ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है।
ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश और मीनाक्षी धन्वन्तरि को पढ़ चुके हैं। इस बार मिलते हैं कोलकाता के शिवकुमार मिश्र से । शिवजी अपने निराले ब्लाग पर जो कुछ लिखते हैं वो अक्सर ब्लागजगत की सुर्खियों में आ जाता है। आइये मिलते हैं बकलमखुद के इस छठे पड़ाव और इक्कीसवें सोपान पर मिसिरजी से।
लड़कीवालों ने लिया टेस्ट
सातवीं में पढता था तब पहली बार मेरे लिए रिश्ता आया. आप सुनकर ये मत सोचियेगा कि मैं मजाक कर रहा हूँ. जी हाँ, ये बिल्कुल सही बात है. एक लड़की के पिता को उसकी लड़की के व्याह की चिंता सताए जा रही थी. वो मुझे देखने आए. उनके साथ तीन-चार और भी लोग थे. उनमें से एक ने मेरा टेस्ट लिया. बोले; "आर्कमिडीज की परिकल्पना के बारे में बताओ?"
मैंने उन्हें सुना दिया; "कोई वस्तु किसी द्रव में पूरी या आंशिक रूप से डुबाई जाती है तो वस्तु पर लगने वाला उत्प्लावन बल, वस्तु द्वारा हटाये गए द्रव के भार के बराबर होता है." मेरा जवाब सुनकर वे खुश हो लिए और लड़की के पिता को कन्फर्म कर दिया किया; "लड़का तो पढ़ने में तेज है." आप ख़ुद ही अंदाजा लगाईये, हमारे उत्तर प्रदेश में आर्कमिडीज की वजह से कितने बच्चों की शादी हुई होगी. वैसे सुनाने की बात पर मैं कबीर और रहीम के दोहों की रटी-रटाई व्याख्या भी सुना सकता था, लेकिन तब शायद मैं पढाई में तेज न माना जाता.
शादी के दस रिश्ते आए !!!
मैंने दादाजी से शिकायत की; "आप ऐसे लोगों को क्यों आने देते हैं जो एक सातवीं क्लास में पढ़ने वाले लड़के की शादी करने पर आमादा हैं?" दादाजी ने बताया; "मैं क्या कर सकता हूँ. मैं किसी को आने से तो रोक नहीं सकता. ये तो हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम तुम्हारी शादी करना चाहते हैं कि नहीं या फिर तुम अपनी शादी करना चाहते हो या नहीं." मजे की बात ये होती कि स्कूल में क्लास चल रहा होता और घर से कोई आ जाता कि थोडी देर के लिए चलो, कुछ लोग मिलने आए हैं. जब मैं इनलोगों से 'मिलकर' वापस आता तो हमारे शिक्षक श्री हरिशंकर सिंह जी पूछते; "लड़कीवाले आए थे न?" मैं हाँ कह देता. वे दस मिनट तक सामाजिक व्यवस्था को गालियाँ सुनाते. एक दिन ख़ुद वे मेरे घर पहुँच गए थे. दादाजी से कहा; "अगली बार अगर कोई देखने आए तो उसे मेरे पास भेज दीजियेगा. आज से मैं ही शिव का अभिभावक हूँ. जो मैं चाहूँगा, वही होगा." सातवीं से दसवीं क्लास तक पढने के बीच कम से दस रिश्ते आए होंगे. आज याद करता हूँ तो बहुत हंसीं आती है.
