हरिद्वार के स्टेशन रोड स्थित स्वर्णकारों की धर्मशाला
मुं बइया चाल एक मंजिला या बहुमंजिला एक या दो कमरे के आवासों का संकुल है। इसमें कतार या पंक्ति का भाव प्रमुख है। संस्कृत के शालः शब्द में कतार, पंक्ति या लकीर का भाव छुपा है। दक्षिणी भाषाओं में इसके चाल्, चालु, साल जैसे रूप होते हैं। कतारबद्ध रिहायश के लिए चाल, सरणि अथवा प्रकोष्ठ के अर्थ में राजस्थानी के साल जैसे शब्दों का इनसे गहरा रिश्ता है।
......पुण्य कमाने की आशा में श्रेष्ठिवर्ग हर तीर्थस्थल पर अपने नाम से या समाज के नाम से धर्मशालाएं बनवाता था...
शल् धातु से ही निकला है शाला शब्द जो चाल के अर्थ को भी स्पष्ट करता है और चाल के मूल स्वरूप का भी पक्का प्रमाण माना जा सकता है। शल् धातु में आश्रय अथवा घिरे हुए स्थान का भाव है। शाला का मतलब होता है बड़ा कक्ष, कमरा अथवा विशाल प्रकोष्ठों का संकुल। स्टेडियम अथवा सभा स्थल के लिए प्रशाल शब्द का अभिप्राय भी किसी घिरे हुए स्थान से ही है। गौर करें कि स्कूल अथवा विद्याध्ययन केंद्र के रूप में शाला शब्द सर्वाधिक प्रचलित है। इसका मूल रूप पाठशाला है। मगर प्राचीनकाल से शाला शब्द की सामूहिक आवास, निवास, सम्मेलन, जमाव जैसे शब्दों से रिश्तेदारी है। पाठशाला की बनावट पर गौर करें। एक कतार में बने कमरे। एक लंबा गलियारा। एक सार्वजनिक अहाता। सार्वजनिक प्रसाधनों का निर्धारित स्थान। शाला में कतार का ही महत्व है। प्रार्थना की कतार, कक्षा में पंक्तिबद्ध बैठक व्यवस्था। आगमन और निगमन की कतार। अनुशासन का पहला सबक पंक्ति-क्रम बनाना ही हम पाठशाला में सीखते हैं। सफर की नियमित पाठिका किरण राजपुरोहित ने इस संदर्भ में महत्वपूर्ण जानकारी दी है। .राजस्थान में रजवाड़ों के ठिकानों, महलों और गांवों की हवेलियों में आज भी बड़े कमरों को साल कहा जाता है। इनके भीतर, या बाहर की तरफ छोटे दरवाजों वाले कक्ष होते हैं, जहां कीमती सामान रखा जाता है। इन सालों के नाम देखिये-जूनी साल, बड़ी साल या बैसा री साल। चाल शब्द से साल का अर्थसाम्य व ध्वनिसाम्य महत्वपूर्ण है।
कुछ शब्दों पर गौर करें। घुड़साल, पंसाल, पंसार, पंसारी, पाकशाला, टकसाल, यज्ञशाला। आदि। खोजने पर ऐसे अनेक शब्द मिल जाएंगे जिनके साथ शाला शब्द लगा है। पंसारी शब्द बना है पण्य+शाल से। पण्य यानी वस्तु, सामग्री। शाल यानी विशाल कक्ष। प्राचीनकाल में बड़े सार्थवाह के स्वामी, श्रेष्टिजनों के विशाल कोष्ठागार होते थे, ठीक आज के वेयर हाऊसों की तरह। यही पण्यशाला थी। इसका मालिक पण्यशालिक हुआ जिसका अपभ्रंश पंसारी हुआ। कहां थोक व्यापारी के रुतबे वाला बड़ा स्टाकिस्ट पण्यशालिक और कहां आज के रिटेल व्यापार की अंतिम कड़ी बेचारा पंसारी! जिस स्थान पर घोड़ों की परवरिश होती है उसे घुड़साल कहते हैं। निश्चित ही यह शब्द घोटकशाला से बना है। पुरानी घुड़सालों को देखें तो वहां घोड़ों को बांधने के कताबद्ध बाड़े जो विशाल कक्ष होते थे, मिलेंगे। रजवाड़ों के दौर के बाद अनेक स्थानो पर इन विशाल घुड़सालों को होटल मे तब्दील कर दिया गया है। ये तमाम शब्द भी मुंबइया चाल की एक कतार या पंक्ति में रिहायश को ही साबित कर रहे हैं।
