये। हमने इन्कलाब ज़िन्दाबाद ,जनता पागल हो गई है, सरकारी साँड़ जैसे नाटक किये। ['द्स्ता'के बैनर से इलाहाबाद में खेले गए राजा का बाजा नाटक का एक दृश्य। इसमें मैने (विमल), प्रमोद, अनिल और अमरेश ने अभिनय किया था।]
हम राजनीतिक संगठन के भौंपू नहीं...
ये ऐसा दौर था जब हम नाटक के अंत में मशाल जलाकर जनता का आह्वान करते थे। नाटक के अंत में हाथ में मशाल लेकर गाना गाना मुझे रोमांचित तो कर देता था लेकिन कुछ समय पर वही चीज़ दोहराते-दोहराते ऐसे नाटकों से ऊब भी होने लगी थी। पर जनता इन नाटकों को देखती और खूब ताली बजाती। मगर अंदर ही अंदर यह हो गया था कि ताली सुनकर भी हम अपने काम से संतुष्ट नहीं होते। फिर एक दिन आया कि हमने इन घिसे हुए नाटकों को न करने का फ़ैसला ले लिया। ये बात भी सामने आने लगी थी कि हम राजनीतिक संगठन का भोंपू हुए जा रहे हैं ! हमें और बेहतर एस्थेटिक्स के लिए काम करना चाहिये और नुक्कड़ नाटकों की अपनी सीमा है। उसे एक स्तर तक किया जा सकता है मगर यह विधा समूचे रंगकर्म का पर्याय नहीं हो सकती। आखिरकार सवाल हमारे आत्मसंतोष का था। इसी चिंतन के बाद हमने नए नाटकों पर काम करना शुरु किया।
[ अगली कड़ी में कुछ और बातें जानते हैं विमलजी के बकलमखुद में ]
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Sunday, March 16, 2008
विमल की चीज़ अपनी कहने पर तुले हैं प्रमोदसिंह ! [बकलमखुद - 5]
प्रस्तुतकर्ता
अजित वडनेरकर
18
कमेंट्स
पर
9:29 PM
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बकलमखुद
शेफ़ की खोपड़ी और चीफ़ की दावत...[बावर्ची -2]
बावर्ची को अंग्रेजी में शेफ़ कहते हैं । पांच सितारा होटलों का लंबे से हेट वाला महाराज यानी होटल की रसोई का प्रमुख शेफ़ कहलाता है और अपनी खास कैप यानी टोपी की वजह से अपनी अलग पहचान भी रखता है। कैप, शेफ़ और हैड यानी सभी बातें ख़ास हैं। अब एक ख़ास बात पर और ध्यान दें । ज्यादातर ख़ास लोगों की अलग पहचान कैप से ही होती है। सबसे प्रमुख व्यक्ति को अंग्रेजी में हैड ही कहते हैं और यह शब्द हिन्दी में भी खूब इस्तेमाल होता है जैसे हैडमास्टर, हैडकुक,हैडनर्स, हैडसाब ( गांवो में थानेदार को इस नाम से भी बुलाते हैं ) यही नहीं, प्रमुख के लिए कैप्टन शब्द भी आम है जिसका हिन्दी रूप कप्तान होता है। अब कहने की ज़रूरत नहीं कि हैड यानी सिर मानव शरीर का सबसे प्रमुख हिस्सा है इसलिए प्रमुख के अर्थ में ही कई भाव इसमें समाहित हो गए।
मगर बात चल रही थी शेफ़ की। शेफ़ दरअसल अंग्रेजी का नहीं बल्कि फ़्रैंच भाषा का शब्द है । फ़्रैंच में एक मुहावरा है शेफ़ डी क्विजिन (chef de cuisine ) अर्थात प्रमुख रसोइया। इसी का छोटा रूप शेफ़ के तौर पर पूरी दुनिया में शोहरत पा गया। प्रमुख व्यक्ति के लिए अंग्रेजी का चीफ़ शब्द भी फ्रैंच से ही आया है और शेफ़ की उत्पत्ति का आधार भी वही है।
गौरतलब है कि चीफ़ शब्द इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द है और इसकी उत्पत्ति हुई है लैटिन शब्द कैपुट (caput) से जिसका मतलब होता है सिर। यही शब्द जर्मन में Haupt और पुरानी अंग्रेजी में heafod होते हुए अंग्रेजी के head में ढल गया। अब इस सिर यानी कैपुट का कैप, कैप्टन और कप्तानी से रिश्ता भी समझ में आने लगा होगा। किसी भी देस – राज्य की राजधानी सबसे प्रमुख शहर होती है इसीलिए उसे कैपिटल कहा जाता है यह इसी कड़ी का शब्द है। इटली के माफिया सरगना के लिए कैपोन (अल कैपोन) शब्द भी इसी मूल से बना है। इंडो यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द होने के नाते इसका संस्कृत रूप हुआ कपाल और खर्परः जिसका अर्थ भी सिर, मस्तक आदि है। खोपड़ी, खप्पर, खुपड़िया, खोपड़ा आदि इसी कपाल या खर्परः के देशी रूप हुए। अब तो आप समझ ही गए होंगे कि क्यों शेफ़ की खोपड़ी पर लंबी कैप रहती है ? चीफ़ जो ठहरा।
[कुछ और जानकारी के लिए देखें सफर की यह कड़ी ]
आपकी चिट्ठियां
सफर की पिछली कड़ी-बावर्ची , लज्ज़त के साथ भरोसा भी सर्वश्री दिनेशराय द्विवेदी, तरुण, अनूप शुक्ल, डा चंद्रकुमार जैन, राजेश रोशन, संजीत त्रिपाठी , अनिताकुमार , घोस्ट बस्टर और जोशिम (मनीष ) की टिप्पणियां मिलीं। आपका बहुत बहुत आभार।
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Saturday, March 15, 2008
बावर्ची, लज्ज़त के साथ भरोसा भी [बावर्ची -1]
फारसी भाषा से हिंदी-उर्दू में शामिल हुआ बावर्ची लफ्ज दरअसल लज्जत के अहसास से भरा है। बावर्ची यानी रसोइया। और अलग अंदाज में कहें तो शेफ। लज्जतदार खाने के खाने के शौकीन सब होते है। इसीलिए रसोई या या रसोइया शब्द का जिक्र होते ही लजीज पकवानों के ख्यालात दिमाग में आने लगते है। जैसे रसोइया के साथ रसोई जुड़ी है, वैसा बावर्ची के साथ नहीं है। फारसी में `बावर´ के मायने होते है भरोसा या विश्वास। फारस में बावर अपने आप में एक संस्कृति है, सभ्यता है , रीति है । पुरानी कबाइली संस्कृति में अलग-अलग समूहों या कबीलों में किसी भी विवाद की स्थिति में बावर व्यवस्था ही इकलौता समाधान थी। जब कभी विवाद होता तो बावर यानी भरोसा देने की रस्म पूरी की जाती थी। दोनो पक्ष एक दूसरे को भरोसा देते थे ताकि फिर विवाद न हो। अगर भरोसा तोड़ा जाता तो उसे गैरकानूनी माना जाता था ।
तो इसी बावर में इसमें `ची´ यानी 'वाला' प्रत्यय लगने से मतलब निकलता है भरोसेमंद या विश्वासपात्र। फारसी में बावर्ची का रूतबा रसोईघर के व्यवस्थापक का होता था। जाहिर है तत्कालीन राजनीति में षड़यंत्रों की भरमार के चलते हर कदम पर भरोसेमंद लोगों की दरकार थी। और जब बात खान-पान की हो तो सावधानी सबसे ज्यादा होनी चाहिए थी। इसीलिए शाही रसोइये के लिए नया शब्द चल पड़ा `बावर्ची´। शाही दौर बीत जाने के बावजूद `बावर्ची´ के लिए लज्जतदारी के साथ वफादारी आज भी पहली कसौटी है।
आपकी चिट्ठियां
सफर की पिछली आठ कड़ियों में हमें कुल 118 टिप्पणियां मिलीं जिनमें से 76 सिर्फ बकलमखुद की चार कड़ियों पर थी। यहां उन सबके नाम देना संभव नहीं है अलबत्ता बटुए में हुआ बंटवारा, अंटी में छिपाओ तो भी अंटी खाली, बहादुर कौन है और सरकारी खरीता और रेशमी थैली पर आई टिप्पणी करने वाले साथियों का जिक्र कर रहे हैं। सर्वश्री आशीष , प्रत्यत्क्षा, संजीत त्रिपाठी, दिनेशराय द्निवेदी, अफलातून,डा चंद्रकुमार जैन, अनूप शुक्ल , संजय , मीनाक्षी, अनिताकुमार, घोस्टबस्टर, पंकज अवधिया , परमजीत बाली और काकेश । आप सबका आभार ।
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Friday, March 14, 2008
हा हा...फुरसतिया, व्हाट एन एटीट्यूड ? [ बकलमखुद -4]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। इस सिलसिले की शुरुआत कर रही हैं कुछ हम कहें जैसा खिलंदड़ा ब्लाग चलाने वाली अनिता जी । बकलमखुद में अब तक आप इस सिलसिले की तीन कड़ियां पढ़ चुके हैं। देखते हैं आगे का हाल आखिरी कड़ी में -
...और हम, जैसे बच्चे के हाथ में स्लेट !
