Saturday, February 28, 2009

ख्वाजा मेरे ख्वाजा…[संत-9]

इस श्रंखला की पिछली कड़ीमदरसे में बैठा मदारी…[संत-8]

glad_071508_chisti2 चिश्ती सूफी पंथ की विशेषताओं में पवित्र सादा जीवन, धर्म को लेकर उदार दृष्टिकोण, नामोच्चार अर्थात जप आदि बातें खास हैं।
सू फी संतों के कई वर्ग-उपवर्ग हैं इनमें चिश्तिया और इस्माइली भी हैंअजमेर के प्रसिद्ध सूफी ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का नाम सबसे प्रसिद्ध है। अजमेर को उनके रुतबे के चलते ही ख्वाजा की नगरी कहा जाता है। ख्वाजा नामधारी कई मशहूर हस्तियां हुई हैं। आमतौर पर सूफी संतों के नाम के आगे तो यह जरूरी विशेषणौं की तरह लगाया जाता है। सम्मान, आदर, रुतबा, वरिष्ठ जैसे भाव इस शब्द में अंतर्निहित हैं।
ख्वाजा को अरबी भाषा का समझा जाता है पर मूल रूप से यह फारसी भाषा का शब्द है जिसमें महत्व का भाव समाया है। ख्वाजा khwaja  का मतलब होता है रईस, धनवान, गुरु, ज्ञानी, शक्तिशाली, कारोबारी, स्वामी अथवा दुखहर्ता। यह बना है ख्व khw धातु से जिसमें इच्छा, आकांक्षा या मनोकामना का भाव है। जाहिर है कि अधिकार-प्रभुत्व सम्पन्न व्यक्ति में ही ऐसी क्षमताएं होती हैं जो इच्छापूर्ति कर सके। आध्यात्मिक पुरुष के तौर पर उस व्यक्ति के आगे हर उस संत के आगे ख्वाजा शब्द लगाया जा सकता है जिसमें मनोकामनापूर्ति की शक्ति हो। प्रभावी व्यक्ति के तौर पर मध्यएशिया के तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, अजरबैजान आदि मुल्कों में ख्वाजा की उपाधि अधिकार सम्पन्न व्यक्ति को दी जाती रही है। अरबी में इसका उच्चारण ख्वाजाह होता है और ईरानी में खाजे। भारत, पाकिस्तान, ईरान में एक बड़ा व्यापारी समुदाय है जो खोजा khoja  कहलाते हैं। खोजा शब्द इसी ख्वाजा का अपभ्रंश है। यूरोप के यहूदियों की तरह खोजा लोग महान व्यापारी रहे हैं। पश्चिमी भारत के मुस्लिमों में खोजा कारोबारी होते हैं। खासकर पंजाब के खोजा सुन्नी कहे जाते हैं जिनके पुरखों में धर्मांतरित पंजाबी खत्री भी शामिल हैं। मोहम्मद अली जिन्ना भी खोजा समुदाय से ताल्लुक रखते थे और उनके पुरखे भी पंजाब के खत्री khatri थे। गुजरात और मुंबई के खोजा व्यवसायी शिया समुदाय के हैं और इस्माइली धर्मगुरु आग़ाखान को मानते हैं।
बादशाहों-सुल्तानों के दौर में रनिवास अर्थात हरम के मुखिया की पद को ख्वाजासरा khwajasara कहा जाता था। तुर्कों ने यह परंपरा चलाई थी कि हरम का मुखिया कोई किन्नर ही होगा। यह किन्नर भी किसी ऐसे गुलाम को बनाया जाता था जो राज्य शासन में प्रभावी हो। किसी किन्नर को ख्वाजासरा का रुतबा देकर बादशाह बेफिक्र हो जाते थे। कई बार बदला लेने के लिए भी दरबारी अपने बीच के किसी व्यक्ति को ख्वाजासरा बनाने की सिफारिश कर देते थे। जाहिर है रनिवास की चौकसी संभालने से पहले उसका बंन्ध्याकरण किया जाता था और यही दरबारियों का मक़सद भी होता था।  इस प्रवृत्ति को लेकर समाज में काफी हंसी-ठिठोली होती थी। मध्यकालीन सूफी कथाओं का प्रसिद्ध नायक मुल्ला

नुसरत फतेह अली खां

नसरुद्दीन, जिसे खोजा नसरुद्दीन के नाम से भी जाना जाता है, के किस्सों में इसका दिलचस्प चित्रण है। खोजा नसरुद्दीन को भी बुखारा के बादशाह का कोप भाजन बनना पड़ा था और उसे वहां के हरम का ख्वाजासरा नियुक्त किया गया था।
भारत में सूफियों के सम्प्रदायों में सर्वाधिक लोकप्रिय अगर कोई सम्प्रदाय हुआ है तो वह चिश्तिया सम्प्रदाय है। इसकी वजह उसके आचार-व्यवहार रहे हैं। चिश्ती सूफी पंथ की विशेषताओं में पवित्र सादा जीवन, धर्म को लेकर उदार दृष्टिकोण, नामोच्चार अर्थात जप आदि रहे हैं। डॉ प्रभा श्रीनिवासुलु/डॉ गुलनाज़ तंवर लिखित सूफीवाद पुस्तक में चिश्तियों के भारत में लोकप्रिय होने के तीन कारण गिनाए गए हैं। पहला चिश्ती संत भारत के जनजीवन और रीति-नीति से अच्छी तरह परिचित हो चुके थे। दूसरा इसके प्रमुख गुरुओं का असंदिग्ध महान व्यक्तित्व और तीसरा संगीत को अत्यधिक महत्व। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती(1141-1230) को चिश्तिया सम्प्रदाय का प्रवर्तक भी माना जाता है। हालांकि चिश्तिया पंथ उनसे पहले शुरु हो चुका था। अफ़गानिस्तान के चिश्त कस्बे से चिश्तिया पंथ का नाम शुरू हुआ है। नवीं सदी के उत्तरार्ध में सीरिया के दमिश्क से अबु इशाक शामी नाम के सूफी संत ने अफ़गानिस्तान के चिश्त कस्बे को अपना मुकाम बनाया जहां वे ख्वाजा अबु इशाक शामी चिश्ती कहलाए। 940 ईस्वी में उनका देहांत हुआ। उन्हें ही चिश्तिया पंथ का प्रवर्तक माना जाता है। इस पंथ को आगे ले जाने में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का बड़ा योगदान रहा है जिन्हें दुनियाभर में गरीबनवाज़ के नाम से भी जाना जाता है। उनके अलावा ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, शेख़ फरीदुद्दीन गंजशंकर, शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया आदि प्रमुख चिश्ती सूफी हुए हैं।

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Friday, February 27, 2009

कलाली पर कलेवा…[खान पान-7]

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कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई।         सिर सौपे सोई पिवै, नहिं तो पिया न जाई।।
पि छड़ी जातियों के संदर्भ में अक्सर कलाल शब्द सुनते आए हैं। कलार या कलाल मूलतः वैश्यों के उपवर्ग है जो जातिवादी समाज में विकास की दौड़ में लगातार पिछड़ते चले गए। अब इन्हें अन्य पिछड़ावर्ग में गिना जाता है। यह भी स्थापित सत्य है कि वैश्य समुदाय की पहचान किस जमाने में क्षत्रिय वर्ण में होती रही है। विभिन्न वैश्य समूदायों की उत्पत्ति के सूत्र क्षत्रियों से ही जुड़ते हैं।
लाल शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के कल्य या कल्प से मानी जाती है जिसका अर्थ होता है इच्छापूर्ति करना। व्यवहार में लाने योग्य, समर्थ आदि। व्यावहारिक तौर पर इसमें राशन सामग्री का भाव भी आता है। आप्टे के संस्कृत शब्दकोश में कल्पपालः का अर्थ शराब विक्रेता बताया गया है। इसी तरह कल्य शब्द का अर्थ भी रुचिकर, मंगलमय आदि है। इसमें भी भोज्य सामग्री का भाव है। कल्य से ही बना है कलेवा जो हिन्दी में खूब प्रचलित है और सुबह के नाश्ते या ब्रेकफास्ट के अर्थ में इस्तेमाल होता है। कल्या का मतलब मादक शराब होता है। मदिरा के कई उपासकों का कलेवा कलाली पर ही होता है। कल्यपाल या कल्पपाल मूलतः एक महत्वपूर्ण ओहदा होता था जिस पर तैनात व्यक्ति के जिम्मे सेना की रसद से जुड़ी हुई तमाम जिम्मेदारियां थीं। कल्यपाल यानी जो खाद्य आपूर्ति का काम करे। व्यापक रूप में खाद्य आपूर्ति यानी प्रजा के भरण पोषण का दायित्व राजा का भी होता है अतः प्रजापालक के रूप में कल्यपाल का अर्थ राजा भी होता है। कलाल वैश्यों से भी पहले क्षत्रिय थे इसके संदर्भ भी मिलते हैं। कल्यपाल राजवंश भी हुआ है जिन्होने कश्मीर में शासन किया।
शासन के लिए, खासतौर पर सेना के लिए रसद आपूर्ति के काम में मदिरा भी एक रसद की तरह ही उपभोग की जाती थी। कल्प का एक अन्य अर्थ है रोगी की चिकित्सा। जाहिर है इसमें पदार्थ का सार, आसवन करना, आसव निकालना आदि भाव भी शामिल हैं। गौरतलब है कि प्राचीन भैषज विज्ञान के अनुसार ये सारी विधियां ओधषि निर्माण से जुड़ी रही हैं। कलाल के वैश्य समुदाय संदर्भित अर्थ पर गौर करें तो जाहिर है कि रोगोपचार वैद्य का कार्य रहा है मगर ओषधि निर्माण का काम एक पृथक व्यवसाय रहा है जिसे वैश्य समुदाय करता रहा है। कल्यपाल एक राज्याश्रित पद होता था। प्राचीनकाल में भी मदिरा के गुण-दोषों के बारे में राज्य व्यवस्था सतर्क थी। कल्यपाल का मतलब हुआ आसवन की गई सामग्री का अधिपति। शासन व समाज के उच्च तबके द्वार विलासिता के तौर पर उपभोग की जाने वाली मदिरा के निर्माण का काम इसी कल्यपाल के जिम्मे होता था। कल्यपाल का ही अपभ्रंश रूप होता है कलार या कलाल। कलाल समुदाय में जायसवाल वर्ग काफी सम्पन्न और शिक्षित रहा है। इनकी उद्यमशीलता वैश्यों सरीखी ही है। मदिरा के कारोबार पर हमेशा से राजकीय नियंत्रण रहा है। आज के दौर में हर राज्य में शराब विक्रेताओं के

alcohol_1ल्य शब्द से बने कलाल या कलार से ही जन्मे कलारी या कलाली का किसी समय समाज में ऊंचा और विशिष्ट स्थान था।

