बहस करना ज्यादातर पढ़े-लिखे मनुश्यों का खास शगल है। ये बहस कहीं भी नज़र आ सकती है। स्कूल, कालेज, दफ्तर सड़क,घर-बाहर और अब तो ब्लाग पर भी ....कहीं भी। किसी भी विषय पर हो सकती है चांद-तारों से कारों तक, योग से भोग तक , शराब-शबाब से गंगा-जमना-दोआब तक किसी पर भी। पेश है वरिष्ठ कवि, पत्रकार श्याम बहादुर नम्र की एक कविता जो मुझे प्रिय है।
आओ बहस करें
सिद्धांतों को तहस-नहस करें
आओ बहस करें।
बहस करें चढ़ती महंगाई पर
विषमता की
बढ़ती खाई पर।
बहस करें भुखमरी कुपोषण पर
बहस करें लूट-दमन-शोषण पर
बहस करें पर्यावरण प्रदूषण पर
कला-साहित्य विधाओं पर।
काफी हाऊस के किसी कोने में
मज़ा आता है
बहस होने में।
आज की शाम बहस में काटें
कोरे शब्दों में सबका दुख बांटें
एक दूसरे का भेजा चाटें
अथवा उसमें भूसा भरें
आओ बहस करे....
-श्याम बहादुर नम्र
31 जुलाई 2007 को यह पोस्ट शब्दों का सफर में छापी थी । तब सफर शुरू ही हुआ था। इस पर जो टिप्पणियां आईं थीं, वे भी गौरतलब हैं। लीजिए इनका भी आनंद-
समीर भाई (उड़नतश्तरी) ने कहा था-
सही है, मौके के हिसाब है यह कविता श्याम बहादुर नम्र जी की :)
आजकल यही माहौल है न भाई:
बिना बात की बात उठा लें
कहीं भी अपनी टांग अड़ा लें
इससे उससे गाली खा लें
मत सुनो कि अब बस करें
आओ, आओ-बहस करें.
अनूप शुक्ल की टिप्पणी थी-
सही है। बहस करने का मजा ही कुछ और है। :) अब आप बताइये बहस शब्द बना कैसे?
एक बेनामी टिप्पणी भी थी, मगर रचनात्मक-सार्थक-
सुननेवाला भी हसा और कहनेवाला भी
तो लो हो गयी एक "बहस"
ताकि
और लोग भी हँस लेँ ..
यूनुस साहेब बोले थे-
भोत सई हे ख़ां
और देखिये प्रत्यक्षा बहस न्योत रही हैं-
सचमुच करें ?
सबसे आखिर में संजय पटेल की काव्यत्मक टिप्पणी-
बहस रहे बरक़रार
न रहे उसमें क्षार
न हो हाहाकार
स्नेह की दरकार
आत्मीयता की बयार
यही हो शब्द का कारोबार
उसी बहस से मनुष्यता की
जय जयकार !
हमारे ब्लागर बंधु इस पूरे प्रसंग को यहां फिर छापने का मक़सद समझ ही गए होंगे। दिल्लीवाले ज्यादा ध्यान दे सकते हैं क्योंकि दिल्ली राजधानी है। राजनीति भी वहीं है। अनीति भी वहीं है और नीति बनाने की पहल भी वहीं की होती है। सो एक तरह से तो ये उन्हें ही समर्पित है।
( शब्दों के सफर में बेनामी टिप्पणियां स्वीकार नहीं की जाती हैं। उक्त टिप्पणी पहली थी और सदाशयी थी इसलिए इस पुनर्प्रस्तुति में भी उसे जगह मिली है, ये अलग बात है कि उसके बाद कोई आई भी नहीं। )
Monday, March 3, 2008
आओ बहस करें....अर्थात मान भी जाओ यारों...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 3:25 AM
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10 कमेंट्स:
बहसी संप्रदाय के लिए अच्छा प्रार्थना गीत है। आप की यह भेंट अनेक लोगों को पसन्द आएगी।
कविता धांसू है जी। आप हमारे सवाल का जबाब भी दीजिये न!
धायं करें, ठायं करें, शब्दों की पिचकारी से चायं-चायं करें, कभी नीचे गड्ढे में तो कभी बायें जाके बायं-बायं करें.. अबे, बहस करें, तबे बहस करें..
ही-ही ठी-ठी के बाद अब अनूप शुक्ल के सवाल का जवाब दिया जाये.
LIJIYE SAHAB JAB BAAT BAHAS KI HAI TO DUSHYANT KA YE SHER BHEE SHAREEKE-BAHAS HO...
bhookh hai to sabra kar
roti naheen to kya hua?
aajkal dillee mein hai
ZERE BAHAS ye muddaaa.
aur ye apnee bhi...
ROTI KE NAAM PAR BAZAT KI BAHAS
MAHAZ EK KILMEE SEEN HAI,
LACHAAR-BEBAS JANTAA TO
VOTE DALNE KI MACHINE HAI...
AGAIN...KILMEE PAR BAHAS NA KAREN PLS.USE FILMEE PADHEN...
सही कविता है!!
बहुतेरे लोगों को बहसियाने की खुजाल सी होती है जब तक दिन में दो चार बार किसी बहस में जुबान फंसा न लें खाना नई पचता !!
कम से कम अब शायद बहस ख़त्म ही हो जायेगी।
बहस किसी कीड़े से कम नहीं है, ऐसे में कभी कभी बहस भी जरुरी है बस सकारात्मक हो
उड़ती खबर है बस्स!!! सुना है कि खत्म हो गई..क्या पता..सो तो पाकिस्तान के साथ भी शांति वार्ता सफल रही.
बहस कभी खत्म हो सकती है? और जो खतम हो जाये वो बहस क्या? बहस को खत्म करने के लिये एक को चुप रहना होगा, पहले कौन चुप्पी साधे ,इसमें फिर बहस......
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