अब कभी कभी मैने लेख भी लिखने शुरु किए। हमारा बिल्कुल ऐसा हाल है जैसे बच्चे के हाथ में स्लेट पकड़ा दी जाए और वो आड़ी तिरछी लाइनें लगा कर खुश होता रहे अपनी ही कृति पर, उस पर जब लोग भी आ कर पीठ थपथपा जाएं तो सोने पर सुहागा हो जाता है। दूसरों के ब्लॉगों से टिप्पणियों की रस्सी पकड़ कर हम जब ब्लागविश्व में घूमने लगे तो पता चला कि यहां तो एक से बढ़ कर एक महारथी बैठे हैं।
ब्लाग घुमक्कड़ी में चारों खाने चित्त
जब हमने ब्लागरी या ब्लागगीरी शुरू की तो अचानक खुद को फुरसतिया पर पाया। अनूप शुक्ला जी के ब्लोग का नाम तो हमेशा जेहन में रहा पर उनका नाम मुझे बहुत बाद में पता चला। उनके ब्लॉगों का नाम देख कर ही चारों खाने चित्त हो गये…।:) "फ़ुरसतिया: हम तो लिखबें कोई हमार का करिबे"…हा हा हा, व्हाट एन एटीट्यूड ? फ़िर उनके लिखने की शैली, शब्दों का चयन भी हमें बहुत अच्छा लगा, यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि इनका भी सेंस ओफ़ ह्युमर बहुत स्ट्रोंग है।
ज्ञानधाम पर फुरसतिया नोक-झोंक
ज्ञान जी के चिठ्ठे पर आलोक जी और अनूप जी की नोंक झोंक हमें बहुत भाती है। हम ज्ञान जी के लेख से ज्यादा उनको मिली टिप्पणियों का आंनद लेते हैं। वैसे ज्ञान जी की खूबी ये है कि वो साधारण से साधारण सी बात को भी बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत करते हैं, प्रेजेंटेशन स्किल्स बढ़िया हैं। पकंज जी के वनस्पति ज्ञान के भी हम कायल हैं। बसंत आर्या भी बड़ा रोचक व्यंग लिखते हैं पर बहुत कम लिखते हैं या हमें पता नहीं चलता। घुघुती जी की वो पोस्ट जिसमें उन्होने व्यंग्यात्मक रूप से औरतों को नेट पर 33% आरक्षण देने की मांग की थी, मेरी सबसे पसंदीदा पोस्टों में से एक है। अब क्यूं कि हमें भाषा में भी रुचि है तो शब्दों का सफर भी पढ़ना ज़रूरी है । यूनुस जी , मनीश जी के ब्लोग से गानों का आनंद उठाते हैं।
शास्त्रीजी - रविजी के तो कहने ही क्या...
शास्त्री जेसी फ़िलिप्स जी का ब्लोग तो ज्ञान का भंडार लगता हैं। शुरु-शुरु में उनसे भी ब्लोगिग के बारे में कई प्रश्न पूछे और मुझे बहुत खुशी होती थी देख कर कि इतने वरिष्ठ चिठ्ठाकार तुंरत उत्तर देते हैं। मेरे ब्लॉग को संवारने में सागर जी ने खुशी खुशी बहुत मेहनत की। रवि रतलामी जी के ब्लॉग का तो क्या कहना, उनकी कीर्ति तो जग जाहिर है, हम भी उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सके। पुनीत का भी लिखने का अंदाज हमें अच्छा लगता है, हांलाकि वो अब कम लिखता है। किस किस की बात करे।
मुंबई की धाकड़ ब्लॉग चौकड़ी
हमारी मुंबई की धाकड़ ब्लॉग चौकड़ी यानी प्रमोदसिंह अज़दक, अभय तिवारी निर्मल आनंद, डायरी वाले अनिल हिन्दुस्तानी रघुराज और ठुमरी वाले विमल भाई के क्या कहनें। विमलजी भी संगीत धनी हैं और सुर के पूरे। उनकी गायकी तो हम अपने ब्लाग पर भी सुना चुके हैं। अभय जी संजीदगी के साथ जितना अपने आसपास नज़र रखते हैं उससे ज्यादा खुद में गहराई से उतरते हैं। अनिलजी और अज़दक को मैं गंभीरता से पढ़ती हूं। पूरे ब्लाग जगत से मुंबई गुम हो जाए अगर ये न लिखें। मेरे पसंदीदा चिठ्ठों की लिस्ट तो बहुत लंबी है।
चैटियाना और चिठियाने की जुगलबंदी
हमारी आदत ये है कि हम जिस नये चिठ्ठे पर जाते हैं और अगर वो हमको अच्छा लगता है तो फ़ौरन सबस्क्राइब कर के आ जाते हैं ताकि हमें ई-मेल में ही वो पोस्ट पढ़ने को मिल जाए। कई बार हम चैटिया भी रहे होते है और साथ में किसी न किसी चिठ्ठे की पोस्ट भी पढ़ रहे होते हैं । पोस्ट अपने ही मेल में पढ़ने के बाद जा कर टिपिया आते हैं। ब्लोगवाणी पर जाने के लिए हमें अपने ब्लॉग पर जाना पड़ता है इस लिए ऐसा करते हैं। दूसरी हमारी आदत ये है कि हमारे ब्लोग पर जो भी टिप्पणियां आती हैं हम उनका ई-मेल भेज कर धन्यवाद करते हैं इससे पर्सनल टच रहता है। हम ऐसा कर सकते हैं क्यूं कि टिप्पणियों की संख्या ज्यादा नहीं होती, दूसरों के लिए ऐसा करना शायद संभव नहीं । कभी कभी जब किसी ने टिप्पणी की हो और हमें उसका ई-मेल पता न मिले तो मन में एक फ़ांस रह जाती है कि हम ठीक से धन्यवाद नहीं कर पाए।
अब हौं लागी लगन, निसदिन ब्लागिंग गुनन
अंतत: यही कहेगें कि कुल मिला कर हमें ब्लॉगर बन कर बहुत अच्छा लग रहा है। हमें अब इसकी इतनी लत लग गयी है कि बाकि सब लतें छूट गयीं, टीवी के आगे धूनी रमाए महीनों हो गये। मेरे दक्षिण भारतीय दोस्त जिनसे मैं चैटियाती थी धीरे धीरे सब छूट गये क्यूं कि अब मुझे ब्लॉग जगत से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती। यहां भी इतना अपनापन, इतना स्नेह पाया है, इतनी मानसिक और भावनात्मक तृप्ति पायी है कि मेरी आत्मा तक रसविभोर हो उठी है। मुझे पहली बार लग रहा है कि मै समझती रही कि मुझे मनोविज्ञान विषय से ज्यादा कुछ प्यारा नहीं पर अब लगता है कि नहीं असल में हिन्दी भाषा मुझे आत्मसंतुष्टि देती है, मनोविज्ञान भी मुझे प्यारा है पर वो जीवनयापन का जरिया है असली खुशी मुझे हिन्दी से मिलती है।
इतनी दृष्टि हमें देना दाता....
ब्लॉग जगत पर मुझे रियल दुनिया और ऑर्कुट की दुनिया से भी ज्यादा अपनापन मिला है, मान सम्मान मिला है , भगवान से प्राथना करती हूँ कि जब तक जिन्दा रहूँ आंख की रोशनी इतनी बनाए रखें कि ब्लॉग दिखाई दें और उंगलियां की बोर्ड पर चलती रहें। उससे भी ज्यादा जरूरी है कि भगवान करे ब्लॉग जगत पर मेरे खूब दोस्त बनें और ये दोस्ती कालजयी हो। [समाप्त]
[ ऊपर चित्र में अनिताजी, मीनाक्षी जी और आशीष महर्षि ]
इस पोस्ट में नेट की सुस्त रफ्तार के चलते हम साथियों के हाइपरलिंक और तस्वीरें नहीं लगा पा रहे हैं। इसके लिए हमने क़रीब एक घंटा इंतजार भी किया पर बात बनी नहीं । हमें इसका अफ़सोस है । आपकी चिट्ठियों का हाल और बाकी बातें फिर...
