Thursday, December 25, 2014

// याद है ‘परकार’? जानिए ‘परकार’//

पिद्दी से दिनों में अपना स्कूल और बस्ता जितना नामुराद लगता था, उतना ही लुभाता था बड़े भाई-बहनों का स्कूल और उनका बस्ता। खास तौर पर कम्पास-बॉक्स के लिए बेहद कशिश थी। टीन का चपटा डिब्बा जिसमें अजीबोग़रीब आकार की चीज़ें और रबर-पैंसिल होती थीं। सोचते थे कब हम बड़े हों जाएँ और कब ये तिलस्माती बक्सा हमारे बस्ते में भी आ जाए। कुछ बच्चे अनुकरण के आधार पर कम्पाक्स-बॉक्स भी कहते थे। इस करिश्माती डब्बे में टिड्डे की टाँग जैसी दो नुकीली टाँगे होतीं- एक नुकीली होती। दोनों को घुमाने से कागज पर घेरा बन जाता। ये करतब हमें लुभाता था। बहरहाल, अब तक आप समझ चुके हैं कि हम ‘परकार’ की बात कर रहे हैं जो लगता हिन्दी का है पर आया फ़ारसी से है। ‘परकार’ का सही उच्चार ‘परगार’ है। बात थोड़ी अजीब लग सकती है कि यह ज्यामितीय उपकरण दरअसल हल जैसे कृषि उपकरण का विकसित रूप है। इस मिसाल से यह फिर साबित होता है कि हमारी आज की तरक्की दरअसल कृषि संस्कृति के लगातार विकसित होते जाने का परिणाम ही है।

‘परगार’ या ‘परकार’ में मूल आशय ऐसे उपकरण से है जो घेरा बनाता हो। ध्यान से देखें तो इस परकार में हमें भारोपीय भाषा परिवार का विस्तार नज़र आता है। गौरतलब है कि भारोपीय भाषा परिवार में 'पर' per / peri जैसी धातुएँ उपसर्ग की तरह प्रयुक्त होती हैं। इसमें चारों ओर, आस-पास, इर्दगिर्द, घेरा जैसे भाव हैं। संस्कृत का ‘परि’ उपसर्ग इसी से व्युत्पन्न है जिससे बने दर्जनों शब्द हम रोज़ इस्तेमाल करते हैं जैसे परिवहन, परिस्थिति, परिधान आदि। 'परि' इसका ही अवेस्ता रूप पइरी होता है। अवेस्ता के दाएज़ा यानि दीवार से जुड़ कर बने पइरीदाएज़ा (pairidaeza) में ऐसे स्थान का आशय है जिसके चारों ओर सुरक्षित परकोटा है। इसका अर्थ हुआ सुरम्य वाटिका, आरामग़ाह। प्रसंगवश पइरीदाएज़ा का कायान्तरण ग्रीक में paradeisos, लैटिन में पैराडिसस तो पुरानी फ्रैंच में यह पैरादिस में ढल गया। अंग्रेजी में इसका रूप पैराडाइज़ हुआ। इन तमाम रूपान्तरों में स्वर्ग, बहिश्त, वैकुण्ठ, जन्नत, ईडेनगार्डन जैसे अर्थ स्थिर हुए। बाद में अवेस्ता के पइरीदाएज़ा का बरास्ता पहलवी होते हुए फ़ारसी रूप बना फ़िर्दौस (हिन्दी में फिरदौस)।

तो बात चल रही थी भारोपीय धातु per / peri की जिसे उपसर्ग की तरह बरता जाता है। हिन्दी, अंग्रेजी, स्पैनिश, फ्रैंच, फ़ारसी आदि कई प्रमुख भाषाओं में इसके उदाहरण देखे जा सकते हैं। अंग्रेजी में पेरीनियल, पर्सेप्शन, पर्सिव जैसे शब्दों में यही per / परि है। इसी तरह हिन्दी में परिधि, परिपक्व, परिप्रेक्ष्य, परिभाषा, परिवार आदि शब्दों में यह भलीभाँति अपनी अर्थछटाओं के साथ मौजूद है।

हम जानते हैं कि जिस तरह हिन्दी, संस्कृत से स्वतन्त्र भाषा है, उसी तरह फ़ारसी भी अवेस्ता से स्वतन्त्र भाषा है। अलबत्ता इन दोनों की रिश्तेदारियाँ सघन है। विकासक्रम में हिन्दी, संस्कृत के बाद आती है उसी तरह अवेस्ता के बाद फ़ारसी। अवेस्ता और संस्कृत में बहनापा रहा है। संस्कृत या वैदिकी का ‘परि’ उपसर्ग अवेस्ता में ‘पइरी’ हो जाता है। परकार का पहला पद 'पर' अवेस्ता के ‘पइरी’ से आ रहा है जो संस्कृत ‘परि’ का समतुल्य है। ‘परकार’ के अगले पद ‘कार’ में मूलतः करने का भाव है, ऐसा अनेक भाषाविदों का मानना है। यह ‘कार’ वैदिकी या संस्कृत के ‘कर’ का समतुल्य है जिसमें ‘कर्म’ करने का भाव है। अर्थात संस्कृत के ‘परिकर’ का समतुल्य है अवेस्ता का ‘पइरी-कार’। अर्थ हुआ जिससे परिधि बनाई जाए।

दरहकीकत ऐसा नहीं है। कार का मूल 'कृष' है। ‘कृषि’ शब्द बना है ‘कृष्’ धातु से जिसका अर्थ है खींचना, धकेलना, उखाड़ना और हल चलाना। ध्यान दीजिए कि हल चलाने में ये सभी क्रियाएं पूरी हो रही हैं और हल चलाने का काम कौन करता है? हल खींचे बिना खेती मुमकिन नहीं सो कृष् से बना ‘कृषि’ जो संस्कृत-हिन्दी में समान रूप से है। कृष् से ही संस्कृत का एक अन्य शब्द जन्मा ‘कर्ष’ जिसका अर्थ भी खींचना, घसीटना, हल चलाना ही है। इसमें ‘आ’ उपसर्ग लगने से बना ‘आकर्षण’ जिसका मतलब है खिंचाव,रूझान या लगाव। अवेस्ता ने कृष् के स्थान पर ‘कर्ष’ को अपनाया। ‘र’ का लोप होते हुए ‘कश’ बाकी रहा। खींचने के अर्थ में फ़ारसी, उर्दू में यह ‘कश’ आज तक कई रूपों में नज़र आता है। धुएँ का कश, दिल के खिंचाव वाली ‘कशिश’, तनाव वाला खिंचाव यानी ‘कशमकश’, ‘रस्साकशी’ जैसे शब्दों में भी यह मौजूद है। ‘कशीदाकारी’ में यानी बेलबूटे बनाना जिसमें सूई में धागा पिरोने से लेकर टाँका लगाने तक में खींचने की क्रियाएँ शामिल है।

‘पइरी-कार’ में दरअसल ‘कर्ष’ से ही ‘कार’ बन रहा है। इसी ‘कर्ष’ से मध्यकालीन फ़ारसी में ‘काश्तन’ भी बनता है और फारसी रूप ‘कारीदन’ जिसमें बोने, जोतने, कुरेदने का भाव है। ‘कृष्’ से ‘कृषि’ और ‘कर्ष’ से ‘कश’ फिर ‘काश्तन’ और फिर ‘काश्तकारी’ जो हिन्दी में भी है। ‘परकार’ पर गौर करें तो इसकी दोनों नुकीली भुजाएँ दरअसल प्राचीनकाल में हल का जोड़ा ही है। पुराने ज़माने में हल के ज़रिये न सिर्फ़ जुताई होती बल्कि सीमांकन के लिए भी यही तरकीब आज़माई जाती थी। संस्कृत ‘परिकर’ की अर्थछटाओं को देखें तो उसमें से एक भी परकार में निहित भाव से मेल नहीं खाती। इससे ही साबित होता है कि ‘परिकर’ और ‘परकार’ का विकास अलग अलग ढंग से हुआ है। ‘परिकर’ में आसपास घूमना, अनुचर, परिचर जैसे भाव हैं या इसे कमरबंद, करधनी जैसा आभूषण बताया गया है। इसके विपरीत ‘परकार’ दरअसल प्राचीन सीमांकन तकनीक से विकसित हुआ शब्द है। पुराने ज़माने में ज़मीन में खूँटा गाड़ कर उसके इर्दगिर्द एक बड़ी रस्सी के छोर पर बैलों के गले में जुआ पहनाकर हल जोत दिया जाता था। वे दायरे में गोल चक्कर लगाते और इस तरह सीमांकन हो जाता। ‘परकार’ में कर्म वाला कर न होकर ‘कर्ष’ से विकसित ‘कार’ है जिसमें ‘श’ का लोप हो गया।

फ़ारसी में ‘क’ का रूपान्तर ‘ग’ में होना आम बात है। परकार का ‘परगार’ बना। अरबी में इसका एक रूप ‘बिरकार’ है तो दूसरा ज्यादा प्रचलित रूप ‘फरजार’ है। गौरतलब है कि अरबी में ‘ज’ और ‘ग’ में भी रूपान्तर होता है जैसे अरबी में ‘जमाल’ को ‘गमाल’ भी कहा जाता है।
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Saturday, December 20, 2014

।।रईसनामा।।


हि न्दी में अरबी-फ़ारसी शब्दों की रच-बस पर गौर करें तो भाषा, समाज, संस्कृति को समझने का नज़रिया व्यापक होने के साथ आसान भी होता जाता है। ‘रईस’ शब्द को ही लें। भाषा को च्युइंगम की तरह इस्तेमाल करनेवालों को इसकी कतई परवाह नहीं होनी चाहिए कि यह कहाँ से आया, कब आया। उनके लिए इतना काफी है कि समृद्ध, धनवान, पैसेवाला, ऐश्वर्यशाली, धन्नासेठ, करोड़पति, अरबपति, अमीर, श्रीमन्त, धनाड्य, मालदार या हीरालाल-पन्नालाल टाईप शख़्सियत के लिए ‘रईस’ शब्द का इस्तेमाल करने से उनका काम चल जाता है। पर बात इससे आगे निकलती है जब हम यह जानने की कोशिश करें कि अपनी मूल भाषा अरबी में इस शब्द के क्या मायने हैं। अरबी में ‘रईस’ अर्थात सर्वोच्च, प्रमुख, नेता, खास, मूल, प्रथम, सरदार, अगुआ, स्वामी, मालिक, अध्यक्ष अथवा सरपरस्त।

