Tuesday, May 12, 2009

उल्लू का पट्ठा !!!


ल्लू के बारे में दकियानूस समाज का नज़रिया चाहे जो हो, वैज्ञानिकों का नज़रिया बिल्कुल उल्टा है। वैज्ञानिक उल्लू की इसी ध्यान प्रणाली के रहस्य खोज रहे हैं ताकि उनका प्रयोग मनुष्य को स्ट्रेस, तनाव जैसे रोगों से मुक्ति दिलाने के लिये किया जा सके।

नुष्य भी विचित्र जीव है। एक तरफ तो उसने देवी लक्ष्मी का वाहन उल्लू को नियुक्त किया और देवी का एक नाम ही उलुकवाहिनी हो गया, दूसरी तरफ उसे मूर्खता का प्रतीक भी घोषित कर दिया। निपट मूर्ख के लिए उल्लू का पट्ठा जैसी कहावत भी बनाई गई। कई और बातें भी जुड़ गईं। उल्लू को अपशकुनी भी माना जाता है, मगर भारत के ही पूर्वी प्रांतो में पारिवारिक आयोजनों में महिलाएं मुंह से उलूक-ध्वनि निकालती हैं, जो मांगलिक मानी जाती है।
ल्लू के बारे में दकियानूस समाज का नज़रिया चाहे जो हो, वैज्ञानिकों का नज़रिया बिल्कुल उल्टा है। उल्लू और उल्लू का पट्ठा के मूल में जो बात सामने आ रही है वह है उसे मूर्ख मानना। सबसे पहले तो यह देखें कि उल्लू को मूर्ख समझने की क्या वजह है। प्राचीन मानव समाज में भाषा का विकास संकेतों के आधार पर हुआ जो धीरे-धीरे उसके अनुभव के दायरे में शामिल होते गए। बुद्ध  से बुद्धू और मुग्ध से मूढ़ बनने की तर्क श्रंखला से ही उल्लू शब्द में भी मूर्खता समा गई। मूर्ख व्यक्ति का सामान्य लक्षण है उसे देर से कुछ समझ में आता है, या आता ही नहीं। वह गतिहीन होता है। स्थिर होता है। एक जगह बैठा रहता है। अब एक ही जगह बैठे रहनेवाले विरलों को ही समाज चिन्तक, मनीषी या बुद्धिमान के अर्थ में बुद्ध मानता है, अधिकांश ऐसी मुद्रा वाले उसकी निगाह में मूर्ख ही होते हैं।
मुग्ध अर्थात मोहाविष्ट व्यक्ति भी अपनी सुध-बुध भूला रहता है, ठगा सा एक-टक खोया रहता है इसलिए मुग्ध का देशज रूप मूढ़ बना जिसने बाद में मूर्ख का अवतार लिया। बुद्ध की मुद्रा ही बुद्धू की मुद्रा बन गई। उल्लू की सिफ़त है कि वह अपने शिकार की ताक में रात में ही निकलता है। यह प्राणी अतिस्वन ध्वनियों अर्थात अल्ट्रासॉनिक साऊंड की पहचान रखता है। रात में इन ध्वनियों को चीह्नना ज्यादा आसान रहता है। वैज्ञानिकों ने मालूम किया है कि उल्लू में दृष्टि और ध्वनियों के मेल से शिकार पर अपना ध्यान केंद्रित कर उसकी सटीक स्थिति पता करने की अद्भुत क्षमता होती है। इसके लिए वह दिन में सोता है, मगर बैठे बैठे ही। इसी तरह  देर शाम से अलसुबह तक वह अपनी दृष्टि और कर्णेन्द्रियों से प्राप्त सूचनाओं के सटीक विश्लेषण में लीन रहता है। यूं सदैव एक ही मुद्रा में ध्यानस्थ बैठे देखते रहने के आदी मनुष्य ने उसे बजाय बुद्धिमान समझने के बुद्धू ही समझ लिया।
ल्लू बना है संस्कृत के उलूकः से। अंग्रेजी का आऊल owl शब्द भी इसी मूल का है। उलूकः बना है संस्कृत धातु वल् से। उलूकः का एक अर्थ होता है इन्द्र जिसमें प्रभुता, सर्वोच्च का भाव है। वल् से बने वलूकः का अर्थ भी होता है पक्षी विशेष या उल्लू। वलूलः का अर्थ होता है शक्तिशाली। संस्कृत की वल धातु दरअसल बल् धातु का ही एक रूपांतर है जिसमें गति करना, पालना, पोषित करना, देखभाल करना आदि भाव शामिल हैं। यूँ उल्लू को उसकी आवाज़ की वजह से यह नाम मिला है। उलूलि का अर्थ है तेज़ शोर, चीख, कोलाहल आदि। विवाह अवसरों पर अनेक समाजों में मूँह पर उंगली रख कर तेज़़ आवाज़ निकाली जाती है जिसे उलूकध्वनि कहते हैं। उल्लू को उल्लू का भाव तो उसकी मुद्राओं की वजह से मिला है। वैसे वैज्ञानिक उल्लू की इसी ध्यान प्रणाली के रहस्य खोज रहे हैं ताकि उनका प्रयोग मनुष्य को स्ट्रेस, तनाव जैसे रोगों से मुक्ति दिलाने के लिये किया जा सके। अब स्ट्रेस तो मनुष्य की मूर्खताओं का परिणाम है। उल्लू ही तारणहार होंगे मनुष्य की मूर्खताओं के !!!
ल्लू के लिए भारतीय भाषाओं में एक और शब्द है घुग्घू। यह भी संकेतों और लक्षण से विकसित हुआ है। संस्कृत में घुः या घू धातु है जिसमें विशिष्ट ध्वनि का भाव है। कबूतर की गुटुरगूं ध्वनि इसी घुः से उपजी है। घूकः का अर्थ होता है ध्वनि करनेवाला पक्षी। यह उल्लू भी हो सकता है और कौवा भी। घूकः से ही बना घुग्घू। हिन्दी में जड़बुद्धि के व्यक्ति को घुग्घू कहा जाता है और भोंदू की तरह बैठे रहनेवाले की मुद्रा को घुग्घू की तरह ताकना कहा जाता है। घुग्घू शब्द उर्दू में भी इस्तेमाल होता है।