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प्रस्तुतकर्ता
अजित वडनेरकर
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कमेंट्स
पर
1:19 AM
लेबल:
बकलमखुद
Thursday, March 13, 2008
सरकारी खरीता या रेशमी थैली [ जेब-4]
नक्शे,ताश , और लिफाफे में कहीं कोई रिश्ता बनता नज़र आता है ? जी हां बिल्कल है। नक्शे और ताश को लिफाफे में रख सकते हैं। ये तीनों ही काग़ज से बनते हैं। बादशाहों-नवाबों के दौर में एक शब्द चलता था खरीता । इस खरीते का अर्थ भी था जेब। व्यापक अर्थ में खरीता एक ऐसे लिफाफे, थैले या थैली को कहते थे जिसमें सरकारी आदेश या अन्य दस्तावेज़ों को बंद करके निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचाए जाते थे। सरकारी आदेश आने को खरीता आना भी कहा जाता था। खरीते की ख़ासियत थी कि आमतौर पर यह रेशमी कपड़े की थैली होती थी। ठीक बटुए जैसी पर आकार में उससे कुछ बड़ी। इसमें सोने चांदी की गिन्नियां भी भरी जाती थी और इसका मुंह रेशमी धागे से बंद कर राजा की मुहर लगा दी जाती थी।
खरीता मूलतः अरबी भाषा का शब्द है और इसका देशी रूप खलीता हो गया। दस्तावेज के रूप में खरीता का एक अर्थ नक्शा या मानचित्र भी होता है। गौरतलब है कि अरबी सौदागर समुद्री व्यापार मे बड़े माहिर थे। अरब नाविकों द्वारा बनाए गए समुद्री नक्शे बरसों तक प्रामाणिक माने जाते रहे। अंग्रेजी का चार्ट शब्द प्राचीनकाल से ही सामुद्रिक नक्शों के लिए प्रयोग होता आया है। इस अरबी में नक्शे के लिए एक शब्द मिलता है। इस चार्ट का उद्गम ग्रीक शब्द khartes से माना जाता है जिसका लैटिन रूप हुआ चार्टा/कार्टा और अंग्रेजी में हुआ चार्ट। अंग्रेजी में नक्शानवीस को कार्टोग्राफर कहा जाता है। इन तमाम शब्दों का रिश्ता जुड़ता है काग़ज़ से, पत्तों से। गौरतलब है कि प्राचीनकाल से ही दुनियाभर में लिखने की शुरूआत पत्तों पर ही हुई । मूलतः सेमेटिक भाषा परिवार के चरीता से ही इसका रूप खरीता हुआ जिसका मतलब था नक्शा। खरीता और ग्रीक khartes की समानता गौरतलब है।
ताश के लिए अंग्रेजी में कार्ड शब्द भी इसी मूल से जन्मा है और मोटे काग़ज़ के रूप मे भी जाना जाता है। सेमेटिक मूल के इस शब्द की व्याप्ति लगभग समूचे एशिया और यूरोप की भाषाओं में हुई मसलन अज़रबैजानी मे खरीते, हिन्दी में खरीता, तुर्की में हरीता, हरता आदि। खरीता शब्द अपने आप में राजपत्र भी है और राजपत्र ले जाने वाला लिफाफा भी। चार्टर शब्द का अंग्रेजी में अर्थ भी यही होता है राजपत्र या अधिकार पत्र। आजकल चार्टरप्लेन या चार्टरशिप जैसे शब्द भी चल पड़े हैं जिनका अर्थ साफ है । बादशाही ज़माने में खरीतादार जैसा पद भी होता था। प्राचीन काल में ज़मीन के दस्तावेज़ पट्टम् कहलाते थे जिससे बना है हिन्दी का पट्टा जैसा शब्द अर्थात ज़मीनी दस्तावेज़। इन दस्तावेज़ों का रिकार्ड रखनेवाले अधिकारी को ही पाटील, पाटिल कहते थे जिसकी व्युत्पत्ति संस्कृत के पट्टकीलकः से हुई है। पाटीदार और पटवारी भी इसी कड़ी के शब्द हैं। पटवारी भी खरीते रखता था और यही काम खरीतादार का भी होता था जो सरकारी दस्तावेजों की सार-संभाल करता था।
चित्र परिचय
मोरक्को के नक्शानवीस अल इदरीसी द्वारा 1456 में सिसली के राजा रॉजर के लिए बनाया गया विश्व मानचित्र
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ब्लॉगबंदे और मनोविज्ञान की प्रोफेसर [बकलमखुद - 3]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। इस सिलसिले की शुरुआत कर रही हैं कुछ हम कहें जैसा खिलंदड़ा ब्लाग चलाने वाली अनिता जी । बकलमखुद में अब तक आप इस सिलसिले की दो कड़ियां पढ़ चुके हैं। देखते हैं आगे का हाल-
अगड़म-बगड़म करते जाओ, अगड़म-बगड़म करते घर लौटो
आलोक जी के ब्लॉग पर ही लोगों की टिप्पणियां पढ़ीं जो काफ़ी रोचक हुआ करती थीं। हमारी खुशी दुगुनी हो गयी जब हमें इस बात का एहसास हुआ कि टिप्पणियों में जो नाम दिखते हैं उन पर क्लिक करने से आप उनके ब्लोग पर पहुंच सकते हैं। अब हमने ब्लोग की दुनिया में घूमना शुरु किया ,कभी इस ब्लॉग पर कभी उस ब्लॉग पर पर हमेशा आलोक जी के ब्लॉग के जरिए जैसे जहाज का पंछी सारी दुनिया घूम कर फ़िर लौट कर जहाज पर। टेकनिकल ज्ञान शून्य था । हमें यही रास्ता पता था कि पहले अपनी स्क्रेप बुक से आलोक जी के ब्लॉग पर जाओ फिर वहां से ब्लॉग की दुनिया का विचरण करो और फ़िर उसी रास्ते से अपने घर वापस आ जाओ…:)
शेयर मार्केट का मनोविज्ञान और फिर ...
धीरे-धीरे आलोक जी से बात करने का मौका मिला। वैसे तो वो बहुत व्यस्त रहते हैं पर कभी कभी चैट पर नजर आ जाते थे। बातों-बातों में पता चला कि एक और क्षेत्र है जहां हम दोनों की समान रुचि है और वो है शेयर मार्केट। शेयर्स के बारे में बातें करते-करते ये बात सामने आई कि निवेशक मनोविज्ञान के ऊपर अभी तक नेट पर चर्चा नहीं हुई है और हमारे पास उसकी कुछ जानकारी थी। आलोक जी ने हमें अपने ब्लॉग पर इस विषय पर लिखने के लिए निमंत्रित किया, हमने बात आयी गयी समझ कर छोड़ दिया। हमने कभी स्वतंत्र रूप से ऐसा कुछ लिखा नहीं था।
और वो पहली पोस्ट , वो टिप्पणियों की मिठाई
कविता ही हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम रहा था, इस लिए कलम ही नहीं उठ रही थी। कहने को हम कोर्स की कई किताबें लिख चुके थे। आलोक जी प्रोत्साहित करते रहे और फ़िर एक दिन उनकी ही गाइडेंस लेते हुए हमने उन्हें अपना एक लेख लिख कर भेज दिया। उन्हों ने उसे मेरे नाम और फ़ोटो के साथ अपने ब्लॉग पर प्रकाशित कर दिया। खुद को पहली बार वहां देख कर हम कितने खुश हुए आप अंदाजा नहीं लगा सकते। हमारे लेख पर कई टिप्पणियां आई, कुछ सवाल भी पूछे गये पर जवाब कैसे दें हम नहीं जानते थे। इस बात का एहसास नहीं था कि टिप्पणी के रूप में ही अपना जवाब दिया जा सकता है।
पहचान तो बता भाई आवारा बंजाराअब हमने भी अपना ब्लॉग बनाने की सोची, थोड़ी बहुत जानकारी इधर-उधर से ले कर ब्लॉगस्पॉट पर अपना ब्लॉग भी बना दिया, एकदम बेसिक सा। उस पर अपनी कुछ कविताएं भी डालीं। शायर परिवार पर जब हम अपनी कविता डालते थे तो बाद में जाकर टिप्पणी कैसे देखनी हैं ये हमने श्रद्धा से सीख लिया था। वहां वैसे तो बहुत वाह-वाही मिली और हमारा आत्मविश्वास दिन दूनी और रात चौगुनी की रफ़्तार से बढ़ने लगा। पर एक बंदा था जिसकी टिप्पणी बड़े सुंदर शब्दों में बड़े मार्मिक ढंग से की होती थी, जो सीधा मन को छुए। लेकिन नाम की जगह हमेशा आवारा बंजारा लिखा होता था। हमें बड़ा अटपटा सा लगता, हमने वहां धन्यवाद के साथ इस अवारा बंजारा को प्राथना की कि वो अपनी सही पहचान बताएं , जवाब नदारद था। फ़िर दूसरी कविता के साथ भी ऐसे ही हुआ, हमने फ़िर पूछा कि इतनी अच्छी टिप्पणी लिखने वाला अवारा तो नहीं हो सकता, कौन है? जवाब आया कि शायर परिवार पर ही परिचय देख लो।
...और यूं सँवरता चला गया हमारा ब्लाग
परिचय में एक लंबी सी बड़ी कठिन शब्दों वाली एक कविता थी। दो तीन बार पढ़ने पर पता चला कि ये संजीत हैं। पता यूं चला कि ये हमारे ब्लॉग पर भी टिप्पणी कर गये, तब इनके ब्लोग पर जा कर देखा। धीरे धीरे इनसे परिचय बढ़ा। हमने अपनी ब्लोगिंग की तकलीफ़ों के बारे में बात की। संजीत जी ने न सिर्फ़ हमारा ब्लॉग संवारने में हमारी मदद की बल्कि देवनागरी में कैसे लिखा जाए उसका भी आसान तरीका बताया। वो तो ऐसा ही था मानो हमारे पंख लग गये। संजीत ने ही हमें सारे एग्रिगेटर्स के बारे में बताया और वहां पंजीकृत करने में हमारी मदद की। शुरुआती दिनों में इतना सताया मैने उन्हें कि कोई और होता तो कब का पल्ला झाड़ लेता लेकिन वो बिचारे हमारी हर छोटी बड़ी ब्लोगिंग की तकलीफ़ को दूर करते रहे।