रईस यानी अमीर। बोलचाल की हिन्दी में इसकी इतनी ही अर्थवत्ता है। इसी तरह अमीर का अर्थ भी हिन्दी में सिर्फ धनी है मगर अरबी-फ़ारसी में अमीर की भी वही अर्थछटाएँ हैं जो रईस की हैं। रईस के मूल में अरबी की त्रिवर्णी धातु ‘रास’ س ا ر अर्थात ‘रा’ ‘अलिफ़’ ‘सीन’ है जिसमें मूल रूप से शीर्ष अथवा सिर का भाव है। ध्यान रहे अरबी ज़बान सेमिटिक परिवार से आती है। हिब्रू भी सामी कुनबे से ही है और इराकी अरबी जिसे आरमेइक कहते हैं वह भी। हिब्रू में अरबी की ‘स’ ध्वनि अक्सर ‘श’ हो जाती है मसलन अरबी का ‘अस्सलाम’ या ‘सलाम’ हिब्रू में ‘शॉलोम’ हो जाएगा। सो ‘रास’ की तर्ज़ पर हिब्रू में rosh अर्थात ראש है। जिसका अर्थ वास्तविक तौर पर शीर्ष यानी सिर– गर्दन के ऊपर का हिस्सा है। रोश का शुरुआती अक्षर हिब्रू वर्णमाला का रेश ר अर्थात resh है।

हम इस बहस में नहीं पड़ेंगे कि हिब्रू अधिक प्राचीन है या अरबी किन्तु यह तय है कि भाषा की प्राचीनता का शास्त्रीय आधार उसके अभिलेखीय प्रमाण है। इस आधार पर हिब्रू कि प्राचीनता निर्विवाद है। गौरतलब है कि हिब्रू वर्णमाला के 'रेश' ר अक्षर का आकार भी मनुष्य के सिर के पार्श्व जैसा है और इसका अर्थ भी शीर्ष ही है। ‘रेश’ का ही परिवर्तित रूप अरबी का ‘रा’ ر है। हिब्रू का ‘रोश’ ही अरबी में ‘रास’ हो जाता है। अरबी तक आते आते हिब्रू ‘रेश’, ‘रोश’ की अर्थछटाएँ काफी विस्तार पाती हैं और इससे कई अन्य शब्द भी विकसित होते हैं।

इसी ‘रास’ का रूपान्तर ‘रईस’ भी है जिसमें धनी-मानी की तमाम अर्थछायाओं के साथ स्वामी, प्रमुख या सरपरस्त जैसे भाव हैं। ‘रईस’ का विशेषण रूप ‘रईसी’ और ‘रईसाना’ हैं यानी रईसों जैसा। खास बात यह भी कि ख्यात भाषाविद् अर्न्स्ट क्लैन अपने हिब्रू व्युत्पत्तिकोश में ‘रईस का रिश्ता अंग्रेजी के उस ‘रेस’ शब्द से भी जोड़ते हैं जिसका अभिप्राय नस्ल, वंश, कुटुम्ब अथवा कुल है। हालाँकि भाषाशास्त्री इस पर एकमत नहीं हैं फिर भी इस बात की काफी सम्भावना है कि हिब्रू का ‘रोश’ ही अरबी में ‘रास होता हुआ स्पैनिश में रैज़ा हुआ| बरास्ता इतालवी रेज्ज़ा यह अंग्रेजी में ‘रेस’ हुआ। जातीय या जातिगत अर्थ में इससे ‘रैशल’ बनता है। सवाल उठता है प्रमुख, मुख्य, अधिपति, धनाड्य जैसे अर्थों से होते हुए कुल, कुटुम्ब जैसे अर्थ ‘रेस’ में कैसे समा गए ?

बात ये है कि ‘शीर्ष’ अर्थात भौतिक ‘सिर’ ही शरीर का मुख्य हिस्सा होता है। सबसे पहले सिर ही दिखता है। सो हिब्रू के ‘रेश’ का ‘सिर’ जब अरबी में पहुँचता है तो इसका अर्थविस्तार होता है। गौर करें अंग्रेजी में ‘हेड’ का अर्थ प्रमुख भी होता है और ‘सिर’ भी। हेड यानी सिर से ही प्रमुख की अर्थवत्ता विकसित हुई। इसी तरह ‘मुख’ में जो ‘मुखड़ा’ है वह ‘प्रमुख’ में भी नज़र आता है। शीर्ष से सिर बनता है और फिर ‘सरदार’ भी बनता है। सरदार यानी मुखिया। सो ‘रास’ यानी ‘सिर’। सिर यानी शीर्ष यानी सर्वोच्च। इस तरह जो सर्वोच्च है वह स्वामी, सरदार। जो मालिक- मुखिया होगा वह निर्धन तो हो नहीं सकता सो सर्वोच्च के साथ ऐश्वर्य भी जुड़ गया। इस तरह अरबी रास वाला सिर ‘रईस’ तक आते आते मुखिया या धनी-मानी हो जाता है। जो प्रमुख है वह मुख्य है। मुख्य में ही मूल है अर्थात वही मूलस्रोत है। वही जड़ है। वही आदि है और आरम्भ है। इस तरह 'रास' से ही अंग्रेजी के रेस में आरम्भ, शुरुआत, मूल जैसे अर्थों से गुज़रते हुए कुल, कुटुम्ब, जाति जैसे अर्थ स्थापित हुए।
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Wednesday, December 17, 2014

//क्या मशगला है//


हिन्दी में शग़ल शब्द का प्रयोग खूब होता है। ऐसा कोई काम जिससे मन बहलता हो, इसी अर्थ में अक्सर हिन्दी में इसका प्रयोग होता है। जबकि शग़ल के असली मायने हैं काम-धंधा या रोज़गार। सामान्य बातचीत में “...और क्या शग़ल इन दिनों?” के पीछे काम-धन्धे से ही तात्पर्य होता है। हिन्दी में शग़ल का मोटा अर्थ मनोविनोद या दिलबहलाव लिया जाता है। शग़ल सेमिटिक परिवार का शब्द है और अरबी से फ़ारसी होते हुए हिन्दी में दाखिल हुआ। इसके निकट सम्बन्धी कुछ अन्य शब्द भी हिन्दी में प्रचलित हैं।

शग़ल बनता है शीन-घ़ैन-लाम (ل- غ- ش) से। अ डिक्शनरी ऑफ़ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश में जॉन प्लैट्स इसकी विवेचना यूँ करते हैं- “Business, occupation, employment, labour, study; anything to occupy or divert” हालाँकि वे इसका एक अर्थ amusement यानी मनबहलाव भी बताते हैं पर यह इसकी अर्थछटाओं का एक रूप है। मूल अर्थ तो रोजगार, खुद को व्यस्त रखना, कामधंधा आदि ही है।

उर्दू के नज़रिए से शग़्ल, शुग़्ल व्यवहार में आते हैं। हिन्दी में शग़ल लिखा बोला जाता है। मुहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के उर्दू-हिन्दी शब्दकोश में दिलबहलाव के संदर्भ में शग़लेमै लफ़्ज़ दिया है यानी मद्यपान के ज़रिये दिल बहलाना (शग़ल ऐ मै)। शग़ल में ही अरबी का ‘म’ उपसर्ग लगने से मश्ग़लः बनता है जिसका अर्थ व्यापार, शग़ल, व्यवसाय, रोज़ी, रोज़गार, काम-धंधा ही है। हिन्दी में इसे मशग़ला लिखा जाता है। व्यस्त, तल्लीन या मनोयोग से जुटे रहने के अर्थ में हिन्दी में मशगूल शब्द बड़ा आम है। इसकी वर्तनी मे गड़बड़ी की जाती है। कुछ लोग इसमें ह्रस्व स्वर लगाते हैं जो गलत है।

शग़ल से इश्ग़ाल और तश्ग़ील भी बनते हैं पर इनका चलन अरबी में ही है अलबत्ता उर्दू में इसी कड़ी का इश्तिग़ाल प्रचलित है जिसमें काम में लीन होना, मश्ग़ूल होना, तन्मयता, संलग्नता जैसे अर्थ हैं। गौरतलब है कि इश्तिग़ाल से मुँह फेरना या विमुख होना जैसी अभिव्यक्ति भी होती है। स्वाभाविक है कि जो व्यक्ति काम में मशग़ूल होगा, उसे दीनो-दुनिया से तो मुँह फेरना ही होगा। तल्लीन व्यक्ति दुनिया से विमुख इसीलिए कहे जाते हैं।
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Saturday, December 13, 2014

।।डण्डा करना।।


जकल एक मुहावरा चल पड़ा है- डण्डा करना। इसका लाक्षणिक अर्थ है किसी को डण्डे से आगे ठेलना। भावार्थ हुआ किसी काम में सक्रिय करना। इसका अर्थविस्तार अब किसी काम में व्यवधान डालना, अड़चन पैदा करना या उकसाना भी हो गया है। कुछ लोगों का मानना है कि यह पुलिसिया कार्यप्रणाली से जन्मा शब्द है। लोक-व्यवहार में अतीत से ही डण्डे के ज़रिये उकसाने, ठेलने के काम आदि किए जाते रहे हैं। पहुँच से दूर किसी व्यक्ति तक उठ कर जाने की बजाय डण्डे के स्पर्श और दबाव से उसे संकेत देना या प्रेरित करना बहुत पुरानी तकनीक रही है। गौर करें किसी नाली को अवरुद्ध हो जाने पर डण्डे के ज़रिये ही सुचारू बनाया जाता है। यूँ इस मुहावरे का अश्लील अर्थ लेने वालों की भी कमी नहीं है। यन्त्रणा देकर अपराध कबूलवाने के लिए गुदा में डण्डा डालना भी एक आम पुलिसिया हथकण्डा है।

दुनियाभर की संस्कृतियों में डण्डे को बतौर कानूनी प्रतीक मान्यता मिली हुई है। इसी लिए डण्डे का पुलिस से भी स्वाभाविक रिश्ता है। मूलतः पुलिस-प्रशासन की जिम्मेदारी कानून का पालन कराने की है। डण्डा इसे लागू कराता है। डण्डा यानी बाँस या लकड़ी का लम्बा टुकड़ा , छड़ी या सोंटा। मोनियर विलियम्स दण्ड का रिश्ता ग्रीक डेन्डरॉन/ डेन्ड्रॉन- dendron से भी बताते हैं। डॉ. जेम्स स्ट्राँग के बाइबल-कोश में डेन्डरॉन/ डेन्ड्रॉन का अर्थ वृक्ष या पेड़ है। डण्डा के मूल में वैदिक क्रियारूप दण्ड है जिसमें लकड़ी, छड़ी, सोंटा जैसे अर्थ तो हैं ही कालान्तर में प्रताड़ना, सजा आदि के तौर पर दण्ड का अर्थविस्तार हुआ। किसी को “तीन डण्डे लगाने” में सजा देने का भाव निहित है। पुराने ज़माने में डण्डे जमा कर ही दण्डित किया जाता था। गौर करें “दण्डित करने” में डण्डे लगाने की क्रिया ही है। इस तरह दण्ड, सजा का पर्याय बना। दण्ड का अर्थ जुर्माना भी होता है। इसके लिए अर्थदण्ड शब्द भी प्रचलित हुआ।

