Saturday, April 5, 2008

जाति , वंश , परंपरा का शब्द विलास...

गोत्र पर पिछले पड़ाव पर प्रत्यक्षा, चंद्रभूषण , डॉ चंद्रकुमार जैन, घोस्टबस्टर, संजीत , मनीष जोशिम की प्रतिक्रियाएं मिलीं । समाज को जानने-समझने की दिलचसी शुरू से रही है। जाति-वंश-परंपरा, खानदान, कुनबा आदि के संदर्भ जो कुछ जानने-समझने को मिलता रहा है , उसे आप सबसे बांटता रहा हूं। गोत्र शब्द के बारे में जो लिखा है दरअसल वह सिर्फ गोत्र शब्द की व्युत्पत्ति से संबंधित था। कुल, वंश, परंपरा या जाति जैसे शब्दों की सीमाएं छूने की कोशिश नहीं थी। फिर भी अच्छा ये लगा कि इससे संकेत ग्रहण कर इन्ही के बारे में और साझा करने की चाह हमारे साथियों ने जाहिर की है। दरअसल समाज के विकासक्रम में मानव का पशुओं से साहचर्य बहुत सामान्य बात रही है। गाय, बैल, घोडा आदि ऐसे ही सहचर रहे हैं मनुष्य के जिन्होंने स्वयं मानव समाज के साथ अपनी समरसता स्थापित कर अपनी महत्ता स्थापित की बल्कि मनुष्य को भी नए अनुशासन और संस्कारों मे ढलने का अवसर दिया। जाति ,वंश और परंपरा मेरे प्रिय विषय रहे हैं । इतिहास-अतीत में गहन दिलचस्पी रही है। यूं इन विषयों का कभी अनिवार्य और व्यवस्थित अध्ययन नहीं किया। जहां तक जाति, परंपरा, वंश, कुनबे, गोत्र आदि का प्रश्न है, गोत्र पर ताजी पोस्ट मेरी एक पुरानी पोस्ट की ही पुनर्प्रस्तुति थी। दरअसल इन तमाम बातों पर बहुत कुछ कहा जा चुका है और बहुत कुछ कहना बाकी है। हम और आप तो सिर्फ ये मौका उपलब्ध करा रहे हैं। मनुष्य का हजारों वर्षों से पशुओं से साहचर्य रहा है। कई पशु तो मनुष्य के साथ सहजतापूर्ण साहचर्य के चलते ही महत्वपूर्ण हो गए। ऐसे अनेक साक्ष्य संस्कृति में हमे नज़र आते हैं। इन पशुओं मे गाय , बैल और घोड़ा प्रमुख रहे है। गाय ने तो भारतीय समाज पर गहरी छाप छोड़ी है। ऐसे दर्जनों शब्द है जिन्हें हम रोज़ सुनते - बोलते हैं । ये सभी शब्द हिन्दुस्तान की गोसंस्कृति को पोषित करने वाली पहचान से जुड़े हैं। एक नज़र देखें इधर- फीस दो या पशु, बात एक ही है... हिन्दी के पशु और अंग्रेजी के फीस शब्द में भला क्या रिश्ता हो सकता है? एक का अर्थ है मवेशी या जानवर जबकि दूसरे का मतलब होता है शुल्क या किसी किस्म का भुगतान। हकीकत में दोनों शब्द एक ही हैं। दोनों ही शब्द इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार के हैं और इनका उद्गम भी एक ही है। संस्कृत में एक शब्द है पाश: जिसका अर्थ है फंदा ,डोरी , श्रृंखला, बेड़ी वगैरह। जाहिर है जिन पर पाश से काबू पाया जा सकता था वे ही पशु कहलाए। हिन्दी में पशु शब्द का जो अर्थ है वही फीस के प्राचीन रूप फीओ (fioh) शब्द का भी मतलब था यानी जानवर। विस्तार से देखें यहां फांसी का फंदा और पशुपतिनाथ संस्कृत-हिन्दी का बेहद आम शब्द है पशु जिसके मायने हैं जानवर, चार पैर और पूंछ वाला जन्तु, चौपाया , बलि योग्य जीव । मूर्ख व बुद्धिहीन मनुष्य को भी पशु कहा जाता है। पशु शब्द की उत्पत्ति भी दिलचस्प है। आदिमकाल से ही मनुष्य पशुओं पर काबू करने की जुगत करता रहा। अपनी बुद्धि से उसने डोरी-जाल आदि बनाए और हिंसक जीवों को भी काबू कर लिया। संस्कृत में एक शब्द है पाश: जिसका अर्थ है फंदा ,डोरी , श्रृंखला, बेड़ी वगैरह। विस्तार से देखें यहां कुलीनों की गोष्ठी में