धाकड़ों का साथ, पुलिस को तलाश
मिडिल स्कूल की पढाई करने के बाद हाई स्कूल में भर्ती हुई. कुल ग्यारह किलोमीटर साईकिल चलाकर कालेज जाता था. हाई स्कूल में समस्याएं शुरू हुईं. उम्र ऐसी थी कि उस समय यही लगता था कि जो कुछ भी सोचता हूँ और करता हूँ सबकुछ ठीक है. तब तक समझ ऐसी नहीं थी कि गलती कहाँ हो रही थी, उसके बारे में सोचूँ. अपने से बड़े 'छात्रों' के साथ क्लास बंक करके घूमना, क़स्बे के स्टेशन पर बैठे रहना, कालेज की तथाकथित राजनीति में हिस्सा लेना और पढाई न करके क़स्बे के टीन के छप्पर वाले छोटे से सिनेमाघर में सिनेमा देखना, ये सारे काम शुरू हो चुके थे. लिहाजा पढ़ाई बैकसीट पर चली गई. लोकल राजनीति में दिलचस्पी लेना शुरू हो चुका था. स्थानीय स्कूल और कालेज में पास वाले गांवों के 'धाकड़' छात्रों के बर्चस्व की लड़ाई देखना और समय-समय पर किसी ग्रुप के साथ दिखना, ये सारा कुछ जीवन में प्रवेश कर चुका था. ऐसे ग्रुप में कुछ छात्र तो इतने प्रतिभावान थे कि उन्हें बराबर पुलिस तलाश करती रहती. मैं ऐसे छात्रों के साथ भी अक्सर रहता.
बंदूक की गोली से आम की तुड़ाई!
इन दिनों घर के सदस्य मुझसे परेशान रहने लगे थे. दादाजी से रोज डांट मिलती. मुझे याद है एक बार मैं बंदूक से गोली चलाकर आम तोड़ रहा था. उसदिन दादाजी से बहुत डांटा था. अब बात याद आती है तो ख़ुद को बहुत कोसता हूँ. अब मन में आता है कि 'चौदह साल की उम्र में अगर कोई पोता अपने दादाजी के सामने दोनाली बंदूक दागकर आम तोड़े तो ऐसे पोते की धुनाई उसी बंदूक के बट से की जानी चाहिए.' पिताजी जब छुट्टियों में गाँव जाते तो दादाजी मेरी वाजिब शिकायत उनसे करते. और शिकायत करने के बाद ये बात जोड़ देते; "अब तुम्ही संभालो इसे. मेरी बातें तो ये सुनता ही नहीं." नतीजा ये हुआ कि सन १९८५ में हाई स्कूल पास करने के बाद पिताजी मुझे कलकत्ते ले आए । [जारी]
आपकी चिट्ठियां
सफर की पिछली तीन कड़ियों पर सर्वश्री-अनूप शुक्ल , काकेश , हर्षवर्धन, विजयशंकर चतुर्वेदी, ज्ञानदत्त पांडे, दिनेशराय द्विवेदी, प्रमोदसिंह, जेपी नारायण, प्रणव प्रियदर्शी, यूनुस, डॉ चंन्द्रकुमार जैन, अरूण, बोधिसत्व , संजीत त्रिपाठी, संजय बैंगाणी, पंकज अवधिया, अनिताकुमार ,आभा, घोस्ट बस्टर, कीर्तीश भट्ट, विमल वर्मा,इरफान, नीरज बधवार, दीपा पाठक , मीनाक्षी, संजय पटेल, ममता, लावण्या शाह, अरविंद मिश्र, नीरज रोहिल्ला और अभिषेक ओझा की प्रतिक्रियाएं मिलीं। सफर में साथ बने रहने के लिए आप सबका शुक्रिया।
@दिनेशराय द्विवेदी-धोती के संदर्भ में अधोवस्त्र और धौत् दोनों के बारे में भाषाशास्त्रियों का मत मैने रखा है। मेरा अपना मानना है कि अधोवस्त्र से ही धोती की व्युत्पत्ति अधिक सही है। आज भी आदिवासी अंचलों में महिलाएं जिस तरह से इसे पहनती हैं उससे इसकी शुरुआत अधोवस्त्र के रूप में ही हुई ज्यादा तार्किक लगती है। जहां तक साड़ी का सवाल है , इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि यह यूनान की देन है। इतिहास में भी इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता।
Sunday, April 27, 2008
आर्कमिडीज और शिवकुमार मिश्र ! [बकलमखुद-21]
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
19 कमेंट्स:
क्या बचपन जिया है आपने। मजा आ गया पढकर। यदि बचपन मे इतनी सारी बाते हो तो जीवन भर का सबक मिल जाता है।
बन्दूक से आम तोडना- अब तो आप उस बन्दूक का चित्र जरुर लगाइये अपने ब्लाग पर। ;)
मजा आ रहा है. जारी रहे.आप तो बहुत "धाकड़" निकले.
