Sunday, August 31, 2008
अरे यार क्या मस्त टांगें हैं ![बकलमखुद-67]
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 21 कमेंट्स पर 2:17 AM लेबल: बकलमखुद
Saturday, August 30, 2008
सिक्काः कहीं ढला , कहीं चला [सिक्का-1]
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 8 कमेंट्स पर 3:29 PM लेबल: business money
Friday, August 29, 2008
बंद कमरे में कैमरे की कारगुज़ारियां
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 18 कमेंट्स पर 4:33 AM
Thursday, August 28, 2008
कानून का डंडा या डंडे का कानून
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 14 कमेंट्स पर 4:03 AM
Wednesday, August 27, 2008
सोने की रंगत, सोने का मोल...
मोटे अनुमान के मुताबिक ज़ाफ़रान के करीब दो लाख फूलों से सिर्फ आधा किलो केसर प्राप्त होता है। ज़ाफ़रान दरअसल फूलो के सुनहरे – पीले तंतु होते हैं जिनके निराले रंग, अनोखी महक और अनमोल औषधीय गुणों की वजह से इस वनस्पति को बेशकीमती सोने का रुतबा मिला हुआ है।
आपकी चिट्ठियां |
शब्दों के सफर की पिछली दो कड़ियों-ज़रूरी है नापजोख और मापतौल...और ज्ञ की महिमा - ज्ञान, जानकारी औरनॉलेज पर कई साथियों की प्रतिक्रियाएं मिलीं। खासतौर पर ज़रूरी है नापजोख और मापतौल...पर अभय तिवारी, स्मार्ट इंडियन और कात्यायान की प्रतिक्रियाएं बेहद ज़रूरी थीं। स्मार्ट इंडियन Rama Myfreetvsite.com Lavanyam - Antarman कुश एक खूबसूरत ख्याल रंजना [रंजू भाटिया] Dr. Chandra Kumar Jain अनुराग अभिषेक ओझा अभय तिवारी katyayan अनूप शुक्ल Udan Tashtari दिनेशराय द्विवेदी Arvind Mishra सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी हर्षवर्धन Gyandutt Pandey Mrs. Asha Joglekar. |
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 14 कमेंट्स पर 2:17 AM
Tuesday, August 26, 2008
आगे भगवान मालिक है....[बकलमखुद-66]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और चौसठवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।
इन्टर्नशिप और डब्बे का लकी होना:
बंगलोर से जिंदगी की पहली इन्टर्न करके लौटा था, प्रोफेसर की शाबाशी और ८,००० रुपये मिले थे २५ दिन के काम के. खुशी खूब थी प्रोफेसर साहब ने ऐसा लैटर लिख के दिया था की लोग बोलते क्या खिला के पटाया:-) कुछ और पैसे मिलकर ३५००० में हम कम्प्यूटर (डब्बा) ले आए. अपने कम्प्यूटर से ऍप्लिकेशन भेजा और ९ वें दिन स्विस से लैटर आ गया, खूब पैसे मिलेंगे ये भी लिखा हुआ था. यहाँ तक तो ठीक लेकिन इसके बाद अजीब घटना हुई, जिसकी भी इन्टर्न की काल आती सब ऍप्लिकेशन मेरे डब्बे से ही गई होती. और किसी ने ये भी हल्ला कर दिया की कवर लैटर और रिज्यूमे ओझा से ही लिखवाओ. तो डब्बे के साथ-साथ हम भी रिज्यूमे-गुरु बन निकले. यहाँ तक भी ठीक पर कुछ लोगों को तो इतना भरोसा था (खासकर एक मेरे करीबी मित्र गुप्ता को) की इस डब्बे से असाइंमेंट बना के भेजो तो कभी कम नंबर नहीं आ सकते, एक बार उनके टर्म पेपर को बेस्ट घोषित कर दिया गया तब से बेचारे कुछ भी करते मेरे डब्बे से ही, उनका डब्बा बेचारा तरसता रह जाता. कुछ इसी तरह की घटना हुई प्लेसमेंट के टाइम पर मेरा बेल्ट चल निकला, हाल ये था की मुझे नहीं मिल पाता था पहनने को :-) मेरा रूम वैसे ही अड्डा था चर्चा का, मैं सो रहा होता तो भी रूम में २-४ लोग होते ही. अब ये एक और कारण हो गया भीड़ का.