सिंडिकेट बने हुए हैं जिन पर कलाल समुदाय के लोग ही काबिज हैं। देश के अलग अलग इलाकों में इनके कई नाम भी प्रचलित हैं मसलन कलार, कलवार, दहरिया, जायसवाल, कनौजिया, आहलूवालिया, शिवहरे आदि। पंजाब के आहलूवालिया जबर्दस्त लड़ाका क्षत्रिय हैं। बहादुरी में इनका सानी नहीं अविभाजित पंजाब के आहलू गांव से इनकी शुरूआत मानी जाती है। अवध का एक बड़ा इलाका किसी जमाने में कन्नौज कहलाता था। यहां से जितने भी समुदाय व्यवसाय-व्यापार के लिए अन्यत्र जा बसे उनके साथा कन्नौजिया शब्द भी जुड़ गया। कन्नौजिया शब्द में किसी जाति विशेष का आग्रह नहीं बल्कि स्थान विशेष का आग्रह अंतर्निहित है। कन्नौजिया उपनामधारी लोग हर वर्ग-समाज में मिल जाएंगे। शिवहरे नाम शिव से संबंधित है।
ल्य शब्द से बने कलाली से जहां ताड़ीखाने का रूप उभरता है वहीं राजस्थान की रजवाड़ी संस्कृति में यह शब्द विलास और श्रंगार के भावों को व्यक्त करता है। लोक गायन की एक शैली ही कलाली अथवा कलाळी कहलाती है। इस पर कई भावपूर्ण गीतलिखे गए हैं। शुद्ध रूप में इन्हें कलाळियां कहा जाता है। रजवाड़ी दौर में कलाळ अर्थात कलालों का रुतबा था। उनकी मदिरा प्रसिद्ध थी। उनकी अपनी भट्टियां होती थीं। लक्ष्मीकुमारी चूंडावत ने रजवाड़ी गीत की भूमिका में लिखा है कि समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति इनके घर जाकर मदिरापान करते थे। इन कलालों की महिलाएं मेहमानों की आवभगत करतीं और मनुहार से मदिरा पिलाते हुए भी अपनी प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान के बनाए रखती थीं। वे इस संबंध में सजन और पातुड़ी कलाळन का उल्लेख करती हैं। मध्यकालीन सूफी-संतों ने भी ईश्वर भक्ति के संदर्भ में कलाली, भट्टी जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। कबीरदास कहते हैं-कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई। सिर सौपे सोई पिवै, नहिं तो पिया न जाई।। यानी रामरस का स्वाद अगर लेना है तो सर्वस्व त्यागना होगा। अब यह कैसे संभव है कि जिस सिर अर्थात मुंह से मदिरा का स्वाद लेना है, वही सिर कलाल को मदिरा की एवज में सौप दिया जाए !!
ल्य शब्द से बने कलाल या कलार से ही जन्मे हैं कलारी या कलाली का किसी समय समाज में ऊंचा और विशिष्ट स्थान था। आज कलाली देशी दारू की दुकानों या ठेकों के रूप में आमतौर पर व्यवहृत हैं। मराठी, गुजराती, पंजाबी जैसी भाषाओं में भी यही रूप प्रयोग में आते हैं जिससे सिद्ध है कि कल्यपाल की राज्याश्रित व्यवस्था का विस्तार समूचे भारत में था। शराब की भट्टियां लगाने का काम खटीक करते थे और विक्रय की जिम्मेदारी कलाल समुदाय की थी। डॉ विगो खोबरेकर लिखित मराठा कालखंड-2 में शिवाजी के राज्य में नियंत्रित मदिरा व्यवसाय का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि ब्राह्मणों के लिए शराबनोशी प्रतिबंधित थी। सैनिकों के लिए भी शराब की मनाही थी।

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Thursday, February 26, 2009

…आप डांटेंगे तो नहीं ?

बाइस-तेईस जनवरी की रात दो से ढाई बजे के बीच मेरे लैपटाप स्क्रीन पर एक चैट-खिड़की खुलती है।
-“हैलो,” उधर से कहा गया। 28122008493
-“जै जै”, मैने कहा।
-“एक बात कहूं” -“कहो”
-“डांटेंगे तो नहीं ?” 
-“सुने बगैर आश्वासन नहीं दे सकता...”
–“तो फिर जाने दीजिए”
-“अबे तुम हमेशा पहेलियां क्यों बुझाते हो ?” मैं हत्थे से उखड़ गया।
-“मैं कल भोपाल आ रहा हूं। ग्यारह बजे पहुंच जाऊंगा”
-“क्या sssss” मैं चीखा, “...और अब बताने का होश आ रहा है तुम्हें”
-“देखिये, मुझे पहले ही पता था आप नाराज होगे। मैने कल ही फोन किया था। आपने नहीं उठाया था, किसी ने उठाया था। मैने उन्हें मैसेज दिया था। नाम भी बताया था-अंकित”
-“अबे तुम गलती....डांट क्या क्या बोले जा रहे हो? सीधे घर आ जाना ...”
-“मैने बताया था,आप ही नहीं थे।:)” गलती मेरी नहीं...”
-“ओहो...तो यह हुआ। खैर, तुम पहुंचते ही सीधे घर आ जाओ...”
हां बात अंकित की हो रही है जो प्रथम नाम से एक टेक ब्लाग चलाते हैं। बहुत कम समय में इस ब्लाग ने अपनी उपयोगिता साबित की है। अंकित इंदौर में रह कर कम्प्यूटर इंजीनियरिंग पढ़ रहे हैं, शायद अभी पहला साल ही है । ब्लॉलिंग में उनकी जबर्दस्त दिलचस्पी है। हमसे उनका परिचय कैसे हुआ, नहीं पता। भाई चैटिंग के दौरान अचानक टपक पड़ते हैं। यूं ही बातचीत शुरू हुई। ये भी हमारी तरह देर रात तक नेट से चिपके रहनेवालों में हैं। अंकित हमसे बहुत डरता है। ऐसा वो कहता है। हर चैटिंग में एक-दो बार तो यह कहने का मौका आता ही है, “नाराज न हों तो एक बात पूछूं...” अब हमें सौजन्य-शिष्टाचार ज्यादा पसंद नहीं आता, सो चिढ़ जाता हूं...जिसे वो नाराजी कहता है।
खैर, अंकित का भोपाल आगमन हुआ, मगर उसी दिन मुझे किसी आयोजन में जाना था, जिसकी हमें खबर नहीं थी। भोपाल पहुंचते ही अंकित का फोन आया, हमने उसे घर की बजाय दफ्तर पहुंचने को कहा। वो निराश हुआ, बुरा हमें भी लगा मगर मजबूरी थी। अंकित सही वक्त पर दफ्तर पहुंच गया। हम उसे लिवाने दफ्तर के बाहर आए। बाबू साहब बड़े संस्कारी हैं। हमारे पैर की तरफ उनके हाथ बढ़ते देख हमने उन्हें रोकना चाहा पर ....यह तो पता चला कि संस्कारी बालक है। तभी अचानक हमारा ध्यान उनके सीने तक खुली शर्ट की तरफ गया। “इतने सारे बटन खुले रखते हो, रैगिंग का डर नहीं है क्या ?” “अरे सर... ” कहकर शर्माया हुआ बालक अबाऊट टर्न हुआ और गले तक सारे बटन बंद कर लिए। अंकित छत्तीसगढ़ के मनेन्द्रगढ़ का रहनेवाला है। उसके माता-पिता वहीं रहते है। पिता का निजी व्यवसाय है। दफ्तर में अंकित के साथ कॉफी पीते हुए गपशप होती रही। वो बहुत जल्दी-जल्दी मगर धीमें सुर में बोलता है। फोन पर तो मैं अक्सर “हें-हैं ?” ही करता रहता हूं....देबाशीष की ही तरह अंकित ने भी मुझे डोमेन नेम के फायदे बताए और ले डालने की सलाह दी। पर हमेशा की तरह मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा। अंकित ने कहा कि आपका ब्लाग देखकर नहीं लगता कि आप तकनीकी अनपढ़ हैं। हमने कहा कि सज्जा हमारी रुचि का विषय है तो उसमें थोड़े बहुत हाथ-पैर मार लेते हैं, बाकी कुछ पल्ले नहीं पड़ता। ये डोमेन क्या होता है?
chimg480ee18cd7b12 अंकित खूब हंसता है। आपको यह ग़लतफ़हमी भी हो सकती है कि आप पर हंस रहा है। जब आप नाराजी जाहिर करते हैं तो अपना सिर भी पीटता है। अंकित का ब्लाग सिर्फ ब्लागिंग के ट्रिक ही नहीं सिखाता है बल्कि इन्फारमेशन टेक्नॉलॉजी से जुड़ी दीगर महत्वपूर्ण बातें भी बताता है। सोशल नेटवर्किग का जो बढ़ता क्रेज इंटरनेट पर दिखाई दे रहा है उससे जुड़ी महत्वपूर्ण सूचनाएं भी इस ब्लाग पर देखी जा सकती हैं। उसने हमें बताया कि प्रथम के अलावा भी कई साइट्स बनाई हैं। और यह भी कि वह लोगों को तकनीकी सलाह भी देता है जिससे कमाई भी हो जाती है। हालांकि कमाई की बात पर हमें विश्वास नहीं हुआ। हिन्दुस्तानी जो ठहरे ! हम लोग बच्चों की बात पर कभी यकीन नहीं करते। बाद में जब बच्चा बिल गेट्स बन जाता है तो उसका श्रेय लेने से भी नहीं चूकते। मन में हसरत यही है कि ये बालक भी जीवन में खूब सफलता हासिल करे। बंदा बड़ा होनहार, प्रतिभावान है। उसे बहुत बहुत शुभकामनाएं। ये मुलाकात बहुत थोड़ी देर की थी। अंकित फिर आएगा, ऐसा उसने कहा है। बाकी लोग अंकित के ब्लाग पर जाकर उसे समझ सकते हैं। अंकित के साथ हमें तस्वीरें लेना याद नहीं रहा।
-अगली कड़ी में दिनेशराय द्विवेदी जी के साथ कुछ पल… 