बाद के दौर में नियन्त्रण, समूहन, सेना, न्यायशक्ति आदि जैसी अभिव्यक्तियाँ भी दण्ड में निहित हुईं। प्राचीनकाल से डण्डे के जोर पर दुनिया चल रही है। राजा के हाथ में हमेशा दण्ड रहता था जो उसके न्याय करने और सजा देने के अधिकारी होने का प्रतीक था। आज भी जिलाधीश के पास दंडाधिकारी के अधिकार होते हैं। इसीलिए उसे डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट कहते हैं। वह न्याय करता है। मजिस्ट्रेट की टेबल पर रखा हथोड़ा इसी दंड का प्रतीक है। पौराणिक ग्रंथों में यम, शिव और विष्णु को भी दण्डाधिकारी कहा गया है। कानून व्यवस्था सम्भालने वाले अफसर को दण्डनायक शब्द मिलता है। अर्दली या चौकीदार को दण्डधर कहा जाता था।

भुजदंड भी एक प्रयोग है। प्रणिपात के अर्थ में भी 'दंडवत' शब्द का प्रयोग होता है जिसमें दण्ड की भाँति भूमि पर लेट कर नमन करने का आशय है। दंड धारण करने वाले सन्यासी को दंडीस्वामी कहा जाता है। दंड धारण करने की परंपरा प्रायः दशनामी सन्यासियों में प्रचलित है। शंकराचार्य परंपरा के ध्वजवाहक मठाधीश भी दंडधारण करते है। प्राचीन धर्मशास्त्र मे दंड का महत्व इतना अधिक था कि मनुस्मृति में तो दंड को देवता के रूप में बताया गया है। एक श्लोक है-
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।।
(दंड ही शासन करता है। दंड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दंड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दंड को ही धर्म कहा है)
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Tuesday, December 9, 2014

//थाँके टिपे नी काँईं ?//


प्र

त्येक बोली-भाषा में कुछ अनोखे शब्द होते हैं। मालवी भाषा में देखने के लिए एक खास क्रिया का प्रयोग होता है- ‘टिपना’ जैसे- “थाँके कम टिपे काँई?” अर्थात तुझे कम दिखता है क्या? यह ‘टिप’ कहाँ से आ रहा है? गौर करें प्रचीनकाल से ही ऊर्जा का प्रमुख स्रोत सूर्य रहा है। अन्तरिक्ष की ओर ताकना प्रागैतिहासिक काल से मनुष्य का प्रिय शगल रहा। ऊष्मा, ऊर्जा, चमक ये सब अग्नि के गुणधर्म हैं। सूर्य उगने पर ही मनुष्य के सामने दृष्यजगत उजागर होता था। हमें कुछ भी दिखता इसलिए हैं क्योंकि वह प्रकाशित है। यानि प्रत्येक वस्तु में कुछ न कुछ भासित है क्योंकि वह दीप्त है। व्ह जो दीप्त है उसे हिन्दी में दिपना कहते हैं| यही मालवी का टिपना है| दिपना-टिपना के ज़रिये जानते हैं हिन्दी के कुछ बेहद प्रचलित शब्दों के बारे में। 

हर भाषा में किन्हीं ध्वनियों में बदलाव का अलग अंदाज़ होता है जिससे शब्दों का विकास होता है। हिन्दी-ईरानी में एक ही वर्णक्रम की ध्वनियों में बदलाव होता जाता है जैसे ‘प’ और ‘व’ में परस्पर बदलाव होता है। उदाहरण के लिए वैदिक शब्द ‘तप्’ को लें जिसमें अग्नि, चमक, ऊर्जा के साथ कष्ट, साधना, अभ्यास का भाव भी है। इससे ही तपस्वी, तपस्या, तापस जैसे शब्द बने। ‘तप’ का विकास ताप है। हिन्दी-फ़ारसी में ‘ताप’ से ‘ताव’ बनता है जिसमें गर्मी का भाव है। ‘ताव’ से ही मालवी-राजस्थानी में ‘तावड़ा’ बनता है यानी धूप। ‘तपः’ का एक रूप फारसी में तबाह बनता है जिसका अर्थ है बर्बादी, विनष्ट, जर्जर, ध्वस्त, निर्जन, वीरान आदि। समझा जा सकता है कि किसी जमाने में अग्नि से जुड़ी विभीषिका को ही तबाही कहा जाता रहा होगा।

हम जिसे दिन कहते हैं उसका एक रूप दिवस है। दिवस का मूल दिव है। गौर करें, यह दिव दरअसल दिप् रहा होगा और यह भी कि तप, ताप जैसे शब्द इसी दिप् से विकसित हैं। वैदिकी में दिप् नहीं है, दीप् क्रिया है किन्तु इसका पूर्वरूप दिप् ज़रूर रहा होगा क्योंकि कालान्तर में ऐसे अनेक वैदिक-संस्कृत शब्दरूप बने जिनका मूल दिप् ही सिद्ध होता है। यही दिप्, टिपना क्रिया का मूल है। ख्यात भाषाविद् डॉ रामविलास शर्मा “भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश-1” में ऋग्वेद के तपस् /तवस रूपों की चर्चा करते हैं। तपस् जो ऊष्मा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ तथा तवस् जिसका प्रयोग ऊर्जा, शक्ति के अर्थ में हुआ है, इससे साबित होता है कि दिव् का पूर्वरूप भी दिप् रहा होगा जिससे दीप् क्रिया बनी होगी जिसमें जलना, ऊर्जा, ऊष्मा, चमक, प्रकाश जैसे भाव है और इससे ही दीप, दीपक, दीवाली जैसे अनेक शब्द बने। यह साबित होता है हिन्दी की ‘दिपना’ क्रिया से जिसका अर्थ चमक, प्रकाश या प्रदीपन है। मूल भाव है दिखना। यह न माना जाए कि ‘दिपना’ का अगला रूप ‘टिपना’ है। टिपना ‘टिप’ से आ रहा है और दिपना ‘दिप’ से। ‘दिप्’ के ‘टिप्’ रूप से मालवी की ‘टिपना’ क्रिया बनी।

‘दिप’ में निहित दीप्ति, चमक, प्रकाश जैसे भाव ही ‘टिप’ में भी समाहित है। कोई चीज़ जब चमकती है तो ही नज़र आती है। हाँ, संस्कृत में इसका अर्थविस्तार भी हुआ और इसमें चमक, झलक, दिखाना, व्याख्या जैसे भाव हैं। किसी वस्तु का दीप्तिमान होना या उसका दीपन, प्रदीपन होना ही उजागर होना है। टिप से ही मालवी बोली में ‘टिपना’ शब्द बना जिसका अर्थ है दिखना। हिन्दी में ‘टिप्पणी’ या टीका-टिप्पणी शब्द भी खूब प्रचलित है। टिप्पणी का अर्थ है किसी वाक्य, वस्तु, स्थान अथवा विचार को स्पष्ट करने वाला विवरण। इस में भी मूलतः उजागर करने का ही भाव है और इसीलिए इसे टिप्पणी कहा जाता है।
‘टिपना’ पर ये टिप्पणी कैसी लगी ?
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Thursday, December 4, 2014

||टंटा और ताण्डव||


टं टा हिन्दी की प्रचलित शब्दावली का एक लोकप्रिय शब्द है। झगड़ा, फ़साद, दंगा, लड़ाई, अड़चन या बखेड़ा के अर्थ में इसका खूब इस्तेमाल होता है। यही नहीं प्रभावी अभिव्यक्ति के लिए टंटा-फ़साद या झगड़ा-टंटा जैसे युग्म शब्द भी बोले जाते है। टंटा की रच-बस हिन्दी समेत तमाम उत्तर भारतीय भाषाओं में है। जानकर ताज्जुब हो सकता है कि द्रविड़ भाषाओं में भी इसकी व्याप्ति है। मराठी में टंटा का तंटा रूप देखने को मिलता है। कन्नड़ में इसका रूप तंटे है जिसके मायने झगड़ा, फ़साद, उपद्रव या उलझन है। मराठी-कन्नड़ में उपद्रवी या फ़सादी व्यक्ति को तंटेखोर कहा जाता है। टंटा करना, टंटा मचाना जैसी मुहावरेदार अभिव्यक्तियाँ हिन्दी में आम है। इसी तरह ताण्डव फैलाना या ताण्डव मचाना भी हिन्दी में खूब बोला जाता है। टंटा और ताण्डव में क्या रिश्ता है?

र्य-द्रविड़ संस्कृतियों के बीच निरन्तर भाषायी सम्पर्क रहा है। शाब्दिक घुसपैठ इतनी ज्यादा है कि कभी कभी यह लगने लगता है कि कहीं संस्कृत और द्रविड़ दोनों भाषाओं का मूलस्रोत एक ही तो नहीं! बहरहाल हिन्दी के टंटा शब्द का रिश्ता कन्नड़ के तंटे से है। कन्नड़ का तंटे तमिल के ताण्टु से विकसित हुआ जिसमें नाचने का भाव है। एमेनो-बरो के द्रविड़ व्युत्पत्ति कोश में तण् क्रिया का उल्लेख है जो गतिवाचक है। इससे तण्टु, ताण्टि जैसे शब्द बनते हैं जिनमें उछल-कूद, फलांग, लांघ, छलांग और कूद-फांद का आशय है। इसी कड़ी में आता है ताण्टवम् जिसका अर्थ है रौद्र एवं उन्मत्त मुद्राओं वाली नृत्यशैली। बरो भारोपीय मूल की जर्मन भाषा के टान्त्स (नाच), टान्त्सन (नाचना) और अंग्रेजी के डान्स शब्द को द्रविड़ मूल तण्टु से रूपान्तरित ही मानते हैं। हालाँकि जॉन प्लैट्स टंटा शब्द की व्युत्पत्ति स्तनित से बताते हैं जिसका अर्थ मोनियर विलियम्स के कोश में कानफाड़ू शोर दिया हुआ है। टंटा में निहित कलह या उपद्रव का भाव कहीं नहीं है जबकि प्लैट्स स्तनित का सीधा सीधा अर्थ झगड़ा या लड़ाई बताते हैं जो ध्वनिसाम्य के आधार पर खींच-खांच कर व्युत्पत्ति सिद्ध करने का प्रयास लगता है।