मेरी बेटी कैसी रहेगी:
हम्म... इसका शीर्षक ही रोचक है. तो चलिए बता ही देता हूँ, आईआईएम बंगलोर में दोबारा काम करने गया. पहली बार जिस प्रोफेसर के साथ काम किया वो भारत के जाने माने विद्वान् हैं. ज्यादा नहीं बता सकता, बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं मेरे उनसे, और वो जानी-मानी हस्ती हैं, सब बंटाधार हो जायेगा. जब दूसरी बार गया तो उनसे फ़िर मिलना हुआ. एक दिन गया तो खूब देर तक बात हुई, मैं क्या कर रहा हूँ, भविष्य के क्या प्लान है उन्होंने भी अपने बेटे की तस्वीर दिखाई जो अभी लन्दन में पढ़ाई कर रहा था. सब कुछ ढंग से चलता रहा, फिर उन्होंने मेरी उम्र और घर वालो के बारे में बात चालु की मुझे कुछ भनक नहीं लगी. बात होते-होते अंत में उन्होंने कहा की 'Actually I have a daughter to marry and she is as old as you are.' अब चालु हुई बात... अपनी बेटी के बारे में भी बताया उन्होंने, जो उन्हें चाहिए था सब मुझमे और मेरे परिवार में था बस उम्र कच्ची थी मेरी और पढ़ाई बाकी. मेरे पसीने छूट गए. मैं क्या कहूँ कुछ समझ में नहीं आया, मैंने कहा की ये काम मेरे माता-पिता का है मेरा नहीं. और वैसे भी अभी मुझे बहुत दिनों पढ़ाई करनी है. अभी कैसे कुछ कह सकता हूँ. जो भी हो चर्चा होती रही और ये फैसला लिया गया की मैं अपनी पढ़ाई पूरी करुँ और बाद में कभी मिलना हुआ तो मैं अपने माता-पिता का नंबर उन्हें दूंगा. (मैं लड़कियों को पसंद क्यों नहीं आता, उनके पिताओं को आता हूँ.. बहुत समस्या है !) फिलहाल वो बात उसके बाद बस एक बार और छिडी तब से नहीं... आगे भगवान मालिक है !
अन्तिम वर्ष:
आईआईटी के यादगार दिनों में आया अन्तिम वर्ष. वो सब कर डाला जो अब तक नहीं किया था... फाइनल परीक्षा के एक दिन पहले रात के २ बजे तक सिनेमा हॉल में, रात के २ बजे गंगा किनारे हो या जीटी रोड के ढाबे. घुमने का मन किया तो उत्तर पूर्व भारत घूम आए. चार साल में जितना पैसा खर्च नहीं किया था आखिरी सेमेस्टर में उडा दिया. मेस में खाना खाए हुए १५ दिन हो जाते. एक भी फ़िल्म रिलीज़ हो और हम सिनेमा हॉल में देख के न आयें ऐसा कभी नहीं हुआ. कानपुर के मित्र और उनकी बाइक... खूब एन्जॉय किया. इस बीच क्लास बंक करने का सिलसिला भी खूब चला. आईआईटी कानपुर की एक अच्छी बात है कि अटेंडेंस जरूरी नहीं है. कुछ प्रोफेसर इसके लिए कुल अंक का प्रतिशत निर्धारित कर देते हैं तो उन क्लास्सेस में जाना पड़ जाता था... उसमें भी अगर ये पता चल जाता की ५-१०% वेटेज है तो फिर यही कोशिश होती की ये ५-१०% कहाँ से लाये जाएँ अपने को तो वैसे भी नहीं मिलने. दो कोर्स ऐसे भी किए जिनमें कुल मिला कर दो बार ही गया. एक कोर्स में तो हद हो गई जब दुसरे मिड सेमेस्टर कि परीक्षा हो रही थी और मैं इंस्ट्रक्टर को ही नहीं पहचानता था. पर दोस्तों का साथ उनके नोट्स और रात भर की पढ़ाई इन दोनों कोर्स में अच्छे ग्रेड लगे. [जारी]
गांव में बच्चों के बीच यूं बच्चा बन जाने में कितना आनंद है ! हां, जब मनचाहे तब बड़प्पन झाड़ने से भी कौन रोकता है ! | |
आईआईटी ,कानपुर में साथियों के साथ कुछ यादगार पल... |
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 20 कमेंट्स पर 3:17 AM लेबल: बकलमखुद
Monday, August 25, 2008
राधिका ने कहा , शुक्रिया आपका ...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 13 कमेंट्स पर 3:33 AM
Sunday, August 24, 2008
इश्क की मुंडेर पर , पहुंचे स्विट्जरलैंड [बकलमखुद-65]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और तिरेसठवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।
इस बीच इस सोने की घटना में बहुत खोया... प्रोफेसर साहब कई जगह क्लास लेते तो जिस दिन ऑफिस नहीं जाते मैं बस से जाता, एक दिन ७ बजे की बस से गया तो एक लड़की मिली... ओह क्या हसीन थी, छोडिये ज्यादा नहीं लिखूंगा, उसके फिगर के बारे में तो बिल्कुल नहीं. पर इतना बता दूँ की किस्मत पहली बार इस मामले में काम कर रही थी अक्सर लोग अकेली सीट पर बैठते हैं पर वो आकर बैठी ही नहीं बातें भी करने लगी, उसकी रूचि हिन्दुइस्म और हिन्दुस्तान में बहुत थी और इस मामले में लपेटने में मैं माहिर. पर २-३ दिन के बाद लाख कोशिश कर के भी उठ नहीं पाता ठंड में सोता ही रह जाता, रोज़ कोशिश करता पर ७.२० वाली बस ही मिल पाती... जो सोता है सो खोता है
यादे-स्विस प्रो. ब्राइट की पत्नी मेरिलिन के साथ | |
प्रोफेसर ब्राइट के साथ ब्रेकफास्ट का मज़ा |
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 12 कमेंट्स पर 2:16 AM लेबल: बकलमखुद
Saturday, August 23, 2008
ज्ञ की महिमा - ज्ञान, जानकारी और नॉलेज
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 13 कमेंट्स पर 3:55 AM
Friday, August 22, 2008
क्लास में खर्राटों के दिन...[बकलमखुद-64]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और साठवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।
पहले ही सुन रखा था की बहुत पढ़ाई करनी पड़ती है और बहुत लोग फेल होते हैं यहाँ आया तो पता चला की सही बात है. पर अब एक नई आदत लग गई क्लास में सोने की... और इस आदत ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. खूब मस्ती की. कई बार फेल होते-होते बचे. नींद का मतलब ही बदल गया ऐसे आए न आए क्लास में जरूर आती. पहली रो में बैठकर भी सोता, मेकेनिकल की लैब तक में सोया, इलेक्ट्रिकल की लैब में सोया तो प्रोफेसर ने उठाकर पूछा की क्या तबियत ठीक नहीं है, तो जाओ रूम पे जा के सो जाओ. (उस दिन लैब से निकल कर बहुत मज़ा आया, प्रोफेसर ने ही समस्या सुलझा दी) .