एक अन्य व्यंजना है खूसट जिसका अर्थ उल्लू भी होता है और नाकारा व्यक्ति भी। अक्सर वृद्धों को खूसट कहा जाता है। अनेक कोशकार इसे संस्कृत के कुशि, कुशक, कौशिक जैसी संज्ञाओं से विकसित व्यंजना मानते हैं। उल्लू का एक नाम है घुग्घू। हिन्दी में जड़बुद्धि के व्यक्ति को घुग्घू कहा जाता है और भोंदू की तरह बैठे रहनेवाले की मुद्रा को घुग्घू की तरह ताकना कहा जाता है। घुग्घू शब्द उर्दू में भी इस्तेमाल होता है। कुशि, कुशक, कौशिक पर मुझे कोई शंका नहीं, पर एक अन्य सम्भावना भी मैं देखता हूँ। खुसट का एक रूप खुसट भी है। खुसट में मूलतः कमजोर, निर्बल, सुस्त जैसे आशय प्रमुख हैं। इससे विकसित होते हुए अनुपयोगी, बेकार, नाकारा, लल्लू, बेचारा, निकम्मा जैसे भाव भी इसमें समा गए। अन्ततः वृद्धों के सन्दर्भ में भी यह व्यंजना प्रचलित हो गई।

संस्कृत में एक संज्ञा शुशुलुक भी है जिसका अर्थ है बेबी आउल। सम्भवतः यह शब्द शिशु-उलुक से बना है। ध्यान रहे, आर्यभाषा परिवार में श का रूपान्तर ख में भी होता है। यह भी ग़ौरतलब है कि शिशु में वे तमाम भाव हैं जो खूसट के शब्दकोशीय अर्थ बताते हैं अर्थात कमजोर, निर्बल, नाकारा, लल्लू आदि। शिशु कोई काम नहीं करता सो निकम्मा भी। यही सारी बातें वृद्ध में भी होती हैं। देहात में तो मिसल भी कही जाती है- बच्चा बूढ़ा एक समान। तो खूसट का विकास शुशुलक से भी सम्भव है। प्रथम शु खू में बदल रहा है और दूसरा स में। अन्त में जो ट है वह न्यून या क्षुद्रवाची प्रत्यय के तौर पर संलग्न हुआ होगा।
ब बात उल्लू के पट्ठे की। पट्ठा शब्द का मोटा सा अर्थ है संतान, बच्चा, पुत्र, शिष्य आदि। जाहिर है कि उल्लू जो स्वयं ही मूर्खता का पर्याय है तो उसकी संतान तो परम मूर्ख ही होगी। इसीलिए मूर्खता की पराकाष्ठा को अभिव्यक्त करने के लिए उल्लू का पट्ठा मुहावरा प्रचलित हुआ।  हमारा मानना है कि उल्लू का पट्ठा शब्द का सीधा सा अर्थ है जिसे उल्लू ने ज्ञान दिया हो। उल्लू का पढ़ाया हुआ। लोकबोली में पढ़ाना को पठाना भी कहते हैं। बृज में पढ़ायो का पठायो होता है। अब जिसका शिक्षक ही उल्लू अर्थात मूर्ख होगा, उसके शागिर्द को क्या कहा जा सकता है...इसी भाव के साथ उल्लू का पट्ठा उक्ति मशहूर होती चली गई। अनेक लोग उल्लू का पट्ठा उक्ति का अर्थ पिता को मिली गाली से लगाते हैं, जो गलत है। ऐसा माननेवाले पट्ठा शब्द में सन्तति का आशय देख रहे होते हैं, जो कि सही नहीं है। बात सन्तान से नहीं, शागिर्द से जुड़ रही है।

