Friday, January 9, 2009

लेबनान का पंसारी [सिक्का-11]

फिनीशियों ने जहां बसेरा किया वह फिनीशिया कहलाया। इस क्षेत्र को आज के लेबनान के रूप में पहचाना जा सकता है। फिनीशी सभ्यता का असर फलस्तीन, इस्राइल,कार्थेज,सीरिया और जॉर्डन में भी रहा।

जि स तरह से वनस्पतियों के प्रसार के लिए परागण की विधियां सहायक होती हैं उसी तरह भाषा के विस्तार और विकास में भी कई कारक सहायक होते हैं जिनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं व्यापार-व्यवसाय। ईसा से भी कई सदियों पहले से भारत के पश्चिमी दुनिया से खासतौर पर दक्षिण-पूर्वी योरप से कारोबारी रिश्ते थे। इन्हीं रिश्तों की बदौलत विशाल क्षेत्र की भाषा संस्कृति भी समृद्ध होती चली गई। पश्चिमी एशिया में एक भूमध्यसागरीय इलाका जिसे आज लेबनान कहा जाता है , भी फिनीशिया कहलाता था। इस क्षेत्र के फिनीशिया नामकरण के पीछे भी वैदिक काल का एक शब्द पणि या पण झांक रहा है और आज भी हिन्दी में यह पणि अपने बहुरूप में मौजूद है।

प्राचीन भारत(ईसापूर्व)में प्रचलित कार्षापण मुद्रा में भी पण ही झांक रहा है। कर्ष शब्द का अर्थ होता है अंकन करना, उत्कीर्ण करना। पण का उल्लेख वैदिक साहित्य में कारोबार, सामग्री, हिसाब-किताब, व्यापार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के अर्थ में आता है। कार्षापण का इस तरह अर्थ हुआ उत्कीर्ण मुद्रा। इससे साफ है कि उत्तर वैदिक काल से लेकर कार्षापण का चलन होने तक पण ही लेन-देन के भुगतान का जरिया थी मगर पण नामक मुद्रा टंकित नहीं थी। धातु के अनघड़ टुकड़ों को ही तब पण कहा जाता रहा होगा। पण से ही निकला पण्य शब्द जिसका अर्थ होता है व्यापारिक सामग्री। हिन्दी-उर्दू में प्रचलित छोटे व्यापारी या दुकानदार के लिए पंसारी शब्द के पीछे भी यही पण्य शब्द है जो बना है पण्य+शाल >पन्नशाल>पंसार के क्रम में। क्रय-विक्रय के अर्थ में विपणन शब्द खूब प्रचलित है गौर करें इसमें झांक रहे पण् शब्द पर। मुंबई के पास पनवेल नामक जगह है जो समुद्र तट पर है। जाहिर है किसी ज़माने में यह सामुद्रिक व्यापार का केन्द्र रहा होगा। पण्य+वेला अर्थात क्रय-विक्रय की जगह के तौर पर इसका नाम पण्यवेला रहा होगा जो घिसते-घिसते पनवेल हो गया।

सा से पांच-छह सदी पहले भारतीय उपमहाद्वीप में पण नाम की ताम्बे की मुद्रा प्रचलित थी। पण का रिश्ता वैदिक पणि से जुड़ता है। पणि शब्द वैदिक ग्रंथों में कई बार इस्तेमाल हुआ है जिसका अर्थव्यापारी, कारोबारी के रूप में बताया गया है। किसी ज़माने में पणि समुदाय भारतवर्ष से लेकर पश्चिमी एशिया तक फैला हुआ था। पणि अर्थात व्यापारी, वाणिज्य व्यवसाय करनेवाले लोगों का समूह किस काल में था इसका अनुमान भी वैदिक कालनिर्धारण से ही होता है क्योंकि इस शब्द का उल्लेख वेदों से ही शुरू हुआ है। जर्मन विद्वान विंटरनिट्ज ईसापूर्व 7000 से लेकर 2500 के बीच वैदिक काल मानते हैं मगर ज्यादातर विद्वान इसे 2500-1500 ईपू के बीच ही ऱखते हैं।

