पाकिस्तान की शायरा इशरत आफरीन की कविता पूरे उपमहाद्वीप में औरतों की सामाजिक स्थिति और सरोकारों के प्रति रिवायती सोच से क़रीब-क़रीब विद्रोह सा करती है। कराची की इस तरक्कीपसंद कवयित्री ने सामंती परिवार से ताल्लुक रखने के बावजूद नारी के दमन , शोषणके खिलाफ अपने अल्फाज़ दुनिया के सामने रखे। यहां पेश हैं उनकी दो रचनाएं -
इंतसाब
मेरा कद
मेरे बाप से ऊंचा निकला
और मेरी माँ जीत गई।
( इंतसाब-समर्पण)
एक ग़ज़ल
लड़कियां माँओं जैसा मुकद्दर क्यों रखती है
तन सहरा और आँख समंदर क्यों रखती हैं
औरतें अपने दुख की विरासत किसको देंगी
संदूकों में बंद यह ज़ेवर क्यूँ रखती हैं
वह जो आप ही पूजी जाने के लायक़ थीं
चम्पा सी पोरों में पत्थर क्यूँ रखती हैं
वह जो रही हैं ख़ाली पेट और नंगे पाँव
बचा बचा कर सर की चादर क्यूँ रखती हैं
बंद हवेली में जो सान्हें हो जाते हैं
उनकी ख़बर दीवारें अकसर क्यूँ रखती हैं
सुबह ए विसाल किरनें हम से पूछ रही हैं
रातें अपने हाथ में ख़ंजर क्यूँ रखती हैं
(सान्हें - हादिसे, सुबह ए विसाल-मिलन )
Friday, November 9, 2007
इशरत आफरीन की शायरी
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 7:50 PM
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3 कमेंट्स:
मेरा कद
मेरे बाप से ऊंचा निकला
और मेरी माँ जीत गई।
बेहद खूबसूरत हैं तीन पंक्तियॉं जिसमें वो सारी बातें इतनी आसानी से कह दी गई हैं जिनको बताने में उपन्यासों के सारे पन्ने कम पड़ जाते हैं। लाजवाब !
तीन पंक्तियों में बहुत ही वज़नदार बात। नज़्म भी बहुत बढिया। प्रस्तुति के लिए धन्यवाद।
आप सबका बहुत बहुत आभार।
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