उपयोग व्यापक है और उन्ही में से एक है हेड-शेविंग यानी मुंडन। कृपया आगे स्पष्ट करें कि मुंडन
के लिए राजस्थान में लोक व्यवहार में प्रचलित शब्द 'भदर' के मूल में क्या है?
भदर शब्द मेरे विचार से भद्र से ही बना है जिसकी व्युत्पत्ति भंद् धातु से हुई है। संस्कृत में हजामत या मुंडन के लिए भी भद्राकरणम् शब्द ही है। भंद से बने भद्र के सभ्य, शिष्ट, शालीन, श्रेष्ठ, मंगलकारी, समृद्धशाली, अनुकूल, प्रशंसनीय जैसे अर्थ उजागर हैं। बौद्ध श्रमणों व भिक्षुओं के लिए आदरसूचक भदंत शब्द की व्युत्पत्ति का आधार भी यही है। इसी का अपभ्रंश रूप भंते होता है। ये अलग बात है कि भोंदू, भद्दा जैसे शब्दों का जन्म भी इसी भद्र से हुआ है जो भद्र शब्द की अवनति है। भद्र से कुछ और शब्द भी बने हैं। राजस्थान के श्रीगंगानगर में एक कस्बा है भादरा। दरअसल प्राचीनकाल में यह भद्रा था जिसका नाम स्वर्णभद्रा नदी के नाम पर पड़ा। उत्तर प्रदेश के एक जिले का नाम सोनभद्र भी इसी मूल का हैभद्रा ज्योतिषीय शब्दावली में एक करण का नाम है। पृथ्वी का एक नाम सुभद्रा भी है। पूर्वी क्षेत्रों में भद्र का उच्चारण भद्दर किया जाता है। वहां बलभद्र हो जाएगा बलभद्दर! इसी तरह राजस्थानी में भद्र का भदर रूप बना।
मुंडन दरअसल उपनयन जैसे मांगलिक संस्कार पर हो या मृत्यु संस्कार पर, भद्र अथवा भदर का उद्देश्य अनुकूलन, मंगलकारी ही है। शिशु का मुंडन उसके जन्म के समय के बाल हटाना होता है ताकि नए घने बाल आ सकें इसके पीछे बालों की स्वच्छता का दृष्टिकोण ज्यादा है। ग्रंथों में इसकी कई दार्शनिक व्याख्याएं हैं जिनका संबंध बुद्धि-मेधा की प्रखरता से है। उपनयन अर्थात विद्यारम्भ संस्कार के वक्त मुंडन के पीछे भी यही भाव रहता है कि बालक के व्यक्तित्व में एक विद्यार्थी को शोभा देने वाला गाम्भीर्य, शालीनता, शिष्टता और गरिमा दिखाई पडे। शैशव की चंचल छवि के विपरीत वह शिक्षार्थी जैसा भद्र दिखे इसीलिए विद्यारम्भ के वक्त बटुक का मुंडन संस्कार किया जाता है।
द्विजों में मृत्यु-संस्कार के तहत भी दसवें दिन सबसे अंत में मुंडन का प्रावधान है। उद्धेश्य वहीं है- मृत्यु के दुख से उबरने और समाज के साथ अनुकूल होने की प्रक्रिया का शुभारंभ हो सके। यह सब पिंड दान की रस्म के बाद होता है। पिंडदान की रस्म को भात की रस्म भी कहा जाता है। तर्पण के लिए जो पिंड बनाए जाते हैं वे चावल से बने होते है। चावल के लिए संस्कृत में भक्त शब्द है जिससे भात बना है। दारुण अवस्था में स्वजन की देखभाल व अन्ततः उसके न रहने के वियोग से अस्त-व्यस्त व्यक्ति सिर के बाल कटवाकर व्यवस्थित, शिष्ट और गंभीर नजर आए, भद्र नजर आए। शोकाकुल व्यक्ति को फिर से भद्र बनाने की प्रक्रिया ही भदर कहलाती थी ताकि वह समाज में समरस हो सके। भद्र का अपभ्रंश ही भदर हुआ। इसके तहत
धीरे धीरे हिन्दुओं के प्रायः सभी समुदायों में मुंडन अनिवार्य हो गया और इसे रूढी की तरह किया जाने लगा। हिन्दी क्षेत्रों में पुराने ज़माने में और आज भी भदर/मृत्युभोज की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में किसी भी गरीब परिवार पर बहुत भारी पड़ती है।