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Wednesday, February 25, 2009

कोर्ट, कचहरी और जुलूस…

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न्याय की जिस देवी की आंखों पर हमेशा पट्टी बंधी होती है उस न्याय और नयनों का जन्म नी धातु से ही हुआ है।
हि न्दी का बड़ा आम शब्द है कचहरी जिसका मतलब है न्यायालय, अदालत या कोर्ट। कानूनी झमेलों में पड़ने को आमतौर पर अदालतों के चक्कर काटना कहा जाता है। इसी तर्ज पर कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाना वाक्य भी प्रचलित है इसमें चाहे कोर्ट अंग्रेजी का और कचहरी हिन्दी का शब्द हो मगर दोनों के मेल से कोर्ट-कचहरी में मुहावरे का असर पैदा हो गया है।
मूल रूप से कचहरी शब्द बना है संस्कृत के कृत्यग्रह से जिसका मतलब होता है अदालत। यह बना है कृत्य+ग्रह की संधि से और फिर कृत्यग्रह > कच्चघर> कच्चहर > होते हुए कचहरी में ढल गया। संस्कृत शब्द कृत्य की धातु है कृ जो मूलतः कर्म क्रिया के अर्थ में प्रयोग होती है। मोटे तौर पर जिसके मायने हैं करना। यह प्रत्यय की तरह भी कई शब्दों में प्रयोग होती है जैसे अंगीकृ यानी अपनाना। इससे ही अंगीकार शब्द बना । अतिकृ यानी बढ़ जाना। इससे ही अतिक्रमण शब्द बना। कृ से ही बनता है कृत्य जिसके मायने हैं जो करना चाहिये अथवा उचित, उपयुक्त, युक्तियुक्त व्यवहार। जाहिर है यही न्याय है इसीलिए कृत्यग्रह को न्यायालय की अर्थवत्ता मिल गई। कहने की ज़रूरत नहीं कि कृत्य से बने कचहरी में सुकृत्य करने वालों की नही बल्कि दुष्कृत्य करने वालों की आमदरफ्त ज्यादा होती है।
हिन्दी मे अदालत के लिए न्यायालय शब्द भी चलता है मगर ज्यादातर लिखत-पढ़त की भाषा में। इस्तेमाल के हिसाब इसका क्रम सबसे आखिर में है। मेरे विचार से बोलचाल में सबसे ज्यादा कोर्ट शब्द चलता है, फिर अदालत और उसके बाद कचहरी। बहरहाल न्याय शब्द का जन्म संस्कृत धातु नी से हुआ है जिसका अर्थ ले जाना, मार्गदर्शन करना, संचालन करना आदि है। यह जानना दिलचस्प होगा कि न्याय की जिस देवी की आंखों पर हमेशा पट्टी बंधी होती है उस न्याय और नयनों का जन्म नी धातु से ही हुआ है। न्याय का मतलब नीति, नियम, कानून, इंसाफ आदि है। यही नहीं

DSCN1696 जलसा का अर्थ हुआ महफिल, सत्र, सभा, आयोजन, संगठन, उत्सव आदि। इसमें उपसर्ग लगने से बना मजलिस जिसका अर्थ होता है परिषद, सभा, गोष्ठी, संघ, समिति, कमेटी आदि।

राजनीति , शास्त्र, सुशासन , सच्चाई और ईमानदारी जैसी बातें भी इसके अंतर्गत आती हैं। इसी न्याय में निवास या आश्रय के भाव वाले आलय की संधि से बनता है न्यायालय शब्द जिसे अदालत के सरकारी तौर पर मान्य रूप में प्रयोग की परिपाटी है।
हिन्दी में ही कोर्ट कचहरी के अर्थ में अदालत और इजलास दोनों शब्द प्रचलित हैं मगर ये दोनों उर्दू से हिन्दी में चले आए हैं। यूं इनका मूल स्थान अरबी का है । इजलास का अरबी में सही रूप इज्लास है। यह बना है जलसा से। जलसा शब्द हिन्दी में अपनी स्वतंत्र अर्थवत्ता रखता है मगर यह बरास्ता फारसी-उर्दू मूल रूप से अरबी से ही हिन्दी मे दाखिल हुआ है जहां इसका शुद्ध रूप है जल्सः जो बना है सेमेटिक धातु ज-ल-स से। यह धातु समच्चयवाचक है जिसमें बैठक, गोष्ठी अथवा समूह का भाव है। जलसा का अर्थ हुआ महफिल, सत्र, सभा, आयोजन, संगठन, उत्सव आदि। इसमें उपसर्ग लगने से बना मजलिस जिसका अर्थ होता है परिषद, सभा, गोष्ठी, संघ, समिति, कमेटी आदि। इसी कड़ी का शब्द है जुलूस जिसमें उत्सव यात्रा, शोभायात्रा का भाव शामिल है। अरबी का जुलूस हिन्दी में इस कदर घुल मिल गया है कि शोभा यात्रा के लिए इससे बेहतर कोई शब्द सूझता ही नहीं। जल्सः में उपसर्ग लगने से बना इज्लास जिसमें मान्य लोगों की सार्वजनिक बैठक का वही भाव है जो पंचायत में होता है। प्राचीनकाल में विवादों की सुनवाई सार्वजनिक स्थलों पर बैठक के जरिये ही होती थी। एक ही मूल से पैदा हुए इन सभी शब्दों के अर्थ एक समान होने पर भी इनके बर्ताव में अंतर है। आज ये तमाम लफ्ज हिन्दी में बडी़ सहूलियत से इस्तेमाल किये जा सकते हैं। किसी इज्लास के दौरान किसी जलसे या मजलिस पर पाबंदी लगाई जा सकती है।
ब कोर्ट की बात। अंग्रेजी में कोर्ट शब्द आया फ्रेंच के कोर्ट से जिसका मतलब है घिरा हुआ स्थान। न्यायिक गतिविधियों के लिए करीब तेरहवी सदी के आसपास कोर्ट शब्द का अंग्रेजी में प्रयोग शुरू हुआ और कोर्टशिप, कोर्टरूम और फिर हाईकोर्ट, सुप्रीमकोर्ट जैसे शब्द भी बन गए भारत में अंग्रेजी राज कायम होने के बाद जब फिरंगी इंसाफ भी करने लगे तब इस लफ्ज से हिन्दुस्तानी भी परिचित हुए।    -सम्पूर्ण संशोधित पुनर्प्रस्तुति 

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Tuesday, February 24, 2009

मदरसे में बैठा मदारी…[संत-8]