हज्जाम के यहां भी नींद...
नाई के पास बाल कटवाने जाता तो वहीं सो जाता. इलेक्ट्रिकल के एक कोर्स में हर क्लास में क्विज होती बाद में पता चला की इसका वेटेज कम है तो फिर लगातार झुक्का मारा (० अंक पाना) ६-७- क्विज में. मेरी सीपीआई का ग्राफ देखें तो ५.५ से ९.६ तक सब कुछ आया ग्रेड 'ए' से 'डी' तक बस 'एफ' नहीं लगा कभी. कोशिश उसकी भी हुई पर रिलेटिव ग्रेडिंग का कमाल मुझसे भी बड़े उस्ताद होते और मैं पास करता गया. एक बार क्लास में प्रोफेसर ने कहा जिसको पढने का मन नहीं है चले जाओ. मैं उठ कर चला गया. बाद में पता चला की मैं अकेला ही बाहर आया... अगले दिन जा के सॉरी बोला तो प्रोफेसर साहब मुस्कुरा कर रह गए बोले 'उम्र है जी लो'.
दोस्त बहुत अच्छे मिले...
जिनसे दोस्ती को परिभाषित किया जा सके ऐसे-ऐसे दोस्त मिले. रूम पार्टनर इतना अच्छा मिला की लॉटरी से रूम मिलता है इस बात पर भरोसा ही नहीं हुआ. लगा की भगवान ने फैसला दिया की इन दोनों को साथ रखो... सबके साथ हंसते-खेलते जिंदगी के हसीं दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला. दोस्तों का मजाक खूब उडाया, थोडी बहुत राजनीति भी की... किसी में झगडा होता तो अधिकतर दोनों तरफ़ रहता. खेलना कूदना पहले कभी हुआ नहीं था यहाँ स्वीमिंग की और खूब की. दुनिया देखना भी यहीं से चालु हुआ. इन सब के बीच महात्वाकांक्षा कभी कम नहीं हुई... कभी-कभी मन करता की सारे संसार का ज्ञान ले लूँ, रात-रात भर गूगल सर्च करके पढता.एक-एक समय पर चार-चार प्रोजेक्ट पर काम करता... फ्रॉड भी खूब मचाता. ४ इन्टर्नशिप कर डाली दो बार आईआईएम बंगलोर गया, दो बार स्विस. मैंने अपनी प्रोफाइल में एक लाइन लिखी है 'जहाँ भी गया लगा उसी के लिए बना हूँ', जहाँ भी गया ऐसा घुला-मिला की लगता था की यहीं के लिए बनाया गया हूँ. काम अच्छा हो न हो दोस्ती खूब होती जिन भी प्रोफेसर के साथ काम किया सब अच्छे दोस्त बने. लोग कहते हैं की मेरी दोस्ती उम्र में बड़े लोगो से ज्यादा होती है. ये भी नहीं कह सकता की गणित नहीं पढता तो क्या करता.
धर्म में हमेशा से रूचि रही
कई अच्छे दोस्त दुसरे धर्मों से रहे, सब धर्मों के बारे में जानना और इज्जत करना धीरे-धीरे शौक सा हो गया. धार्मिक पुस्तकें भी खूब पढ़ी. आईआईटी में एक बार अभिज्ञानशाकुंतलम लेकर आया तो लाइब्रेरी वाला भी देखने लगा की कहाँ से आ गया ऐसा आदमी. इस बीच भैया का बहुत सहयोग मिला कुछ सोचना नहीं पड़ता महीने के शुरू में खाते में पैसे आ जाते... ये सख्त हिदायत थी की सोचना नहीं है की कहाँ से आ रहे हैं. संयुक्त परिवार की समस्याएं कभी मुझसे नहीं बताई जाती, एक बार माँ बीमार थी ६ महीने तक मुझे नहीं बताया गया. घर गया तो पता चला... तब बहुत गुस्सा आया. लगता है घर वालों के इतनी मेहनत के बाद भी जीवन में कुछ नहीं कर पाया... पर अभी भी महात्वाकांक्षा मरी नहीं है. खैर एक बार स्विस गया तो ५ साल का खर्च निकल गया दूसरी बार लौट के आया तो लाखों में रुपये हो गए खाते में. भगवान ने भी साथ देना नहीं छोड़ा (हाँ लड़कियों के मामले में वही हाल रहा)
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 19 कमेंट्स पर 12:39 AM लेबल: बकलमखुद
Wednesday, August 20, 2008
ज़रूरी है नापजोख और मापतौल...