मृतक के ज्येष्ट पुत्र के सिर के बाल उतारे जाते हैं। बाद के दौर में हिन्दुओं के प्रायः सभी समुदायों में मुंडन अनिवार्य हो गया और इसे रूढी की तरह किया जाने लगा। हिन्दी क्षेत्रों में पुराने ज़माने में और आज भी भदर/मृत्युभोज की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में किसी भी गरीब परिवार पर बहुत भारी पड़ती है। राजस्थान में किसी ज़माने में राजा के निधन पर पूरी रियासत द्वारा भदर कराने का उल्लेख है।महामहोपाध्याय डॉ पाण्डुरंग वामन काणे लिखित धर्मशास्त्र का इतिहास पुस्तक के अनुसार मुंडन संस्कार के प्राचीन नाम चौल, चूड़ाकरण, चूड़ाकर्म आदि हैं। संस्कृत में चूड़ा का अर्थ होता है सिर पर बंधा केश गुच्छ, शिखा, आभूषण, शिखर, चोटी आदि। चंद्रचूड़ का अर्थ हुआ जिसके सिर पर चंद्र विराजमान हैं अर्थात शिव। सिर पर धारण किए जाने वाले एक आभूषण को चूड़ामणि कहते हैं। भारतीय महिलाओं द्वार कलाई में पहने जाने वाले दुनियाभर में मशहूर आभूषण चूड़ी का जन्म भी इसी मूल से हुआ है। पहले यह चूड़ा ही था, बाद में इसका चूड़ी रूप भी प्रचलित हो गया। केश गुच्छ के लिए जूड़ा शब्द की व्युत्पत्ति कुछ लोग इस चूड़ा शब्द से भी मानते हैं। वैसे जूड़ा शब्द जुट् धातु से बना है जिससे जटा शब्द का निर्माण हुआ है। जुट् शब्द की रिश्तेदारी भी यु धातु से है जिससे सम्मिलित होने, एक साथ होने का भाव है जैसे युक्त-संयुक्त आदि।
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25 कमेंट्स:
भदर शब्द ही पहली बार जाना इस परिपेक्ष में. बहुत आभार इस विश्लेषण का.
हरिद्वार में ही एक जगह है भादराबाद। खलंगा के युध में गोरखा फ़ौज के सेनापति का नाम था बलभद्दर थापा।
यह तो सच ही है मुंडन या कहे बाल कटाने के बाद व्यक्ति भद्र सा प्रतीत होता है . पहले हमारे यहाँ कई उपलक्ष पर मुंडन होता था जैसे आप ने भी लिखा है . जन्म के बाद ,उपनयन संस्कार जनेऊ ,और परिवार में मृत्यु हो जाने पर भी बाल कटवाए जाते हैं। लेकिन अब फैशन के दौर मे यह विलुप्त प्राय है . हां गजनी टाइप टकले सर्वस्त्र नज़र आ जाते है
शीर्षक ही सबकुछ कहता है, कोशिश पूरी है!
---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम
अब तो मृत्युपरांत मुंडन को ही भदर होना कहा जाने लगा है और यह शब्द इस अर्थ में इतना रूढ़ हो गया है कि अन्य प्रकार के मुंडन के लिए इस शब्द का प्रयोग करना अच्छा नहीं माना जाता है।
aap ne bahut hi sundarta se apni baat kahi,iske liye aapko dhanyawaad . aap kabhi hamare blog par aaiye ,aap ka swagat hai.follower ban hame sahyog dijiye.
http://meridrishtise.blogspot.com
पहले बाल दिवस
फिर
मुंडन-संस्कार !
कमाल है सरकार !!
आभार...आभार....आभार !!!
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
बहुत अच्छी जानकारी..
पढ़ कर बहुत कुछ जानने को मिल रहा है.
हम तो अपने कई मित्रों को भी सलाह दे चुके हैं कि कुछ देखो न देखो इस ब्लॉग को जरूर देखो
पोस्ट अच्छी है परन्तु एक संशोधन की आवश्यकता है - "भद्रा" एक करण का नाम है, नक्षत्र का नहीं!