गौरतलब है कि सूफी परंपरा के कलंदर और मदारी जैसे शब्दों का प्रचलित अर्थ हिन्दी में बाजीगर या बंदर-भालू का तमाशा दिखानेवाला ज्यादा प्रचलित हुआ। 212009-MISCELLANEOUS-Mumbai
नि र्गुण निराकार के साधक सूफियों की एक की एक धारा का नाम मदारी madari भी है। मदार madar या मदारी शब्द के बारे में हिन्दी उर्दू के संदर्भ ज्यादा जानकारी नहीं देते हैं। इसका अर्थ तो मिलता है मगर व्युत्पत्ति नहीं। शब्दकोशों में इसका मतलब बाजीगर, तमाशाबाज, कलाबाज बताया जाता है। मगर मदारी का सबसे लोकप्रिय अर्थ है भालू बंदर को नचानेवाला बाजीगर। इन अर्थो में मदारी का आध्यात्मिक पुरुष या सूफी संत के तौर पर परिचय नहीं मिलता है। सूफियों के मदार पंथ को सीधे सीधे हज़रत सैय्यद बदीउद्दीन ज़िंदा शाह मदार से जोड़ा जाता है सीरिया में जन्मे और कई जगह घूमते-घामते उत्तर प्रदेश में कानपुर के पास मकनपुर makanpur में आ टिके जहां उनकी दरगाह है और दुनियाभर से इस पंथ के अनुयायियों का यहां मेला जुटता है। 
क बात तो तय है कि मदारी शब्द सीधे सीधे बाजीगर से जुड़ा हुआ नहीं है। संत-सन्यासी के चरित्र से मेल खाने वाली कोई भी बात अगर इस शब्द से जुड़ी है तो वह है काला लंबा चोगा जिसे मदारी पंथ के संत भी धारण करते हैं और बाजीगर मदारी भी। संत के चरित्र की सबसे बड़ी खूबी पथ प्रदर्शक और गुरु की ही होती है जिसका काम अपने अनुयायियों को सच्चाई की राह दिखाना और सिखाना है। मदारी शब्द का रिश्ता अरबी शब्द मदार से जुड़ता है जिसके मायने होते हैं केन्द्र, वृत्त, घेरा, गोलाकार स्थान। मदार शब्द बना है सेमेटिक धातु द-र-स से अरबी में कुछ शब्द बने है दिरस या दरासा जिसका अर्थ होता है शिक्षा, ज्ञान, पढ़ाई। दर्रासा का अर्थ होता है पढ़ाना। दरिस या दुर्रुस का मतलब होता है कक्षा, पाठ्यक्रम, सबक, पाठ आदि। इस शब्द समूह के साथ अरबी का एक उपसर्ग ‘म’ भी जुड़ता है जिससे कुछ अन्य शब्द भी बनते हैं जैसे मुदर्रिस mudarris यानी अध्यापक। यह शब्द फारसी उर्दू के जरिये हिन्दी में भी कभी कभी इस्तेमाल होता है।
शिक्षा से जुडे इस शब्द समूह का सबसे महत्वपूर्ण शब्द है मदरसा madrasa जिससे हिन्दी भाषी सर्वाधिक परिचित हैं। मदरसा यानी पाठशाला, शिक्षास्थल, स्कूल, शाला, विद्यालय अथवा गुरुकुल आदि। प्रायः हर सभ्यता में गुरुकुल की परंपरा रही है। पूर्व में चीन, जापान, भारत से लेकर पश्चिचम में ग्रीक और रोमन सभ्यता तक इसके साक्ष्य मिलते हैं। गुरुकुल का अर्थ ही गुरु के साथ रहकर विद्यार्जन करना है। प्राचीन ऋषि-मुनि अपने दोनो और शिष्यों को घेरा बांधकर बैठाते थे और फिर शिक्षा देते थे। दिरस से मदरसा तक पूरी शब्द श्रंखला में मूल भाव शिक्षा ही है। इसकी अगली कड़ी है मदार जो इसी धातु से जन्मा है जिसका अर्थ होता है फकीरों के एक सम्प्रदाय का प्रमुख या संरक्षक।  केन्द्र अथवा घेरे हुए स्थान के रूप में मदार के अंदर गुरुकुल का ही भाव समाया हुआ है। सूफी पंथ में समाए ध्यान, चिन्तन, मनन जैसी क्रियाओं के मद्देनजर मदार पर विचार करने के लिए सेमेटिक धातु द-र-स (d r s) की व्याप्ति अरबी के अलावा सबसे महत्वपूर्ण सेमेटिक भाषा हिब्रू में भी देखनी चाहिए। हिब्रू hebrew में इसका रूप होता है drsh अर्थात द्रश जिसमें गुरु की सोहबत में प्रभु भक्ति करने अथवा ईश्वरीय ज्ञान की खोज का भाव है। पुराने ज़माने में शिक्षा का स्वरूप मूलतः धार्मिक व ईश्वरीय ज्ञान ही था। मदार शब्द में न सिर्फ चिंतन, मनन का स्थान, बल्कि विद्या केन्द्र का भाव भी है। ध्यानकेन्द्र गोल, मंडलाकार होते हैं। इसे किसी भी धर्म के आराधना स्थलों में देखा जा सकता है जो मुख्यतः गुम्बदनुमा कक्ष ही होते हैं। स्पष्ट है कि मदारी पंथ का रिश्ता मदार शब्द से ही जुड़ता है।
मोहम्मद ताहिर संपादित एन्साइक्लोपेडिक सर्वे आफ इस्लामिक कल्चर में सूफी मत पर चीन के के ताओवादी प्रभाव की चर्चा करते हुए अहमद अनानी ने मलंग की व्युत्पत्ति पर चर्चा की है। अनान साहब के उक्त आलेख से ही मदार के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। वे इस संदर्भ में दो चीनी शब्दों दाओ रह् और दाहो शी का उल्लेख करते हैं। दाओ शी ताओवादी शब्दावली में आता है जिसका मतलब है ताओ पंथ का गुरु, शिक्षक। दाओ-रह् का अर्थ भी करीब-करीब यही है फर्क सिर्फ अंतिम पद का है। रह् का अर्थ होता है अनुयायी यानी ताओपंथ का अनुयायी। इस तरह इस तरह मांग-दाओ-रह mang-dao-erh से बना मा-दा-र जिसने मदार का रूप लिया जिसमें गुरू, शिक्षक, मार्गदर्शक जैसे भाव समाहित हुए।
RangeOfPaperColoursHg011 यह गौरतलब समानता है  कि मध्यएशिया में पनपे धार्मिक आंदोलन से उपजे कलंदर, फकीर, मलंग और मदारी जैसे शब्दों का हिन्दुस्तान आने पर आध्यात्मिक गरिमा के साथ साथ जादूगर, बाजीगर और भालू-बंदरों का तमाशा दिखानेवाले समुदायों के रूप में भी अर्थ विस्तार हुआ
हिब्रू और अरबी arabic के क्रमशः द्रश दिरस के मूल में ज्ञान की खोज अथवा शिक्षा जैसे भाव यूं ही नहीं है। मेरे विचार में यह इंडो-ईरानी प्रभाव है जिसकी व्याप्ति सेमेटिक भाषा परिवार से लेकर सिनो-तिब्बती परिवार की चीनी भाषा पर भी पडा। गौर करें संस्कृत धातु ‘ऋ’ या ‘र’ पर जिसमें जाने और पाने का भाव है। इसमें रास्ते का भाव है जिसे ज्ञानमार्ग से जोड़ा जाता है। इससे बने संस्कृत के ऋषि शब्द का अर्थ गुरू ही है जो ज्ञान की राह बताता है। ऋषि शब्द रिष् से बना है। रिष् और द्रिश की समानता गौरतलब है। फारसी में इसी धातु मूल से राह, राहगीर, राही, रहबर जैसे शब्द बने हैं वहीं ऋषि के समतुल्य मुर्शिद, राशिद जैसे शब्द भी बने हैं। मदार के चीनी भाषा से व्युत्पत्ति का आधार ध्वनिसाम्य और अर्थसाम्य है। हालांकि चीनी मूल के दाओ रह् शब्द में भी वैदिक ‘ऋ’ का असर ही मानना चाहिए। सेमेटिक परिवार में इंडो-ईरानी प्रभाव के बावजूद द-र-स धातु का स्वतंत्र रूप बना जिसने ‘र’ अथवा ‘ऋ’ के भावों को खुद में समोए रखा।
गौरतलब है कि सूफी परंपरा के कलंदर और मदारी जैसे शब्दों का प्रचलित अर्थ हिन्दी में बाजीगर या बंदर-भालू का तमाशा दिखानेवाला ज्यादा प्रचलित हुआ। तमाशेबाज मदारी शब्द संभवतः इसलिए चल पड़ा क्योंकि ये लोग भी अपने पशुओं को कलाबाजी सिखाते हैं, उन्हें प्रशिक्षित करते हैं। अब इन बाजीगरों के लिए समाज ने फकीरों के अलग-अलग समुदायों से ही पहचान क्यों तलाशी गई, अथवा कलंदरों और मदारियों के साथ भालू-बंदर कैसे जुड़े यह अलग शोध का विषय है। अनानी कहते हैं कि नूर उल लुगात के मुताबिक मलंग शाह मदार के अनुयायियों को कहा जाता है। शाह मदार सूफी मत के मदारी सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं। यह गौरतलब समानता है कि मध्यएशिया में पनपे धार्मिक आंदोलन से उपजे कलंदर, फकीर, मलंग और मदारी जैसे शब्दों का हिन्दुस्तान आने पर आध्यात्मिक गरिमा के साथ साथ जादूगर, बाजीगर और भालू-बंदरों का तमाशा दिखानेवाले समुदायों के रूप में भी अर्थ विस्तार हुआ।

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Monday, February 23, 2009

अदालत में अदला-बदली…

GoddessOfJustice

हि न्दी उर्दू में अदला-बदली एक ऐसा शब्द युग्म है जो मुहावरे की अर्थवत्ता रखता है और इसके दो अन्य शब्दरूप भी प्रचलित हैं मसलन अदल-बदल या अदली-बदली। इसका शुमार उन शब्दों में है जिनका इस्तेमाल रोजमर्रा की भाषा में खूब होता है। इस शब्दयुग्म में कुछ अन्य आमफहम शब्दों के जन्म-सूत्र भी छिपे हैं। यह शब्द सेमेटिक भाषा परिवार से निकला है और इसका रिश्ता अरबी भाषा से है।
symbol-of-justice---judicial-3d-gavel-thumb5134448दला-बदली का अर्थ होता है परिवर्तन, स्थानापन्न। इससे बने हिन्दी शब्दों में फेरबदल, बदलाव, बदलना, बदली आदि प्रचलित हैं। मूल अरबी में इससे तबादला शब्द भी बना है जिसका अर्थ स्थानान्तरण या ट्रान्सफर होता है। इससे ही बने रद्दोबदल में नवीनीकरण का भाव छिपा है। अदला-बदली में हेराफेरी का भाव भी छुपा हुआ है। अरबी में एक धातु है अ-द-ल जिससे अदाला शब्द का निर्माण होता है। अरबी में इसका अभिप्राय है चीज़ों को उनके उचित स्थान पर रखना। गौरतलब है कि यहां उचित शब्द का महत्व है। यहां चीज़ का अभिप्राय भौतिक वस्तु तक भी सीमित नहीं है बल्कि कथन, विचार, वाद, मुद्दा अथवा तथ्य जैसी बातें इसमें शामिल है। इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो भद्रता, सज्जनता और पवित्रता जैसे शब्द भी इसके दायरे में आ जाते हैं। ये सब अर्थ स्थापित करते हैं कि न्यायपूर्ण तरीके से किया गया कार्य ही अदाला कहलाता है।
स शब्द में “औचित्य” को जो महत्व मिला हुआ है उसकी वजह से इसका काफी अर्थविस्तार हुआ। अदला बदली में जहां अदाल का अर्थ जहां परिवर्तन या फेरबदल के रूप में नजर आ रहा है वहीं इससे बने अदालत शब्द में इसकी व्यापकता नजर आती है। अदालत यानी वह स्थान जहां न्याय होता है जिसे न्यायालय, कोर्ट या कचहरी कहते हैं। न्याय क्या है? तथ्यों को सही परिप्रेक्ष्य में देखना। तथ्य अर्थात सत्य को उचित स्थान पर प्रतिष्ठित करना। यही है अदाला और यह काम जहां होता

Party Symbolप्रतिशोध में संतुलन का विकल्प नहीं होने से अक्सर बदले की क्रिया ज्यादा व्यापक और भारी होती है। बदले का यही असंतुलन अदालत मे जाकर न्यायदेवी के तराजू में तौला जाता है।