मिल ताण्टवम के सादृष्य पर संस्कृत का ताण्डव है। शिव की प्रसिद्ध नटराज शैली की नृत्यमुद्रा। इसे संहार से भी जोड़ा जाता है। इस शैली में नृत्य की चिर-परिचित चेष्टाओं का उल्लंघन है| सीमाओं को तोड़ कर, दायरे से बाहर निकलते हुए विलक्षण अंग-विक्षेपों और हाव-भाव-मुद्राओं की वजह से इसे ताण्डव कहा जाता है। तण्टु, तण्टि जैसे शब्दों में निहित उछल-कूद और फिर के शिव के रौद्ररूप को प्रदर्शित करने वाले ताण्टवम वाले परवर्ती विकास से कन्नड़ में तण्टे, तंटे जैसे शब्दरूप सामने आए और हलचल, उपद्रव जैसी अर्थछटाएँ विकसित हुईं। तण्टु में सीमोल्लंघन के साथ अंगविक्षेप का भाव महत्वपूर्ण है। टंटा में निहित झगड़ा, बखेड़ा, फ़साद, कोहराम, कलह, प्रपंच, तकरार या खटराग जैसे अर्थ इसी वजह से सहज विकसित होते चले गए।

प्रसंगवश यह भी चर्चा कर लेना ठीक होगा कि शिव को द्रविड़ मूल का देवता मानने जैसी धारणा को अब अधिकांश विद्वान सही नहीं मानते हैं। भाषा विज्ञान से प्रमाणित भी होता है। तमिल के चॅ, चॅम् जैसे शब्दों में लालिमा का भाव है। चिव क्रिया में लाल होने का अभिप्राय है। डॉ रामविलास शर्मा कहते हैं कि इसे ही शिव के द्रविड़ देवता होने का प्रमाण मान लिया गया। देखा जाए तो तमिल में श् ध्वनि नहीं है। संस्कृत में शिव, शंभु और शंकर तीनों नाम श् से आरम्भ होते हैं। संस्कृत में च् ध्वनि है। शिव का चिव रूप आत्मसात करने में संस्कृतभाषियों को समस्या नहीं थी। वैदिक शिव ही तमिल में चिव हो जाते हैं। वैदिक वाङ्मय में रुद्र का उल्लेख है। रुद्र के साथ शिव का एकाकार बाद में हुआ। इसी रुद्र से रौद्र शब्द बनता है। यही रौद्र रूप द्रविड़ संस्कृति वाले शिव में अभिव्यक्त होता है। इसीलिए शिव की रौद्र-मुद्रा वाली अभिव्यक्ति को वहाँ ताण्टवम कहा गया। संस्कृत ने इसे ताण्डव के रूप में ग्रहण किया।
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Tuesday, December 2, 2014

सचिन और राखी


राखी और सचिन में भला क्या रिश्ता हो सकता है? इसमें कोई दो राय नहीं कि क्रिकेट वाले सचिन की वजह से भारत में के लोकप्रिय नामों की सूची में सचिन का शुमार भी हो चुका है। हालाँकि जो सचिन हिन्दी में बरता जा रहा है वह हिन्दी का अपना न होकर मराठी प्रभाव वाला सचिन है। हिन्दी में शुद्धरूप स पहले तो ये जानें की सचिन के मायने क्या हैं।

चिन का मूलार्थ दरअसल इन्द्र है। यह शचीन्द्र का ही घिसा हुआ तृतीय रूप है। द्वितीय रूप है सचिन्द्र। इसकी पृथक अर्थवत्ता नहीं है। बांग्ला-मराठी के स्वरतन्त्र में अन्त्य व्यंजनलोप की प्रवृत्ति है जैसे मिलिन्द > मिलिन, देवेन्द्र > देवेन या सचिन्द्र > सचिन। मराठी और बांग्ला में "न्द्र" का लोप होकर सिर्फ 'न' ध्वनि रह जाती है।
ची या शचि और कहीं कहीं सची का उल्लेख पुराणों में इंद्र की पत्नी के तौर पर है। इसे भी इंद्राणी कहते हैं। शचि दानवराज पुलोमा की कन्या थी। इसी लिए इन्द्र को शचीपति भी कहा जाता है। इसकी कई अर्थछटाएँ हैं। जैसे- सारतत्व। वाग्मिता। प्रज्ञा। शक्ति। भक्ति। प्रीति। पवित्रता।

प्रसंगवश रक्षाबंधन से भी इसका रिश्ता है। भविष्य पुराण के अनुसार देवासुर-संग्राम में असुरों से दुःखी और पराजित इन्द्र को विजयश्रीवरण की युक्ति उनकी पत्नी शची ने जो स्वयं असुर पुत्री थीं, सुझाई थी। जिसके मुताबिक़ श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को ब्राह्मणों के विशिष्ट विधान से तैयार रक्षासूत्र खुद उन्होंने इन्द्र की कलाई पर बांधा। यह भी उल्लेख है की शची के कहने पर ब्राह्मणों ने उसे इंद्र की कलाई पर बांधा| जो भी हो, कहते हैं इसी के प्रभाव से देवताओं की विजय हुई। रक्षाबंधन तभी से मूलतः ब्राह्मणों के पर्व के तौर पर प्रचलित हो गया। धीरे धीरे प्रतिज्ञा रक्षा, क्षात्रधर्म, ब्रह्मरक्षा से होते होते इसकी भावना विश्वबंधुत्व तक पहुंची। लेकिन बहन-भाई के बीच स्नेह-रक्षा सूत्र के रूढ़ अर्थ में यह सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ।
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Monday, November 3, 2014