जोख भी एक क्रिया है जिसका मतलब भी पैमाइश और तौल ही होता है इसमें वस्तु का वज़न, लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई आदि का हिसाब शामिल है। इससे ही जोखना शब्द भी बना है। यह बना है जुष् धातु से जिसमें परीक्षण, चिंतन-मनन, जांच-पड़ताल के अलावा सुखी और प्रसन्न होना जैसे भाव भी शामिल है।
नापतौल भी नाप+तौल इन दो शब्दों से मिलकर बना है। तौल यानी तराजू के एक पलड़े पर बाट या बटखरा व दूसरे पलड़े पर कोई पदार्थ रख कर उसका भार अथवा परिमाण मापना। यह बना है संस्कृत की तुल् धातु से जिसका मतलब होता है मापना, तौलना, ऊपर करना, उठाना, जांच-परीक्षण करना आदि। किन्हीं घटनाओं, वस्तुओं, परिस्थितियों और चिंतन में समानता का आधार ढूंढने को तुलना करना कहा जाता है जो इसी मूल से बना है। इसके अलावा तराजू के लिए तुला, योग्य, समरूप, बराबर के अर्थ में तुल्य, समतुल्य, तुलनीय या तुलना जैसे शब्द या बेमिसाल, अनुपम अथवा बेशुमार के अर्थ में अतुल शब्द भी इसी मूल से निकले हैं।
इसी तरह मापतौल और मापजोख शब्द भी है। इन दोनों में माप शब्द समान रूप से मौजूद है। संस्कृत में एक धातु है मा जिसमें सीमांकन, नापतौल, तुलना करना आदि भाव हैं। इससे ही बना है माप शब्द। किसी वस्तु के समतुल्य या उसका मान बढ़ाने के लिए प्रायः उपमा शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। यह इसी कड़ी का शब्द है। इसी तरह प्रति उपसर्ग लगने से मूर्ति के अर्थ वाला प्रतिमा शब्द बना। प्रतिमा का मतलब ही सादृश्य, तुलनीय, समरूप होता है। दिलचस्प बात यह कि फारसी का पैमाँ, पैमाना या पैमाइश शब्द भी इसी मूल से जन्मा है। बस, वर्ण विपर्यय के चलते माप का पैमाँ हो गया ।
आपकी चिट्ठियां
@अभय तिवारी
जोखिम वाली पोस्ट पर अनुराग रंजना [रंजू भाटिया] राज भाटिय़ा कुश एक खूबसूरत ख्याल radhika budhkar अभिराम Dr. Chandra Kumar Jain Shiv Kumar Mishra मीनाक्षी Udan Tashtari siddharth दिनेशराय द्विवेदी अभय तिवारी Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ravindra vyas Mrs. Asha Joglekar अभिषेक ओझा. आप सबका आभारी हूं ।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 18 कमेंट्स पर 1:34 AM
Monday, August 18, 2008
टीचर्स को पीठ-पीछे गालियां !!![बकलमखुद-63]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और इकसठवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।
स्कूल में कभी नहीं खेला, परेड करने से हमेशा कतराया... एनसीसी नहीं लिया. इसके लिए शिक्षकों से भी खूब पंगा लिया. एक बार फुटबॉल को पैर से मारा, पैर में चोट लग गई तब से दुबारा फुटबॉल को पैर ही नहीं लगाया. कई नए दोस्त बने... पर उस सांवली लड़की के बार लड़की से दोस्ती नहीं हुई. केवल लड़को का स्कूल था. ८ वीं तक गंभीर छात्र के रूप में जाना जाता रहा।
लड़कियां देखने जाते !
९ वीं १० वीं में हमारा ग्रुप था जो लंच में घुमने निकल जाता. हमारे स्कूल के पीछे २ किलोमीटर की दूरी पर लड़कियों का एक स्कूल था. कुछ लोगों ने हमें उधर देख लिया और प्रिंसिपल ने असेम्बली में घोषणा कर दी की कुछ लड़के, लडकियां देखने जाते हैं और अगर ये जारी रहा तो लंच में गेट नहीं खोला जायेगा. शिक्षकों का प्यार अपनी जगह था पर उस उमर में ऐसी शरारतों से नाम जुड़ने का अपना मज़ा होता है. पर कुछ दिनों के बाद ये बंद हो गया और हमारा ग्रुप एक पुराने कुवें से इमली के पेडों से होते हुए पास की नदी तक जाकर लौट आता. खूब चर्चा होती। लगता दुनिया बदल के रख देंगे ! शिक्षको को गालियाँ देते । मैं देता तो लोगों को मजाक लगता, पर गालियाँ तो दिल से मैं भी देता था. स्कूल के एक दोस्त से अनबन हो गई तो उससे फिर कभी बात ही नहीं की. २ महीने पहले बड़ी मशक्कत से नंबर जुगाड़ कर फोन किया और घंटो बात की. उसे भी भरोसा नहीं हुआ पर खूब बात हुई.
तीन नंबर क्यों कटे ?