है उसे अदालत कहते हैं। जो व्यक्ति न्यायप्रिय है अथवा ईमानदारी से काम करता है वह आदिल है। सज्जन, सुभद्र,शालीन व्यक्ति भी आदिल है। आदिल में न्याय और विवेक से जुड़ी समूची अर्थ-संपदा समेटी जा सकती है।
-द-ल से बने अदाला की व्याप्ति संज्ञा के तौर पर कई अन्य भाषाओं में भी हुई है। हिब्रू में एक स्त्रीवाची नाम है अदालिया जिसका मतलब होता है प्रभु की शरण में, इसमें सज्जनता, भद्रता, ईमानदारी जैसे शब्दों का भाव समाहित है। रूसी, अजरबैजानी और तुर्की में इसी अर्थ में अनेक शब्द है। हिब्रू से जर्मन भाषा में भी इसकी व्याप्ति हुई है जहां इसका रूप अडेल, ऐडेलिया होता है। अदाल यानी न्याय असत्य की जगह पर सत्य को पुनर्स्थापित करता है। उचित को प्रश्रय देता है और बुराई की जगह अच्छाई को प्रतिष्ठित करता है। यही है बदलाव, बदली या तबादला। इस रूप में न्याय पूर्ण बदलाव को ही तबादला कहा जाना चाहिए मगर तुष्टिकरण के इस युग में आज तबादला एक ऐसा औजार बन गया है जिससे न्यायपूर्ण बदलाव का काम नहीं लिया जा रहा है। तबादला आज न जाने कितने अनुचित कर्मों की वजह बन चुका है। 
ब आते हैं अदला-बदली के दूसरे हिस्से पर। सेमेटिक मूल की एक धातु है ब-द-ल जिससे बने हैं बदल, बदाला या बदला जैसे शब्द। मूलतः इनमें आदान-प्रदान, स्थानापन्न या लेन-देन का भाव ही समाया हुआ है। प्राचीन विश्व में कारोबार में मौद्रिक भुगतान की एवज में लेनदेन की प्रणाली ही प्रचलित थी जिसे वस्तु विनिमय कहा जाता है। इस बदाल या बदल में यह भाव भी शामिल है। गौरतलब है कि अरबी लोगों का जिक्र प्राचीन काल से ही गहन कारोबारी समझ रखने वाली जाति के तौर पर होता आया है। अरबों का हमलावर रूप देखने से सदियों पहले से भारतीय उनके सौदागर रूप से ही परिचित थे। अदला-बदली शब्द का मूलार्थ किसी ज़माने में वस्तु विनिमय से ही जुड़ा था और यह शब्द भी अरब सौदागरों ने ही ईजाद किया होगा। जिसने बाद में व्यापारिक शब्द संपदा में अपनी जगह बनाई और फिर व्यापक अर्थ ग्रहण करते हुए बोलचाल की भाषा में समा गया।
लेन-देन या स्थानापन्न के रूप में बदल का ही रूप बदला में नजर आता है। हिन्दी-उर्दू में बदला शब्द का प्रचलित अर्थ प्रतिशोध ही होता है। हालांकि प्रतिशोध को एक क्रिया की न्यायपूर्ण प्रतिक्रिया नहीं कहा जा सकता है मगर यह अदला-बदली ज़रूर है। किसी वस्तु को बदल देने का मतलब होता है वैसी ही दूसरी वस्तु को वैकल्पिक तौर पर प्रस्तुत करना। व्यापारिक शब्दावली में अदला-बदली में संतुलन महत्वपूर्ण होता है मगर प्रतिशोध में अक्सर यह संतुलन बिगड़ता है। प्रतिशोध में संतुलन का विकल्प नहीं होने से अक्सर बदले की क्रिया ज्यादा व्यापक और भारी होती है। बदले का यही असंतुलन अदालत मे जाकर न्यायदेवी के तराजू में तौला जाता है। आज के दौर में तो अदालतों को बदले की कार्रवाई की जगह बनाया जाने लगा है। प्रायः विचाराधीन मामलों में पेशी के दौरान बदमाशों द्वारा अदालत परिसर में गोली-बारी होती है। न्याय में विलंब से तंग आकर फरियादी आपा खोकर कई बार न्यायकर्ता के साथ अशोभनीय व्यवहार के जरिये इसका बदला लेते नजर आते हैं।

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Sunday, February 22, 2009

अफ्लूभाई भले लगे…

पिछली कड़ी-  “ भाईजी, आपसे अच्छा तो आपका ब्लाग है...”

ब्ला गजगत में अफ़लातून उन वरिष्ठ ब्लागरों में हैं जिन्होने 2004 के आसपास हिन्दी ब्लागिंग शुरू की थी और तब से अब तक इस माध्यम की विकास यात्रा के गवाह रहे है बल्कि लगातार उसे बढ़ावा देने के लिए सार्थक प्रयास भी करते रहे हैं। वे सक्रिय सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और बीते चार दशकों के दौरान देश-दुनिया में आए बदलावों को उन्होने गहराई से देखा-परखा है। अपने बारे में विस्तार से बकलमखुद में लिख चुके हैं।
11313lokrang 922अफ़्लू भाई का विगत एक माह में दो बार भोपाल आना हुआ। उनका पहला फेरा पंद्रह जनवरी को लगा, जब वे अपनी पार्टी (समाजवादी जन परिषद) के काम से दक्षिण भारत जा रहे थे। तीन-चार दिन पहले उन्होने हमे इसकी सूचना दे दी थी। उन्हें यूं तो इटारसी से होकर गुज़रना था। देश के बड़े रेलवे जंक्शनों में इटारसी है और इसे दक्षिण का दरवाज़ा कहा जा सकता है। भोपाल से इटारसी की दूरी करीब पिच्चासी किमी है। भोपाल में रहनेवाले ब्लागर मित्रों व अन्य दोस्तों से मिलने की ललक के चलते उन्होने तय किया कि दक्षिण के लिए इटारसी से ट्रेन पकड़ने से पहले ऐसा प्रबंध किया जाए कि भोपाल के मित्रों से मिलना भी हो जाए और फिर इटारसी जाकर ट्रेन पकड़ ली जाए।
11313अफ्लू भाई के एक मित्र यहां रेलवे के डीआरएम कार्यालय में अधिकारी हैं सो उन्होंने रेलवे गेस्ट हाऊस में उनके रुकने का प्रबंध करा दिया, वर्ना हमने अपने यहां उनका प्रबंध कर रखा था। हालांकि इस यात्रा में अफ्लूभाई हमारे पल्ले कम ही पड़े क्योंकि पत्रकारिता के छात्रों के साथ उनकी एक गोष्ठी तय हो चुकी थी। बहरहाल, हम उसी गोष्ठी में उनसे मिलने पहुंचे। वहां रविरतलामी भी थे। पत्रकारिता के छात्रो को अफ्लूभाई ने ब्लागिंग के शुरुआती दौर की बातें बताईं। वर्डप्रेस और ब्लागस्पाट की विशेषताओं की जानकारी दी। वे तीन-चार ब्लाग चलाते हैं, उनके बारे में विस्तार से बताया और ब्लाग की सामाजिक भूमिका, उसकी शक्ति और सार्थक प्रयोग के बारे में संक्षिप्त सी जानकारी दी। हमें जल्दी थी सो उन्हें पत्रकारिता के भावी कर्णधारों के बीच छोड़कर हम निकल लिए। वे भी शाम को वाया इटारसी अपने गंतव्य के लिए रवाना हो गए।
11313तीन दिन पहले यानी गुरुवार बीस फरवरी को अफ्लूभाई का फिर भोपाल आना हुआ। उनकी पार्टी मध्यप्रदेश के आदिवासियों-वनवासियों के बीच कई वर्षों से सक्रिय भूमिका निभा रही है। हरदा क्षेत्र में चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता शमीम मोदी की गिरफ्तारी के विरोध में आयोजित प्रदर्शन में हिस्सा लेने वे बनारस से सुबह भोपाल पहुंचे। हमने उन्हें पहले ही बता दिया था कि वे सीधे घर आ जाएं क्योंकि इस बार भी वक्त कम था। साठे आठ बजे अफ्लूभाई कंधे पर थैला लटकाए हमारे घर पहुंच गए। चाय के साथ बातचीत शुरू हुई। अफ्लूभाई के घर में कई संस्कृतियों का मेल है। गुजराती, बांग्ला, उड़िया, मराठी और तमिल भाषा-भाषियों से उनका कुठुम्ब पूरा होता है। पार्टी के विस्तृत दायरे और उनके सामाजिक क्षेत्र को भी मिला लिया जाए तो अनुमान लगाया जा सकता है कि उनुभवों की कितनी विशाल पूंजी वे साथ लिये चलते हैं। उन्हें बोलना अच्छा लगता है (जाहिर है, सामाजिक कार्यकर्ता चुप रह कर जिंदा नहीं रह सकता), मगर दो बार की मुलाकातों में वे मुझे बहुत विनम्र, स्नेही लगे।
11313गांधीवादी पृष्ठभूमि से जुड़े होने के चलते वहीं संस्कार उनके व्यक्तित्व में भी दिखते हैं। उनके पितामह महादेवभाई देसाई, महात्मा गांधी के