आज जिसे हम
धर्मशाला कहते हैं वह यात्री-निवास जैसी व्यवस्था है। हर शहर में होटल, लॉज आदि होते हैं। धर्मशाला से तात्पर्य एक ऐसे विश्रामस्थल से है जहां दूरदराज के यात्री आकर निशुल्क या रियायती दरों पर रुक सकते हैं। प्राचीनकाल में यात्राएं अक्सर धार्मिक प्रयोजनों से होती थीं और लोग विशिष्ट अवसरों पर प्रसिद्ध तीर्थस्थलों पर जाया करते थे। दूरदराज के तीर्थयात्री लंबी पदयात्रा के बाद कई दिनों तक यहां टिकते थे। पुण्य कमाने की आशा में श्रेष्ठिवर्ग हर तीर्थस्थान पर ऐसी धर्मशालाएं बनवाया करते थे। मगर
धर्मशाला का मूल स्वरूप दरअसल
पाठशाला का ही था। ज्यादातर तीर्थस्थलों को किसी न किसी धार्मिक स्थल की वजह से ही महत्ता मिली है। चाहे वह हिन्दू , बौद्ध या जैन तीर्थ हो। नदियों किनारे ऋषिमुनियों के चातुर्मासी प्रवास भी उसे तीर्थ का दर्जा देते थे। धीरे धीरे ये बड़े मंदिरों और मठों का संकुल बन गए। यहां धार्मिक शिक्षा भी दी जाती थी जिसका प्रबंध मंदिरों से जुड़े मठ करते थे। चूंकि सन्यस्त व्यक्ति ही मठवासी हो सकता है इसलिए विद्याध्ययन के लिए शांत-सुरम्य स्थानों पर धर्मशालाएं बनवाई गईं। चातुर्मास अवधि का लाभ लेने यहां हर वर्ग के लोग आते
पाठशालाओं में बिखरता कतार का अनुशासन
और ठहरते तथा धार्मिक शिक्षा लेते थे। ऐसे पवित्र और प्राकृतिक स्थान पर ज्ञानार्जन का अलग महत्व होता है। बदलते वक्त में धार्मिक शिक्षा का महत्व कम होता गया, साथ ही यातायात के तेज साधनों ने चातुर्मास अवधि का महत्व भी घटा दिया, मगर तीर्थयात्राएं और बढ़ गईं। इस तरह धर्मशालाओं को यात्री निवास का रूप मिला।
माधव गोविंद वैद्य(शिक्षाविद, चिंतक ) अपनी संस्कृति पुस्तक में धर्मशाला की बहुत सुंदर दार्शनिक व्याख्या करते हैं। उनके मुताबिक व्यक्ति स्वयं को बड़ी इकाई में समर्पित कर दे, वही धर्म है। खुद के लिए आलीशान मकान बनवाना धर्मकार्य नहीं कहलाएगा मगर जब दूसरों के निवास के लिए आवास बनवाते हैं तो उसे धर्मशाला कहा जाता है। वहां कोई पूजा-पाठ, यज्ञ-कर्म आदि नही होते तो भी वह धर्मशाला क्यों है ? वैद्यजी का जवाब है, केवल इसलिए क्योंकि वहां व्यक्ति खुद को समूह अथवा समाज से जोड़ता है। यही धर्म है। इसीलिए जो आश्रय धर्म का निमित्त बना वह धर्मशाला है। मुंबईया चालों में सुदूर अंचलों से आए मेहनतकशों, श्रमजीवियों ने दशकों पहले परस्परता और सहअस्तित्व वाला आदर्श समाज रचा। मुंबई की चालों में सर्वधर्म-समभाव बसता रहा है, यह हमने किताबों में पढ़ा और फिल्मों में देखा। अफसोस है कि पाठशाला और धर्मशाला से रिश्तेदारी वाली चाल अब गुंडे मवालियों और अंडरवर्ल्ड सरगनाओं की “धर्मशाला” भी है जहां बसने से उन्हें “अनोखा पुण्य” मिलता है। -जारी
इस श्रंखला की पिछली कड़ियां-
1.किले की कलई खुल गई.2.कोठी में समाएगा कुटुम्ब!3.कक्षा, कोख और मुसाफिरखाना.4.किलेबंदी से खेमेबंदी तक.5.उत्तराखण्ड से समरकंद तक.6.बस्ती थी बाजार हो गई.7.किस्सा चावड़ी बाजार का.8.मुंबईया चाल का जायज़ा
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