घर पर पापा अपने होस्टल जीवन की और शरारत की कहानियाँ सुनाते... हम खूब हंसते और सुनते... लोग कहते की लड़कों को बिगाड़ रहे हैं! जीव विज्ञान के अलावा और किसी विषय से कभी भय नहीं लगा भूगोल से थोडी दूरी जरूर रही पर वो भी दूर हो गई थी. साल में बस दो दिन विद्यालय नहीं जाता, उन २ दिनों जिस दिन गाँव से वापस आता, गर्मी और क्रिसमस की छुट्टियों के बाद. शिक्षक कह देते की ये देखो मॉडल उत्तर है तो सातवें आसमान पर पहुच जाता... १० वीं की परीक्षा का केन्द्र मामा के घर के पास पड़ा... परीक्षा देकर गाँव आया और भूल गया, रांची आया तो पता चला की रिजल्ट १० दिनों से निकला हुआ है... ऑटो से आ रहा था वो भी ख़राब हो गया. वहीँ एक चाय की दूकान पर 'आज' अखबार में देखा 'डॉन बोस्को के विद्यार्थियों का उत्कृष्ट प्रदर्शन' उसी में देख लिया की कितना नंबर है और ये भी पता चल गया की राँची टॉप करते-करते रह गया दूसरे नंबर पर. घर पर होने के कारण अखबार में फोटो नहीं आया बस नाम तक ही रहा. इन सब का कोई मलाल नहीं रहा । कभी ये सोचा ही नहीं, परीक्षा भूल कर घर पे बाल्टी के आम खाता... लेकिन गणित में ३ नंबर जो कटे उसका मलाल आज तक है.
आईआईटी की तैयारी
पास हुआ तो अब सोचने का कोई सवाल ही नहीं था इंटरमिडिएट में सेंट जेवियर्स कॉलेज में नाम लिखाने के अलावा, गणित लेना भी तय था. अब देखिये किस्मत: सेंट जेवियर्स ने फैसला लिया की उस बीच में कोई लडकियां नहीं ली जायेंगी :( . खैर छोडिये... ६ महीने तक खूब मस्ती में रहे, स्कूल ड्रेस नहीं पहनना होता... शहर के बीचों-बीच कॉलेज, बैच में लड़किया तो नहीं थी पर बी.एससी., आर्ट्स और कामर्स में एक-से-एक. पुस्तकों पर सोने की आदत पड़ गई... हाँ कक्षा में सोने की आदत अभी भी नहीं पड़ी. दोस्त कम ही बने. फिर पता चला की सब आईआईटी की तैयारी कर रहे हैं. हमने कहा की हम भी कर लेते हैं उसमें क्या है ! फिर पता चला की कोचिंग करनी होती है... ट्यूशन और कोचिंग को बहुत बुरी नज़र से देखता. मौसेरे भाई के यहाँ से किताबे ले आया और पढ़ना चालु कर दिया... समझ में भी सब कुछ नहीं आता और किताबों पर सो जाता. पर भी किस्मत का साथ स्क्रीनिंग में हो गया और हम फूल के कुप्पा हो गए.
और औकात पता चल गई...
हमें लगा की अरे इसमें क्या है अब तो हो ही जायेगा. गणित ही धोखा दे गया और रैंक आ गई ४३०० के आस पास कुछ. अब जा के औकात में आए... टी.एस.चाणक्य की काउंसिलिंग में गए तो डर के ही भाग आए... शरीर में जान नहीं और जहाज पर जायेंगे. डी.सी.इ. की काउंसिलिंग में गया पर एक साल रुकना ही पसंद आया. पर वापस आकर सोचा की एडमिशन भी ले लेते हैं, वैसे ही औकात में तो आ ही चुके थे । तो भौतिकी में बी.एससी. में नाम लिखवा लिया फिर से सेंट जेवियर्स में. नामांकन उस समय कराया जब क्लासेस चालू हो गई थीं. नाम लिखने का कोई चांस ही नहीं था पर उस कॉलेज में एक लड़कों के भगवान रहते हैं फादर डी ब्रावर उनसे साइन करा के हेड को दिया तो झुंझलाते हुए ही सही उन्होंने भी अप्रूव कर दिया. क्लास तो कभी जाता था नहीं, कॉलेज घुमने का मन करता तो चला जाता. लडकियां भी नहीं थी क्लास में। बस २ थी तो अपना कोई चांस भी नहीं दीखता.
गणितज्ञ कम, साईको ज्यादा...
एक दिन विभागाध्यक्ष ने जम के डांट लगा दी की जब आईआईटी जाना है तो यहाँ क्यों नाम लिखवाया बताओ?... जाकर पढ़ाई करो नहीं तो क्लास आओ. उस दिन से कभी गया ही नहीं... बीच में सोचा की गणित ख़राब हुआ था तो गणित ही पढ़ लेते हैं एक जगह गणित की कोचिंग जानी शुरू की शिक्षक गणितज्ञ कम साइको ज्यादा लगता १५ दिन में वो भी छोड़ दिया. स्क्रीनिंग में तो फिर हो गया पर इस बार तय था की अगर मेन में नहीं हुआ तो कोई चारा नहीं था इस बार तो फादर डी ब्रावर भी कुछ नहीं कर पायेंगे. बीच में एसएसबी देने इलाहबाद गए तो पहले राउंड में ही भगा दिया गया. एयरफोर्स का एक फॉर्म भी भरा पापा ने बस इतना ही कहा की तुम्हे तो गणित अच्छा लगता था अब एयरफोर्स में जाने की सोच रहे हो क्या? उसी समय एडमिट कार्ड फाड़ के फेंक दिया. खैर इन सबसे डर लगा पर इनकी नौबत नहीं आई और हम पहुच गए कानपुर. और भी कुछ जगह हुआ पर जहाँ जो पढने की सोचा था वही मिल गया तो फिर कुछ और सोचने का सवाल ही नहीं था. जारी
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 26 कमेंट्स पर 11:09 AM लेबल: बकलमखुद
Tuesday, August 12, 2008
जोखिम उठाएं या न उठाएं !