 हिन्दी शब्दसागर पट्ठा शब्द की व्युत्पत्ति पुष्ट से बताता है।  पुष्ट बना है संस्कृत धातु पुष् से जिसमें सार-संभाल, पोषण, लालन-पालन आदि शामिल हैं। इन सभी क्रियाओं में प्रमुख भाव है खिलाने का। इस तरह पुष्ट शब्द का अर्थ हुआ पाला-पोसा गया, फलता-फूलता, मज़बूत, बढ़ता हुआ आदि। यहां ये सभी भाव किसी की सरपरस्ती में बढ़ने से जुड़ रहे हैं। सरमायेदार के लोग भी पट्ठे कहलाते हैं क्योंकि वे उसके द्वारा पोषित होते हैं। इसीलिए उन्हें गुर्गा भी कहते हैं जो मूलतः फारसी के गुर्गः से बना है जिसका मतलब होता है भेड़िया। पहलवान के भी पट्ठे होते हैं क्योंकि वह भी उन्हें दाव-पेच सिखाता है, उनकी परवरिश करता है। पट्ठा का हिन्दी में मतलब होता है एक सद्यःवयस्क मवेशी या बैल। यूं पट्ठा के दायरे में वे सभी चौपाए आ जाते हैं जो शिशु अवस्था के दायरे में नहीं हैं अर्थात जिन्हें अभी सिखाया जाना है, जिनकी परवरिश की जानी है। याद करें कि दिन भर में पट्ठा शब्द का प्रयोग क्या हम इन्हीं अर्थों में नहीं करते हैं? “अपना ही पट्ठा है” जैसे वाक्य जहां संदर्भित पात्र की अवयस्कता उजागर करते हैं वहीं कहनेवाले का स्वामित्वभाव भी स्पष्ट होता है।
ट्ठा शब्द की व्युत्पत्ति पृथुकः से भी मानी जाती है। संस्कृत में एक धातु है पृथ् जिसका अर्थ होता है फैलना, विस्तारित होना। पृथ्वी शब्द इससे ही बना है क्योंकि इसका विस्तार अपार है। पृथ् से बना पृथुकः जिसका मतलब हुआ बच्चा। गौर करें इस नाम मे शिशु का दैनन्दिन तीव्र विकास झलक रहा है। जो लगातार विस्तारित हो रहा है वही है पृथुकः। विभेद या अलग के संदर्भ में पृथक शब्द भी हिन्दी में खूब प्रचलित है जो इसी मूल से आ रहा है। पृथ् का अर्थ है विस्तार करना। जाहिर है किसी वस्तु को मुक्त कर, अलग कर, एक से दूसरे को जुदा कर उसका विस्तार ही किया जाता है। यही भाव पृथक में है। हम सब पृथ्वी से उत्पन्न हैं इसलिए उसकी संतान हैं,  पृथुकः है। मगर पृथ्वी के पर्यावरण यानी अपनी मां के आंचल को उजाड़ कर हम भस्मासुर साबित हो रहे हैं, उल्लू का पट्ठा तो बहुत छोटा शब्द है।