ग्वाले बैठक महफिल,मीटिंग,सम्मेलन आदि के अर्थ में हिन्दी में आमतौर पर बोला जाने वाला शब्द है गोष्ठी। आज की आपाधापी वाले दौर में जिसे देखिये मीटिंगों में व्यस्त है। हर बात के लिए गोष्ठी का आयोजन सामान्य बात है। गोष्ठियां बुलाना और उनमें जाना संभ्रान्त और कुलीन लोगों का शगल भी है। मगर किसी ज़माने में यह शब्द महज़ चरवाहों की बैठक के तौर पर जाना जाता था। गोष्ठी शब्द भारतीय समाज में गाय के महत्व को सिद्ध करनेवाला शब्द है। इससे पहले हम गोत्र शब्द की उत्पत्ति के संदर्भ में भी इसकी चर्चा कर चुके हैं। विस्तार से देखें यहांगो , गोस्वामी , गुसैयाँ भारतीय समाज में गो अर्थात गाय की महत्ता जगजाहिर है। खास बात ये कि तीज-त्योहारों, व्रत-पूजन और धार्मिक अनुष्ठानों के चलते हमारे जन-जीवन में गोवंश के प्रति आदरभाव उजागर होता ही है मगर भाषा भी एक जरिया है जिससे वैदिक काल से आजतक गो अर्थात गाय के महत्व की जानकारी मिलती है। हिन्दी में एक शब्द है गुसैयॉं, जिसका मतलब है ईश्वर या भगवान। इसी तरह गुसॉंईं और गोसॉंईं शब्द भी हैं । विस्तार से यहां देखें - उपनामों की महिमा रअसल जाति पर चर्चा एक अलग विषय हो जाता है और सामूहिक पहचान एक अलग विषय। गोत्र शब्द की व्युत्पत्ति सामूहिक पहचान से जुड़ी है न कि नस्ली पहचान से । जैसा कि मनीश जोशिम कहना चाहते हैं और मैं यहां कह भी चुका हूं कि मामला सिर्फ पहचान का है। समूहों की पहचान हमारे यहां ज्यादा आसान रही है न कि जातियों की। जाति के स्तर पर बहुत घालमेल और मनमानी चलती रही है। किन्हीं विवशताओं ने मानव समूहों को जातीय व्यवस्था के लिए मजबूर किया होगा वर्ना तो समूह की पहचान ही प्रमुख थी। प्रायः समूहों के तौर पर मनुष्यों ने स्वयं की पहचान भी उन्ही संकेतों-प्रतीकों से जोड़ी जो स्वयं ज्ञात विश्व में ख्यात हो चुके थे मसलन नदियां। अनादिकाल से ही जलस्रोतों ने मानव समूदायों की अस्तित्व रक्षा की और उन्हें पहचान दी। ब्राह्मण समूदायों के कुछ उपनामों में झांकती नदियों के नामों को सहज ही पहचाना जा सकता है- नार्मदीय, सरयुपारीय, सारस्वत, गांगेय, व्यास आदि। पारिवारिक गोत्र की पहचान के अलावा शिक्षा भी सामूहिक पहचान बनती रही है । कई उपनामों में आप प्रमुक शिक्षाओं या ग्रंथों के नामो को पहचान सकते हैं जैसे वेदी, बेदी, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, चौबे, वेदालंकार, विद्यालंकार, विद्यावाचस्पति , दीक्षित, दीक्षितर, जोशी , जुत्शी (ज्योतिषि) आदि स्थानों से जुड़ाव भी मानव समूहों की पहचान की वजह बना । दुनियाभर में अपने जन्मस्थान की पहचान अपने उपनाम के साथ जोड़ने की परिपाटी रही है। इसकी वजह यही रही क्योंकि मानव समूहों में भ्रमणशीलता एक सहज वृत्ति रही। गौर करे अपने आसपास के ऐसे कई उपनामों पर जिनमें किसी कस्बे या शहर का नाम झांकता नज़र आता है- वडनेरकर, खन्ना, भिंडरांवाला, सोमपुरा, देवपुरा, तलवंडी, सोपोरी, मंगेशकर, कोल्हापुरी, इंदौरी, शुजालपुरकर, मीनाई, बिहारी, नेपाली .मंबइया, मुंबइकर, बनारसी, कश्मीरी वगैरह। देखें यहां व्यवसाय से जुड़े सामूहिक पहचान के नाम भी बाद में जातीय पहचानों से जोड़े जाने लगे जैसे - लोहार, सुथार, सुनार, कसेरा, पटेल, पाटीदार,पंसार, पंसारी, बनिया, वणिक, दारूवाला, बाटलीवाला आदि।