//बेड़मी कचौरी और बेड़ा ग़र्क़//

बेड़मी पूरी

र्मागर्म पूरियों में बेड़मी पूरी (या कचौरी) लाजवाब होती है। अपनी मनपसंद निहारी है ये। आगरा में इसे बेड़ई कहा जाता है। हींग के धमार वाली आलू की गाढ़ी-गाढ़ी तरकारी से भरे दोने में डूबी बेड़मी पूरी से सुबह जायकेदार हो जाती है। कभी सोचा न था कि इस बेड़मी/बेड़ई का रिश्ता हथकड़ी वाली बेड़ी से भी होगा और ग़र्क़ होने वाले बेड़े/बेड़ा से भी होगा। बेड़िया और बेड़नी से भी होगा जिन्हें नट/घुमन्तू जाति माना जाता है। जानते हैं इन शब्दों के दिलचस्प सफर को।
लग-अलग अर्थछटाओं वाले इन शब्दों में कैसी रिश्तेदारी? बात दरअसल यह है कि इन सभी में कहीं न कहीं घूमने, घेरने, पूरने, समाने का भाव है किन्तु इस पर आसानी से ध्यान नहीं जाता। वैदिक साहित्य में एक शब्द है वेष्ट जिसमें लपेटना, लिपटाना, बान्धना, घुमाव, आवरण, भरना, आवृत्त करना जैसे भाव हैं। डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक संस्कृत वेष्ट का ही प्राकृत प्रतिरूप विष्ट है। मुझे लगता है कि विष्ट और वेष्ट एक ही मूल से ज़रूर उपजे हैं पर विष्ट प्राकृत रूप नहीं है। हाँ, इन्हें एक दूसरे का प्रतिरूप भी माना जा सकता है। विष्ट का प्राकृत रूप विट्ठ होता है, जबकि डॉ. रामविलास शर्मा इसे ही प्राकृत का बता रहे हैं। इसकी पुष्टि प्राकृत शब्दकोश ‘पाइय सद्द महण्णवो’ से भी होती है जिसमें विष्ट का प्राकृत रूप विट्ठ बताया गया है। बात यूँ है कि मूल रूप विष्ट है, इसका विकास वेष्ट है।
जो भी हो, संस्कृत में भी एक ही शब्द के अनेक रूप प्रचलित है यह कई बार साबित होता है। इसी तरह संस्कृत शब्दावली में भी प्राकृत शब्द जस के तस या थोड़े बहुत फेरबदल के साथ मिलते हैं। विष्ट का प्राकृत रूप विट्ठ भी होता है, विड्ड भी और विड्ढ भी। विष्ट के मूल में विष् / विश् धातु है जिसमें समष्टि का भाव है। विश्व यानी संसार भी इसी शब्द से बना है और विष्णु भी। विश् धातु में समाना, दाखिल होना, प्रविष्ट होना जैसे भाव हैं। समाविष्ट पर गौर करें। इससे बने विश्व का अर्थ है सारा, सब कुछ, सार्वलौकिक, सार्वकालिक, सृष्टि, प्रत्येक आदि। विश्व शब्द में जो भाव है वह प्रकृति को ईश्वर मानने के सार्वकालिक मानव दर्शन की ही पुष्टि करता है। समस्त धर्मशास्त्रों में जिस परम् की बात कही जाती है उसी ब्रह्म का व्यक्त रूप विश्व है। जिस तरह शरीर की आत्मा नजर नहीं आती, शरीर नजर आता है, उसी तरह विश्वात्मा यानी ब्रह्म का लौकिक स्वरूप ही विश्व है। बहरहाल, इसी विश् से विकसित विष्ट में घेरने, समाने के भाव भी उजागर हुए। विष्ट का प्राकृत रूप विट्ठ है। पंढरपुर के प्रसिद्ध लोकदेवता विट्ठल इसका अगला रूप हुआ। संस्कृत में विट्ठल का विड्ढल रूपान्तर भी विद्यमान है। ध्यान रहे, विट्ठल में विष्णु का रूप देखा जाता है। विष्णु का मूल भी विष् / विश् है।
स्पष्ट है कि जिस तरह विष्ट से विड्ड और विड्ढ बन रहा है उसे तरह वेष्ट से वेड्ड, वेड्ढ और वेढ भी बनता है। भाव वही- समाना, पूरना, घेरना, आवृत्त करना आदि। वेढ से वेढम का विकास हुआ और फिर इसस बना वेढमिका। वेढ़मिका का सबसे पहला उल्लेख अमरकोश में मिलता है। इसके आधार पर मोनियर विलियम्स ने संस्कृत कोश में वेढमिका की प्रविष्टि दर्ज है- “a kind of bread or cake” इसी तरह रॉल्फ़ लिली टर्नर इसमें जोड़ते हैं- “cake of flour mixed or filled with pulse or meal” जाहिर है आशय पूरी या कचौरी से है। हिन्दी शब्दसागर में वेढमिका का अर्थ “वह कचौरी जिसमें उड़द की पीठी भरी हुई हो” बताया गया है। इसमें व्युत्पत्ति संस्कृत वेढग से बताई गई है पर इसका अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता। वेढमिका से बेड़ई या बेड़मी बनने का विकासक्रम कुछ यूँ रहा- वेढमिका > वेडइआ > बेड़ई> अथवा वेढमिका > वेढमिआ > बेड़मी। वेष्ट में निहित समाने, भरने, पूरने, घेरने, ढकने, आवृत्त करने जैसे अर्थ पूरी, कचौरी बनाने की प्रक्रिया में सार्थक हो रहे हैं। पूरी नाम ही पूरने से पड़ा है। जिसमें कुछ पूरा जाए, भरा जाए यानी स्टफिंग की जाए। आटे की गोल गोल लिट्टी में किस तरह छोटा गढ़ा बनाया जाता है। स्वादिष्ट मसाला उसमें समा जाता है। फिर मसाले पर आवरण चढ़ा दिया जाता है और लिट्टी को गोल गोल बेल कर या हाथों से चपटा कर तेल / घी में तल लिया जाता है। 
ब आते हैं बेड़ा पर। आमतौर पर बेड़ा शब्द वाहनों के समूह के लिए इस्तेमाल किया जाता है किन्तु इसका आशय जहाजों के समूह से है। हालाँकि बेड़ा शब्द का मूल अर्थ है पोत, जहाज़ या बड़ी नौका। यह बेड़ा शब्द भी वेष्ट > वेड्ढ > बेड़ > से विकसित हुआ है। बेड़ क्रिया में बान्धने, लपेटने का भाव किसी भी बेड़े के निर्माण की प्रक्रिया से समझा जा सकता है। प्राचीनकाल में बेड़े का निर्माण लकड़ी के बड़े बड़े फट्टों को आपस में बांध कर किया जाता था। इन तख़्तों पर पुआल बिछा कर सफर किया जाता था। इस तरह बेड़े में जो अर्थवत्ता उभर रही है वह तख्तों को आपस में बान्धने, रस्सी लपेटने और उन्हें घेरने में निहित है। बाद में लकड़ी के फट्टों के स्थान पर कई नावों को बांध कर एक बेड़ा बनाया जाने लगा जिस पर लकड़ी के फट्टे डाल कर उस पर भारी सामान ढोया जाता था। नावों के इसी समूह की वजह से फ्लीट के अर्थ में बेड़ा शब्द रूढ़ हुआ। बेड़ा का एक रूप भेड़ा भी है जैसे जबलपुर के पास नर्मदा तट पर भेड़ाघाट अर्थात वह स्थान जहाँ से नावें चलती हों। प्राचीनकाल मे जलमार्ग भी आवागमन का महत्वपूर्ण जरिया था। ये सफर बेहद कठिन होता था इसीलिए “बेड़ा पार” होने का भाव कठिनाई पर विजय पाने जितना महत्वपूर्ण समझा जाने लगा। “बेड़ा ग़र्क़” में विपत्ति या विनाश का भाव समझा जा सकता है। प्राचीन ग्रन्थों में बेड़ी, वेड़ी, वेटी, बेडा जैसे शब्दों में कश्ती या नौका का भाव है। इसमें वाहन में निहित घूमाव, भ्रमण, गति जैसे भाव तो हैं ही, बान्धने, लपेटने जैसी क्रियाओं की वजह से भी इसका नाम सार्थक हो रहा है।
बुंदेलखण्ड क्षेत्र में विमुक्त और घुमन्तू बेड़िया जाति होती है। इस जाति की स्त्रियाँ कमाल कुशल नृत्यांगना होती हैं। इन्हें बेड़नी कहते हैं। बुंदेलखण्ड के प्रसिद्ध राई नृत्य में ये बेड़नियाँ निष्णात होती हैं। अपनी अनथक अनवरत चक्रगति की वजह से राई नृत्य भारतीय लोकविधाओं में अन्यतम है। बेड़िया शब्द में भी वेड क्रिया की गति, घुमाव स्पष्ट हो रहा है। डॉ. रामविलास शर्मा के मुताबिक बांग्ला में बेड़ घुमाव का अर्थ देता है। बेड़ी शब्द का रिश्ता किन्ही कोशों में वलय से जोड़ा जाता है जो बेड़, वेड क्रियाओं की इतनी स्पष्ट व्याख्या के बाद उचित नहीं जान पड़ता। हमारा मानना है कि हथकड़ी या बन्धन के तौर पर प्रयुक्त बेड़ी शब्द वेष्ट से विकसित बेड़ क्रिया से ही आ रहा है। बेड़ी जो बान्धने के काम आती है। बेड़ा इसलिए जिसे बान्धा गया है। बान्धने में घुमाने की क्रिया है। बेड़नी घूमती है। बेड़िया घूमते हैं। बेड़ा घूमता है। बेड़ई में मसाला समाविष्ट है। बेड़मी कचौरी एक आवरण है। इसे गोल गोल बनाया जाता है। गोल बनाने के लिए लिट्टी को घुमाया जाता है। 

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Wednesday, September 24, 2014

||दुर्गम है 'रण' युद्ध नहीं||



क्सर लोग ‘कच्छ के रण’ को ‘रणक्षेत्र’ वाले ‘रण’ से जोड़ कर देखते हैं। आजकल अंग्रेजी Rann की तर्ज पर रन भी कहा जाने लगा है। दो सवाल उठते हैं । क्या कच्छ का ‘रण’, मैदाने-जंग है ? क्या ‘रण’ के अंग्रेजी हिज्जे Rann लिखना वाजिब है ? रण को अगर रोमन में फोनेटिकली लिखा जाए तो Raṇa लिखा जाएगा न कि Rann. दरअसल रण की अंग्रेजी वर्तनी Rann तब से चलन में है जब अंग्रेज गुजराती के ‘रण्ण’ से परिचित हुए जिसका प्रचलित रूप ‘रण’ है और जिसका वैदिक समरूप अरण्य है| हिन्दी में तत्सम शब्दावली वाला ‘रण’ है जिसका अर्थ है युद्ध, लड़ाई, जंग। गुजराती के ‘रण’ में क्षेत्र या इलाके का भाव है और इस ‘रण’ का हिन्दी के ‘रण’ से कोई साम्य नहीं और हिन्दी में इसकी गुज़र-बसर भी नहीं। कच्छ के रण से आशय अगम, कठिन, बीहड़ क्षेत्र है जहाँ गुज़र मुश्किल हो।

कच्छ का रण दरअसल खारे पानी का दलदली बीहड़ इलाका है। साल का आधा वक्त यहाँ नमी रहती है। गर्मियों में दलदल सूखने पर नमक की सफेद परत ज़मीन को अलग रूप देती है। यही बात इस जगह को भौगोलिक तौर पर विशिष्ट बनाती है और इसी वजह से यहाँ सैलानियों की आवाजाही बढ़ गई है वरना यह इलाका वीरान है। गुजराती में ‘रण’ का विकास प्राकृत ‘रण्ण’ से हुआ है। रॉल्फ़ लिली टर्नर भारोपीय भाषाओँ के तुलनात्मक कोश में ‘रण्ण’ के ही समान ‘अरण्ण’ को भी प्राकृत रूप बताते हैं। पुरानी गुजराती में इसका ‘रण्ण’ रूप सुरक्षित रहा मगर बोलचाल में ‘रण’ उच्चार चलता रहा। यही ‘रण्ण’ अंग्रेजी में Rann हुआ। ‘रण्ण’ का संस्कृत या वैदिकी में समरूप ‘अरण्य’ है । ‘रण्ण’ का ही अगला रूप है ‘रान’ जिसका अर्थ आमतौर पर जंगल या वन होता है किन्तु इसमें निर्जन, सुनसान, विजन, एकाकी, निविड़, उजाड़, एकान्त, जनशून्य, दूरस्थ, बीहड़, मरुस्थल, बंजर, ऊसर, बाहरी, शान्त, तन्हा, अकेला जैसे अनेक आशय समाए हैं। पाली में यह ‘रन्न’ हो जाता है।

‘अरण्ण’ का अगला रूप ‘अरण’ भी होता है। ‘अरण’ यानी निबिड-निगम क्षेत्र। ‘अरण्ण’ से जैसे ‘रण्ण’ बनता है वैसे ही ‘अरण’ से ‘रण’ बनता है। अर्थ वही-निर्जन, बीहड़ क्षेत्र। गुजराती के भगवद्गोमंडल विश्वकोश में भी ‘रण’ (રણ) और ‘रण्ण’ (રણ્ણ) दोनों प्रविष्टियाँ दी हुई हैं। इसी तरह गुजराती, मराठी का ‘रान’ शब्द भी ‘अरण्य’ से ही बना है। मराठी-गुजराती पर एक दूसरे का असर है इसीलिए मराठी में भी ‘रण’ का वही अर्थ है जो गुजराती ‘रण’ का है। कृपा कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्ति कोश में इसका विकास आरण्यक > आरण्यम् > अरण्णम > अरण्ण > रण्ण > रान यानी जंगल, निर्जन, बीहड़ एकान्त आदि से बताया गया है। हिन्दी में ‘रण’ या ‘रान’ जैसे शब्द नहीं हैं। मालवी में जंगली विशेषण की तरह से ‘अरना’ या ‘अरण’ शब्द चलता है जैसे अरण ककड़ी’ या ‘अरना भैंसा’।

ऋग्वेद में ‘अरण्य’ का प्रयोग गाँव, कस्बे से इतर किसी भी दूरस्थ प्रान्त के अर्थ में भी हुआ है। रेगिस्तान या मरुस्थल के लिए भी ‘अरण्य’ का प्रयोग हुआ है। वैदिक संहिताओं में इसका ‘इरण्य’ या ‘इरण’ रूप भी दिखता है जिसमें लवणीय या बंजर भूमि का भाव है। टर्नर और मोनियर विलियम्स के कोश में इसके हवाले हैं। ‘इरण्य’, ‘अरण्य’, ‘अरण्ण’, ‘अरण’, ‘रण’, ‘रान’ जैसे तमाम शब्दरूपों के अर्थ जंगल, वन के साथ साथ निर्जन, बीहड़, एकान्त, मरुस्थल, दुर्गम स्थल आदि हैं। मूल मूल बात दुर्गमता में निहित है। जहाँ मनुष्य का जाना कठिन हो। यह कठिनाई भौगोलिक कारण से भी हो सकती है और भय से भी। जंगल में वनचर रहते हैं जिनसे भय होना स्वाभाविक है और इसीलिए वहाँ नहीं जाया जा सकता। ‘मरु’ का अर्थ भी रेतीला मैदान भी है और अगम बीहड़ भी है। जिस कच्छ के संदर्भ में ‘रण’ शब्द पर चर्चा चल रही है, गौर करें संस्कृत में उसी कच्छ के लिए ‘मरुकच्छ’ शब्द है जिसका आशय है कच्छ का मरुक्षेत्र अथवा दुर्गम कच्छ।