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22 कमेंट्स:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

अच्छी रही उलूक और OWL की ,
मेलजोल की कहानी -
और पृथ्वी के पुत्र से पठ्ठे की सगाई भी .
.उल्लू के दर्शन हो गये ..
लक्ष्मी जी के दर्शन मेरे जालघर पे कर लेँ :)
- लावण्या

Himanshu Pandey said...

उल्लू की मुग्धता का अर्थ मूर्खता लगा लिया जाता है, यही न ।
फिर हम तो परले दरजे के मुग्ध आदमी हैं ।

और मजा तो यह भी कि बुद्ध की मुद्रा बुद्धू की मुद्रा है ।

Arvind Mishra said...

वडनेरकर साहब ,
अच्छा उलूक चिंतन ! उल्लू को भारतीय लोकजीवन में एक साहित्यिक षड्यंत्र के तहत मूर्खता के अर्थ में रूढ़ बना दिया गया ! अपनी विप्पन्नता की नियति से पीढी दर पीढी झुझलाये आदि मनीषियों ने लक्ष्मी को जो वाहन दिया वह सरस्वती के वाहन हंस की तुलना में हर दृष्टि से हेय है -क्रूर कर्मा है ,निशाचर है और चूंकि लक्ष्मी आँख के अंधे और गाँठ के पूरों पर कृपालु होती हैं इसलिए उसमें मूर्खता भी आरोपित हो गयी ! मतलब जिस पर लक्ष्मी की कृपा दृष्टि है वह मूर्ख हुआ ! उल्लू का मूर्ख होना एक व्यंजना है ! दरअसल वह मूर्ख नहीं -मात्र भारत भूमि में अपनी चिरकालिक विपन्नता से खीझे साहित्यकारों की वक्र दृष्टि से वह अभिशप्त हुआ है ! यूनान में वह बुद्धि का प्रतीक है ! अंग्रेज न्यायविदों के चेहरे की तुलना उल्लू से करते भये हैं -वह अंगरेजी की कविता भी आपको शायद याद हो -एक विग्य उल्लू बैठा चीड के शिखर पर ......
पुराणिक जी को मेरी ओर से भी सादर ! और उन्हें यह भी पढाएं और आप भी पढ़ तो लें ! http://mishraarvind.blogspot.com/2008/10/blog-post_25.html

दिनेशराय द्विवेदी said...

