Friday, October 19, 2007

बा-हुनर बेटे शैख़जी के


संजीदा शाइरी से शुरुआत कर व्यंग्य काव्य में अपनी अलग
पहचान रखने वाले अकबर इलाहाबादी के कुछ अशआर पेश हैं। ध्यान रहे
कि ये बातें उन्होनें तब लिखी थीं जब अंग्रेजी राज था और
हिन्दू मुस्लिम रिश्ते उतने ही पेचीदा और संवेदनशील थे जितने
आज भी हैं।





लड़ें क्यूं हिन्दुओं से हम, यहीं के अन्न पे पनपे हैं
हमारी भी दुआ ये है कि गंगाजी की बढ़ती हो


ज़र्रे ज़र्रे से लगावट की ज़रूरत है यहां
आफ़ियत चाहे तो इनसान ज़मींदार न हो
मय भी होटल में पियो, चंदा भी दो मस्जि़द में
शैख़ भी ख़ुश रहें, शैतान भी बेज़ार न हो


शैख़जी के दोनों बेटे बा-हुनर पैदा हुए
एक हैं ख़ुफिया पुलिस में , एक फांसी पा गए

आफ़ियत-भलाई

2 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

अकबर इलाहाबादी की इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये अति आभार, साधुवाद.

Anonymous said...

बहुत अच्छा।हिन्दू-मुस्लिम लड़ाई के बारे में हमारे कानपुर के प्रसिद्ध गीतकार विनोद श्रीवास्तव कहते हैं-
धर्म छोटे बड़े नहीं होते,
जानते तो लड़े नहीं।
चोट तो फ़ूल से भी लगती है
सिर्फ़ पत्थर कड़े नहीं होते।

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