यह आलेख अहा जिंदगी के ताजे अंक में प्रकाशित हुआ है। दीवाली के मौके पर हमारी जुए पर लिखने की तैयारी थी। कुछ दिनों पहले संपादक जी का आदेश हुआ कि जुआ पर कुछ लिखना है। बस, हमारी तैयारी की दिशा बदल गई। अपने ब्लाग के पाठकों के लिए प्रस्तुत है वही लेख।
लाभ-हानि की संस्कृति से उपजी कला
ऐसा लगता है कि जुआ मानव समाज में लाभ-हानि और गुण-भाग की संस्कृति पनपने के के बाद जन्मी मनोरंजन की कला है। जुआ चाहे समाज में बुराई के तौर उभर कर आया हो मगर शुरूआत इसकी कला के रूप में ही हुई थी, विशुद्ध मनोरंजन की विधा के तौर पर। पुराणों में भी कला को शिव की शक्ति का एक रूप बताया गया है। कला यानी सृष्टि की क्रमिक विकास प्रक्रिया का नाम । जाहिर है ऐसे में जुआ जैसी विधा को कला के तौर पर गिना जाना अचरज नहीं। शैव तंत्रों में जो चौंसठ कलाएं बताई गई हैं उनमें अट्ठावनवें (५८) क्रम पर द्यूतविशेष का उल्लेख है।
बुराई तो बुराई है
भले ही शिव-पार्वती के बीच हुई द्यूतक्रीड़ा का उल्लेख हो मगर आमतौर पर हर समाज में जुआ को बुराई के तौर पर ही देखा गया और इसकी वजह रही बाजी लगाने जीतने का लालच और हारने पर सामने आने वाली पारिवारिक सामाजिक विषमताएं। प्राचीनकाल में लोग इस खेल में मनुश्यों तक को दांव पर लगा देते थे। महाभारत में द्रोपदी का प्रसंग सब जानते है। पांचवी-छठी सदी में गुप्तकाल में लिखे गए शू्द्रक के जगत्प्रसिद्ध संस्कृत नाटक मृच्छकटिक में भी उस समय के समाज में पनप चुके असर को रेखांकित किया गया है। नाटक में एक स्थान पर उल्लेख है कि खेल में दस स्वर्ण मुद्राएं हार कर भाग चुके जुआरी को जब जुआघर का अध्यक्ष पकड़ लेता है तो जुआरी रकम चुकाने में असमर्थता जताता है। इस पर जुआघर का अध्यक्ष उसे कहता है कि चाहे मां को बेच, अथवा पिता को। जब जुआरी कहता है कि इनमें से कोई भी नहीं है तो उसे खुद को बेचने का प्रस्ताव मिलता है जिसे वह कबूल कर लेता है। जाहिर है ये चलन तब आम था। ऋग्वेद में भी एक हारे हुए जुआरी के रूदन का उल्लेख है।
तब और अब में फर्क नही
आज के ज़माने में और प्राचीन युग में शासन का जुए के प्रति जो रवैया था उसमें कतई अंतर नहीं आया है । यह दिलचस्प बात है कि बुराई मानने के बावजूद तब और अब दोनों ही कालों में जुए पर कोई पाबंदी नहीं रही। इसका कोई न कोई रूप शासन की मर्जी से प्रचलित रहता आया है। पुराने ज़माने में जुआ को सही ठहराने के लिए दो प्रमुख कारण गिनाए जाते थे- (१) इसके जरिये चोरों का पता चल जाता है , कारण की चोरी करते ही माल ठिकाने लगाने के लिए चोर के पास जुआघर से बेहतर और कौन सी जगह होती ? वहां राजा के जासूस ऐसे ही लोगों पर निगरानी के लिए तैनात रहते थे। (२) द्यूतक्रीड़ा से राज्य को कर के रूप में आय होती है। गौर करें कि पुराने समय के ये दोनों कारण आज के समय में भी पूरी व्यावहारिकता के साथ शासन मान्य करता है। आय और अपराधों की गुप्तचरी दोनों ही बातें आज भी लागू हैं। जुआघरों, मदिरालयों और ऐसे ही अन्य ठिकानों पर आज भी सरकारी खुफिया एजेंसियों के कारिंदे छद्मवेष में तैनात रहते हैं ताकि उन्हें सुराग मिल सके।........क्रमशः
3 कमेंट्स:
वाह बाळूदादा, मज़ा आ गया पढ़कर...
अजित जी, इतनी जानकारी उपलब्ध कराने के लिये धन्यवाद।
अजित जी,
धीरे-धीरे कारू का खजाना सामने आ रहा है।
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