बकलमखुद की आठवी और अंतिम कड़ी में जानते हैं विमल वर्मा के आत्मकथ्य में आगे का हाल। आज़मगढ़ से इलाहाबाद का सफ़र... रंगमंच और नुक्कड़ नाटकों की मौजमस्ती, फिर भटकाव... और दिल्ली में गर्दिश के दिनों की बातें अब तक जानीं। अब मुंबई का हाल ...
.मुंबई के रात-दिन
दिल्ली की गर्दिश तो खैर दिल्ली में ही ख़त्म हो गई थी और तकदीर ने मायानगरी जाने का फ़रमान डाला। मुम्बई मे रहते बहुत काफ़ी समय गुज़र चुका था। मैं अपनी नौकरी में पूरी तरह व्यस्त पर यहाँ रहते हुए दिल्ली को बहुत याद करता रहा । आज भी नाटक ना कर पाने का दु:ख मुझे सालता है। नाटक करने की कोशिश भी की पर नौकरी करते हुए मेरे लिये नाटक करना मुमकिन न हो पाया।
साल बीत रहे थे , पढ़ने की आदत खत्म हो चुकी थी। जानकर अश्चर्य करेंगे कि पिछले ना जाने कितनो सालों से वाकई कुछ मैने पढ़ा नहीं। सुबह ऑफ़िस की जल्दी की वजह से अखबार तक मैं रात को ही पढ़ पाता और ऑफ़िस में टीवी सीरियलों की घटिया कहानियाँ ही ज़्यादा सुनने को मिलती। वैसे मैं मनोरंजन चैनल से जुड़ा हूँ पर यहां भी जिन लोगों से पाला पड़ता है,क्या अभिनेता क्या प्रोड्यूसर, आज भी जो अभिनेता मुझे मिलते हैं बहुत तो मदद नहीं कर पाता पर उनके लिये मेरे दिल में सहानुभूति ज़रूर रहती है।
इच्छाएं जैसे खत्म हो रही हों... बीच-बीच में पुराने मित्रो से मिलना सुखद एहसास दे जाता है। नाटक भी देखे सालों बीत गये... बीच में प्रमोद, अभय, अनिल से मिलना होता पर कुछ ऐसा भी नहीं था जो हमें जोड़ रहा हो...पर फिर भी मिलना बतियाना निरंतर जारी था।
[विमलजी की बिटिया पंचमी और जीवनसंगिनी तनुजा]
ये लो ससुर, अपना ब्लॉग !
ऐसे ही एक संवाद के दौरान ... लम्बे समय बाद प्रमोद ने ब्लॉग के बारे में मुझे बताया । प्रमोद कुछ बताएं और उस पर गौर न किया जाए , ये हमसे हो नहीं सकता... तो इस नई विधा, माध्यम पर गौर करना शुरू किया । ब्लॉग ने तो जैसे मेरी सोई हुई उर्जा को वापस जगा दिया... दिन भर ऑफ़िस में ब्लॉग खोलकर पढ़ना और पढ़ते-पढ़ते कब मैं टिप्पणी करने लग गया मुझे पता ही नहीं चला! और एक दिन प्रमोद ने मेरा ब्लॉग डिज़ाईन किया और हमने नाम रखा ठुमरी! प्रमोद ने कहा भाई, जो तुम इधर उधर बोलते हो उसे ठुमरी पर लिखा करो, लिखना बहुत आसान है! पर लिखने के नाम से ही मेरे सोचने की क्रिया थम जाती है... कुछ भी दिमाग में आता नहीं, एकदम जड़ हो जाता हूं। मैंने आजतक कभी लिखा भी नहीं था.. लिखने की समस्या लम्बे समय तक बनी रही। बहुत दिनों तक ब्लॉग पर कुत्ते की फ़ोटो से काम चलाता रहा! पर प्रमोद के बहुत टेलियाने और अभय तिवारी और अनिल सिंह के बहुत टोकमटोकी से लिखने का सिलसिला आखिरकार शुरू हो गया! मेरे जीवन में हिन्दी के फ़ॉन्ट ने अजीब सी हलचल पैदा कर दी। कम्प्यूटर पर मैं ऑफ़िस का काम करता पर कभी उससे जुड़ाव जैसा महसूस नहीं किया, पर ब्लॉग? और हिन्दी फ़ॉन्ट की वजह से आज जैसे मेरी तंद्रा टूटी हो, बरसों से जितना पढ़ा नहीं उतना इस ब्लॉग की वजह से पढ़ना हो गया। एक से एक विचार पढ़ने को मिले।
नए नए अड्डे, नई ऩई यारियां
मेरे पसंदीदा चिट्ठों में रवीश का कस्बा, अविनाश का मोहल्ला, यूनुस की रेडियोवाणी , सागर नाहर, मीत, चवन्नी चैप, मनीष, दिलीप मंडल, बेजी, बॆटियों का ब्लॉग, इरफ़ान का ब्लॉग टूटी हुई बिखरी हुई, प्रत्यक्षा, अनूपजी का फुरसतिया और चन्दू का ब्लॉग पहलू मुझे काफी पसन्द हैं।
और कुछ खास...
