ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये ,जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। इस सिलसिले की शुरुआत की थी कुछ हम कहें जैसा खिलंदड़ा ब्लाग चलाने वाली अनिता जी ने । उसके बाद ठुमरी वाले विमल वर्मा ने सुनाई अपनी दिलचस्प दास्तान । बकलमखुद के इस तीसरे पड़ाव और नौवें सोपान में मिलते हैं लावण्या शाह से । लावण्या जी का ब्लाग लावण्यम् अंतर्मन विविधता से भरपूर है और एक प्रवासी भारतीय के स्वदेश से लगाव और संस्कृति प्रेम इसकी हर प्रस्तुति में झलकता है। देखते हैं सिलसिले की पहली कड़ी।
बचपन के दिन भी क्या दिन थे !
मेरी जीवन यात्रा के ऐसे हिस्से हैं जिन्हेँ मैं,शायद दशकों में बँटा देखती हूँ। बचपन की स्मृतियाँ इतनी पवित्र और सुकोमल हैं मानो, मंद्र मंद्र जलता , मंदिर का दीपक हो ! जन्म हुआ था बम्बई शहर के शिवाजी पार्क , माटुँगा के घर के नज़दीक दादर के एक अस्पताल मेँ । फिर हम खार उपनगर के हमारे घर मेँ आ बसे। पिता हिन्दी के प्रसिद्ध गीतकार आकाशवाणी के प्रोड्यूसर-डायरेक्टर पण्डित नरेन्द्र शर्मा और अम्मा गुजरात की कन्या सुशीला जो चित्रकार थीं। उनकी शीतल, सुखद छाया मेँ बचपन तितलियों से बातें करते फूलों के सँग सँग, सुमधुर स्वप्न सा बीता । आज पुराने दिनों को याद करते हुए सुदर्शन फ़ाकिर की वो काग़ज़ की क़श्ती , वो बारिश का पानी को बहुत याद कर रही हूं।
वो दिल्ली की सुराही, वो मिट्टी के घड़े का पानी
घर पर पापा जी से हिन्दी और अम्मा से गुजराती भाषा बोला करते और मराठी भी सीख ली थी। महाराष्ट्र प्राँत मेँ जो रहते थे हम ! तो ये स्वाभाविक बात थी। घर भी कितना पवित्र और सुगंधित फूलों से घिरा हुआ था जिसकी बागबानी मेरी अम्मा सुशीला ही रोज सवेरे उठकर बडे जतन से किया करतीं थीं। मिट्टी के घड़े पानी के लिए रखे जाते थे तो सुराही जो पापा जी देहली से लाये थे, उस का जल भी कमाल का शीतल हुआ करता था । वो आज तक मुझे याद है। बम्बई शहर के पुराने बस गए लोगों को पानी का सीधा वितरण प्राप्त है। आजकल बडी-बडी सोसायटी बनीं हैं वहाँ पम्प लगाकर पानी ऊपर चढाया जाता है। जब मेरा शैशव बीत रहा था उस वक्त और आज की बम्बई में विस्मयकारी परिवर्तन आये हैं... जैसा कि हर चीज़ में होता है कुछ भी तो स्थायी नही रहता - जीवन का प्रमुख गुण उसका अस्थायी होना होना ही है।
टीना अंबानी थीं हमारी जूनियर...
स्कूल जाने की उम्र हुई तो एक गुजराती स्कूल " प्युपिल्स ओन हाई स्कूल " मेँ दाखिला दिलाया गया। ( अनिल अम्बाणी की पत्नी टीना भी मेरी जूनीयर सह छात्रा रही है उसी स्कूल में और इन्दिंरा गाँधी भी यहाँ पढीं थीं ऐसा सुना है ) शाला का घंटा श्री रवीन्द्र नाथ के दिए एक मोटे लकडी के टुकड़े पर टाँग दिया गया था। हमारी फीस ६ ठी क्लास में ६ रुपए और ९ वी में ९ रुपया थी ! जन्मजात रुझान था, वह पल्लवित हुआ । सँस्कृत, गुजराती, हिन्दी, के साथ साथ अँग्रेज़ी ७ वीं कक्षा में आकर सीखना आरम्भ किया था, ऐसा मुझे याद है।
प्रायमरी स्कूल का सहपाठी ही बना जीवन साथी
गुजराती माध्यम था। हमारी स्कूल के सारे शिक्षक बडे ही समर्पित थे और उन्हीं की शिक्षा के फलस्वरुप मेरा साहित्य के प्रति जो उसी स्कूल में मेरे भावी पति दीपक जी भी साथ-साथ पढे । हम दोनों सहपाठी की तरह पढे हैं। मगर छोटी कक्षा में मेल जोल कुछ खास नहीं था। ज्यादा बात-चीत और पहचान जब मैं ११ वीँ मेट्रिक की परीक्षाएँ दे रही थी, तब हुई । उनके शांत और मधर स्वभाव ने मुझे बहुत प्रभावित किया । दीपक जी कम बोलते हैं तो मैं कुछ ज्यादा ही बोलती हूँ , सो हमारी मित्रता जल्दी ही अंतरंग और प्रगाढ़ बनती गयी। हाँ , शादी तो दोनों के कोलेज से ग्रेज्युएट होने के बाद ही हुई कोलेज में मनोविज्ञान व समाजशास्त्र विषयों से बीए ऑनर्स हमारे विभाग में टॉप किया था और बस्स ! २३ साल पूरे हुए नही थे कि शादी हो गयी। [ चित्र में लावण्या जी अपने पति और दोनो बच्चों के साथ]
और छूटी मुंबई, अमरीका प्रस्थान...