कैसी विडम्बना है कि प्राचीनकाल मे योगक्षेम की बात करने वाला समाज आज किसी भी तरह का जोखिम न उठाने की सलाह देता है।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 18 कमेंट्स पर 11:15 AM
Monday, August 11, 2008
सुनें राधिका की वीणा और वाणी ...
आइये मिलते हैं राधिका उमड़ेकर बुधकर से। ग्वालियर संगीत घराने की राधिका ने सुरों की दुनिया से अपना रिश्ता विचित्रवीणा नाम के एक ऐसे वाद्ययंत्र से जोड़ा है जो सितार,सरोद, बांसुरी , वायलिन जैसे लोकप्रिय वाद्यों की तुलना में कम जाना-पहचाना है। खासतौर पर महिलाओं के लिए इस विशिष्ट मगर प्राचीन वाद्य को चुनना विरल सी बात है। विचित्रवीणा एक अत्यन्त कठिन वाद्य हैं । इसमें स्वर के परदे नही होते। यह वाद्य शालिग्राम से बजाया जाता हैं और यह आकार में बहुत बड़ा होता
Of a vichitra girl
and her veena
Radhika Umdekar has everything deceptive about her appearance. Her seemingly school-going girl frail looks and a barely audible voice are enough to mislead you into believing that you're meeting an ordinary person. But probe her and you find a girl who has designed her destiny with the extraordinary, by choice. Not only is she the only woman vichitra veena player in the world, she has already made a few modifications in the veena to lend a contemporary sound to this almost-extinct instrument.[डेविड राफेल के ब्लाग पर राधिका के बारे में यहां विस्तार से पढ़ें ]
हैं। इस वाद्य की कठिनता के कारण इसका चलन प्रायः नहीं के बराबर है। राधिका ने इस वाद्य की लोकप्रियता बढाने के लिए इसमें परिवर्तन भी किए हैं। राधिका ने संगीत में ही हाल ही में अपना शोधप्रबंध भी पूरा किया हैं।
ग्वालियर के एक संगीतकार घराने में पली-बढ़ी राधिका ने बचपन से ही संगीत की शिक्षा अपने पिता पंडित श्रीराम उमड़ेकर से पाई। राधिका के सुर सोना बिखेरते हैं। वीणावादन में उन्होंने स्वर्णपदक के साथ कोविद की उपाधि प्राप्त की है साथ ही संगीत में एमए की डिग्री भी स्वर्णपदक के साथ प्राप्त की हैं। आकाशवाणी संगीत प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक हासिल किया हैं। साथ ही कई प्रतियोगिताओ में भी अपनी कला की स्वर्णिम आभा बिखेरी है और सोना पाया हैं। देश के प्रसिद्ध संगीत आयोजनों , तानसेन संगीत समारोह, उत्तराधिकार, स्वयंसिद्धा, हरिदास समारोह, दुर्लभ वाद्य विनोद आदि में वरिष्ठ संगीतकारों की उपस्थिति में राधिका वीणा वादन कर चुकी हैं और उनसे आशीष पाए हैं। उन्हें सुरमणि, संगीत कला रत्न ,नाद साधक जैसे कई सम्मान मिल चुके हैं। राधिका को अभी खूब-खूब आगे जाना है। हमारी उन्हें शुभकामनाएं।
मुझे गर्व है कि वे अब हमारे कुटुम्ब की भी सद्स्य हैं। राधिका मेरे छोटे भाई (मामाश्री के सुपुत्र) अभिराम बुधकर की जीवनसंगिनी हैं और अपने पति , नन्हीं बिटिया के साथ वड़ोदरा में रहती हैं। आपसे अनुरोध है कि एक बार उनके ब्लाग पर ज़रूर जाएं, उत्साहवर्धन करें और फिर चाहें तो उम्दा संगीत की फरमाइश भी करें । उनके वाद्य के बारे में भी जान-समझ सकते हैं। ब्लाग एग्रीगेटर्स पर भी उन्हें जल्दी ही जगह मिल जाएगी ऐसी उम्मीद है। आइये, पहले सुनते हैं राधिका की विचित्र वीणा जिस पर उन्होंने बजाया है राग किरवानी ।
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 19 कमेंट्स पर 2:31 AM
Sunday, August 10, 2008
उसे मुझसे प्यार हो गया था...[बकलमखुद-62]
स्कूल की शुरुआत तो आप सुन ही चुके हैं... पंडीजी जमीन पर बैठा के पढाते... गिनती-पहाडा और भाषा, २५ तक पहाडा का रट्टा... बस अंधों में काना राजा और तेज कहा जाने लगा. कोई बोलता चलो हिसाब करके बताओ कि कितने पैसे बचे... तुरहा को बगीचा दिया और इतने के आम दिए उसने तो अब कितने लेने हैं या फिर खेत की जुताई के कितने पैसे देने हैं... लोगो की चिट्ठी लिखने-पढने भी जाता (चिट्ठी पढने में बहुत मज़ा आता).