अरण्य का विकास देवनागरी के ‘ऋ’ वर्ण से हुआ है। जिसका अर्थ है जाना, पाना। जाहिर है किसी मार्ग पर चलकर कुछ पाने का भाव इसमें समाहित है। इसी तरह ‘र’ वर्ण के मायने गति या वेग से चलना है जाहिर है मार्ग या राह का अर्थ भी इसमें छुपा है। पाणिनि धातुपाठ के अनुसार ‘ऋण्’ धातु में गति, जाने का भाव है। ‘अ-रण्य’ से मूलतः अगम्य का बोध होता है। ‘अरण्य’ यानी वह स्थान जो दुर्गम हो। जहाँ जाया न जा सके।

हिन्दी-संस्कृत के जाने-पहचाने ‘ऋषि’ शब्द देखें तो भी इस ‘ऋ’ की महिमा साफ समझ में आती है। ‘ऋष्’ धातु में ‘ऋ’ की महिमा देखिए। इसका मतलब है जाना-पहुँचाना। इसी से बना है ऋषिः जिसका शाब्दिक अर्थ तो हुआ ज्ञानी, महात्मा, मुनि इत्यादि मगर मूलार्थ है सही राह पर ले जाने वाला। ऋषि वह है जिसने अपने भीतर ईश्वर प्राप्ति की राह खोज ली है। ‘राह’ या ‘रास्ता’ जैसे शब्द वैसे तो उर्दू-फारसी के जरिये हिन्दी में आए हैं मगर इनका रिश्ता भी ‘ऋ’ से ही है। फारसी में ‘रास’ के मायने होते हैं पथ, मार्ग। इसी तरह ‘रस्त:’ या राह का अर्थ भी पथ या रास्ता के साथ साथ ढंग, तरीका, युक्ति भी है। कुल मिलाकर गुजराती ‘रण’ का हिन्दी के ‘रण’ से कोई साम्य नहीं। कच्छ के रण से आशय अगम, कठिन, बीहड़ क्षेत्र है जहाँ गुज़र मुश्किल हो। रेगिस्तान में, दलदल में, जंगल में गुज़र-बसर मुश्किल ही होती है।
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Monday, September 15, 2014

||‘दरी’ और ‘दारी’ की बात||

sakhi चपन से युवावस्था तक अपन मालवी-उमठवाड़ी परिवेश वाले राजगढ़-ब्यावरा में पले-बढ़े हैं। मालवी में जब हाड़ौती का तड़का लगता है तो उमठवाड़ी बनती है। हालाँकि राजगढ़-ब्यावरा मूल रूप से मध्यप्रदेश के मालवांचल में ही आता है फिर भी इस इलाके की स्थानीय पहचान उमठवाड़ के नाम से भी है। बहरहाल अक्सर महिलाओं के आपसी संवादों में ‘दारी’ और ‘दरी’ इन शब्दों का अलग अलग ढंग से इस्तेमाल सुना करते थे। ‘दरी’ में जहाँ अपनत्व और साख्य-भाव है वहीं ‘दारी’ में उपेक्षा और भर्त्सना का दंश होता है। ‘दरी’ का प्रयोग देखें- “रेबा दे दरी” अर्थात रहने दो सखि। “आओ नी दरी” यानी सखि, आओ न। “अरी दरी, असाँ कसाँ हो सके” मतलब ऐसा कैसे हो सकता है सखि! इसके ठीक विपरीत ‘दारी’ शब्द का प्रयोग बतौर उपेक्षा या गाली के तौर पर किया जाता है जैसे- “दारी, घणो मिजाज दिखावे”, भाव है- इसकी अकड़ तो देखो!
री’ और ‘दारी’ के भेद को समझने की कोशिश लम्बे वक्त से जारी थी। सिर्फ एक स्वर के अंतर से ‘दरी’ में समाया सखिभाव तिरोहित होकर दारी में उपेक्षा अथवा गाली में कैसे तब्दील हो जाता है ? ‘दरी’ का प्रयोग नन्हीं-नन्हीं बच्चियों से लेकर बड़ी-बूढ़ी औरतें तक करती हैं। हाँ, दारी का प्रयोग वयस्क महिलाओं के आपसी संवाद में ही होता है। दूर तक फैले मालवा के बारे में अपने सीमित अनुभवों के बावजूद कह सकता हूँ कि इस पर बृजभाषा का काफी प्रभाव है। दारी बृज में भी प्रचलित है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी भी दारी के बारे में लिखते हैं- “बृज में ‘दारी’ बहुत प्रचलित है। औरतों को गाली देने के काम आता है। परन्तु इस शब्द का तात्विक अर्थ क्या है, बृज के लोग आज भी नहीं जानते। साहित्यिक भी ‘दारी’ का अर्थ नहीं जानते। कोश-ग्रन्थों में दासी का रूपान्तर दारी बतलाया गया है! दासी से दारी कैसे बना ? कोई पद्धति भी है? कुछ नहीं! और दासी कहकर या नौकरानी कह कर कोई गाली नहीं देता। गाली में बेवकूफी, दुष्टता, दुश्चरित्रता जैसी कोई चीज़ आनी चाहिए”
निश्चित तौर पर ‘दारी’ शब्द के मूल में दुश्चरित्रता का ही भाव है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ‘दारी’ का रिश्ता ‘दारा’ से जोड़ते हैं जिसमें पत्नी, भार्या का भाव है। वे लिखते हैं, “ दारा एक की भार्या, और दारी सबकी, भाड़े की” । तो क्या 'दारा' में 'ई' प्रत्यय लगा देने से अधिष्ठात्री की अर्थवत्ता बदल कर वेश्या हो जाती है? 'पति' में पालनकर्ता, स्वामी का भाव है। इससे ही 'पतित' बना होगा, ऐसा मान लें ? मेरे विचार में मालवी, बृज के ‘दारी’ शब्द में वेश्या, व्यभिचारिणी या दुश्चरित्रा के अर्थ स्थापन की प्रक्रिया वही रही है जैसी हिन्दी के ‘छिनाल’ शब्द की रही। ‘छिनाल’ का रिश्ता संस्कृत के ‘छिन्न’ अथवा प्राकृत के ‘छिण्ण’ से है जिसका अर्थ विभक्त, टूटा हुआ, विदीर्ण, फाड़ा हुआ, खण्डित, विनष्ट आदि। ध्यान रहे छिन्न > छिण्ण से विकसित छिनाल में चरित्र-दोष इसीलिए स्थापित हुआ क्योंकि समाज ने बतौर कुलवधु उसकी निष्ठा में दरार देखी, टूटन देखी या उसे विभक्त पाया। संस्कृत की ‘दृ’ धातु में जहाँ विदीर्ण, विभक्त जैसे भाव हैं वहीं इससे मान, सम्मान, शान, अदब जैसे आशय भी निकलते हैं। आदर, आदरणीय जैसे शब्द ‘दृ’ से ही बने हैं। ‘समादृत’ जैसे साहित्यिक शब्द में ‘दृ’ की स्पष्ट रूप से पहचाना हो रही है|
त्नी के अर्थ में हिन्दी संस्कृत में जो ‘दारा’ शब्द है उसमें स्त्री के पतिगृह की अधिष्ठात्री, पत्नी, अर्धांगिनी जैसे रुतबे वाला आदरभाव है। दारा में आदर वाला ‘दृ’ है। मोनियर विलियम्स के कोश में ‘दारिका’ के दो रूप दिए हैं। एक का विकास ‘दृ’ के टूटन, विभाजन वाले अर्थ से होता है तो दूसरे का विकास सम्मान, अदब आदि भावों से। ‘दारिका’ का एक अर्थ जहाँ वेश्या है वहीं दूसरी ओर इसका अर्थ कन्या, पुत्री, पुत्र आदि भी है। स्पष्ट है कि सखि के तौर पर मालवी में जो ‘दरी’ शब्द है वहाँ ‘दृ’ में निहित आदर का भाव स्नेहयुक्त लगाव में परिवर्तित होता दिखता है और इसीलिए मालवांचल के देहात में ‘दरी शब्द आज भी खूब प्रचलित है वहीं गाली-उपालम्भ के तौर पर 'दारी' की अर्थवत्ता भी कायम है। अलबत्ता सभ्य समाज में जो वेश्या है ‘दारी’ उसे न कहते हुए आपसदारी की गाली में ‘दारी’ देहाती परिवेश में आज भी चल रहा है।

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Friday, August 29, 2014

|| बप्पा के 'मोरया' कौन ||



“मोरया मोरया, बप्पा मोरया” गणपति गजवंदन में “मोरया” का यह नाद कई सदियों से महाराष्ट्र से निकल कर पूरे उत्तर भारत को गुंजा रहा है। गणेश चतुर्थी से गणेश विसर्जन तक “मोरया” गणेश की धूम रहती है। “गणपति बप्पा मोरया, मंगळमूर्ती मोरया, पुढ़च्यावर्षी लवकरया” अर्थात हे मंगलकारी पिता, अगली बार और जल्दी आना। बचपन में अपने मालवा में इसी तर्ज़ पर सुनते थे “गणपति बप्पा मोरिया, चार लड्डू चोरिया, एक लड्डू टूट ग्या, नि गणपति बप्पा रूठ ग्या” । यह तो तय है कि बालगंगाधर तिलक ने मराठी लोगों में आत्मसम्मान और देशप्रेम की अलख जगाने के लिए जब सार्वजनिक गणेशोत्वसों की परिपाटी शुरू की तब तक उत्तरभारत में मोरया के प्रति शृद्धा छोड़िये, गणेशोत्सव की ही कोई परम्परा नहीं थी। अब ये हाल है कि हिन्दी फिल्मी गानों में मोरया शब्द आता है। पेश है सफ़र “मोरया” का।