अब क्या कहें, हर किसी ने कम से कम एक बार तो सुन ही लिया होगा-उल्लू का पट्ठा!

P.N. Subramanian said...

अच्छा ज्ञान वर्धन हुआ. अब हमें अपने आप को उल्लू का पट्ठा कहलाने में कोई हिचक नहीं होगी.

ताऊ रामपुरिया said...

भाई हम तो खुद ही उल्लू , प्रेमी..पट्ठे..और सब कुछ हैं.

रामराम.

निर्मला कपिला said...

वह आपका उल्लू पुराण बहुत ग्या्नवर्धक लगा वर्ना इस मामले मे हम तो उल्लू ही थे पराणिक जी को भी बधाई

Udan Tashtari said...

इसी पर मन में एक ज्ञान कविता उछाल मारने लगी उल्लू के पट्ठे पर..जल्द लाई जायेगी साभार आपके. :)

डॉ. मनोज मिश्र said...

मज़ा आ गया उल्लू पुराण पढ़ कर,अच्छा लिखा है आपने .

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

वडनेकर जी! यह बच्चा तो, हट्टा-कट्टा लगता है।
बिन टोपी-खादी के ही, उल्लू का पट्ठा लगता है।।

शिरीष कुमार मौर्य said...

मैने अनुनाद पर नागार्जुन की पोस्ट लगाई है. मंत्र नामक उस कविता आता है - "महामहिम महामहो उल्लू के पट्ठे" ! आज यहाँ यह पोस्ट भी मिल गयी ! कल आपका फ़ोन भी बहुत आत्मीय था. इस सबके लिए धन्यवाद बड़े भाई !

Gyan Dutt Pandey said...

सोलह मई को जनता बनेगी उल्लू, उल्लू-का-पठ्ठाश्च! :-)

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

क्या बात है? एक समय सभी लोग एक ही जैसा क्यों सोचते हैं? इन दिनों मेरा भी मन उल्लू पर लिहने का बहुत हो रहा है. ये अलग बात है कि अपने ढंग से. वैसे मैं उल्लू जी लोगों की इज़्ज़त बहुत करता हूं.

Abhishek Ojha said...

उल्लूक किसी असुर या किसी पौराणिक चरित्र का भी नाम था. ठीक-ठीक याद नहीं. उल्लू चर्चा पसंद आई.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

उल्लू दरासल मूर्ख नहीं है इसका ज्ञान कराने का धन्यवाद। डॉ.अरविन्द मिश्रा जी की व्याख्या भी रोचक है।

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

सभी उल्लू और उल्लू के पठ्ठो की ओर से आपको जानकारी के लिए धन्यबाद देने के लिए मुझे माध्यम बनाया है .

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह भगवन...... क्या चिंतन है............ साधु.. साधु..

सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ said...

वल-वल्ल एवं बल दो अलग धातु हैं तथा पाणिनीय एवं कातन्त्र व्याकरण के धातुपाठ में उपलब्ध हैं। जहाँ तक वल या वल्ल धातु का प्रश्न है वल या वल्ल धातु संवरणे-सञ्चलने च -भ्वादिगण के रूप में उपलब्ध है।

किरातार्जुनीय में दृष्टिरन्यतो न वलति, दृष्टि का इधर-उधर घुमानें के अर्थ में। शिशुपालवध में-इदमपास्य विरागि परागिणीरलिकदम्बकमम्बुरुहां....‘.बलतेऽभिमुखं’ तव- अर्थात परागयुक्त कमल श्रेणियों को छोड़कर विरागयुक्त यह भ्रमर समूह ‘तुम्हारे सामनें आ रहा है’। इसी प्रकार अनर्घराघव में-प्रक्षेप्तुमुदधौ लक्ष्मीं भूयोऽपि ‘वलते’ मनः - मन कर रहा है कि इस लक्ष्मी को फिर उसी सागर में फेंक दूँ। गीतगोविन्द में- त्वदभिसरणरभसेन वलन्ती-तुम्हारे पास आनें की से उत्साहवश ‘डगमगाती हुई’। इस प्रकार संस्कृत साहित्य में वल या वल्ल धातु का उक्त अर्थों में प्रचुर प्रयोग मिलता है।