( मुझे अंदाज़ नहीं था कि अभी इस पोस्ट से भी डेढ़ गुनी सामग्री बाकी है। दरअसल अनिताजी बातूनी ही नहीं, लिक्खाड़ भी हैं। मगर हमें तो मज़ा आ रहा है। अगली कड़ी में कुछ और ब्लागर साथियों के दिलचस्प उल्लेख के साथ समापन )
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प्रस्तुतकर्ता
अजित वडनेरकर
17
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पर
1:46 AM
लेबल:
बकलमखुद
Wednesday, March 12, 2008
बहादुर कौन है ? [ पुनर्प्रस्तुति ]
वीरता और शौर्य दिखाने वाले के लिए हिंन्दी उर्दू में बहादुर शब्द बड़ा आम है। इस शब्द की अर्थवत्ता और उससे जुड़ा रुतबा इतना जबर्दस्त है कि उत्तर भारत की मार्शल कौमों (लड़ाका जातियां) में पुरुषों के नाम के साथ यह शब्द लगाना शान की बात मानी जाती है मसलन- विजय बहादुर, जंग बहादुर। यही नहीं, नेपाल के क्षत्रियों में तो यह परंपरा इतनी प्रचलित है कि भारत में तो अब नेपालियों के लिए बहादुर शब्द ही पहचान बन गया है। बहादुर शब्द वैसे तो हिंन्दी में उर्दू-फारसी के जरिये आया मगर है तुर्की जबान का। बल्कि यूं कहें कि इसकी परवरिश तुर्की जबान में हुई है और पैदाइश मंगोल जबान में। तुर्की में इसका उच्चारण होता है बगातुर यानी वीर, योद्धा, बलवान या नायक। इसी तरह मंगोल जबान में इसका उच्चारण होता है बघातुर । मंगोल भाषा में इस शब्द का व्यापक प्रयोग होता रहा। इसका कारण रहा मंगोल अमीरों और राजाओं द्वारा अपने नाम के साथ इसका प्रयोग करने का चलन। प्रसिद्ध मंगोल योद्धा चंगेज खान के पिता का नाम था येसुगी बघातुर (1100-1180) और उसके दादा का नाम था बैरतान बघातुर। जाहिर है नाम के साथ इस लफ्ज के इस्तेमाल की रिवायत भी मंगोलिया से चल कर तुर्कमेनिस्तान , ईरान होते हुए हिन्दुस्तान और नेपाल तक आम हो गई। बहादुर का बोलबाल कुछ इस कदर बढ़ा कि इसके हिन्दी अर्थ वीर ने इसका साथ देना पसंद किया। नतीजतन बहादुरों की शान बढ़ाने वाला एक नाम और बन गया-वीर बहादुर।
ये मेरी एकदम शुरुआती पोस्ट है । आज नेट काफी देर तक परेशान करता रहा और जेब की पांचवीं श्रंखला लिखने की कोशिश बेकार हो गई। अब बहुत देर हो चुकी है इसलिए मेरी पसंदीदा ये पोस्ट ठेल रहा हूं। इस पर सिर्फ प्यारे भाई अभय तिवारी की टिप्पणी मिली थी।
अभय तिवारी said...
क्या बात है.. राज़ से परदा हट गया..
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Tuesday, March 11, 2008
आर्कुट वाली अनिता जी[ बकलमखुद-2 ]....
अभी का अभी बताओ, क्या होता है चैट !
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। इस सिलसिले की शुरुआत कर रही हैं कुछ हम कहें जैसा खिलंदड़ा ब्लाग चलाने वाली अनिता जी । बकलमखुद में कल आपने पढ़ी इस सिलसिले की पहली कड़ी। देखते हैं आगे का हाल-
वे शरारती आंखें और हमारी जिद
हमारा घर है तो फ़्लैट पर बंगलो शैली का, जिसे यहां पेंट हाउस कहा जाता है। मेरे लड़के का कमरा ऊपर है और हम नीचे के
माले पर अक्सर रहते हैं और ऊपर बार बार जाने से कतराते हैं, हमने उससे शिकायत की कि उसे बुलाने के लिए हमें अपना गला फ़ाड़ना पड़ता है और फ़िर भी उसके कानों में जूं नहीं रेंगती, रेंगेगी कैसे, ये तो कानों में हेड सेट लगा कर लैप टॉप पर गाने सुनते, क्रिकेट खेलते और न जाने क्या क्या करते हमारी आवाज कहां सुनेगें। ये जानते हुए भी कि हमें कंप्यूटर का ज्यादा ज्ञान नहीं है उसने हमारी चुटकी काटते हुए शरारती आखों से कहा कि इसमें कौन बड़ी बात है। हमारे नीचे के कमरे में डेस्क टॉप है और उसके कमरे में लैप टॉप, हम अगर उसे चैट पर मैसेज दे दें तो वो उसे पता चल जाएगा कि हम बुला रहे हैं। उसकी शरारती आखों को देख हमारा गुस्सा और ऊपर चढ़ गया, हमने कहा चलो अभी का अभी बताओ ये चैट क्या होती है। उसने मजाक मजाक में ऑर्कुट पर हमारा प्रोफ़ाइल बना दिया और फ़िर जीमेल का पन्ना खोल कर कैसे उसको कोन्टेकट में देखा जा सकता है बता दिया। थोड़ा समझ आया, थोड़ा नहीं।
दोस्ती उम्र नहीं देखती...
हमने सुन रखा था कि ऑर्कुट युवा पीढ़ी का एक दूसरे के साथ संबध रखने की साइट है, तो हमें लग रहा था कि अगर कोई हमारा प्रोफ़ाइल उधर देखेगा तो क्या कहेगा, हमने प्रोफ़ाइल बनते वक्त अपनी सही उम्र ही डलवायी थी, पूरे 52 साल। दूसरे दिन हमें जिज्ञासा हुई कि क्या किसी ने हमारा प्रोफ़ाइल देखा या हमसे कुछ कहा। ऑर्कुट पर कैसे जाएं, वो लिखा के गया था। वो पन्ना निकाला और अपने प्रोफ़ाइल पर पहुंचे। हम देख कर हैरान थे कि इतने सारे लोगों ने हमसे दोस्ती करने की इच्छा जाहिर की है। खास बात ये थी कि ये सब की सब दरखास्त दक्षिण भारत के शहरों से थी और उसमें ज्यादातर युवा वर्ग के लोग थे ( सब लड़के)। ग़ज़ब ! हमने तो अपने प्रोफ़ाइल में साफ़ साफ़ अपनी उम्र और पेशे के बारे में लिखा था, फ़िर ये लड़कों को हमसे बात करने में क्या दिलचस्पी हो सकती है। इनमें से कई लड़के चैट पर मिले। हमारे पूछने क्या सचमुच वो मुझ जैसी बुढ़िया से दोस्ती करना चाहते हैं सबका एक ही जवाब था कि हां, दोस्ती उम्र नहीं देखती।
और मैं बन गई ई-मदर ...
इन दोस्तों को मेरी उम्र, मेरे रुतबे, मेरी भाषा, मेरे लिंग से कोई मतलब नही था, बातें अंग्रेजी में ही होती थीं। ये दुनिया भर की बातें करते और कोई कोई तो खेलने की भी जिद्द करता ऑनलाइन गेम्स हैं जैसे पोलो, चैस वगैरह्। हम कहते कि भैया हमें ये गेम्स खेलना नहीं आता तो सिखाने के लिए तैयार्। हम तो एक बार फ़िर अपने कॉलेज के दिनों में पहुंच गये। इन बच्चों के साथ खूब मजे रहते। जब हम कोई गेम सीखने में वक्त लगाते तो हमें चिढ़ाने के लिए कहते आखिर हो न दादी की दादी, हम झूठ मूठ का रूठ जाते तो मनाने की हजार कोशिशें करते। अपनी गर्ल फ़्रेडस से हुए झगड़ों को ले कर दुखी होते तो हमसे सलाह मागंते। मजा तब रहता जब एक लड़का अपनी गर्ल फ़्रेड के साथ हुए झगड़े की व्यथा सुना रहा होता और दूसरी खिड़की में उसकी गर्ल फ़्रेंड अपना रोना रो रही होती और हम उनके झगड़े निपटा रहे होते, लगता मानो मेरे ही कॉलेज के स्टुडेंट्स हैं। कई युवाओं की मैं इस तरह ई-मदर बनी। जो बातें वो अपने परिसर में किसी से नहीं कह पाते थे हमसे कह जाते और सलाह ले जाते।
युवाओं के लिए काउंसिलिंग सेल
मुझे लगा कि एक काउंसलिग सेल मैने यहां नेट पर खोला हुआ है। वाकई ओन लाइन कांउसलिंग की बहुत जरुरत है इस युवाओं में अब लड़के लड़कियां सब थे। दो किस्से मुझे खास इस समय याद आते हैं। एक मेरी ही एम ए की छात्रा जब मुझे ऑर्कुट पर देख पुलकित हुई और फ़िर बाद में चैट पर अपनी जिन्दगी की कई बातें करती रही, यहां तक की अपने भावी पति से भी (चैट पर) पहले मुझे मिलवाया और जब मैने सहमती जताई तब अपने माता पिता से मिलवाया। दूसरा याद आता है एक दक्षिण भारतीय लड़की जो केनेडा में थी और जिसकी माता का उसके बचपन में ही देहांत हो गया था वो मुझसे बतियाते बतियाते इतना जुड़ गयी थी कि अगर मैं एक दिन चैट पर न मिलूं तो उसका फ़ोन आ जाता था। हम कहते काहे नाहक पैसा बर्बाद करती हो पर वो मानती ही नहीं थी, बाद में उसने अपनी बुआ से भी नेट पर हमारी मुलाकात करायी। बुआ हमारी उम्र की थी।
इंशाजी यह और नगर है, इस बस्ती की रीत यही...