रांची आगमन
५वीं तक अंग्रेजी नहीं पढ़नी होती लेकिन ५वीं तक पहुचते-पहुचते बड़े पिताजी ने ८वीं तक की अंग्रेजी रटा दी थी. खूब अनुवाद कराते... अच्छी बात थी की बच्चों को कभी मारते नहीं थे. पूरा गाँव अभी भी उन्हें पंडीजी ही कहता है. हाँ गाली खूब देते हैं और इसे अपनी जमींदारी की पुश्तैनी देन मानते हैं. छठी कक्षा में था तो पहली बार दिल्ली के पढ़े एक भाई-बहन आए और एक स्पेल्लिंग वाले खेल मैं हार गया... अगले दिन से डिक्सनरी हाथ में लेकर चलता और उसके बाद कभी नहीं हारा. ६ महीने के बाद स्कूल छोड़कर रांची आ गया. उस भाई बहन में जो सांवली सी बहन वाला हिस्सा था वो अब भी याद है, मुझे खूब छेड़ती (कहती मुझे अपना भाभी बनाएगी). मुझसे बड़ी थी २-३ साल. कई साल बाद भी लोग कहते की मुझे याद करती रही. कहने वाले तो ये भी कहते की उसे मुझसे प्यार हो गया था... पर उस उमर में ये भी नहीं जानता था की प्यार किस चिडिया का नाम है. पर हाँ सुना है लडकियां ये जल्दी समझने लगती है... पर दुर्भाग्य उसके बाद कभी मिलना ही नहीं हो पाया.
टूटी, केरकेट्टा, नाग, मरांडी...
रांची आने पर जमीन पर बैठकर पढने वाला गाँव का छोरा बेंच पर बैठने लगा श्यामपट्ट की जगह हरे कांच के बोर्ड्स ने ले ली...पंडीजी की जगह सर और मैडम. नाम ऐसे बदले की समझ ही नहीं आते थे... टूटी, केरकेट्टा, नाग, मरांडी, मुंडू, कच्छप, डुंग-डुंग (एक लड़के का नाम था दीपक डुंग-डुंग और उसे हम लोग डी-क्यूब बुलाते). पहले ही दिन एक लड़का मिला नाम मेल्क्योर केरकेट्टा और जिस स्कूल से आया था उसका नाम था 'डॉन बोस्को रुडूनकोचा'. उसकी पूरी जानकारी तो लाख कोशिश करके भी उस दिन नहीं याद हो पायी थी पर अभी तक नहीं भुला. यहाँ आने के पहले यादव, ओझा, चौबे, पांडे और मिश्रा जैसे गिने चुने नाम होते. मास्टरजी बड़े-बड़े हिसाब देते और सही होने पर पीठ ठोकी जाती यहाँ होमवर्क जैसी चीज से पाला पड़ा और पीठ की ठुकाई बंद. 'वह शक्ति हमें दो दयानिधे' और त्वमेव माता' की जगह 'ओ माय फादर इन हेवेन' होने लगा. चार-चार परीक्षाएं होगी सुन के ही डर लगा... पहली परीक्षा के बाद घर पर बताया की २ विषय में लटक जाऊंगा... पर बाद में पता चला की पंडीजी की विद्या यहाँ भी कमाल कर गई और सबको पीछे छोड़ते हुए छोरा फर्स्ट आ गया. फिर पता चला की शाबाशी यहाँ भी मिलती है तो बस पंडीजी की वो विद्या जो गिनती-पहाडा से चालु हुई थी कुछ उसका कमाल और शाबाशी लेने का नशा चार साल तक विद्यालय में सर्वोच्च अंक पाता रहा...
ममता कुलकर्णी की फोटो
कुछ कहानियाँ भी बन गयी... ८ वीं में था तो गणित का पेपर भी चेक किया... इस सिलसिले में कई सहपाठियों से मार खाते-खाते बचा :-) मेरे एक दोस्त के पिताजी ने कहा की ओझा से ज्यादा अंक ले आओ तो बाइक मिलेगी...उस समय की बात कुछ और थी आज वाला होता तो फ़ेल भी हो गया होता. शिक्षकों का भरपूर प्यार मिला, किताबें भी खूब जीती पर साथ में कक्षा में बात करने के लिए खूब डांट भी खाई... सज़ा में सोशल सर्विस के नाम पर.. स्कूल में फूलों की क्यारी भी खूब साफ़ की. स्कूलों के शिक्षक आज भी पहचानते हैं एक बार ममता कुलकर्णी की फोटो वाली एक नोट बुक लेकर स्कूल चला गया एक शिक्षक ने कह दिया 'तुम भी यही खरीदते हो?' उस दिन बहुत बुरा लगा.
प्रेमचंद को घोट डाला ....