अज़दक- प्रमोदसिंह का लिखा व्यंग हो या जीवन की छोटी छोटी जटिल सामाजिक अवस्थाएं, कलम अच्छा चला लेते हैं पर जब कोई ये कहता है कि प्रमोद जी का लिखा समझने के लिये बाल नोचना पड़ता है तो मुझे भी ये बात अजीब लगती है। अब पढ़ा-लिखा वर्ग भी ये कहे कि कि किसी का लिखा समझ में नहीं आता तो आश्चर्य होता है। आजकल प्रमोद की पॉडकास्टिंग गज़ब ढा रही है।
निर्मल आनन्दपर अभय तिवारी अलग अलग मुद्दों पर कुछ इस तरह से लिखते हैं कि बहुत सी बातें तो लगता है जैसे मुझे अब समझ में आ रही हैं!
एक हिन्दुस्तानी की डायरी- पहले की तरह गम्भीर से गम्भीर अर्थशास्त्रीय मुद्दे हों, या जटिल जीवन-उनको अच्छी तरह समझते, समझाना अच्छा लगता है। अनिल की भाषा सरल और सहज है... पढ़ना अच्छा लगता है।
अनामदास का ब्लाग- तो कमाल हैं ही, किसी भी मुद्दे पर उनकी साफ़ नज़र का मैं कायल हूँ। सम्प्रेषणीयता कमाल की है और उनके व्यंग जवाब नहीं है।
शब्दों का सफ़र- यह एक अपनी तरह का अनूठा ब्लॉग है। अजितभाई इतने अच्छे तरीके से शब्दों के गर्भ तक पहुंचकर बात करते हैं जो वाकई प्रशंसनीय है।
ये लिखते हुए कि आज जो कुछ भी मैं लिख पा रहा हूँ, उसके लिये ब्लॉगवाणी, नारद और चिट्ठाजगत का तहे-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.. उन सभी भाइयों का तहे-दिल से शुक्रिया जिन्होंने हिन्दी लिखने का ये आसान औज़ार बनाया।
कोई क्यों पढ़ना चाहेगा मुझे ?
पर यहाँ एक सच्चाई से रूबरू कराना चाहता हूँ कि वाकई जो मै सोचता हूँ उसे उन शब्दों में उतार नहीं पाता.. कुछ दूसरी ही बात निकल जाती है। इस बारहा वाले फ़ॉन्ट में कुछ शब्द मैं खोज नहीं पाया हूँ, जिसकी वजह से कुछ का कुछ हो जाता है.. इसीलिये मुझे अपने लिखे पर कभी भरोसा भी नहीं हो पाता और इस डर की वजह से कि मेरा लिखा कोई क्यों पढ़ना चाहेगा.. गम्भीर या हास्य किसी भी विषय पर भी मेरी अधकचरी समझ लिखने में आड़े आती है। इसीलिए मुझे लगता है कि मैं अपनी पसन्द-गज़ल, फ़्यूज़न, कव्वाली,गीत.. कुछ भी सुनवाऊं... उन पर मुझे ज़्यादा भरोसा है... भई, सीधी बात है, जिसे आप पसन्द करते है, उसमें आपका आत्मविश्वास झलकता है......बाकी सब ऐसा ही है।
मुझे अजित भाई का भी शुक्रिया अदा करना है कि उनका अनुरोध मैं टाल नहीं सका। और जो भी जीवन में घटा उसे शायद इसी तरह से तो कभी न लिख पाता ...पर इतना तो है कि उनकी वजह से ही मैं अपने अतीत में झाँक सका, जो सुखद है.. अब छपे या ना छपे, मगर, भैया लिखकर तो हम आनंद पा गए!