धीरे धीरे हमें पता लगने लगा कि ऑर्कुट सिर्फ़ युवाओं की बस्ती नहीं यहां हम जैसे और भी कई और हैं हमने 40+ रॉकर कम्युनटी जाइन कर ली, अब हमारे अपनी उम्र और अपने से बड़ी उम्र के भी कई मित्र और सहेलियां बनीं। यहां तक की अब इस कम्युनटी के लोग अक्सर मिलते हैं और पार्टियां करते हैं। कई महिलाएं हमारी अंतरंग सहेलियां भी बन गयी और हमारा दायरा कॉलेज के परिसर से निकल कर और बड़ा हो लिया। कहने का तात्पर्य ये कि नेट का संसार असली संसार से कुछ ज्यादा अलग न था। अब हम रोज ऑर्कुट पर जा कर अपनी स्क्रेप बुक चैक करते थे। धीरे धीरे आत्मविश्वास बढ़ रहा था, ऑर्कुट की दुनिया को एक्सप्लोर करना शुरु किया तो कुछ हिन्दी कविताओं की साइटस मिलीं, हमारी तो बाछें खिल गयीं फ़ौरन उनको जॉइन कर लिया, कुछ अपनी कविताएं भी वहां भेजीं। उन्हें वहां प्रकाशित देख बहुत आंनद आया।
अपनी कविताई - हिन्दी युग्म से परिचय
हिन्दी कविताएं साइट जॉइन करते ही शैलेश भारतवासी के मैसेज आने लगे कि हम हिन्द-युग्म पर भी आयें, उधर भी चक्कर मार आए पर वहां कविता प्रकाशित करवाना बड़ी टेड़ी खीर है, उसके लिए पहले उनकी प्रतियोगिता जीतनी पड़ती है, कविता भी ऐसी हो जो पहले कहीं प्रकाशित न हुई हो, और आप जीते की नहीं वो कविता भेजने के एक महीने के बाद पता चलेगा, आदि आदि। इतने में शायर परिवार की श्रद्धा जी ने एक दिन चैट पर हमसे संपर्क किया और अपनी कविता वहां प्रकाशित करने का निमंत्रण दिया। उनकी कोई शर्त नहीं थी,कहीं और प्रकाशित की हुई है तो भी आप उनकी साइट पर डाल सकते थे। हमें बड़ा अच्छा लगा। वहां सबकी प्रतिक्रियाएं पढ़ी तो पहली बार एहसास हुआ कि इतना भी बुरा नहीं लिखते। खास कर शायर परिवार के अनिल जी काफ़ी प्रोत्साहन देते हैं नये लिखने वालों को। श्रद्धा जब पहली बार हमसे चैट पर मिलीं तो उनका मुझे दीदी कह कर पुकारना मुझे बहुत अच्छा लगा और मैं वहीं पिघल गयी।
पुराणिक भी टकरा गए इस बस्ती में
हम अभी फ़िर से हिन्दी से जुड़ पाने से पुल्ल्कित हो ही रहे थे कि एक दिन आलोक पुराणिक जी के चिठ्ठे का लिंक स्क्रेप में मिला। जिज्ञासावश हमने पहले उनके प्रोफ़ाइल पर क्लिक किया, उनके बारे में पढ़ा, फ़िर उनकी स्क्रेप बुक खोली। ये हमारी आदत है कि ऑर्कुट पर जब भी किसी नये व्यक्ति से दोस्ती की दरखास्त आती है हम पहले उसका प्रोफ़ाइल, उसकी कम्युटीस और स्क्रेप चैक करते हैं। आलोक जी की तरफ़ से कोई फ़्रेंडस रिक्वेस्ट नहीं थी सिर्फ़ लिक भर था उनके चिठ्ठे का। खैर हमने जब उनका स्क्रेप बुक देखा तो लगा कोई सेलेब्रेटी हैं। लोगों ने लिखा हुआ था कि मै बचपन से आप को पढ़ता आ रहा हूँ और आप का बहुत बड़ा फ़ैन हूँ आप से एक मुलाकात कर सकूं तो अपने को धन्य समझूं और भी पता नहीं क्या क्या। उसे देख हमारी जिझासा और बढ़ गयी, दिमाग पर बहुत जोर दिया लेकिन किसी सेलेब्रेटी आलोक पुराणिक का नाम याद नहीं आया। लिंक पर किल्क कर उनके ब्लोग पर गये अगड़म बगड़म वाले पर। उनका लेख पढ़ा, हँस हँस कर लोट पोट हो गये। सेंस ओफ़ ह्युमर हमारा भी बहुत स्ट्रोंग है। फ़िर तो एक ही दिन में उनकी पुरानी सब पोस्ट भी पढ़ डालीं बहुत मजेदार लगीं। हमारा मन हुआ कि हम इन पोस्ट्स को अपने स्टुडेंटस को भी दिखाएं, और वो तभी कर सकते थे जब इनको कॉपी कर प्रिंट आउट ले कर नोटिस बॉर्ड पर लगाते।
टेंशनाइए मत,रीठेल, अनझेलेबल,टेलो
ब्लोग क्या होता है ये हमने पहली बार जाना। खैर वापस अपने स्क्रेप पर आकर आलोक जी को एक स्क्रेप लिखा कि आप के स्क्रेप से लगता है कि आप कोई सेलेब्रेटी हैं वैसे मुझे अफ़सोस है कि मै आप के बारे में कुछ नहीं जानती और न ही मीडिया में कभी सुना है शायद इस लिए कि मै हिन्दी जगत से बहुत दूर हूँ, मुझे आप के लेख अच्छे लगे और क्या आप मुझे उन्हें अपने स्टुडेंट्स के साथ बांटने की इजाजत देगें? …।:) दो दिन बाद उनका जवाब आया कि वो कोई सेलेब्रेटी नहीं हैं और मैं खुशी से उनके लेख अपने नॉटिस बोर्ड पर लगा सकती हूँ। हिन्दी दिवस पास में ही था हमने कॉलेज में हिन्दी दिवस मनाने का मन बना लिया। आलोक जी को बुलाने की इच्छा थी पर उन्हों ने कहा कि बहुत कम समय का नॉटिस है छुट्टी लेना मुमकिन न होगा, हम समझ सकते थे। उनके ब्लोग पर ही हमने पहली बार हिन्दी में ऐसे शब्द देखे जो हमारी अक्ल को गुदगुदा गये जैसे टेंशनाइए मत,रीठेल, अनझेलेबल,टेलो । हम तो ऐसे शब्दों का अच्छी हिन्दी में इस्तेमाल देख कर इतने हैरान थे कि सोचा कि इनका एक संकलन ही बना लिया जाए।बाद में हिन्दी दिवस के दिन हमने आलोक जी के लेख अपने कॉलेज में प्रदर्शित किए और ओक्सफोर्ड डिक्शनरी में कितने हिन्दी शब्द को अंग्रेजी में अपना लिया गया है वो छात्रों से निकलवाया। देख कर बहुत सुखद अनुभूती हुई कि करीब दो सौ शब्द हिन्दी के इस डिक्शनरी के नये संकलन में हैं। हमने इस बात पर जोर दिया कि आज अगर अंग्रेजी का राज है सारी दुनिया पर तो सिर्फ़ इस लिए कि ये लचीली रही और हर जगह के ज्यादातर इस्तेमाल होने वाले स्थानिय शब्दों को अपने अंदर आत्मसात करती चली गयी। इस साल का हिन्दी दिवस दूसरे सालों के मुकाबले ज्यादा सफ़ल और लोकप्रिय हुआ।
( अगली कड़ी में समाप्त )
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प्रस्तुतकर्ता
अजित वडनेरकर
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पर
1:34 PM
लेबल:
बकलमखुद
Monday, March 10, 2008
अंटी में छुपाओ तो भी अंटी खाली [ जेब- 4]
पैसे रखने के लिए जेब, खीसा, बटुआ, पॉकिट जैसे शब्दों के अतिरिक्त कुछ और भी शब्द प्रचलित हैं। हिन्दी में अंटी शब्द का प्रयोग भी इसी अर्थ में होता है। अंटी ढीली करना, अंटी गर्म करना , अंटी में छुपाना जैसे मुहावरों में इसका प्रयोग अक्सर बोला-सुना जाता है।