इसी भाँति ‘बल’- प्राणनें धान्यावरोधे च-भ्वादिगणः तथा प्राणनें-चुरादिगणः के रूप में धातु पाठों में प्रथक रुप में उपलब्ध है।जहाँ तक डा०भगवतशरण उपाध्याय के हवाले से यह कहना कि ‘बल’ धातु वेदों में उपलब्ध या प्रयुक्त नहीं है तथा मेसोपोटैमिया से आयातित है यह उनकी वेदों से अनभिज्ञता एवं मार्क्स सम्प्रदायगत बद्धमूल अंध आस्था की ही परिचायक है। कृपया निम्न का अवलोकन करें---

वेदों में अधिकांशतः बल शब्द का प्रयोग धारण और पोषण करनें वाले अर्थ में हुआ है। यथा

१-त्वं हि बलदा असि-ॠ. ३/५३/१८ बल देंने वाला इन्द्र या परमेश्वर।
२-य आत्मदा बलदा यस्य विश्वे-अ०वे०४/२/१/-१३/३/२४;वाज०सं २५/१३;तै०सं४/१/८/४ एवं७/५/१७/१
३-बलविज्ञायः स्थविरः प्रवीरः-सब बलों को विशेष रूप से जाननें योग्य-ऋ०१०/१०३/५;अ०वे०१९/१३/५; साम० २/१२०३; वा०सं १७/३७; तै०सं ४/६/४/२; मै०सं २/१०/४;का०सं१८/५
४-बलासं सर्वं नाशाय अ०६/१४/१-शरीर का बल नष्ट करनें वाला श्लेष्मा रोग।

तात्पर्य यह कि वेदों में वल/वल्ल और बल दो अलग धातुज अर्थों में सैकड़ों स्थान पर उल्लिखित है। कम सूचनाओं या साम्प्रदायिक दुराग्रहों से वशीभूत कतिपय लेखक न केवल असत्य का प्रचार करते रहें हैं वरन अभी भी उपनिवेशवादी मानसिकता से वशीभूत हो प्राचीन भारत के उज्जवल इतिहास को कलंकित कर रहे हैं। क्षमा कीजिये मैं विद्वान नहीं हुँ इसलिए कम शब्दों में या माइक्रोब्लागिंग जैसी विधा में विषय को व्यक्त नहीं कर पाता।

अजित वडनेरकर said...

@सुमंत मिश्र
आदरणीय कात्यायन जी,
बहुत आभारी हूं इस महत्वपूर्ण जानकारी से अवगत कराने के लिए।
आपने सप्रमाण बल के संदर्भ में कुछ विद्वानों की मिथ्याधारणा को उजागर किया है। मैं पोस्ट को संशोधित करुगा।
आभार

ghughutibasuti said...

बहुत बढ़िया !
घुघूती बासूती

RDS said...

उल्लू बैठा शाख पर ज्यों दफ्तर में क्लर्क
समझ न आवे फाइलें समझ न आवे वर्क

रात ढले कोहरा बढे चौकन्ना हो जाए
ज्यों शिकार आवे निकट लेई झपट्टा खाए

( नोट : उल्लू बुरा न मानें, कुछ मनुष्य अपवाद भी हैं | )

गिरीश जोशी said...

उल्लू को उल्लू समझने वाला, सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में रहने वाला ही शायद सबसे बड़ा उल्लू है. अब चाहे हर शाख में उल्लू बैठे गुलिश्तां आबाद ही रहेगा. गधा भी शायद कभी आपकी अनुकंपा का पात्र बने तो एक बड़े वर्ग का उद्धार हो जाय.

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