उम्दा पेशकश
विमल जी ने एक गीत भेजा है जिसे खासतौर पर हम सुनवाना चाहेंगे। इसे लिखा है
शशि प्रकाश ने । सम्भवत: संचेतना ने ये कैसेट रिलीज़ किया था। विमलजी लिखते
हैं-"संदीप का आभार इस गीत के लिये। इस गीत को हम दस्ता के साथी इसी धुन में गाया करते थे, इसे सबसे पहले मैने प्रमोद और अनिल सिंह से सुना था।"
Monday, March 24, 2008
भैया, हम तो आनंद पा गए [बकलमखुद - 8]
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22 कमेंट्स:
अविनाश के मोहल्ले को इस संस्मरण में आपने भी लिंक रहित करके एक सुखद काम किया है। अब साइडबार से भी उसको बेदखल करें।
नहीं अनिल भाई , ऐसा नहीं है। मोहल्ले से मुझे परहेज़ नहीं। ग़लती से छूट गया था। मैं इन तकनीकी कामों में अनाड़ी हूं और अक्सर इनसे कतराता हूं। वैसे मैं ये भी अच्छी तरह जानता हूं कि आप रंगपंचमी तक इसी तरह होली के मूड में रहेंगे :-)
विमल भाई को लिखने में मजा आया तो हमें पढ़ने में। बहुत अच्छा लगा। दुबारा ये सब पढ़ने के है ही इस ब्लाग पर। गीत बहुत अच्छा लगा। मन खुश हो गया। अजित भाई की तारीफ़ करने में भी कंजूसी करना ठीक नहीं होगा। टुमरी में नियमित लिखा करें विमलजी।
शानदार रहा विमल वर्मा के आत्मकथ्य। बहुत सी जानकारियाँ मिलीं खास तौर पर नाटकों और ब्लॉगिंग से जुड़े लोगों के बारे में। अधिकांश लोग अपने ही लगे। लगा इन सब से आज तक मैं कैसे नहीं मिल पाया। यह भी जानकारी हुई कि मुम्बई में बहुत लोग विराजमान हैं। अब की मुम्बई यात्रा में इन में से अधिक से अधिक लोगों से मिलने का एजेण्ड़ा जरुर रहेगा।
विमल जी क्या आपको खुद ऐसा नही लग रहा कि आपने बहुत कुछ, बहुत कम मे ही समेट दिया है।
लेकिन हां आप, अभय जी, प्रमोद जी, इन सबको पढ़ना मतलब कि बहुत से नए आयाम में झांकना है।
आप सब लिखते रहें बस!!
मेरे अंदर उत्कंठा है आप सब में झांकने की :)
संजीतभाई,मैं इस बात को भली भांति जानता हूँ कि वाकई बहुत सी बातें मै सरसरी तौर पर लिख गया, पर क्या करूँ,किसी की पोस्ट अगर लम्बी हो तो मैं खुद उसे पढ़ने से बचता हूँ,पर यहाँ मैने औपचारिकता नहीं निभाई है, जो भी कुछ मन में आया ईमानदारी से लिखता गया,एक बार फिर से उनको सलाम जिन्होंने मेरी हिम्मत बढ़ाई है,जो छूट गया है उसे कभी ज़रूर लिखने की कोशिश करूंगा,एक बार फिर सभी को शुक्रिया.
अजी , न कोई भाग रहा था और न कोई बोर हो रहा था , अलबत्ता आपने गोवा का प्रोग्राम चुपचाप बना लिया । वहां से लिखने का भरोसा तो दिलाया पर खुद को इस क़दर थका डाला कि रविवार के वादे के बावजूद लिख न सके। खैर, लोग आपको पढ़ना चाहते हैं और आप लिखना भी खूब जानते हैं , ये दोनों बाते साफ हुईं। दिक्कत ये भी है कि हम बकलमखुद के लिए जो साथी समय पर लिख चुके हैं हम उनसे इंतजार भी नहीं करवाना चाहते लिहाज़ा आप अपने बकलमखुद की अगली कड़ियां इत्मीनान से लिखना शरु कर दें। हम सबकी फ़रमाइश पर उसे ज़रूर लिखें और सब उसे पढ़ेंगे। बहुत कुछ जो छूट गया है, बहुत कुछ जो अभी कहा जाना है।
पर लिखने के नाम से ही मेरे सोचने की क्रिया थम जाती है... कुछ भी दिमाग में आता नहीं, एकदम जड़ हो जाता हूं। --- यह बात हम पर तो लागू ज़रूर होती है लेकिन आपके लिए शायद बात सही न हो क्यों कि आपका लिखा हम सभी रुचि से पढ़ रहे हैं. ऐसे गीत अब कहाँ हैं.. स्कूलों में किसी तरह से यह कला पहुँचनी चाहिए.