अंटी शब्द भी हिन्दुस्तान की ठेठ देशी पोशाक धोती से जुड़ा है। धोती की तह में रुपए छुपा कर रखने का चलन पुराने ज़माने में रहा है। इस तह को ही कहते हैं अंटी। गौर करें कि धोती एक हिस्सें में सिक्के या रुपए को रख कर कपड़े को मोड़ कर , तह कर छुपा लिया जाता है और फिर कमरबंद में खोंस लिया जाता है। किसी कपड़े में तह डालने , या सिलवटें पड़ने को आंट पड़ना या आंट डालना कहते हैं। मराठी में माथे पर पड़े बल या सिलवट को भी आंठ कहते हैं। ये सभी शब्द मूल रूप से बने हैं संस्कृत की 'वृ' धातु से जिसमें बल देने, छुपाने, घुमाने आदि के भाव शामिल है । गौर करें कि गोलाकार के लिए वृत्त शब्द है। तह करने की प्रक्रिया भी कपड़े को एक सिरे से घुमाकर ही सम्पन्न होती है। जब कोई वस्तु मोड़ी जाती है तो उसका भीतरी हिस्सा अनायास ही छुप जाता है। आवरण भी किसी वस्तु को छुपाने का ही काम करता है । इसमें भी 'वृ' धातु है। आंट या अंटी बना है आवृत या आवृत्ति से । वैसे दो उंगलियों के बीच गांठ की वजह से बनी खाली जगह को भी अंटी कहते हैं। जादूगर, बाजीगर अक्सर कुछ छुपाने के लिए इस जगह का उपयोग ट्रिक्स में करते हैं।
छुपाने वाला भाव ही अंग्रेजी के पर्स शब्द की व्युत्पत्ति में भी प्रमुख है। पर्स शब्द हिन्दी में बटुए से ज्यादा प्रचलित है। पर्स बना है ग्रीक भाषा के byrsa शब्द से जिसका अर्थ था छुपाना, छुपाया हुआ। इसका लैटिन रूप भी यही रहा। फ्रेंच में इसका रूप है bourse . मध्यकालीन लैटिन में इसका रूप हुआ bursa जिसने ओल्ड इंग्लिश में pursa होते हुए पर्स का रूप ले लिया। पर्स शब्द महिलाओं और पुरूषों–दोनो के बटुए के तौर पर इस्तेमाल होता है। वनस्पतिशास्त्री पंकज अवधिया ने एक बहुत महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराई है । लैटिन शब्द बर्सा से एक वनस्पति Capsella bursa-pastoris का नाम भी जुड़ा है। इसके फल चरवाहो द्वारा उपयोग किये जाने वाले पर्स की तरह होते है इसलिये इसका नाम Shepherd's purse पड गया।
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बकलमखुद [1] - सफर के सहयात्री
सिर्फ कुछ नहीं , अभी बहुत कुछ कहना है आपको
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसकी कई वजह हो सकती हैं, उसकी विवेचना में हम नहीं जाना चाहते। पर जो ब्लाग पसंद किए जा रहे हैं और चिट्ठाकार खुद भी गुमनाम नहीं हैं ऐसे में ब्लाग से जुड़े लोग उनकी शख्सियत के बारे में भी जानना चाहेंगे। खासतौर पर तब , जब हम सभी संवाद के एकाधिक माध्यमों के ज़रिये एक दूसरे से जुड़े हुए भी हैं।
इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। सफर तो लंबा चलेगा और सफर की बोरियत से बचने का एक तरीका यह भी है कि हम सिर्फ शब्दों के सफर की चर्चा न करें बल्कि कुछ अपनी भी कह-सुन लें। इस सिलसिले की शुरुआत कर रही हैं कुछ हम कहें जैसा खिलंदड़ा ब्लाग चलाने वाली अनिता जी । बकलमखुद । उन्होंने तो मेरे इस विचार को पसंद किया और खूब उत्साह से लिखा भी, अब बारी आपकी है , क्या कहते हैं आप।
प्रिय अजीत ,
आप का आग्रह मैने सहर्ष स्वीकार कर लिया था ये सोच कर कि अपने बारे में बोलना कौन कठिन काम है, पर जब लिखने बैठी तो दो दिन से ऐसा हो रहा है कि घंटों पीसी के सामने बैठी रही पर समझ ही नहीं आ रहा कि कहां से करुँ शुरुआत । चलिए शुरू से ही शुरु करती हूँ । आज तक बायोडेटा लिखा है, पर अपने जीवन पर लिखने का पहला मौका है ।
अलीगढ़ में मिले गुलशन नंदा18 मार्च 1955 को गाजियाबाद में हमारी पैदाइश हुई और नाम मिला अनिता खरबंदा । पिता एक कॉलेज में अध्यापक थे और माता ग्रहिणी। अभी स्कूल में ही थे कि पिताजी ने नौकरी बदल ली और हम अलीगढ़ आ गये। कह सकते हैं कि प्रांरभिक शिक्षा (आठवीं तक) अलीगढ़ में ही हुई। लेकिन गुलशन नंदा के उपन्यास हमने अलीगढ़ में ही पढ़ना शुरु कर दिया था। 1960 के दशक में एक बार फ़िर पिता ने नौकरी बदली और कॉलेज की चाकरी छोड़ बम्बई में एक फ़ार्मा कंपनी में बतौर ट्रेनिंग मैनेजर जॉइन कर लिया और हम बम्बई आ गए और बाकी शिक्षा यहीं करते हुए बम्बई विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एम ए
(1977) किया ।
अनिता खरबंदा बनीं मैनेजर
1978 में मैनेजमेंट की डिग्री ली और एक कंपनी में बतौर प्रबंधक काम करना शुरु किया। सुबह आठ बजे जाते थे और रात को आठ बजे आते थे। 1980 में बेटे के आगमन के बाद इतने लंबे वक्त तक घर से बाहर रहने के कारण बच्चे के लालन पालन के अनुभव से वंचित रहना खलने लगा। आज की हर नारी की तरह हमारे भी व्यक्तित्व के दो रूप थे, एक तरफ़ जहां अच्छी मां और अच्छी ग्रहिणी होने की लालसा जोर मारती थी वहीं दूसरी ओर अपने कैरियर के प्रति पूरी तरह समर्पित थे। नौकरी की वजह से बच्चे को बढ़ता देखने का सुख हम तीन साल तक न भोग सके, इसका मलाल आज भी है। ये सुख दोबारा भोगा मेरी मां ने।
दो नावों की सवारी-मैनेजरी भी और टीचरी भी
जब बच्चा तीन साल का हुआ और उसके स्कूल जाने का समय आया तब हमने कॉलेज की नौकरी पकड़ ली। तन्ख्वाह ऑफ़िस की नौकरी से कम थी, पर मन में सकून था कि हम अपने बच्चे की जिन्दगी में शामिल हो गए हैं। कॉलेज की नौकरी शुरु में इतनी आसान न थी हमारे लिए, एक तो एमए करने के बाद पांच साल बाद फ़िर से मनोविज्ञान की किताबों को हाथ लगा रहे थे, इन पांच सालों में सब भूलभाल गए थे और दूसरा पहले एक साल हमने कॉलेज की नौकरी ( जो पहले पॉर्ट टाइम मिली थी और अस्थायी थी ) के साथ अपनी दफ़्तर की नौकरीभी निभाई। एक साल सुबह 7।30 से 9।30 तक क्लास ले कर फ़िर भागते हुए लोकल ट्रेन पकड़ कर चैंबूर से वीटी जाते थे, फ़िर स्टेशन से 15 मिनिट चल कर दफ़तर पहुंचते थे, 6 बजे तक ऑफ़िस और फ़िर वही ट्रेन, ऑटो के सफ़र करते शाम साढ़े सात/आठ बजे घर, बेटा पास ही में मां के घर छोड़ा होता था। घर आ कर थोड़ी देर बच्चे के साथ बतिया कर फ़िर देर रात तक बैठ दूसरे दिन के लेक्चर तैयार करते थे। ऐसे में हमारे परिवार ने हमारा बड़ा साथ दिया। दूसरे साल से हमें स्थायी कर दिया गया और नौकरी भी फ़ुल टाइम हो गयी तब हमने ऑफ़िस की नौकरी छोड़ दी और एमफ़िल किया।
टीचिंग ज़िंदाबाद ...
कॉलेज की जिन्दगी में हम ऐसे रमे जैसे मछ्ली पानी में। आज भी पछ्तावा होता है कि बेकार में अपनी गलत सोच की वजह से पाच साल बर्बाद कर दिए पहले ही से टीचिंग में आ जाना चाहिए था। बाहर से टेप रिकॉर्डर जैसी दिखने वाली नौकरी दरअसल अपने अंदर इतनी संभावनाएं छुपाए होती है और हर नये विद्धार्थी की सोच संवारना अपने आप में एक अलग ही आंनद देता है। कॉलेज में आकर हमारे व्यक्तित्व को भी कई नये आयाम मिले । लगा मेरे अपने कॉलेज के दिन वापस आ गये हों।
गुज़रा हुआ ज़माना...