ये जो गाना है न अंखियों से गोली मारे उ शायद उसके बाद ही बना है जब आप बन्दूक से आम तोड़ रहे थे। मजा आ रहा है। लेकिन प्राब्लम ई है कि लेख ससुरा शुरू होते ही खतम हो जाता है। मुन्ना भाई का कमरा हो गया।
हम सब कुछ समझ गए.. यहाँ ये सब इसलिए लिखा जा रहा है की आगे से शिव भैया को कोई ना चिढाये.. तभी तो गोली बंदूक की बाते हो रही है,.. अगले अंक में हम तो तोप की डिमांड करते हैं.. की कैसे शिव भैया तोप से अंगूर तोडे.. :)
@ अजित वडनेरकर :कोई बात नहीं अगर प्रणव प्रियदर्शी आपने लिख दिया है तो इसे प्रशांत प्रियदर्शी बना दीजिये.. वैसे भी क्या फर्क परता है.. अगर नाम के साथ ब्लौग्वा का लिंक दिए होते तो १०-१५ लोगों का ट्रैफिक मिलता.. यही सोच कर की ये प्रनाववा कौन है.. प्रशांत देख कर तो कोई आता नहीं.. :)
बन्दूक की गोली से आम तोड़ो, और कलकत्ते पहुँचो। बड़ा कामयाब फारमूला अपनाया। आप की इस कथा में नवरस होने चाहिए। कुछ कम पड़ रहे हैं।
सही डाट पडी आपको,ये सिरे से गलत बात है कि आप आम को गोली चलाकर तोडॆ, वो खाने काबिल नही रह जायेगा ना . इसीलिये हमने जब भी आम तोडे हमेशा पेड पर चढकर और वही बैठ कर खाये ,(नीचे उतर कर दूसरो को भी देने पडते ना मीठे वाला माल) :)
मिसिर जी,
आर्किमिडीज के जल प्लावन के सिद्धांत की
सही व सटीक परिभाषा बताकर
आप कभी यूरेका !!.... यूरेका ...!!!
कहकर भागे या नहीं ... भई ये तो आपने
बताया ही नहीं !
..... या फिर प्रश्न करने वाले ही आपको देखकर
यूरेका ! हो गये हों .....?????.......?????
======================================
आपकी यह सजीव ,आत्मीय और चुहल -चुटकियों के साथ
पाठकीय सहभागिता सुनिश्चित करने वाली शैली
सचमुच बहुत लुभा रही है. बधाई !
......... और आभार अजित जी .
आपका
डा.चंद्रकुमार जैन
ह्म्म्म्म, बचपन तो आपई ने जिया है हजूर, ऐसे कितने बचपन होंगे जो बंदूक से आम तोड़ना तो दूर उसे छू या देख भी पाते होंगे।
इसके अलावा सातवीं कक्षा से ही डिमांड मे आ गए आप, वाह-वाह क्या कहने।
जारी रखें आनंद आ रहा है।
सातंवी क्लास से इतने सारे रिश्ते और ये शादी का इंटरवियु था या नौकरी का। बहुत ही सजीव चित्रण, हम आज भी आप को गांव के स्टेशन पर कान खुजाते राजनीति पर चर्चा करते आम के पेड़ के नीचे वो चाय की दुकान पर देख सकते हैं , कुछ पत्ता वत्ता भी खेले की नाहीं। चलो अच्छा हुआ बंदूक से सिर्फ़ आम ही तोड़े।
हमें भी लगता है कि पोस्ट जरा छोटी है जी थोड़ा और विस्तार से बताइए इतने मजेदार किस्से
बढ़िया विवरण। आनंद आया पढ़ कर
कुछ चित्र भी शामिल करें तो और अच्छा रहे. लेखनी तो जबरदस्त है ही मिश्र जी की.