ये कहना नाकाफी होगा कि विमल भाई के लिखे को पढ़कर अच्छा लगा । हम तो ये कहेंगे कि विमल भाई के पढ़े को हमने जिया है । महसूस किया है । लगा कि ये श्रृंखला शायद व्यापक होगी । विमल भाई ने जल्दी समेट ली ।
विमल जी ,
शब्दों के सफ़र की डगर से चलकर
बकलमखुद के आईने में
आपकी ज़िंदगी का धूप-छाहीं अक्स देखने-निहारने
और उसकी एक ख़ास पहचान बनने-बनाने के
जीवट संघर्ष को जानने-समझने का सुनहरा अवसर मिला .
आपकी साफ़गोई और पाक-दिली के बरक्स
मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूँ कि
खुद को जो शख्स
किसी अहम किरदार को जीने की राह के हवाले कर देता है
वह कई-कई बार नये-नये मक़ाम हासिल करता हुआ
आगे की राह ढूँढ ही लेता है !
अपनी बात कहने के लिए आप शब्दों की तलाश करते हैं न ?
मैं कहता हूँ इस सफरनामा के बाद देखिएगा
शब्द आपको स्वयं आवाज़ देंगे......पुकारेंगे !
पर आप भी इधर आना भूलिएगा मत !!!
मेरी साभार बधाई स्वीकार करें.
विमल जी के बारे में जानना सुखद रहा.विमल जी की कहानी के अगले हिस्से की भी प्रतीक्षा है.
बढ़िया अनुभव रहा विमल जी को पढ़ना. सचमुच आनंद आया.
विमल जी, इस आत्मकथ्य के बहाने बीते बरसों में आपका इस तरह लौटना मन को भा गया।
अजित जी को खास तौर पर शुक्रिया कि 'बकलमखुद' की इस श्रृंखला के जरिए चिट्ठाकार साथियों के जीवन प्रसंगों के रोचक अनुभवों से हम सभी गुजर रहे हैं।
अपने अनुभव बांटने का शुक्रिया विमल जी.
शशि प्रकाश ने सुना है -इस धुन में,अपने गीत को?
बहुत कुछ तो आपके मुँह से सुन चुका था आज यहाँ विस्तार से पढ़ कर बेहद अच्छा लगा।
विमल भाई पढ़ते वक्त ये प्रश्न दिमाग में आया कि क्या आपने अपने रंगमंच काल के दौरान NSD में दाखिले का प्रयास किया..?
विमल जी अनिल जी की पोस्ट पढ़ते-पढ़ते आपके चिट्ठे तक पहुँच ही गये...बहुत अच्छा लगा यहाँ पढ़कर...
बहुत ही संक्षेप में बताया । बहुत कुछ छूट सा गया । गीत बहुत अच्छा लगा ,धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
ये तो उपक्रम ही बहुत पसंद आया। दिग्गजों का लिखा पढने में कुछ खास ही मजा आता है। कई बार लगता है अरे िनके जीवन में भी कुछ तो आम आदमियों वाला ही घटता है लेकिन कुछ बहुत खास। अजित भाई को बहुत बहुत बधाई ।
विमल जी आपको इतने करीब से महसूस कर बहुत अच्छा लगा, बहुत अपने से लगे आप.... जाने क्यों.... जो कुछ इन पक्तियों के बीच छूट गया है कभी आपसे मिल कर जुबानी सुन लूँगा ....
विमल जी बहुत जल्दी कथा समेट दी , अभी तो कहानी शुरु हुई है
शुरू से अंत तक एक बार में ही पढ़ गई...विमल जी के बारे में जानना बहुत अच्छा लगा
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