विद्वानों का मानना है कि पणियों और आर्यों के बीच महासंग्राम हुआ था जिसके चलते वे भारत के उत्तर पश्चिमी क्षेत्रों से खदेड़े गए। परास्त पणियों के बड़े जत्थों ने पश्चिम की राह पकड़ी, कुछ बड़े जत्थे दक्षिणापथ की ओर कूच कर गए। शेष समूह इधर-उधर छितरा गए। पश्चिम की ओर बढ़ते जत्थों नें ईरान होते हुए अरब में प्रवेश किया और आज जहां लेबनान है वहां क़याम किया। अनेक भारतीय-पाश्चात्य विद्वानों ने पणियों की पहचान फीनिशियों के रूप में की है। ग्रीक-यूनानी संदर्भों में भी फिनीशियाईलोगों की जबर्दस्त व्यापारिक बुद्धि की खूब चर्चा है। पणि या फिनीशी लोग समुद्रपारीय यात्राओं में पारंगत थे वे महान नाविक थे। गणित ज्योतिष आदि में भी उन्हें दक्षता हासिल थी। किसी ज़माने में भूमध्यसागरीय व्यापार करीब करीब उन्हीं के कब्जे में था। कई सदियों बाद अरब के सौदागरों नें जहाजरानी में अपना दबदबा कायम किया वह दरअसल फिनीशियों की परंपरा पर चल कर ही सीखा। लेबनान, फलस्तीन और इस्राइल का क्षेत्र नृतत्वशास्त्र की दृष्टि से कनान अथवा कैननाइट्स का था। यहूदियों के पुरखे भी कनॉन ही कहलाते हैं। समूची दुनिया में यहूदी भी महान सौदागर कौम के तौर पर ही विख्यात हैं।
पणि या फिनीशी लोग समुद्रपारीय यात्राओं में पारंगत थे वे महान नाविक थे। गणित ज्योतिष आदि में भी उन्हें दक्षता हासिल थी। किसी ज़माने में भूमध्यसागरीय व्यापार करीब करीब उन्हीं के कब्जे में था।

संभव है सिंधु घाटी की सभ्यता के नष्ट होने के पीछे जिस आर्य आक्रमण का उल्लेख किया जाता है वह आर्यों और पणियों के महासंग्राम की शक्ल में सामने आया हो। सिंधु घाटी की सभ्यता व्यापार-व्यवसाय में खूब उन्नत थी। सुदूर सुमेरी सभ्यता से भी उसके रिश्तों के प्रमाण मिले हैं। कई विद्वान उसे द्रविड़ सभ्यता भी मानते हैं। दक्षिण पूर्वी अफ़गानिस्तान के एक हिस्से में ब्राहुई भाषा का द्रविड़ भाषाओं से साम्य यह साबित करता है कि कभी सुदूर उत्तर पश्चिमी भारत में द्रविड़ बस्तिया फल फूल रही थीं। पणि शब्द चाहे हिन्दी में विद्यमान नहीं है मगर द्रविड़ भाषाओं में मुद्रा, धन के अर्थ में फणम्(fanam), पणम् जैसे शब्दों की मौजूदगी से यह पता चलता है कि भारत के उत्तर पश्चिम में पणियों का निवास था। मगर ये सारी अटकलबाजियां ही हैं। कुछ विद्वानों ने तो यादव समुदाय का रिश्ता भी फिनीशियों से जोड़ डाला है। गौरतलब है द्वापर काल में गुजरात के पश्चिमी तट पर यादवों की कई सघन बस्तियां थीं और वे सामुद्रिक गतिविधियों में खूब बढ़े-चढ़े थे। इसके बावजूद खासतौर पर फिनीशियों के भारतीय रिश्तों के बारे में पश्चिमी विद्वान एकमत नहीं हैं। [जारी] पणि और फिनिशियों पर कुछ और चर्चा अगली कड़ी में

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14 कमेंट्स:

Vinay said...

बड़ी रोचक कड़ी है, अगली कड़ी के लिए रास्ता देख रहा हूँ

---मेरा पृष्ठ
गुलाबी कोंपलें

विवेक सिंह said...