5 कमेंट्स:

दिनेशराय द्विवेदी said...

जाति, परंपरा, वंश, कुनबे, गोत्र अत्यन्त ही विषद विषय है और समाज-शास्त्र से सम्बन्धित है। अभी हिन्दी चिट्ठाकारी ने बहुत से गंभीर विषयों को में प्रवेश ही नहीं किया है। कभी प्रयत्न भी किया है तो चिट्ठाकार केवल प्रवेश द्वार को छू कर चल देता है। गंभीर प्रयासों की आवश्यकता है।
आज मानव को आगे विकास के लिए जिस गंभीर ज्ञान की आवश्यकता है उसे हिन्दी में उपलब्ध कराया जाना आवश्यक है, अन्यथा हिन्दी और हिन्दी भाषियों का पिछड़ा रह जाना अवश्यंभावी है। मेरी मान्यता है कि हिन्दी अभी अपने अल्पवयस्कता के काल में ही है। विशेष रुप से अन्तर्जाल पर। जहाँ आंग्ल अन्तर्जाल विविध वैज्ञानिक-सामाजिक विषयों की ज्ञानवर्धक सामग्री से समृद्ध है वहीं हिन्दी में अन्तर्जाल पर सामग्री है ही नहीं। तब पाठक हिन्दी के माध्यम से कैसे उस सब सामग्री तक पहुँच सकता है। जो भी ज्ञान प्राप्त करने के एक उच्च स्तर तक पहुँच जाता है उसे आगे अंग्रेजी की आवश्यकता पड़ने लगती है। नतीजा हम देख रहे हैं। वह अपनी हिन्दी छोड़ कर अंग्रेजी को काम काज की भाषा बना ड़ालता है।
यह टिप्पणी पोस्ट का रुप ले इस से पहले इसे मैं साथियों के विचारार्थ यहीं छोड़ रहा हूँ, इस उल्लेख के साथ कि मेरी बहुत दिनों से इच्छा है कि Anthropologist Lewis Henry Morgan (1818–1881) की शोध पुस्तक Ancient Society का हिन्दी अनुवाद किसी तरह अन्तर्जाल पर उपलब्ध हो जाए। यह एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । जो मानव समाज के विकास को समझने के लिए विश्व की सबसे आवश्यक पुस्तक है।
यह कार्य या इस तरह का बहुत बड़ा काम जो हिन्दी को ज्ञान अर्जित कराने वाली एक प्रौढ़ भाषा के रुप में विकसित करने के लिए आवश्यक है कैसे संभव हो पाएगा?
उत्तर प्राप्त करने की प्रतीक्षा में।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