कॉलेज के जमाने से ही हमें किताबों से बहुत प्यार था, लायब्रेरी हमारे लिए दूसरे घर जैसी होती थी। ऑफ़िस की नौकरी में हम किताबों से दूर हो गये थे, अब वो दिन फ़िर से लौट आए और हमें ऐसा लगा कि हम जैसे बहुत सालों बाद अपने घर लौट आये हों। वैसे तो कॉलेज के दिनों में हम हिन्दी मंच पर काफ़ी सक्रिय रहे, कभी कविता तो कभी इप्टा द्वारा आयोजित इंटरकोलिजिएट नाटक प्रतियोगिता में पुरुस्कृत होते रहते थे। पर धीरे धीरे हिन्दी का साथ छूटता चला गया और मनोविज्ञान की अंग्रेजी किताबें ज्यादा हाथ में रहने लगीं।
डायरी , कविता और ‘वो’ खास दोस्त
बचपन से ही हम अति संवेदनशील रहे हैं, मतलब खाल कभी मोटी नहीं रही, जरूरी बात है कि खरोंचे/ चोटें दिल पर अक्सर खाया करते थे और उससे होने वाला दर्द डायरी के पन्नों पर उतार दिया करते थे। खाल अब भी मोटी नहीं हुई तो आज भी शब्द कविता के रुप में फ़ूटते रहते हैं। पर हमारी डायरी सिर्फ़ हम तक ही सीमित थी, किसको दिखाते? ले दे कर एक ही तो अतरंग मित्र हैं हमारे पति पर वो तो दक्षिण भारतीय हैं (जी हां प्रेम विवाह) बम्बई की चालू हिन्दी ही समझते हैं। जिन्दगी यूं ही गुजर रही थी।
...और फिर कम्प्यूटर से जुड़ाव
बदलते वक्त के साथ कदम से कदम मिला कर चलने की पूरी कोशिश कर रहे थे, कंम्प्यूटर की सिर्फ़ बेसिक जानकारी थी, जब भी अपने लड़के को (जो अब 27 साल का हो गया है) घेर घार कर सीखने की कोशिश करते, लड़का हमारी सीखने की चीटीं जैसी रफ़्तार से चिढ़ जाता और काम का बहाना कर चला जाता, और सीखना वहीं का वहीं रह जाता। हम बेसिक से काम चला रहे थे। टीवी की बहुत लत थी हमें उन दिनों।
[ बाकी हाल अगली कड़ी में । ये सिलसिला आपको कैसा लगा ज़रूर बताएं ]
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प्रस्तुतकर्ता
अजित वडनेरकर
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बकलमखुद
Sunday, March 9, 2008
बटुए में हुआ बंटवारा [ जेब- 3 ]
धनसंपत्ति हमेशा पारिवारिक कलह की वजह बनती है और इसकी वजह से अक्सर घर टूटते हैं। अब चाहे अकूत सम्पदा की बात हो या बटुए में समाने लायक लक्ष्मी की, परिजनों में झगड़ा तभी शांत होता है जब बंटवारा होता है। अनादिकाल से विभाजन के जरिये ही सम्पत्ति विवाद सुलझाए जाते रहे हैं -न्यायिक तौर पर भी। पौराणिक आख्यानों में यही दर्ज है। दरअसल बंटवारा एक व्यवस्था का नाम है । देखते हैं बटुए और बंटवारे की रिश्तेदारी ।
विभाजन के लिए संस्कृत में एक धातु है वण्ट् जिसका अर्थ है अंश, खण्ड, हिस्सा आदि। इससे बने वण्टः में भी यही भाव समाहित हैं। वंण्ट से ही बने हैं विभाजन से संबंधित कई शब्द मसलन बांटना, बंटवाना, बंटवारा , बंटवार, बटनिया आदि। भूमि बंदोबस्त की एक प्रणाली को बंटाई या बटाई कहते हैं और यह आज भी जारी है। इसके तहत उपज के एक हिस्से के बदले भूस्वामी किसी को भी अपनी ज़मीन पर काश्त करने देता है। बांटने वाले को बंटैया भी कहते हैं। किसी योजना का सत्यानाश होना या चौपट होना बंटाधार कहलाता है। दो जनों को लड़ा कर अपना फायदा देखना बंदरबांट होती है। इसका राजनीतिक अर्थ फूट डालो और राज करो जैसे मुहावरे में साफ है। इन मुहावरों मे भी विभाजन सूचक वण्ट् ही नज़र आ रहा है। आजादी के बाद जब हिन्दी का सरकारीकरण शुरु हुआ तो आवंटन जैसा शब्द सामने आया । इसमें भी अंश या खण्ड वाला अर्थ स्पष्ट है। किसी भूखंड, राशि अथवा अनाज के कोटे के संदर्भ में अक्सर आवंटन शब्द हम अखबारों में पढ़ते हैं।
रुपए – पैसे रखने के लिए अक्सर हम मनीबैग का उपयोग करते हैं मगर बोलचाल की भाषा में इसके लिए बटुआ या पर्स शब्द का ही प्रयोग ज्यादातर होता है। उसमें भी पर्स शब्द का इस्तेमाल बटुए की तुलना में कहीं ज्यादा होता है। यह बटुआ भी इसी वंट की उपज है। पर्स या बटुए की क्या खासियत होती है ? इसमें अलग अलग खण्ड या हिस्से होते हैं। वण्ट् धातु का अर्थ ही है विभाजन, खण्ड या हिस्से। इसी खासियत की वजह से वण्ट् से बना वण्टकः जिसे हिन्दी में बटुआ नाम मिला। बटुए आज भी चलन में हैं और महिलाएं शौक से इन्हें इस्तेमाल करती हैं। इसमें रूपए पैसे अलग अलग रखने की सुविधा के चलते ये कभी चलन से बाहर नहीं हुए। बटुआ मराठी में बटवा, गुजराती में बटवो के रूप में प्रचलित है।
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Saturday, March 8, 2008
टेंट भी ढीली और खीसा भी खाली...[ जेब- 2 ]
जेब के अर्थ में हिन्दी में एक और शब्द प्रचलित है वह है खीसा । इस शब्द का प्रयोग हिन्दी के अलावा गुजराती और मराठी में भी होता है। मराठी में खीसा की जगह खिसा का प्रचलन है। मज़ेदार बात ये कि मराठी में कई बार खिसा-पाकिट एक साथ भी बोलने का प्रचलन है। ये ठीक वैसा ही है जैसे ढोर-डंगर या बाल-बच्चे का प्रयोग । बहरहाल, इस शब्द की पैदाइश भी सेमेटिक मूल की धातु की-स से ही हुई है। अरबी भाषा में इसका रूप है कीसः या कीसा जिसका मतलब होता है एक छोटी थैली या जेब। मज़ेदार बात ये है कि अरबी में इसका उच्चारण किसा की जगह साख ही बोला जाता है। अरब हमलावरों के इसी उच्चारण के चलते हिन्दी में भी खीसा शब्द बोला जाने लगा होगा। हिब्रू में इसका रूप है किस्स, सीरियाई में केसा, फारसी में किसे और आरमेइक में किस है। जाहिर है कि उर्दू – हिन्दी में इसका उच्चारण कीसा या खीसा हुआ। जेब की तुलना में हालांकि खीसा शब्द हिन्दी में कम बोला जाता है मगर इसे अप्रचलित शब्द नहीं कहा जा सकता है।
खीसे के ही अर्थ में एक और शब्द मशहूर है वह है टेंट । कहानी-किस्सों में और बोलचाल की भाषा में अक्सर एक मुहावरे के रूप में इस शब्द को सुना-बोला जाता रहा है टेंट खाली होना(करना), टेंट ढीली करना (कराना) या टेंट में कुछ न होना। गौरतलब है कि ये सभी मुहावरे ठन-ठन गोपाल की ओर ही इशारा कर रहे हैं और जता रहे हैं कि भरी जेब हमेशा खाली होती जाती है। टेंट का मतलब भी वस्त्र के साथ बांध कर रखी जाने वाली कपड़े की थैली से है। गौरतलब है कि यह उस शब्द उस काल से संबंधित है जब पतलून का चलन नहीं था और आमतौर पर पुरुष धोती ही बांधते थे। टेंट की व्युत्पत्ति हुई है संस्कृत के तन्त्रकः से जिसका अर्थ है सूत से बना कोरा कपड़ा, या सिला हुआ कपड़ा। तन्त्रकः की मूल धातु है तन् जिसमें ढकने, फैलाने, छुपाने के भाव निहित हैं।
[ ज्यादा जानकारी के लिए यहां देखें। ]
तन्तु या रेशा भी इससे ही बने हैं। जाहिर है तन्तु से ही बनता है कपड़ा। गौरतलब है कि टेंट में अर्थात जेब में रुपए छुपाए ही जाते हैं। जेब से टेंट का अंतर इतना ही है कि यह एक ऐसी थैली है जिसका मुंह एक धागे की सहायता से आसानी से बंद किया जा सके। प्राचीनकाल में इस थैली को वस्त्र के अंदर खोंस लिया जाता था या कमर से बांधा जाता था । कालांतर में इसका प्रयोग जेब के अर्थ में आम हो गया ।
इस कड़ी के तीसरे पड़ाव में मिलते हैं इसी सिलसिले वाले कुछ और शब्दों से। ये पड़ाव कैसा लगा , ज़रूर बताएं।
आपकी चिट्ठियां -
सफर के पिछले तीन पड़ावों- पॉकेटमारी नहीं जेब गरम करवाना, बुरी बात नहीं शक्कर में मिलावट और विमर्श में घुमक्कड़ी भी है ज़रूरी पर सर्वश्री पंकज अवधिया ,संजय, दिनेशराया द्विवेदी, जोशिम(मनीष),तरुण, प्रमोदसिंह, माला तैलंग, डॉ चंद्रकुमार जैन, संजीत त्रिपाठी, अनूप शुक्ल, चंद्रभूषण, अनिताकुमार, सुजाता , उड़नतश्तरी, आशा जोगलेकर और सुईतुर की टिप्पणियां मिलीं। आप सब का बहुत बहुत शुक्रिया।
@दिनेशराय द्विवेदी,संजीत त्रिपाठी ,तरुण -
आप सबकी काव्यात्मक टिप्पणी ने समा बांध दिया। मगर पाजेब का ताल्लुक फिर भी जेब से नहीं हो सका :-)
@चंद्रभूषण-
नायाब जानकारी के लिए धन्यवाद चंदूभाई। अलजेब्रा भी अरबी के अल-जब्र से ही बना है।
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Friday, March 7, 2008
पॉकेटमारी नहीं जेब गरम करवाना ! [ जेब- 1 ]
रोज़मर्रा की बोली में जिन शब्दों का इस्तेमाल खूब होता है उनमें एक है जेब । जी हां वही जेब जिसे हम सब भरी रखने के जतन में दिन रात खटते हैं मगर वो तब भी खाली ही रहती है । घर गिरस्ती की ज़रूरतें कभी इसे भरी नहीं रहने देतीं, इसीलिए ग़ालिब साहब को भी कहना पड़ा था कि-हमारी जेब को अब हाज़ते रफ़ू क्या है ?