अफ़लातून और रवि रतलामीImage016Image021

निजी सचिव थे। अफ़लातून जी बनारस में रहते हैं। उनका एक पुत्र है जो जर्मनी में है और एक बिटिया है प्योली जिसने हाल ही मे दिल्ली में वकालत शुरू की है। अफलातून जी की जीवनसंगिनी डॉ.स्वाति  काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में विज्ञान की प्राध्यापक हैं। बेटी ने वकालत के लिए दिल्ली ही क्यों चुना, इस पर अफलातून जी ने बताया उसकी पढ़ाई भी दिल्ली में ही हुई है। ग्रेज्यूएशन के बाद एलएलबी वहीं से किया है। वो पढाई में तेज हैं। अफ़लातून जी बताते हैं कि उसकी मां नहीं चाहती थी कि अपनी मेहनत के दम पर पढ़ाई में अच्छे नतीजे लाने वाली उनकी बेटी की कामयाबी को लोग यह कह कर हल्का तौलें कि जब मां प्रोफेसर है तो बेटी अव्वल क्यों नहीं आएगी !! इसी लिए इंटर के बाद इस मध्यवित्त परिवार ने यही तय किया कि वह बीएचयू में न पढ़े। हमें यह बात बहुत अच्छी लगी। अफ्लूभाई भी पहले विश्वविद्यालय में ही थे मगर  उनकी सामाजिक गतिविधियों को विश्वविद्यालय ने असामाजिक माना। तब से वे पूर्णकालिक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। यूं वे मानते हैं कि अगर वे अध्यापक होते तो यकीनन सांख्यिकी ही पढ़ाना पसंद करते। यह सुनकर अपन ने तो विषय बदल दिया क्योंकि अपन को गणित की किसी भी किस्म से नफरत हैं।
11313बातें करते हुए याद आया कि उन्हें बारह बजे धरना स्थल पर पहुंचना है और करीब पौन घंटा वहां पहुंचने में लग जाएगा लिहाजा वे स्नान-ध्यान से निवृत हो जाएं तब तक नाश्ता तैयार हो जाएगा और हम उन्हें सविधाजनक दूरी तक छोड़ देंगे। नाश्ते के साथ बातचीत का दौर फिर शुरू हुआ। ब्लागिंग पर कुछ खास बात नहीं हुई। अलबत्ता बीच बीच में इसका जिक्र आता रहा। हम अभी तक मानते थे कि हिन्दी ब्लागर टिप्पणी प्रेमी हैं और इसीलिए हिन्दी ब्लागों पर टिप्पणियां खूब देखने को मिलती हैं मगर अफ्लूभाई ने बताया कि ऐसा नहीं है। विदेशी भाषाओं के ब्लागों पर भी खूब टिप्पणियां लिखी जाती हैं। उन्होने बताया कि उनका पुत्र जर्मनी में है और उसका भी ब्लाग है जिस पर काफी प्रतिक्रियाएं मिलती हैं। फर्क यही है कि हिन्दी ब्लागिंग में अभी आरएसएस फीड या गूगल रीडर के जरिये ब्लागपठन का चलन आम नहीं है। ज्यादातर लोग एग्रीगेटर पर ही जाना पसंद करते हैं इसलिए ब्लाग पर टिप्पणी मिलती है।
11313एक बात यह भी सामने आई कि तेजी से बढ़ती हिन्दी ब्लागों की तादाद देखते हुए ब्लागएग्रीगेटर के जरिये अपनी पसंद के ब्लाग के अपडेट होने की सूचना पाना आसान नहीं रह जाएगा क्योंकि मिनट दर मिनट प्रविष्टियों के प्रकाशन की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे में कोई भी प्रविष्टि बहुत थोड़े समय के लिए अग्रिम पृष्ठो पर नजर आएगी और देखते ही देखते प्रविष्टियों के अंबार में गुम हो जाएगी। उन्होने कहा कि मैथिली जी (ब्लागवाणी के संचालक) से भी उनकी इस बारे में चर्चा होती रहती है। अफ्लूभाई की पिछली यात्रा के दौरान रवि रतलामी जी ने भी यही बात कही थी। हमारा मानना है कि इसके बावजूद लोग एग्रीगेटर पर इसलिए जाएंगे क्योंकि उन्हे अधिक पढ़े हुए चिट्ठे, अधिक टिप्पणी प्राप्त चिट्ठे और अधिक पसंद की गई पोस्ट की जानकारी वहीं पर मिलेगी जिसके जरिये पाठक को इन तीन फीचर्स के जरिये ही उस दिन की प्रमुख ब्लागीय हलचल की जानकारी तो अवश्य हो जाएगी। हमारी बात से अफ्लूभाई भी सहमत थे। इस चर्चा को विराम देना पड़ा, क्योंकि घड़ी साढ़े ग्यारह बजा रही थी और अफ्लूजी को प्रदर्शन स्थल के लिए निकलने का इशारा मिल चुका था। जो भी हो, दो मुलाकातों में हमारे हिस्से आए थोड़े-थोड़े ही सही, पर अफ्लूभाई भले लगे। 
[अगली कड़ी में फिर एक मेहमान ]

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Saturday, February 21, 2009

मसिजीवी देखें, कुछ बेहतर हुआ !

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शुक्रवार को मसिजीवी ने दीवान पर एक चर्चासूत्र (थ्रेड) देखा तो उस पर सार्थक पोस्ट लिखी मगर साथ ही साथ चर्चासूत्र का एक सिरा हमारी और तैरा दिया जो देर शाम हमें अपनी नेटझोली में मिला और संदर्भित पोस्ट हम देर रात घर पहुंचने पर ही पढ़ पाए। भाषा पर ऐसे विमर्श चलते रहना चाहिए, इसीलिए विजेन्द्रभाई के आग्रह पर हम भी कुछ गप-शप कर लेते हैं।
नि श्चित ही अच्छा की विशेषण अवस्थाओं को अगर देखें तो विशेषण की मूलावस्था, उत्तरावस्था और उत्तमावस्था के जो रूप बनेंगे वे अच्छा-बहुत अच्छा-सबसे अच्छा होंगे। श्रेष्ठ शब्द पर इसकी आजमाइश करें तो श्रेष्ठ > श्रेष्ठतर > श्रेष्ठतम जैसे रूप बनेगे। इनकी तुलना में हिन्दी में अच्छाई के विशेषण रूपों में बेहतर और बेहतरीन शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा होता है। सवाल है कि बेहतर और बेहतरीन तो दो ही रूप हुए। इसका पहला रूप क्या है ? अच्छा शब्द की विशेषण अवस्थाएं बताने के लिए उसके आगे बहुत (अच्छा) और सबसे (अच्छा) जैसे उपसर्ग-विशेषण लगाने पड़ते हैं जबकि व्याकरण सम्मत प्रत्ययों की सहायता से बनें विशेषणों का प्रयोग करने से न सिर्फ भाषा में लालित्य बढ़ता है बल्कि उसमें प्रवाह भी आता है।
बेह इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और हिन्दी में इसकी आमद फारसी से हुई है। बेह का मतलब होता है बढ़िया, भला, अच्छा आदि। बेह की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द भद्र bhadra से मानी जाती है जिसका मतलब, शालीन, भला, मंगलकारी आदि होता है। फारसी में इसका रूप बेह हुआ। अंग्रेजी में गुड good के सुपरलेटिव ग्रेड(second) वाला बेटर better अक्सर हिन्दी-फारसी के बेहतर का ध्वन्यात्मक और अर्थात्मक प्रतिरूप लगता है। इसी तरह बेस्ट best को भी फारसी बेहस्त beh ast पर आधारित माना जाता है। अंग्रेज विद्वानों का मानना है कि ये अंग्रेजी पर फारसी, प्रकारांतर से इंडो-ईरानी प्रभाव की वजह से ही है। यूं बैटर-बेस्ट को प्राचीन जर्मन लोकशैली ट्यूटानिक का असर माना जाता है जिसमें इन शब्दों के क्रमशः बेट bat (better) और battist (best) रूप मिलते हैं।
Copy of red line  2869231697_4e81f6778d रविकांत कहते हैं-                    तर, और तम प्रत्यय के प्रसंग में याद आया कि एक शब्द हमलोग इस्तेमाल करते हैँ: तरतमता - जो अमूमन अंग्रेज़ी शब्द - हायरार्की - का अनुवाद है। इसको अगर तोड़ें तो तर इसी फ़ारसी+संस्कृत परंपरा से लिया गया है, जैसे वृहत्तर में, और तम तो संस्कृत से है ही दोनों में ता लगाकर विशेषण बना लिया. कहते हैं न सुंदर - सुंदरतर - सुंदरतम. तरतमता इस लिहाज़ से श्रेणीबद्धता/पदानुक्रम आदि जैसे चालू अलफ़ाज़ से मुझे बेहतर लगता है कि यह ज़बान पर आसानी से चढ़ता है, और इस ख़याल को समझाने में बहुत सहूलियत देता है. बस इसी तरह अन्वय कर दीजिए और बात साफ़!                                                                         मसिजीवी कहते हैं- vijender1                                     मुझे इस क्रम में ये तरतमता एक बेहतरीन प्रयोग लगा। इसलिए भी कि यह शब्‍द अर्थ की अपनी तहें खुद में समेटे है। अब तक मैं हायरार्की के लिए पदसोपान शब्‍द का प्रयोग करता रहा हूँ। पदसोपान हो या पदानुक्रम दोनों में अर्थ संकुचित प्रतीत होता है जो नौकरशाही की तरतमता को तो पकड़ता है लेकिन बाकी दुनिया जहान की तरतमता उसके हाथ से फिसल जाती हैं। तो अगली बार परिवार, ब्‍लॉगजगत, दफ्तर, भाषा, खेल, या कहीं भी हायरार्की दिखे तो उसे कह सकते हैं तरतमता।                    विस्तार से देखें यहां 
ट्यूटानिक में भद्र का रूप भट bhat होते हुए bat में बदला। यह प्रभाव कब अंग्रेजी में सर्वप्रिय हुआ, कहना मुश्किल है मगर यह इंडो-ईरानी असर ही है। किसी ज़माने में सुपरलेटिव ग्रेड के लिए अंग्रेजी में गुड > गुडर > गुडेस्ट (good, gooder, goodest) चलता होगा इसका प्रमाण अमेरिकी अंग्रेजी की लोक शैली में मिलता है जहां ये रूप इस्तेमाल होते हैं। जाहिर है कि मूल यूरोप से आई अंग्रेजी ने यह प्रभाव अमेरिकी धरती पर तो ग्रहण नहीं किया होगा क्योंकि अगर ऐसा होता, तो प्रचलित अंग्रेजी में ये प्रयोग आम होते। निश्चित ही ट्यूटानिक प्रभाव से अछूते रहे चंद यूरोपीय भाषाभाषियों के जत्थे भी अमेरिका पहुंचे होंगे जो गुड > गुडर > गुडेस्ट कहते होंगे। बेह से विशेषण की तीनों अवस्थाएं यूं बनती हैः बेह > बेहतर > बेहतरीन।
गौरतलब है कि विशेषण अपनी मूलावस्था में अपरिवर्तनीय होता है। उसकी शेष दो अवस्थाओं के लिए ही प्रत्ययों का प्रयोग होता है। बेहतर में जो तर प्रत्यय है उसे कई लोग फारसी का समझते हैं जो मूलतः संस्कृत का ही है, मगर उत्तमावस्था के लिए वहां एक अलग प्रत्यय ईन (तरीन) बना लिया गया। यह प्रक्रिया अन्य विशेषणों के साथ भी चलती है जैसे बद > बदतर > बदतरीन , खूब > खूबतर > खूबतरीन, बुजुर्ग > बुजुर्गतर > बुजुर्गतरीन वगैरह। तर और तम दोनो प्रत्यय संस्कृत के हैं और विशेषण के सुपरलेटिव ग्रेड superlative grade में इस्तेमाल होते हैं, जिन्हें हिन्दी में उत्तरअवस्था और उत्तमअवस्था कहा जाता है। गौर करें कि उत्तर से ही बना है तर् प्रत्यय और उत्तम से बना है तम् प्रत्यय। यह हिन्दी की वैज्ञानिकता है कि किसी भी विशेषण की उत्तरावस्था/उत्तमावस्था बनाने के लिए उसके साथ तर/तम लगाना इस तरह याद रहता है। ज़रा देखें- उच्च > उच्चतर > उच्चतम। गुरु > गुरुतर > गुरुतम। महान > महत्तर > महत्तम। लघु > लघुतर > लघुत्तम आदि।
विकांतजी द्वारा तरतम या तरतमता के संदर्भ में कही गई बात गले नहीं उतरती।  स्वतंत्र रूप से तर् और तम् प्रत्ययों का कोई अर्थ नहीं है। यूं भी मूल शब्द में प्रत्यय लगने से नई शब्दावली बनती है, दो प्रत्ययों के मेल से कभी शब्द नहीं बनता। तब इनके मेल से बने तरतम और ता प्रत्यय लगने से इसके विशेषणरूप तरतमता का भी कोई अर्थ कैसे निकल सकता है, जबकि वे इसका अर्थ हायरार्की बता रहे हैं। जाहिर है गड़बड़ हो रही है। तरतम बेशक हिन्दी की मैथिली और मराठी भाषाओं में उपयोग होता है मगर यह तद्भव रूप में ही होता है जो कि लोकशैली का खास गुण है। सीधे-सीधे हिन्दी क्षेत्रों से जुड़े लोगों को मैने विरले ही इस शब्द का प्रयोग करते सुना है। खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़, हरियाणा और राजस्थान में जहां मैं रहा हूं और इसका प्रयोग नहीं सुना। अलबत्ता इसके तत्सम रूप तारतम्यम् पर गौर करें तो पाएंगे कि इसका हिन्दी रूप तारतम्य खूब बोला जाता है और वहां इसका उच्चारण इंच मात्र भी तरतम की ओर खिसकता सुनाई नहीं पड़ता। आप्टेकोश के मुताबिक तारतम्यम् शब्द तरतम+ष्यञ्च के मेल से बना है। स्पष्ट है कि संस्कृत में तरतम धातुरूप में पहले से मौजूद है जिसमें क्रमांकन, अनुपात, सापेक्ष महत्व, अन्तर-भेद जैसे भाव हैं जो हिन्दी के पदानुक्रम जैसे सीमित भाव की तुलना में कहीं व्यापक अर्थवत्ता रखता है। अपन को व्याकरण का ज्यादा ज्ञान नहीं है। शायद अपनी बात कुछ कह पाया हूं, कुछ नहीं।