गणपति बप्पा से जुड़े मोरया नाम के पीछे भी एक गणेश भक्त की महिमा का सन्दर्भ अक्सर मिलता है। चौदहवीं सदी में पुणे के समीप चिंचवड़ में मोरया गोसावी नाम के ख्यात गणेशभक्त हुए हैं। चिंचवड़ में इन्होंने गणेशसाधना की। कहते हैं मोरया गोसावी ने यहाँ जीवित समाधि ली। तभी से वहाँ का गणेशमन्दिर एक सिद्धक्षेत्र के तौर पर विख्यात हुआ और गणेशभक्तों ने गणपति के नाम के साथ मोरया के नाम का जयघोष भी शुरू कर दिया।

गौरतलब है कि भारत में देवता ही नहीं, भक्त भी पूजे जाते हैं। आस्था के आगे तर्क, ज्ञान, बुद्धि जैसे उपकरण काम नहीं करते। आस्था के सूत्रों की तलाश इतिहास के पन्नों पर नहीं की जा सकती। आस्था में तर्क-बुद्धि नहीं, महिमा प्रभावी होती है। जो भी हो, गणपति बप्पा मोरया के पीछे तमाम सन्दर्भ मोरया गोसावी को ही देखते हैं। मुझे लगता है यहाँ भी  आस्था ही है जो गणपति बप्पा 'मोरया' के पीछे मोरया गोसावी को देख रही है और इसी वजह से पुणे के समीप मोरगाँव के 'मोर' गणेशभक्त गोसावी के आगे प्रभावी नहीं हो पा रहे हैं। अब तक जो भी खोज-बीन की है उसके अनुसार यही लगता है कि 'मोरया' शब्द के पीछे मोरगाँव के गणेश हैं। इसके बावजूद 'मोरया' गोसावी का सन्दर्भ और उल्लेख इस शब्द के बरअक्स महत्वपूर्ण बना रहता है।

मराठियों के गोसावी उपनाम का वही अर्थ होता है जो उत्तरभारत में गुसाँई का होता है। दोनो शब्दों का मूल गोस्वामिन है। गोस्वामिन > गोस्वामी >  गोसाईं और फिर मराठी में अनुनासिकता का भी लोप होकर सिर्फ गोसावी रह जाता है। आमतौर पर गाय पालने वाले ब्राह्मण को भी गोस्वामी कहा जाता है। इन्द्रियों को भी संस्कृत में 'गो' कहा जाता है इसलिए गोस्वामी की एक व्याख्या यह भी कि जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया हो। बहरहाल, गोसावी मूलतः मराठी ब्राह्मणों का एक उपनाम है।

मोरया गोसावी के पिता वामनभट और माँ पार्वतीबाई सोलहवीं सदी ( कुछ सन्दर्भों में चौदहवीं सदी ) में कर्नाटक से आकर पुणे के पास मोरगाँव नाम की बस्ती में रहने लगे। वामनभट परम्परा से गाणपत्य सम्प्रदाय के थे। प्राचीनकाल से हिन्दू समाज शैव, शाक्त, वैष्णव और गाणपत्य सम्प्रदाय में विभाजित रहा है। गणेश के उपासक गाणपत्य कहलाते हैं। इस सम्प्रदाय के लोग महाराष्ट्र, गोवा और कर्नाटक में ज्यादा हैं। गाणपत्य मानते हैं कि गणेश ही सर्वोच्च शक्ति हैं। इसका आधार एक पौराणिक सन्दर्भ है। उल्लेख है कि शिवपुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया। उसके तीनों पुत्रों तारकाक्ष, कामाक्ष और विद्युन्माली ने देवताओं से प्रतिशोध का व्रत लिया। तीनों ने ब्रह्मा की गहन आराधना की। ब्रह्मा ने उनके लिए तीन पुरियों की रचना की जिससे उन्हें त्रिपुरासुर या पुरत्रय कहा जाने लगा। गाणपत्यों का विश्वास है कि शिवपुत्र होने के बावजूद त्रिपुरासुर-वध से पूर्व शिव ने गणेश की पूजा की थी इसलिए गणपति ही परमेश्वर हुए।

बहरहाल, गाणपत्य सम्प्रदाय के वामनभट और पार्वतीबाई मध्यकालीन आप्रवासन के दौर में पुणे के समीप मोरगाँव में यूँ ही आकर नहीं बस गए होंगे। मोरगाँव प्राचीनकाल से ही गाणपत्य सम्प्रदाय के प्रमुख स्थानों में रहा है और शायद इसीलिए दैवयोग से प्रवासी होने को विवश हुए मोरया गोसावी के माता-पिता की धार्मिक आस्था ने ही गाणपत्य-बहुल मोरगाँव का निवासी होना कबूल किया। इस आबादी को मोरगाँव नाम इसलिए मिला क्योंकि समूचा क्षेत्र मोरों से समृद्ध था। यहाँ गणेश की सिद्धप्रतिमा थी जिसे मयूरेश्वर कहा जाता है। इसके अलावा सात अन्य स्थान भी थे जहाँ की गणेश-प्रतिमाओं की पूजा होती थी। थेऊर, सिद्धटेक, रांजणगाँव, ओझर, लेण्याद्रि, महड़ और पाली अष्टविनायक यात्रा के आठ पड़ाव हैं।

गणेश-पुराण के अनुसार दानव सिन्धु के अत्याचार से बचने के लिए देवताओं ने श्रीगणेश का आह्वान किया। सिन्धु-संहार के लिए गणेश ने मयूर को अपना वाहन चुना और छह भुजाओं वाला अवतार लिया। मोरगाँव में गणेश का मयूरेश्वर अवतार ही है। इसी वजह से इन्हें मराठी में मोरेश्वर भी कहा जाता है। जो भी हो, कहते हैं वामनभट और पार्वती को मयूरेश्वर की आराधना से पुत्र प्राप्ति हुई। परम्परानुसार उन्होंने आराध्य के नाम पर ही सन्तान का नाम मोरया रख दिया। मोरया भी बचपन से गणेशभक्त हुए। उन्होंने थेऊर में जाकर तपश्चर्या भी की थी जिसके बाद उन्हें सिद्धावस्था में गणेश की अनुभूति हुई। तभी से उन्हें मोरया अथवा मोरोबा गोसावी की ख्याति मिल गई। उन्होंने वेद-वेदांग, पुराणोपनिषद की गहन शिक्षा प्राप्त की। युवावस्था में वे गृहस्थ-सन्त हो गए। माता-पिता के स्वर्गवास के बाद वे पुणे के समीप पवना नदी किनारे चिंचवड़ में आश्रम बना कर रहने लगे। इस आश्रम के ज़रिये मोरया गोसावी अपनी धार्मिक-आध्यात्मिक गतिविधियाँ चलाने लगे। उनकी ख्याति पहले से भी अधिक बढ़ने लगी।  समर्थ रामदास और संत तुकाराम के नियमित तौर पर चिंचवड आते रहने का उल्लेख मिलता है जिनके मन में मोरया गोसावी के लिए स्नेहयुक्त आदर था। बताते चलें कि मराठियों की प्रसिद्ध गणपति वंदना "सुखकर्ता-दुखहर्ता वार्ता विघ्नाची.." की रचना सन्त कवि समर्थ रामदास ने चिंचवड़ के इसी सिद्धक्षेत्र में मोरया गोसावी के सानिध्य में की थी।

चिंचवड़ आने के बावजूद मोरया गोसावी प्रतिवर्ष गणेश चतुर्थी पर मोरगाँव स्थित मन्दिर में मयूरेश्वर के दर्शनार्थ जाते थे। कथाओं के मुताबिक मोरया गोसावी श्री गणेश की प्रेरणा से समीपस्थ नदी से जाकर एक प्रतिमा लाई और उसे चिंचवड़ के आश्रम में स्थापित किया। बाद में वे यहीं पर जीवित समाधि लेते हैं। उनके पुत्र चिन्तामणि ने कालान्तर में समाधि पर मन्दिर की स्थापना की। यही नहीं, आस-पास के अन्य गणेश स्थानों की सारसंभाल के लिए भी मोरया गोसावी ने काम किया। कहा जाता है अष्टविनायक यात्रा की शुरुआत भी उन्होंने ही कराई और इस कड़ी के प्रथम गणेश मयूरेश्वर ही हैं अर्थात अष्टविनायक यात्रा की शुरुआत मयूरेश्वर गणेश से ही होती है।          

प्रश्न उठता है गणेश चतुर्थी पर मोरया शब्द के पीछे मोरया गोसावी के नाम की स्थापना सिर्फ आस्था है या स्पष्ट साक्ष्य है? उपरोक्त छानबीन से तो ऐसा साबित नहीं होता। मेरा निष्कर्ष है कि मोरगाँव के मयूरेश्वर गणेश खुद ही मोरया हैं। भक्त का स्वभाव है कि वह अपने आराध्य को जहाँ अतिमानवीय बनाता है वहीं उसके साथ मानवीय रिश्ता भी रखना चाहता है। गणेशभक्तों नें अपने आराध्य को प्रायः हर रूप में चित्रित किया है। कृष्ण के बाल रूप को ही बालकृष्ण कहते हैं और फिर इससे बालू जैसा घरेलु नाम बना लिया गया। इसी तरह मयूरेश्वर से मोरया बना। यही नाम गोसावीपुत्र को भी मिला। गौर करें कि मोरया गोसावी मोरगाँव की नदी से जिस प्रतिमा को लाकर चिंचवड़ में स्थापित करते हैं उस गणेश को भी मोरगाँव की वजह से मोरया ही कहा गया। गाणपत्य समाज के बड़े गणेशोत्सवों में मोरगाँव और चिंचवड़ के पर्व प्रमुख थे। दोनों स्थानों पर गणेशचतुर्थी पर गणपतिबप्पा मोरया का उद्घोष होता रहा। यह मोरया सम्बोधन मयूरेश्वर के लिए था न कि मोरया गोसावी के लिए। मेरी तर्कबुद्धि तो यही कहती है।

चूँकि समूची अष्ट विनायक यात्रा की शुरुआत ही मोरगाँव के मयूरेश्वर गणेश से होती है इसलिए भी मोरया नाम का जयकारा प्रथमेश गणेश के प्रति होना ज्यादा तार्किक लगता है न कि मोरया गणेश के आशीर्वाद से पैदा हुए और मोरया गोसावी के नाम से प्रसिद्ध एक गाणपत्य सन्त के लिए| मयूरासन पर विराजी गणेश की अनेक प्रतिमाएँ  उन्हें ही मोरेश्वर और प्रकारांतर से मोरया सिद्ध करती हैं| मोरया गोसावी भक्त शिरोमणि थे इसमें शक नहीं, पर बप्पा मोरया नहीं। सबसे अन्त में याद दिलाना चाहूँगा कि शिव परिवार के सदस्य द्रविड़ संस्कृति में भी प्रतिष्ठित हैं। शिव के दो पुत्रों का हमेशा उल्लेख आता है। गणेश और कार्तिकेय। ये कार्तिकेय ही द्रविड़ संस्कृति, खासतौर पर तमिल में मुरुगन हो जाते हैं।