रुपया पैसा ओवरडोज हो रहा है थोडा और मसाला बीच में मिलाते रहिए :)

Dr. Chandra Kumar Jain said...

शब्दों पर 'राज' करने वाली लेखनी ने
आज फिर कुछ शब्दों के
नए राज़ खोल दिए.
===============
आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन

दिनेशराय द्विवेदी said...

आज का आलेख बहुत महत्वपूर्ण है और एक लम्बी विकास यात्रा को समेट रहा है। मुद्रा विनिमय से पहले माल विनिमय विद्यमान था। शायद यह विनिमय किए जाने वाला माल ही पण कहलाता रहा होगा, जो उस के अर्थ से भी भासित है। बाद में माल के स्थान पर स्थानीय प्रशासन ने मुद्राओं की व्यवस्था की होगी बेचे गए माल के बदले मिलने के कारण पण ही कही गई होंगी। पर मुद्रा का माल से अनन्य संबंध है।

Smart Indian said...

बहुत अच्छा चल रहा है. आप तो सिर्फ़ सिक्के पर ही एक किताब लिख सकते हैं.

Unknown said...

बहुत ही रोचक लगा...अगली कड़ी जल्द लिखे

दीपा पाठक said...

अजित जी, आज कई महीनों बाद यहां आना हुआ। यकीन जानिए मेरी मनःस्थिति एक अच्छे अध्यापक की क्लास से भांजी मारने वाले विद्यार्थी के जैसी है जिसे मालूम है नहीं आए तो नुकसान खुद का ही होगा। लेकिन गुरू जी आइंदा कोशिश रहेगी कि हर क्लास में उपस्थित रहूं। आप बस स्कूल चालू रखें।

अजित वडनेरकर said...

@दिनेशराय द्विवेदी
आप सही कह रहे हैं दिनेश जी। पण या पण्य शब्द मूलतः क्रय-विक्रय अथवा सामग्री के लिए ही था। वस्तुविनिमय प्रणाली का आधार आरंभिक काल में मूलतः पशु ही थे। सेमेटिक शब्द माल का मूलार्थ भी पशु ही है जो बाद में धन-दौलत के अर्थ में बदला। यह भी संयगोवश नहीं है कि वेदों में आर्यों ने पणियों की भर्त्सना इस तथ्य के लिए भी की है क्योंकि वे पशु-चोर थे....

@दीपा पाठक
शुक्रिया दीपाजी। आप इसे कक्षा की तरह लेंगी तो भांजी मारने का मन तो करेगा ही। सफर ही समझें और चाहे जब शरीक हो जाएं। पुराने पड़ावों का हाल भी जान लें...:)

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट चल रही है. आभार आपका.

@विवेकसिन्ह जी..."रुपया पैसा ओवरडोज हो रहा है थोडा और मसाला बीच में मिलाते रहिए :)

भाई हमको तो रुपया पैसा कभी ओवर्डोज नहि होता, आपके पास कुछ ओवर्डोज हो तो इधर ताऊ के पास खिसका दिजिये, हमारा हाजमा जरा इस मामले मे तगडा है. :)

रामराम

Gyan Dutt Pandey said...

वाह! समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल लेबनान में चुनाव लड़ें!

अजित वडनेरकर said...

विवेक भाई,
श्रंखला में बने रहिए...अक्सर ऐसा होता है जब सफर पूरा होने वाला होता है तभी ऊब भी प्रभावी हो रही होती है।
सिक्कानामा अंत की ओर ही है। बस यही कोई चार-पांच कड़ियां और...

Abhishek Ojha said...

इतिहास और ये श्रृंखला दोनों गवाह हैं कि सिक्के ने हर जगह अपना सिक्का जमाया है !

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

पंसारी का अर्थ भी समझ आ गया . मैं कक्षा ६ मे ही कामर्स का छात्र था अगर उस समय आपके लिखे लेख होते तो वस्तु विनमय ,मुद्रा जैसे विषय मुझे ज्यादा आसानी से समझ आ जाते .

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

पांडे जी की बात मे दम है ,वाह! समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल लेबनान में चुनाव लड़ें!

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