यह ज्योतिष-शास्त्र में ग्रह-गोचर की जानकारी देने वाले 'पंचांग' के पॉँच अंगों (1.तिथि, 2.वार, 3.नक्षत्र, 4.योग एवं 5.करण) में से एक है।
@दिवाकर प्रताप सिंह
आपकी बात सही है। मैने स्मृति के आधार पर इसे नक्षत्र लिखा। संशोधन कर लूंगा।
वाह ! अद्भुद विवेचन !
बहुत बहुत अच्छी लगी ,यह कड़ी.
आभार !
सही विचार...
और सुंदर अभिव्यक्ति...
सुन्दर! पर जब भद्रत्व की अति हो जाये तो शायद भद्दा हो जाता है। यह शब्द भी दूर का सम्बन्धी होगा भद्र का!
बहुत खूब !
बडनेरकर जी,
यह तो समझ में आया कि इतिहास के कथानकों में ' भद्रपुरुष' , 'भद्रे !' आदि रूपों में उल्लेखित शब्द सभ्य पुरुषों के लिए कहे गए हैं और संस्कृत शब्द भद्राकरणम ( मुंडन ) से भी उतने ही जुड़े हुए हैं | परन्तु इस दृष्टि से देखें तो 'अभद्र' शब्द का मुंडन से कोई जुडाव जुड़ता प्रतीत नहीं होता |
मुझसे त्रुटि कहाँ हो रही है ? कहीं यह शंका निर्मूल ही तो नहीं ? उचित लगे तो कृपया समाधान करें |
- आर डी सक्सेना भोपाल
"भद्ररँ भद्र " गुजराती हास्य नाटिका की याद आ गई
अच्छी जानकारियाँ दीँ आपने
- लावण्या
अच्छा ज्ञान बढता जा रहा है !
इस विश्लेषण का बहुत आभार..
सर...बेहतरीन लेख है.। एक भूल की तरफ इशारा करना चाहूंगा, सोनभद्र जिला यूपी में है। बाकी आपके लेख का सदैव इंतजार रहता है। धन्यवाद।
@rds
प्रियवर रमेश भाई,
मूल शब्द है भद्र जिससे भद्राकरणम् जैसा शब्द भी बनता है मुंडन के अर्थ में। दुनिया की सभी भाषाओं में प्रत्यय और उपसर्ग ऐसे उपकरण हैं जिनके जरिये किसी भी भाषा का शब्दकोश समृद्ध होता है। अ और सु जैसे उपसर्ग हिन्दी - संस्कृत में नकारात्मक और सकारात्मक अर्तवत्ता के लिए लगाए जाते हैं। जाहिर है भद्र में अ उपसर्ग लगने से बना है अभद्र। प्रस्तुत पोस्ट में भदर के उद्गम की चर्चा की गई है जो कि भद्र से स्थापित होता है। अ उपसर्ग के साथ बना अभद्र इसी कड़ी का ज़रूर है मगर नकारात्मक अर्थवत्ता वाले उपसर्ग ने अभद्र को भी नई अर्थवत्ता प्रदान कर दी है।
सफर में बने रहें।
शुभकामनाएं..
आभार. एक छोटी जिज्ञासा की इतनी विशद व्याख्या कई अज्ञात कोनो को भी प्रकाशित कर गई.
आपके ब्लॉग से पता चलता है कि शब्द के मूल अर्थ से रूढ़ अर्थ में किस तरह कई बार अर्थ-विस्तार या अर्थ-भंग हो जाया करता है.
सुशान्त भाई,
शुक्रिया बहुत बहुत। आप जैसे सजग पाठक सफर में सात हैं, इसकी खुशी है।
भूल के लिए क्षमा चाहता हूं।
साभार
अजित
समृध्द करने वाली पोस्ट है।
मालवा में 'भदर' को 'भद्दर' उच्चारित कहा जाता है और जैसा कि दिनेशजी ने कहा है, इसका सम्बन्ध अब केवल मृत्योपरान्त होकने वाले मुण्डन तक ही सीमित हो गया है।
घूमता-फिरता आपके ब्लॉग पर पहुँचा1 खूबसूरत लेआउट उए रोका, लेकिन पढ़ा तो नोलेज बढ़ी . शुक्रिया
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