इस बीच माँ को गाँव जाना पड़ता था... अधिकतर समय के लिए बिना माँ के भी रहना पड़ता... खूब रोता, खेलने जाना बंद कर दिया, मन ही नहीं लगता..., एकांत से लगाव होने लगा, दोनों भाई छुट्टी के दिन जगन्नाथ मन्दिर की पहाड़ी पर जाकर घंटो बैठते, भिखारियों से लेकर मन्दिर आने वालो की श्रद्धा, स्कूल के शिक्षक से लेकर किताबें, पड़ोसियों के बारे में सब कुछ चर्चा करते. मन बहलाने के लिए किताबें उठा ली, प्रेमचंद को घोट डाला पता नहीं कितनी बार, फिर शरतचंद, अंग्रेजी की बी.ए. की किताबें, शेक्सपियर, मुल्कराज आनंद फिर मिली किशोर उपन्यास श्रृंखला (पुस्तकालय से) लगभग सारी निपटा डाली. पाठ्यक्रम की किताबों की कभी कमी नहीं हुई एक-एक विषय की ५-५ लेखकों की किताबें होती, प्रकाशन वाले पापा को दे जाते उन्हें पता चलता की इनका लड़का इस कक्षा में है तो उस कक्षा की हर विषय की किताब दे जाते.- जारी
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 20 कमेंट्स पर 2:13 AM लेबल: बकलमखुद
Saturday, August 9, 2008
तुर्रमखाँ तूरानी, दुर्र-ऐ-दुर्रानी
अरबी में दुर्र या दुर का मतलब होता है मोती। दुर्र का बहुवचन हुआ दुर्रान इस तरह दुर्र ऐ दुर्रान का मतलब हुआ मोतियों में सबसे बेशकीमती
फोटो साभार-www.afghanland.com/
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 20 कमेंट्स पर 3:58 AM
Friday, August 8, 2008
जालसाज़ी के उपहार का योगदान !
दुनियादारी निभा लेना बहुत कठिन है। इससे घबराकर कई लोगों ने गृहस्थी की राह छोड़ वैराग्य की राह पकड़ी और हो गए बैरागी। मगर क्या बैराग भी इतना आसान है ?
तन को जोगी सब करे , मन को बिरला कोय।
सहजै सब बिधि पाईये, जो मन जोगी होय।।
कबीरदास जी ने इस दोहे में योगी को परिभाषित करते हुए बताया है कि योगियों का बाना और धज बना लेने से कोई योगी नहीं हो जाता। सच्चा योगी वही है जिसका मन ईश्वर में रमा रहे। जोग-बैराग का रंग मन पर कम और तन पर ज्यादा चढ़ाया तो इस लोक से भी गए और परलोक से भी।
प्राचीनकाल में योगदान का मतलब होता था जालसाज़ी से प्राप्त उपहार। पुराने अर्थ में आज योगदान करना या मांगना आफ़त में पड़ना होगा।
चित्र साभार-http://forum.isratrance.com/
योगी शब्द बना है युज् धातु से । योग शब्द भी इससे ही बना है जिसमें जोड़ना, मिलाना, फल परिणाम, चिन्तन-मनन आदि। युज् से ही बने हैं युक्त-युक्ति जैसे शब्द जिसका अर्थ भी जोड़ना मिलाना अथवा तरकीब, उपाय होता है। इस तरह उपचार, चिकित्सा आदि अर्थ भी इसमें शामिल हो गए क्योंकि रोग के निदान के लिए औषधि तैयार करने में किन्ही पदार्थों को आपस में मिलाने (योग) की क्रिया शामिल है। औषधि को यौगिक भी इसी वजह से कहते हैं। बाद में मिलते-जुलते कुछ अन्य अर्थ भी इसमें समाहित हैं जैसे इंद्रजाल, जादू-टोना, छल-कपट आदि। गौर करें कि जादूगर मुख्य रूप से अपने हाथ और मुख की चेष्टाओं से किन्ही वस्तुओं को जोड़ता-मिलाता है (योग) और उससे चमत्कार दिखाता है।
हिन्दी का योगी दरअसल संस्कृत के योगिन से बना है । युज् से बने योगिन् में योग से जुड़े तमाम अर्थों का ही कर्ता अर्थात करनेवाले के रूप में ही विस्तार है। योगिन् यानी चिन्तन-मनन करनेवाला, सन्यासी, महापुरुष, जादूगर, बाजीगर आदि। नाथ योगियों की तांत्रिक क्रियाओं की वजह से योगियों के साथ जादू-टोना आदि क्रियाएं जुड़ गईं। हठयोगियों ने भी इस अर्थ को बढ़ावा दिया। योगिनी शब्द का अर्थ ही तंत्रविद्या है। इनकी संख्या चौंसठ मानी जाती है। जबलपुर में चौंसठ योगिनियों का प्रसिद्ध मंदिर भी है। गांव देहात में सिद्धयोगी बन गया जोगी। इसी वजह से कहावत चल पड़ी घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध। ये जोगी तंत्र-मंत्र के नाम पर चमत्कार दिखाते हुए ज़माने भर में बदनाम भी हुए।
योग में उपसर्गों और प्रत्ययों के लगने से वियोग और संयोग जैसे शब्द भी बने जिनके देशज रूप बिजोग और संजोग भी प्रचलित हैं। योग्य, योग्यता जैसे शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं। सहयोग भी इससे ही बना है। योगदान का अर्थ भी सहयोग होता है इसके अलावा मदद करना, सहायता करना, अंशदान करना आदि भाव भी इसमें समाहित हैं। गौरतलब है किसी ज़माने में योगदान शब्द के मायने ये नहीं थे । योग के छल-कपट, जादू-टोना वाले भाव इसमें प्रबल थे और इस तरह प्राचीनकाल में योगदान का मतलब होता था जालसाज़ी से प्राप्त उपहार। पुराने अर्थ में आज योगदान करना या मांगना आफ़त में पड़ना होगा।