आर्य संस्कृति और द्रविड़ संस्कृति के समता और पृथकता बिन्दुओं पर वैज्ञानिक नज़रिये से काम अभी शुरू ही नहीं हुआ है। फिर भी इतना ज़रूर कहूँगा कि संस्कृतियों का आपसी हेल-मेल पृथकतावादी नहीं बल्कि एकतावादी है। यह साबित होता है कि अतीत के किसी एक बिन्दु से दोनों का सफर शुरू हुआ था। बहरहाल मुरुगन चाहे कार्तिकेय हों, हैं तो शिवपुत्र ही। वे षष्ठबाहु हैं। मोर पर सवारी करते हैं। यूँ कहें कि तमिल संस्कृति में उन्हें मयूरेश्वर कहा गया है। मयूरेश्वर यानी मोरया। संस्कृत में मौर्य यानी जिसका सम्बन्ध मोर से हो। आर्य द्रविड़ संस्कृतियों में पौराणिक कथाएँ एक सी हैं। पात्रों के नामों, चरित्रों और क्रियाकलापों में भिन्नता होना सहज बात है| जैसे कार्तिकेय का तमिल नाम मुरुगन है वहीँ संस्कृत ग्रंथों में इसे स्कन्द भी कहा गया है| यह महासेन या महासेनानी भी है|  शिव तमिल में चिव हैं| ये संहारक हैं| संस्कृत में रूद्र ही रौद्र हैं| तमिल में यही रूद्र,  तान्टूवम करते हैं| संस्कृत में आकर यह ताण्डव हो जाता है|  कुल मिलाकर मोरया गोसावी के नाम से बप्पा मोरया की महिमा नहीं बढ़ी बल्कि इसके मूल में द्रविड़ संस्कृति वाले मयूरेश्वर हैं। शिवपुत्र गणेश हैं जिनका एक रूप  महाराष्ट्र में मयूरेश्वर है। यही मयूरेश्वर तमिल संस्कृति में मुरुगन है। तमिळ > दमिळ> द्रविड़। इस विश्लेषण से कुछ सार्थक सिद्ध हुआ या नहीं, ज़रूर बताएं|

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Friday, May 2, 2014

झाँकना 'दरअसल' के दर में


रअसल में जो फ़ारसी का प्रसिद्ध उपसर्ग ‘दर’ है वो दरवाज़ा है या कुछ और? गौरतलब है इसका इस्तेमाल हिन्दी में ठाठ से होता है| इस 'दर' का सर्वाधिक प्रचलित उदाहरण भी ‘दरअसल’ है जिसके बिना कई लोगों का वाक्य ही पूरा नहीं होता| इसके अलावा दरहकीक़त, दरपेश जैसे कुछ और शब्द भी हैं| ये जो 'दर' है उसका रिश्ता दरबार, दरबान, दर-ब-दर, सफ़दर वाले 'दर' से नहीं है| डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक दरअसल वाला 'दर', मूलतः फ़ारसी का 'दर' है जिसका अर्थ दरवाज़ा है| भारत-ईरानी परिवार के इस शब्द का हिन्दी-संस्कृत रूप द्वार है| मगर द्वार का अर्थ या तो दरवाज़ा है या रास्ता| इससे ये वाला 'दर' समझ नहीं आता| कई बार अशुद्ध प्रयोग में भी व्युत्पत्ति के संकेत मिलते हैं| दरअसल का प्रयोग कुछ लोग “दरअसल में” की तरह भी करते हैं| इसी 'में' के भीतर छुपा है 'दर' का राज़| संस्कृत में जो 'अन्तर' है जिसमें भीतर का भाव है, वही बरास्ता अवेस्ता, फ़ारसी में 'अन्दर' हो जाता है। पहलवी में सिर्फ़ 'दर' है| यही फ़ारसी में कायम है| इस 'दर' में भीतर का भाव है|दरअसल के ज़रिये हम जो कहना चाहते हैं उसका आशय होता है- "असल में"| इसी तरह दरहकीक़त का भाव हुआ "हकीक़त में"| भारत-ईरानी परिवार में 'त' का का रूपान्तर 'द' में होता है| 'शत' यानी सौ फ़ारसी में 'सद' हो जाता है| तो अन्तर का 'तर' ही यहाँ 'दर' हो रहा है| अन्दर के अर्थ में जो भीतर शब्द है वह भी अभि+अन्तर से बने अभ्यन्तर > अभंतर > भीतर से आ रहा है| जॉन प्लैट्स भी इसी अन्तर से 'दर' की व्युत्पत्ति बताते हैं|
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Wednesday, February 5, 2014

अरे...अबे...क्यों बे...


हि न्दी समाज में यूँ तो ‘अबे’ सम्बोधन को हिकारत के अर्थ में लिया जाता है किन्तु इसका एक अभिप्राय निकटता जताना भी है। आमतौर पर यारी-दोस्ती और भाईचारे में अपनापा दर्शाने के लिए भी ‘अबे’ कहा जाता है। अबे से अ का लोप होकर सिर्फ ‘बे’ रह जाता है। यह भी सम्बोधन है और निकटता दरशाने के लिए प्रयुक्त होता है जैसे क्यों बे, हाँ बे, चल बे, नहीं बे आदि।

भोलानाथ तिवारी के अनुसार अबे सम्बोधनार्थी अव्यय संस्कृत के 'अयि' का रूपान्तर है। वाशि आपटे के मुताबिक यह 'अये' से आ रहा है और विस्मयबोधक अव्यय है। 'अये' में अरे का भी भाव है। कई लोगों का अरे सम्बोधन दरअसल 'अये' ही सुनाई पड़ता है। हिन्दी शब्दसागर 'अयि' रूप की बात लिखता है। हिन्दी में सही रूप 'अबे' है। हिन्दी और अन्य बोलियों में 'अबै' दरअसल अब के अर्थ में बोला जाता है। पंजाबी में ‘अबा-तबा’ भी यही है। हिन्दी में 'अबे-तुबे' करना आम मुहावरा है जिसमें बोलने वाले के अहंकार और किसी को अपमानित करने, हेयता प्रकट करने का भाव रहता है। यह जो तुबे है, अबे का अनुगामी है। अबे से दोस्ती निभाने के लिए बना लिया गया अनुकरणात्मक शब्द है।
‘अरे’ का मूल ‘आर्य’ है ऐसा कहने वाले कई नहीं ‘कुछ’ विद्वान हो सकते हैं। ईमानदारी से कहूँ तो इन में भी मेरे पास सिर्फ डॉ. भगवान सिंह का हवाला ही है जिनका मानना है कि भोजपुरी का अरे तो आर्य का ही बदला हुआ रूप है। अलबत्ता साम्य के आधार पर ‘आर्ये’ से अरे का रिश्ता तार्किक नहीं लगता। संस्कृत से जितना भी थोड़ा-बहुत परिचय है उससे लगता है कि 'आर्ये' स्त्रीवाची सम्बोधन है। सिर्फ़ स्त्रीवाची सम्बोधन से ‘अरे’ अव्यय का बनना तार्किक नहीं। दूसरी बात आर्य से अज्ज > बन ही रहा है। यह तार्किक नहीं लगता कि आर्य या आर्ये से बने अरे का प्रयोग "अरे दुष्ट, अरे मूर्ख, अरे नराधम" में जिस सहजता से हो रहा है वहाँ 'अरे' का आशय आर्य से रहा होगा। जबकि ‘जी’ या ‘अजी’ में जो ‘आर्य’ है उसके आधार पर कभी ऐसे वाक्यों की रचना दिखाई नहीं पड़ती, मसलन-'अजी दुष्ट, अजी मूर्ख' जैसे वाक्य नाटकीयता लाने के उद्धेश्य से या परिहास में, सायास तो कहे जा सकते हैं पर स्वाभाविक तौर पर नहीं। सो ‘अरे’ की रचना में जो आर्य है सम्बोधन उसमें निहित आदर, सम्मान का भाव वाक्य रचना में भी सुरक्षित रहेगा जैसे आर्य से बने ‘अजी’, ‘जी’ अव्यय वाले वाक्यों में यह सुरक्षित नज़र आता है।
परोक्त विवेचन को मेरा दुराग्रह न समझा जाए। वैसे भी अपने समय के शीर्ष विद्वान हिन्दी शब्दसागर से जुड़े थे, उसमें भी ‘अरे’ अव्यय के पीछे ‘आर्य’ सम्भावना पर विचार नहीं किया गया है। दरअसल संस्कृत के सातवें स्वर ऋ में एक सम्बोधनकारी अव्यय का भाव भी है जो स्वतंत्र रूप में ‘रे’ सम्बोधन में भी नज़र आता है और इससे ही बने ‘अरि’ में भी भद्र पुरुष का आशय है जो सम्बोधनकारक के रूप में प्रयुक्त हो सकता है। आर्य से अरे की तुलना में ऋ > री > रे या अरि > अरे > रे का विकास ज्यादा तार्किक लगता है। कृ.पां. कुलकर्णी के मुताबिक सम्बोधी अव्यय अरे के मूल में अरि का एकवचन रूप काम कर रहा है जिसका संक्षेप रे भी सम्बोधी अव्यय है। प्राचीन आर्यभाषाओं में इसके ही अपभ्रंश रूप प्रयुक्त हुए हैं। कुलकर्णी यह भी बताते हैं कि संस्कृत में अरि शब्द के दो रूप है नकारात्मक और सकारात्मक। नकारात्मक अरि का मूल सुमेरी शब्दावली का एरि है जिसका अर्थ शत्रु होता है।
‘अरे’, ‘रे’ के बारे में वामन शिवराम आपटे भी संबोधनात्मक अव्यय कहते हुए इसकी व्युत्पत्ति ‘ऋ’ से बताते हैं और इसका प्रयोग अपने से छोटों को सम्बोधित करने में बताते हैं। इसके अलावा इसका इस्तेमाल क्रोध, ईर्ष्या या घृणा को व्यक्त करने में भी किया जाता है। टर्नर भी ‘अरे’ को सम्बोधी अव्यय बताते हैं। वे शतपथ ब्राह्मण का हवाला भी देते हैं। पाली, प्राकृत में भी ‘अरे’ रूप हैं। इसके अलावा उत्तर भारत की अधिकांश भाषाओं में ‘अरे’ की व्याप्ति है।

यह भी देखें- जी हुजूरिया, यसमैन, जी मैन
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