जेब शब्द की आमद हिन्दी में उर्दू-फारसी के ज़रिये हुई। यह मूलतः सेमिटिक भाषा परिवार का शब्द है और इसकी व्युत्पत्ति ज-ब धातु से हुई है जिसका मतलब होता है बटुआ। अरबी ज़बान में इसके लिए अल-जेब और जिब जैसे शब्द हैं। हिब्रू में इसके लिए जुबा शब्द मिलता है जिसका मतलब है पैसा। जाहिर है पैसे का ताल्लुक जेब से ही है। अरब में एक खास पोशाक का नाम भी जुबाह है जो शेरवानीनुमा लम्बी होती है । जेब का रिश्ता जुबाह से साफ-साफ जुड़ रहा है। जेब शब्द से जुड़े और भी कई शब्द रोज़मर्रा मे आम बोले-सुने जाते हैं जैसे जेबकट, जेबकतरा, जेबतराश , जेबी, जेबखर्च आदि। हिन्दी में जेब का इस्तेमाल इतना आम है कि कई मुहावरों में इसके प्रतीकार्थ इस्तेमाल होते हैं मसलन जेब खाली होना, जेब ढीली करना, जेब काटना, वगैरह वगैरह। सभी का रिश्ता धन की हानि या धन की प्राप्ति से ही है। जेब गरम करना जैसा मुहावरा रिश्वत के लेन-देन से जुड़ा है । गौरतलब है कि रिश्वत भी समाज में अनादिकाल से जुड़ी है मगर अंग्रेजी शासनकाल में इसने सामाजिक संस्कृति के तौर पर पहचान बनाई और अब तो तनखा से नहीं बल्कि रिश्वत से जिसकी जेब भरी रहती है ,उसका रुतबा ज्यादा ऊंचा माना जाता है। सरकारी कारिंदे की जेब गरम करने में चाहे ग़रीब की जेब ढीली हो जाए मगर कारिंदे को जेबतराश हरगिज़ नही कहा जा सकता। एशिया यूरोप के कई मुल्कों में जेब शब्द प्रचलित है मगर इसके रूप अलग अलग हैं । देखे-हिब्रू में गेव, अल्बानी में ज़ेप, बुल्गारी में झ़ेब, सर्बियाई में द्जेप,अज़रबैजानी में सिब, हंगारी में ज्सेब, तुर्की में सेप और ग्रीक में त्सेपी जैसे शब्द हैं जो मूल रूप से अरबी जेब के ही रूप हैं।
जेब के लिए हिन्दी में एक और शब्द प्रचलित है पॉकेट । वैसे यह अंग्रेजी का शब्द है मगर बोलचाल में सभी भारतीय भाषाओं में धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है। पॉकेट का एक और प्रचलित रूप पाकिट भी है। हिन्दी में जेबखर्च के लिए पॉकेटमनी शब्द खूब चलता है। इसी तरह किताबों के गुटका संस्करण के लिए पॉकेट बुक , पॉकेट गाइट, पॉकेट डिक्शनरी जैसे शब्द भी नई पीढ़ी में प्रचलित है। इसकी व्युत्पत्ति जर्मनिक की पुक धातु से हुई है जिसका मतलब है पोशाक के साथ सिली हुई छोटी जेब। इसके कई रूप यूरोपीय भाषाओं में अलग-अलग उच्चारण के साथ मिलते हैं। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान दुश्मन से छीने गए इलाकों के लिए ब्रिटिश फौज में पॉकेट शब्द का इस्तेमाल शुरू हुआ । आबादी की बसाहट के संदर्भ में आधुनिक नगरनियोजन की शब्दावली में भी इसका प्रयोग किया जाने लगा है। पॉकेट शब्द ने भी खालिस देशी अर्थ में मुहावरों मे जगह बनाई मसलन पॉकेटमार, पॉकेटमारी वगैरह।
इसी कड़ी से जुड़े कुछ और शब्दों की चर्चा होगी अगली कड़ी में।
(पेश है पुराने दौर की फिल्म पॉकेटमार (1956) का यह गीत जिसे तलत और लता ने गाया है। फिल्म का संगीत मदनमोहन ने दिया था और गीत लिखे थे राजेन्द्रकृष्ण ने। फिल्म के खास किरदार थे देवआनंद और गीताबाली) आपकी चिट्ठियों का हाल सफर के अगले पड़ाव पर । फिलहाल इस गीत का आनंद लीजिए।
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प्रस्तुतकर्ता
अजित वडनेरकर
13
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पर
2:33 AM
Thursday, March 6, 2008
बुरी बात नहीं शक्कर में मिलावट...
मिठास में छिपे हैं कई मुल्कों के भी नामगुड़ के परिशोधित रूप शक्कर का जन्मस्थान भारत है। हिन्दी में इसके चार रूप मिलते हैं। शक्कर, शुगर , चीनी और मोरस। शक्कर शब्द संस्कृत के शर्करा से निकला है जिसके मायने हैं चीनी, कंकड़ी-बजरी, बालू-रेत या कोई भी बड़ा कण। इसी वजह से संस्कृत में ओले के लिए जलशर्करा जैसा शब्द भी मिलता है। जाहिर सी बात है शक्कर के क्रिस्टल या रवेदार गुण की वजह से ही इसे शर्करा कहा गया होगा। गौरतलब है बेईमान कारोबारी अगर शक्कर में सफेद बजरी की मिलावट करते हैं तो क्या गुनाह करते हैं। आखिर शर्करा में शर्करा ही तो मिला रहे हैं ! अब आपके दांत अगर इससे करकराने लगें तो अलग बात है।
शर्करा ने अरबी जबान में सुक्कर का रूप लिया वहीं फारसी में जाकर यह शकर हो गई । समूचे युरोप में अरबी के जरिये ही इसका प्रवेश हुआ। यह लैटिन मे succharum कहलाई । अंग्रेजी में शुगर और सैक्रीन जैसे रूप भी बने। यही नहीं, रूसी में साख़ार, जर्मन में जुकर और फ्रेंच में सकर जैसे शब्द बनें। अरबी-फारसी के शकरकंद के पीछे भी यही शर्करा
मौजूद है। यही नहीं भारत के अलग-अलग इलाकों में भी इसके कई रूप हैं जैसे कश्मीरी में शकर, गुजराती में साकर, मराठी में साखर और सिन्धी में हकुरू आदि । बाद में शुगर क्यूब, ब्राऊन शुगर जैसे अन्य नाम भी सामने आए। भारत में शकर के असंशोधित रूप को खांडसारी भी कहते हैं।
अब बात चीनी की । जैसा की नाम से ही जाहिर है शक्कर का यह रूप चीन की देन है। एकदम सफेदझक दानों वाली शकर से परिचित हुए तो उन्होंने जाना कि अंग्रेज इसे चीन में बनाते हैं, बस तभी से इसका एक नाम चीनी भी होगया। पूरब में शकर को एक नाम मोरस भी मिला हुआ है। गौरतलब है कि मारीशस में जब करीब ढाई सौ साल पहले अंग्रेजों ने गन्ने की खेती शुरू की तो पूर्वी भारत से हजारों किसानों को गन्ना श्रमिक बना कर मारीशस भेजा गया। मारीशस ही नहीं , फिजी, गुयाना, वेस्ट इंडीज़, केन्या आदि कई देशों में गन्ना उगाने भारतीय मजदूर गए। चूंकि ये एक खास एग्रीमेंट पर वहां भेजे गए थे जिसे देशी ज़बान में गिरमिट कहा जाने लगा और इन श्रमिकों को गिरमिटिया मजदूर का नाम मिल गया। बहरहाल बात मोरस की चल रही थी। शक्कर के मोरस नामकरण के पीछे भी एक देस यानी मारीशस का नाम छुपा हुआ है। शकर की सफेद डली को मिश्री कहा जाता है । इसके पीछे भी इजिप्ट यानी मिस्र का नाम छुपा है। वहां से बनकर आने वाली शक्कर को चीनी की तरह ही देशी नाम दे दिया गया।
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
प्रस्तुतकर्ता
अजित वडनेरकर
10
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पर
3:04 AM