अपने से बड़े 'छात्रों' के साथ क्लास बंक करके घूमना, क़स्बे के स्टेशन पर बैठे रहना, कालेज की तथाकथित राजनीति में हिस्सा लेना और पढाई न करके क़स्बे के टीन के छप्पर वाले छोटे से सिनेमाघर में सिनेमा देखना, ये सारे काम शुरू हो चुके थे. लिहाजा पढ़ाई बैकसीट पर चली गई. लोकल राजनीति में दिलचस्पी लेना शुरू हो चुका था. स्थानीय स्कूल और कालेज में पास वाले गांवों के 'धाकड़' छात्रों के बर्चस्व की लड़ाई देखना और समय-समय पर किसी ग्रुप के साथ दिखना, ये सारा कुछ जीवन में प्रवेश कर चुका था. ऐसे ग्रुप में कुछ छात्र तो इतने प्रतिभावान थे कि उन्हें बराबर पुलिस तलाश करती रहती. मैं ऐसे छात्रों के साथ भी अक्सर रहता.
----------
बस गाँव की जगह शहर कर दीजिये वो भी शाहजहांपुर, फिर आपकी और मेरी कहानी एक ही है |
बस बचपन में हमारे लिए रिश्ते नहीं आए, पिताजी परेशान हैं कि अभी भी नहीं आ रहे हैं | घर पर एक महीने कि छुट्टी में गए थे तो पिताजी ने सोचा लड़के वाले हैं , हमारे यहाँ तो लड़कियों वाले अपने आप आ जायेंगे | पिताजी अभी भी ३० साल पहले का सोच रहे थे, हम मंद मंद मुस्कुरा रहे थे कि बस इसी गलतफहमी में ३० दिन निकल जाएं | ३० दिन गुजर भी गए और कोई ख़बर लेने नहीं आया होनहार लड़के की :-)
अब सुना है कि पिताजी ने इधर उधर ख़बर फैलानी शुरू कर दी है :-)
बंदूक से आम तोड़े। ओर ऎसे दोस्त जिन्हे पुलिस भी सलाम करती हो,आप उन सब के दोस्त हे तो भाई आप का अति सुन्दर लेख पढा हे तो टिपाण्णी भी जरुर देगे डर के मारे,
बन्दूक से निशाना?वो भी उस उम्र में? भाई कमाल है...बचपन तो आपका ज़बर्दस्त रहा होगा पढ़ कर लगता है...
शिव भाई साहब ,
आपके किस्से बडे चाव से , मुस्कुराते हुए :)
पढ रहे हैँ हम भी!
ये बाताइये कि,
दोनाली बँदूक आपके पास
आई कैसे ?
क्या वो ,पूज्य दादा जी की थी ?
भारत मेँ ऐसा भी होता है ?
- लावण्या
@ लावण्या जी,
ये दुनाली बंदूक हमारे घर में सालों से थी. इसका लाईसेंस है. असल में उनदिनों हमारे इलाके में डकैत बड़े सक्रिय थे. लिहाजा घर में किसी हथियार का होना आवश्यक समझा जाता था.
----शिव
हमारे उत्तर प्रदेश में आर्कमिडीज की वजह से कितने बच्चों की शादी हुई होगी.
शिव बंधू , ये बताईये की कमबख्त आर्कमिडीज की वजह से कितने बच्चों की शादी नहीं हुई होगी. अब आर्कमिडीज का सिधांत आप की तरह सब को थोड़े ही रटा रहता है. ऐसा कठिन सिधांत बनाया है की एक आध बार पढने से तो भेजे में घुसता ही नहीं.
आप की कथा पढ़ के लग रहा है की आप बचपन से ही बहुत पहुँची हुई हस्ती थे. बचपन में बंदूक से आम तोड़ते थे और जवानी में...????" लड़का कमाल ये तो.... अंखियों से गोली मारे..."
बहुत खूब. मजा आ रहा है. अजित भाई को कोटिश धन्यवाद जिन्होंने आप की असलियत से रूबरू करवाया.
नीरज
वाह क्या जिंदगी जी है आपने भी...इंटरव्हियु में तो कमाल ही कर दिया आपने... हमने तो यही सुना था कि लोग १९ का पहाडा पूछा करते थे, आपसे ये आउट ऑफ़ सिलाबस सवाल पूछ लिया गया था... :D
ये दोनाली बंदूक से आम तोड़ने वाली बात तो हमारे बचपन से मिलती है ... बस धाकड़ लोगों का साथ नहीं मिल पाया नहीं तो शायद हम भी कल्कत्ताचले गए होते :-)
Post a Comment