शादी के १ माह बाद ३ साल अमरीका के सबसे घनी आबादीवाले शहर लासएंजेलिस मे बिताये जहाँ दीपक एमबीए कर रहे थे। ससुर जी व्यापारी थे उन्ही के आग्रह पर हम , उनकी पढाई खत्म होने के बाद बम्बई लौट आये। पहले कन्या सौ. सिँदूर का जन्म हुआ और फिर चि. सोपान का । १४ साल कब बीते, पता ही न चला। मेरी बड़ी बहन स्व. वासवी, जीजाजी बकुल मोदी, उनके २ बेटे , चि. मौलिक व चि. शौनक तथा छोटी बहन बाँधवी दिलीप काथ्राणी के सौ. कुँन्जम तथा चि. दीपम , मेरे छोटे भाई चि. परितोष ( मामा ) के साथ खूब मजे किया करते थे।
अमरीका में इंडिया की तलाश...
१९८९ मेरे पापाजी के असमय निधन के बाद, जिँदगी ने फिर एक करवट बदली और हम फिर अमरीका आ गये। इस बार यहीँ बसने का इरादा करके ! खैर ! सिलसिला शुरु हुआ सँघर्ष का !
परदेस के वातावरण में । भारतीय सँस्कृति, स्त्री की अस्मिता को न सिर्फ सहेजना था अब बच्चोँ का उत्तरदायित्व भी संयत ढंग से करते रहना था । जो हो सका वह सब किया। मेरी प्रिय कविता व साहित्य की बातों को मैं सुदूर परदेश में तलाशती रही। जहाँ कही भी भारत इंडिया का नाम सुनती, गर पार करता फिर वही , अपनों के बीच भाग जाने को बैचेन हो जाता। [अगले पड़ाव पर समाप्त]
[ सुनते हैं लावण्या शाह की पसंद का एक गीत। वहीदा रहमान उनकी पसंदीदा नायिका है। यह नग्मा है 1969 में बनी राजेश खन्ना - वहीदा रहमान अभिनीत फिल्म ख़ामोशी का। हालांकि फिल्म में यह गीत वहीदा की बजाय स्नेहलता नामक एक गुजराती अदाकारा पर फिल्माया गया था ]
Thursday, March 27, 2008
लावण्या शाह का अंतर्मन... [बकलमखुद- 9]
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19 कमेंट्स:
लावण्याजी को जानना अच्छा लग रहा है। वे अपने ब्लाग पर अपने पिताजी के बारे में काफ़ी कुछ लिख चुकी हैं। अपने और उनके पिताजी के बारे में और कुछ यादें सहेंजे।
अजित जी। किसी चिट्ठाकार के बारे में इस तरह जानने के बाद उस का लिखा और महत्वपूर्ण हो उठता है। इस से उस की दृष्टि का सहज अनुमान होने लगता है और उस का लिखा अधिक स्पष्ट और ग्राह्य होने लगता है। आप को इस श्रंखला को आरंभ करने के लिए बधाई!
इसे प्रकाशित नहीं करें अजित भाई...
इंट्रो की इस लाइन में कुछ गड़बड़ हो गई दिखे है... एक प्रवासी भालावण्यम् अंतर्मन रतीय के
लावण्यम् अंतर्मन
भारतीय के बीच में घुस गया है. शायद कापी पेस्ट के कारण हुआ...
नजर गई तो सोचा बता दूं. इसे अप्रूव नहीं करें. मॉडरेशन की बजाए यदि वर्ड वेरीफिकेशन ही ऑन कर देंगे तो स्पैम रोबॉट कमेंट नहीं डाल पाएगा.