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Friday, February 20, 2009

इसलिए पाहुन है दामाद…

….यह दिलचस्प है कि दामाद रिश्तेदार बनने के बाद भी पाहुन ही कहलाता है…. _42827103_weddingab3_afp
तिथि को भारतीय संस्कृति मे देवता समान माना जाता है। अगर अतिथि से रिश्तेदारी स्थापित करनेवाला एक खास शब्द हिन्दी समेत कई भारतीय भाषाओं में प्रचलित है-पाहुन या पाहुना। आमतौर पर इसका मतलब भी मेहमान या अतिथि ही होता है मगर लोक संस्कृति में पाहुन का अर्थ जमाई या दामाद के तौर पर ज्यादा प्रचलित है। उप्र, बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मालवांचल में यह इसी रूप में प्रचलित है।
प्राचीनकाल में, जब आवागमन के साधन सुलभ नहीं थे, देश-दुनिया को जानने-समझने की चाह में लोगों ने चरणों का ही सहारा लिया। चरणों के बल पर हमारे पुरखों ने विश्व परिक्रमा कर डाली और ज्ञान की ऐसी थाती ग्रंथो में छोड़ गए जिसका अध्ययन आज तक चल रहा है। देशाटन या पर्यटन की अभिलाषा में पदयात्री बनना पहली शर्त थी। एक निश्चित दूरी तय करने के बाद यात्री किसी ठिकाने पर विश्राम करते थे। इसे भी चरण ही कहा जाता था। ऐसे कई चरणों अर्थात पड़ावों से गुजरती हुई यात्रा सम्पूर्ण होती थी। गौर करें चरणों से तय की गई दूरी को विश्राम के अर्थ में भी चरण नाम ही मिला। बाद में चरण शब्द का प्रयोग और व्यापक हुआ तथा ठहराव के अर्थ में ग्रंथ के अध्याय, मुहिम के हिस्से या योजना के भाग, हिस्से या खंड के रूप में भी चरण शब्द का प्रयोग चलता रहा।
प्राचीनकाल मे आतिथ्य परंपरा के अनुसार कई चरणों में घुमक्कड़ी करनेवाले यात्रियों को विश्राम के लिए ग्राम या नगरवासी अपने पलक-पावड़े बिछा देते थे। प्रायः गांव के हर घर मे कोई न कोई पाहुना होता ही था। इसके मूल में घुमक्कड़ी ही थी। संस्कृत में घूर्ण शब्द का अर्थ होता है चक्कर लगाना, चलना, निरंतरता आदि। इसमें प्रा उपसर्ग लगने से बना प्राघूर्णः जिसका अपभ्रंश रूप पाहुण्णअ हुआ जो पाहुना में बदला। मराठी में इसे पाहुणा, राजस्थानी में पावणा कहते हैं। भाव यही है कि जो लगातार घूमता रहे वह पाहुना। घूर्ण में घूमने अर्थात चक्रगति के साथ पर्यटन का भी भाव है। पाहुना को दामाद या जमाई समझने के पीछे भी लोक संस्कृति ही है। यह दिलचस्प है कि
...दामाद को अगर ज्यादा दिन घर में टिका लिया तो वह घर भर को चकरघिन्नी बनाकर रख देगा...
दामाद के माता-पिता तो समधी कहलाते हैं अर्थात वे वधु पक्षवालों के संबंधी बन जाते हैं मगर उनका पुत्र पाहुना अर्थात मेहमान ही कहलाता है....ऐसा क्यों ? अतिथि देवो भवः की संस्कृति वाले समाज ने दामाद को पाहुना इसी लिए कहा ताकि उसका विशिष्ट आतिथ्य बरकरार रहे। यूं भी वर पक्ष के यहां दामाद का आगमन कन्या की विदाई के लिए ही होता है, सो कुछ दिनों की खातिरदारी वधुपक्ष को गवारा थी मगर दामाद का लगातार कई दिनों तक ससुराल में टिकना यूं भी पितृसत्तात्मक समाज मे अच्छा नहीं माना जाता। अलबत्ता पूर्वी और दक्षिण भारत के कुछ समाजों में जहां मातृसत्तात्मक समाज व्यवस्था थी वहां घर जमाई की ही परंपरा थी वहां दामाद पाहुना नहीं रहता था। घूर्णः से ही हिन्दी का घूमना शब्द भी बना है, क्रम कुछ यूं रहा घूर्णः > घूर्णनीयं > घुम्मणअं > घुम्मना > घूमना। घुमक्कड़, घूमंतु शब्द भी इसी मूल के हैं। चकरी के अर्थ में घिरनी शब्द इसी मूल का है। बांग्ला में घुमाने को घुरानो और सिंधी में फेरी लगाने को घोरानो कहते हैं। सावन के मौसम में घटाओं का घुमड़ना, मन में विचारों का घुमड़ना दरअसल एक किस्म का मंथन है, जो अस्थिरता का सूचक है। यह घूर्णः से ही आ रहा है। घूर्ण की तर्ज पर संस्कृत में घूर्म भी है जिसमें भी चक्रगति, भ्रमण, घूमने का भाव है। राजस्थानी लोकनृत्य घूमर के मूल में यही है।