द्विवेदी जी ने बड़ा ही सार्थक हस्तक्षेप किया है,
लेकिन अजित जी आज तो आपने
रोचक जानकारियों की गंगा ही बहा दी है.
डुबकी लगाने से बात नही बनेगी.
गहरे पानी पैठ से ही मोती हाथ लगेंगे.
बहरहाल खुशी इस बात की है कि
विषयगत ज्ञान कड़ियों को भी
आपकी प्रस्तुति का निरालापन
सहज और बोध गम्य बना देता है.
दुरूह विषयों का सरलीकरण
व्यस्त जीवन क्रम की पुकार भी है.
आपका आभार..... द्विवेदी जी आपका भी.

पढ़ लूँ .... आचमन कर लूँ ....फिर ज़रूर
साझा करूँगा, यदि आवश्यक हुआ.
आपका
डा. चंद्रकुमार जैन

मीनाक्षी said...

अजित जी,गोत्र,जाति वंश परंपरा से जुड़ी आपकी दोनों पोस्ट पढ़ीं. हमारे लिए नई और रोचक जानकारी लेकिन उतनी ही पेचीदा. कहने को बस इतना जानते हैं कि भारद्वाज गोत्र के सारस्वत ब्राह्मण लेकिन
'शर्मा' कहाँ से आ गया, आज तक समझ नहीं आया.

अजित वडनेरकर said...

@दिनेश राय द्विवेदी- सचमुच हिन्दी की वेबसाइटों की संख्या भी अंग्रेजी के मुकाबले कम है और उसमें शोधपरक, मौलिक और स्तरीय सामग्री का अभाव भी है। विभिन्न विषयों से संबंधित अंग्रेजी में उपलब्ध मानक सामग्री का प्रतिनिधि हिन्दी अनुवाद हिन्दी में आना बहुत ज़रूरी लगता है। पर यह काम कौन करेगा ? अंग्रेजी हमारा हाथ शुरू से तंग रहा है वर्ना अभी तक इस दिशा में मैं कुछ सहयोग देने की स्थिति में रहता।
फिर भी मुझे लगता है कि एक ऐसा फोरम ज़रूर हम लोग बना सकते हैं जिसमें अपने अपने दायरे से बाहर निकल कर हिन्दी विकिपीडिया प्रोजेक्ट में हम सभी को सहयोग देना चाहिए। जितने भी संदर्भों के बारे में हम हिन्दी में लिख सकें , लिखना चाहिए तभी इंटरनेट पर हिन्दी अन्य भाषाओं के सामने खड़ी नज़र आएगी। हेनरी मोर्गन की पुस्तक का हिन्दी अनुवाद सचमुच पढ़ने की आपने ललक जगा दी है।

@डॉ चंद्रकुमार जैन-आपने और चंदूभाई ने अपनी टिप्पणियों में गोठ का हवाला दिया था । इस बारे में सफर के पिछले किसी पड़ाव पर लिखा जा चुका था, इसीलिए प्रसंगवश उसका संदर्भ भी डाल दिया। एक अन्य पोस्ट भी गोसंस्कृति से जुड़े शब्द पर थी-http://shabdavali.blogspot.com/2007/10/blog-post_02.html
आप यूं ही सार्थक हस्तक्षेप करते रहें। आपके ज्ञान, अनुभव और चिन्तन-मनन का लाभ सभी ले रहे हैं।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

जाति वंश से उपनामों तक सब कुछ
महिमा की मुखर अभिव्यक्ति है .
पढ़कर मन प्रसन्न हो गया.
अजित जी ,लगता है
शब्दों के सफ़र से जुड़ना
जैसे सौभाग्य-सूचक शब्द / पद का
कोई पर्याय नहीं है .
इसके हर हमराह को फक्र होना चाहिए.
मुझे तो बेशक है !!!
आपकी पहल के प्रति उत्तरदायी होना ही
सच्चा आभार होगा.

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