लावण्या जी की यादों को पढ़कर अच्छा लगा । विविध भारती के संस्थापक पंडित नरेंद्र शर्मा के बारे में आज अभी कुछ मि0 पहले प्रोफेसर अमरनाथ दुबे से बातें हो रही थीं । उनकी काव्य पुस्तक पर वो मेरे कार्यक्रम के लिए कुछ लिख रहे हैं । बता रहे थे कि किस तरह हिंदी साहित्य सम्मेलन में उनके साथ चौपाटी पर बैठकें हुआ करती थीं । अमरनाथ दुबे ने ये भी बताया कि पंडित नरेंद्र शर्मा ने ही उन्हें विविध भारती के लिए लिखने को प्रेरित किया । मैं विविध भारती की एकदम नई पीढ़ी का हूं । जिस समय की ये बातें हैं उस वक्त पैदा भी नहीं हुआ था । लेकिन इन बातों को सुनकर अच्छा लगता है । लावण्या जी आप लिखें हम सुन रहे हैं । आपको याद होगा बहुत पहले हमने आपसे अनुरोध किया था कि पंडित नरेंद्र शर्मा ने विविध भारती शुरू की उस समय उनके मन में क्या चल रहा था । घर में किस तरह वो विविध भारती की रूपरेखा बनाते थे । ये सब विस्तार से लिखिए । यहां आपके जीवन का ही ब्यौरा जारी रखिए । पर इस बात पर विचार कीजिए ।
लावण्या जी बारे में यह पेशकश बहुत उम्दा रही..आभार.
बहुत अच्छा लगा लावण्या जी के बारे में पढ कर।
ख़ामोशी का यह गीत मुझे भी बहुत पसन्द है। यह गीत सुनने में जितना कोमल है उसका फ़िल्मांकन उतना ही अलग हुआ है। रेडियो से गीत बजता है, आकाशवाणी से गायिका को गाते हुए बताया है और नर्स वहीदा रहमान अंबुलेंस में राजेश खन्ना को अस्पताल ले जाती है। इस समय वहीदा रहमान का बहुत ही मार्मिक अभिनय है।
बचपन के दिन वाकई सुहाने होते हैं,अच्छा लग रहा है आपके बारे में जानना,अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा,अजित भाई जो आपने बीड़ा उठाया है उसके लिये आपका शुक्रिया,
दिलचस्प!
प्रतीक्षा रहेगी!
लावण्या जी ,बहुत अच्छा लगा आपके शैशव के बारे में पढ़ना ।
खुशी हुई और अच्छा लगा लावण्या जी के बारे मे जान कर।
अगली कड़ी का इंतजार रहेगा।
LAVANYAA DI, bahut acchha lag raha hai itna kuch jan naa, aur geet to aapney mera pasandeedaa sunva diya.thx di.
बहुत सुंदर. अजित जी ये एक अनूठा प्रयास है. आप बधाई के हक़दार हैं.
शब्दों के सफ़र में चलते चलते साथियों के बारें में जानने का अलग ही आनन्द है. अगली कड़ी का इंतज़ार है.
अजीत जी,
यह कड़ी बहुत गरिमामय है.
स्वनामधन्य पंडित नरेंद्र शर्मा जी की
सुपुत्री का संस्मरण, सचमुच एक सुखद प्रस्तुति है.
माता-पिता के प्रति लावण्या बहन के उदगार
और बचपन की कागज की कश्ती से
असीम प्यार की अंतरंग अनुभूति को पढ़कर
मुझे बरबस याद आ गईं ये पंक्तियाँ -
रत्न तो लाख मिले एक हृदय-धन न मिला ,
दर्द हर वक़्त मिला चैन किसी क्षण न मिला.
खोजते-खोजते ढल धूप गई जीवन की ,
पर कभी लौटकर गुज़रा हुआ बचपन न मिला.
लेकिन.....इस बचपन.....की याद के सफ़र
के सहभागी तो बहुतेरे हैं.
आपका आभार ....... इस बार भी !
लावण्या जी का बहुत आभार - बहुत ही स्नेहिल प्रस्तुति है - मनीष
अजित भाई ,
धन्यवाद ! :-))
" मैँ अजित भाई का सच्चे ह्र्दय से आभार प्रकट करती हूँ जो उन्होँने मुझे भी अपने जाल - घर " शब्दो का सफर " पर बुलाया और आज
यहाँ जो भी पहुँचा है, जिस साथी हिन्दी ब्लोग बिरादरी के भाई बहनोँ ने मुझे अपना समय दिया है उन्हेँ भी स स्नेह आभार कहती हूँ "
-- लावण्या
बहुत अच्छा लगा लावण्य़ा जी के बारे में जान कर। धन्यवाद।
लावण्या जी बहुत अच्छा लगा आप के बारे में जान कर, अगली कड़ी का इंतजार है।
lavanya ji aapke bare me jankar achcha laga
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