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Thursday, February 19, 2009

धींगड़ी को जरा भी शऊर नहीं…

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ढ़ती उम्र के लड़के-लड़कियों को उनकी आयु का एहसास कराने के लिए अक्सर अभिभावक और बुजुर्ग तरह-तरह के उलाहने देते हैं जिसका अभिप्राय होता है वे अपनी आयु के अनुकूल व्यवहार करें और भविष्य की जिम्मेदारियों के प्रति गंभीर हो जाएं। इसी के तहत किशोरावस्था से ऊपर चढ़ते लड़के-लड़कियों को धींगड़ा या धींगड़ी कहा जाता है। वाक्य प्रयोग कुछ यूं होते हैं-धीगड़ा हो गया पर किसी काम का नहीं या धींगड़ी को जरा भी शऊर नहीं ? जानते हैं कहां से आए हैं ये शब्द और इनका सही मतलब क्या है।
हि न्दी का एक शब्द है दृढ़ जिसका मतलब होता है कठोर या मजबूत। मूल रूप से संस्कृत के इस शब्द में पक्का, टिकाऊ, ताकतवर, पकड़, कब्जा, जकडना, थामना, स्थायी, बलिष्ठ, डील-डौल, अडिग रहने के भाव हैं। दृढ़ शब्द बना है दृह धातु से जिसमें स्थिर होना, कसना, समृद्ध होना और विकसित होना-बढ़ाना जैसे भाव हैं। दृढ+अंग से मिलकर बना है दृढ़ांग जो ध्रिड़ांग > धिडंगआ > धिंगड़आ; होते हुए
...धींगड़ा/धींगड़ी शब्द में कई सारे भाव शामिल हैं मसलन बलवान, हट्टाकट्टा, साहसी, छैला,सजीला,अकड़ू आदि ...
वर्ण विपर्यय के जरिये धींगड़ा बना होगा। दृढ़ और अंग के मेल से बने धींगड़ा का शब्दार्थ होता है मज़ूबत कद काठी का। हृष्ट-पुष्ट बढ़ती उम्र में शरीर परिपुष्ट होता है इसीलिए किशोर बच्चों के लिए धींगड़ा शब्द रूढ हो गया। मगर धींगड़ा शब्द में कई सारे भाव शामिल हैं मसलन छैला, रंगीला, साहसी, बलवान, मोटा, हट्टा-कट्टा, कद्दावर, बलिष्ठ आदि। शरारती और नटखट के अर्थ में भी इसके स्त्रीवाची और पुरुषवाची रूपों का चलन है।
गौरतलब है कि मनमानी करनेवाले लोगों को अपने शारीरिक बल का ही घमंड होता है। यह घमंड ही उन्हें नियम-तोड़ने को उकसाता है और वे अपराध तक करने लगते हैं, इसीलिए नकारात्मक भाव के साथ धींगड़ा शब्द बाहुबलियों, गुंड़ो, मवालियों के लिए भी प्रयुक्त होता है। सामान्य तौर पर भी बेशर्म, नालायक, बेशऊर और लम्पट के अर्थ में धींगड़ा या धींगड़ी शब्दों का इस्तेमाल समाज में होता है।
धींगड़ा या धींगड़ी शब्द के मायने धींगामस्ती की छाया में समझने में आसानी होगी। धींगामस्ती के साथ लगा मस्ती शब्द अपने-आप इसका संकेत देता है कि यहां मस्ती से कहीं आगे की बात कही जा रही है। धींगामस्ती से भाव हुड़दंग, उठापटक या हाथापायी या उत्पात मचाने से है। असल में इसका सही रूप धींगा-मुश्ती है जो उर्दू का है और बरास्ता फारसी हिन्दी में दाखिल हुआ। धींगामुश्ती के मुश्ती को हिन्दी में कई लोग मस्ती भी उच्चारने लगे और धींगामस्ती शब्द भी चल पड़ा। धींग या धींगा भी धींगड़ा से ही जन्मे हैं। इसका धिंग रूप भी प्रचलित है। धिंगाधिंगी शब्द का मतलब भी उधम या मस्ती ही होता है। मुश्त का मतलब होता है मुट्ठी और यह मुश्त से ही बना है। जाहिर है जोर आज़माइश मुट्ठी यानी पकड़ से ही की जाती है। अब धींगामुश्ती का हाथापायी अर्थ एकदम साफ है। स्पष्ट है कि धींगा या धिंगा संस्कृत-प्राकृत मूल से ही पश्चिमोत्तर क्षेत्र की भाषाओं में दाखिल हुआ।
पंजाबी में साहसी, मजबूत व्यक्ति को धिंगा या डिंगा कहा जाता है। पाकिस्तान में कस्बे का नाम है डिंगा जो गुजरांवाला जिले में है। इसे किसी डिंगासिंह नाम के महाबली व्यक्ति की वजह से यह नाम मिला। पंजाब में भी डिंगासिंह नाम मिलते हैं। डिंगा शब्द अफगानी, ईरानी की कई बोलियों में इन्हीं अर्थो में इस्तेमाल होता है।  इन्हीं भाषाओं के

dengue डिंगा शब्द से जुड़े कई अर्थों का मिलाजुला सा  प्रयोग स्वाहिली में एक विशिष्ट बुखार के संदर्भों में हुआ जो मच्छरों द्वारा फैलाया जाता है।

जरिये डिंगा शब्द स्वाहिली भाषा में भी दाखिल हुआ। गौरतलब है कि अफ्रीका की स्वाहिली में स्थानीय बोली के शब्दों के साथ-साथ अरबी के शब्दों की भरमार है। इसके अलावा फारसी और भारतीय मूल के शब्द भी इसमें हैं।
डेंगू बुखार कुछ समय पहले बड़ा चर्चित हुआ था। इस डेंगू का मूल भी डिंगा ही समझा जाता है। डिंगा शब्द से जुड़े कई अर्थों का मिलाजुला से प्रयोग एक विशिष्ट बुखार के संदर्भों में हुआ जो मच्छरों द्वारा फैलाया जाता है। इस बुखार में समूचे शरीर का पोर-पोर, जोड़-जोड़ दर्द करता है। डिंगा का यहां अर्थ हुआ बुरी आत्माओं द्वारा फैलाया गया उत्पात। स्वाहिली से डिंगा dinga स्पैनिश में गया और इसका डेंगू रूप प्रचारित हुआ Dengue के तौर पर। दिलचस्प यह कि स्पैनिश में इस डेंगू ने फिर वहीं भाव ग्रहण कर लिए जो इसके एशियाई मूल स्वरूप के साथ जुड़े थे अर्थात बनठन कर रहनेवाला, कड़ियल जवान, छैलाबाबू आदि। करीब दो सदियों पूर्व वेस्टइंडीज़ के स्पेनीभाषी क्षेत्रों में इस बुखार ने अपने पैर पसारे और दुनिया को इसकी जानकारी मिली। वहां इसे डेंडी फीवर dandy fever कहा गया जो  स्पेनिश के Dengue से ही बना था। डेगूं बुखार में जोड़ों के दर्द की वजह से मनुष्य अकड़ कर चलता है और यही लक्षण इसके डेंगू नामकरण की वजह बना।

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Wednesday, February 18, 2009

आटा-दाल का भाव…[खान पान-6]

Wheat_Flour_d संस्कृत में एक धातु है अर्द् जिसमें भी तोड़ने, मारने, कुचलने, दबाने, चोट पहुंचाने, प्रहार करने जैसे भाव है। अर्द का प्राकृत रूप अट्ट था। जिससे हिन्दी में आटा शब्द बना।
इस श्रंखला की पिछली कड़ी-अदरक में नशा है...[खानपान-5]
सां सारिक बातों के व्यावहारिक ज्ञान अथवा दुनियावी मुश्किलात से अवगत होने को मुहावरे में आटा-दाल का भाव पता चलना भी भी कहा जाता है। रोटी, कपड़ा और मकान का संघर्ष आटा-दाल के मुहावरे से जुड़ा है। अब रोटी तो तभी बनेगी जब आटा होगा। अक्सर ग़रीबी में आटा गीला होता है। रोटी बनाने के लिए जितना गीला आटा होना चाहिए, टपकता छप्पर जब उससे भी ज्यादा गीला कर देता है तो गरीबी और अभिशाप बन जाती है। इस मुहावरे में मुश्किल वक्त की दुश्वारी की ओर इशारा है। बहरहाल इन कहावतों में आटे की महत्ता ही सामने आ रही है।
खिर क्यों न हो। रोटी अगर जीवन का आधार है तो रोटी का आधार ही आटा aata है। आटा कहां से आया। आटा का संबंध फारसी से बताया जाता है क्योंकि फारसी में अनाज से बने आटे को आर्द या अरद arad कहा जाता है। अरद का मतलब होता है तोड़ना, पीसना, कुचलना आदि। दरअसल यह इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है। संस्कृत में एक धातु है अर्द् जिसमें भी तोड़ने, मारने, कुचलने, दबाने, चोट पहुंचाने, प्रहार करने जैसे भाव है। अर्द का प्राकृत रूप अट्ट था। जिसने हिन्दी में आटा का रूप ग्रहण किया जिसका मतलब हुआ पिसा हुआ बारीक अनाज। हिन्दी की विभिन्न बोलियों और देश की ज्यादातर भाषाओं में इससे मिलते जुलते शब्द ही हैं। सिंधी में इसे आटी, गुजराती में आटी, कश्मीरी में ओटु, मराठी में आटवल आदि कहा जाता है।
टे से मिलता जुलता ही एक और शब्द है जिसे इसके विकल्प के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है वह है पीठी । यह पीठी pithi  किसी भी चीज़ की हो सकती है। दाल, धान, मेवे, मसाले किसी भी चीज़ की मगर इसका प्रयोग बतौर आटे के विकल्प अर्थात अनाज की पीठी के रूप में होता है। यह बना है संस्कृत के पिष्ट से जिसका अर्थ है बारीक किया हुआ, चूर्ण किया हुआ, कूटना, आदि। पीठी में बदलने का इसका क्रम कुछ यूं रहा। पिष्टि > पिट्ठी > पीठी। संस्कृत के पिष्ट की मूल धातु है पिष् जिसमें कूटना, दबाना, रगड़ना, दोहराना, चोट पहुंचाना जैसे भाव हैं। दालों के चूर्ण, खासतौर पर चने की दाल के आटे अथवा पीठी को बेसन besan कहा जाता है, जो इसी पिष् से बना है और इसके बेसन में ढलने का क्रम कुछ यूं रहा- पिषन > पेषन > वेषन > बेसन। एक मान्यता यह भी है कि बेसन का निर्माण वेस् से हुआ है।

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मगर आप्टे कोश के मुताबिक वेस् का अर्थ चूर्ण तो होता है पर इसका अर्थ आटा या पीठी न होकर पिसे हुए मसाले से है मसलन जीरा, कालीमिर्च, राई, सोंठ आदि के योग से तैयार चूर्ण। इसलिए पिष् से ही बेसन का निर्माण तार्किक लगता है। कहने की ज़रूरत नहीं की बारीक बनाने, चूरा करने या चूर्ण बनाने की क्रिया के हिन्दी की पीसना-पिसाना या पिसाई जैसी क्रियाओं के पीछे यही पिष् धातु है। यूं भी व्यंजन की ध्वनि में ही बदलती है।
संस्कृत में एक मुहावरा है –पिष्टपेषण जो साहित्यिक हिन्दी में खूब इस्तेमाल होता है।इसका अर्थ होता है एक ही बात को बार-बार दोहराना, जिसका कोई अर्थ नहीं। गौर करें कि पिष्ट और पेषण ये दोनों शब्द एक ही मूल से जन्मे हैं और इनका अर्थ भी एक ही है। अतः पिष्टपेषण का मतलब हुआ पिसेपिसाए को पीसना। इसे नए रूप में चलाना चाहें तो कह सकते है-बेसन पीसना। वैसे कई लोग इस संदर्भ में आटा पिसाना जैसे वाक्यों को याद कर सकते हैं। गेहूं की पिसाई होती है, आटे की नहीं लिहाज़ा आटा पिसाना भी पिष्टपेषण ही हुआ। गौर करें कि कूटना, रगड़ना ऐसी क्रियाएं हैं जिनमें लगातार आवृत्ति या दोहराव की ही क्रिया सम्पूर्ण हो रही है। चक्की के दो पाटों के बीच में जब अनाज पड़ता है तो रगड़ने, घिसने की यही क्रिया उसे आटे का रूप देती है। पुराने ज़माने में अनाज कूटा ही जाता था। पहले उसका छिलका उतारने के लिए खलिहान में कूटा जाता था, उसके बाद ओखली में इसलिए कुटाई होती थी ताकी आटा मिल सके।

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