| | दुनियाभर में साबुन जैसे पदार्थों का इस्तेमाल तो हजारों वर्षों से हो रहा है। रीठा या शिकाकाई भारत में प्राचीनकाल से ही साबुन का पर्याय रहे हैं। |
को ई बिरला हिन्दीभाषी होगा जिसने संत कबीर का यह दोहा न सुना हो-निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छबाय। बिन पानी साबुन बिना, निरमल करै सुभाय।। मनुष्य को परिष्कार और आत्मोन्नति के प्रयास निरंतर करते रहना चाहिए। निंदा करनेवाले के जरिये ही हमें अपने परिष्कार का अवसर मिलता है। इस दोहे में साबुन शब्द पर गौर करें। साबुन शरीर की सफाई करता है। मैल साफ करता है। कबीरवाणी का महत्व ही इसलिए है क्योंकि उन्होंने गहन दार्शनिक अर्थवत्ता वाली बातें लोगों को आमफ़हम शब्दावली में समझाई हैं। आज से पांचसौ वर्ष पहले अगर कबीर साबुन शब्द का प्रयोग आध्यात्मिक व्यंजना के लिए करते हैं तो स्पष्ट है कि उस दौर का समाज भी शरीर का मैल साफ करने के लिए साबुन का इस्तेमाल आमतौर पर कर रहा होगा। यहां हम साबुन नाम के पदार्थ की व्युत्पत्ति की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि मैल साफ करने के साधन के बतौर साबुन शब्द की बात कर रहे हैं। व्यापक तौर पर दुनियाभर में साबुन जैसे पदार्थों का इस्तेमाल तो हजारों वर्षों से हो रहा है। रीठा या शिकाकाई भारत में प्राचीनकाल से ही साबुन का पर्याय रहे हैं।
साबुन शब्द का मूल किस भाषा में छुपा है ? भारत-ईरानी, भारत-यूरोपीय, द्रविड़ अथवा सेमेटिक ? दुनियाभर में शरीर अथवा वस्त्र को साफ करनेवाली एक गोल-चौकोर बट्टी के लिए साबुन अथवा इससे मिलते जुलते शब्द प्रचलित हैं। शब्दों का आवागमन लगातार एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में होता रहता है। साबुन sabun के साथ भी यही हुआ। मूलतः यह यूरोपीय भाषाओं में इस्तेमाल होने वाला शब्द है। अफ्रीका, यूरोप, पश्चिमी एशिया और पूर्वी एशिया की तमाम भाषाओं में साबुन शब्द आम है और मैलापन साफ करनेवाले कारक के लिए इसका कोई अन्य विकल्प विभिन्न भाषाओ में दुर्लभ है।
आमतौर पर यह माना जाता है कि
दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में साबुन शब्द पुर्तगालियों की देन है। एशिया-अफ्रीका-यूरोप में इसके
साबू, साबन, साबुन, सेबॉन, सेवन, सोप, साबौन, सैबुन, सबुनी आदि रूप मिलते हैं जो भारत की तमाम भाषाओं सहित अरब, इराक, ईरान, मलेशिया, श्रीलंका, सिंगापुर, कम्बोडिया, जावा और जापान आदि क्षेत्रों की विभिन्न बोलियों में प्रचलित हैं। दक्षिण-पूर्वी एशिया में चाहे साबुन शब्द पुर्तगालियों के जरिये पहुंचा होगा परंतु भारत में इसके पीछे पुर्तगाली नहीं रहे होंगे। उसकी वजह है भारत में
वास्को डी गामा पहला पुर्तगाली माना जाता है जो 1498 में कालीकट के तट पर उतरा था। जबकि
कबीर दास का जन्म इससे भी सौ बरस पहले 1398 का माना जाता है। कुछ विद्वान उन्हें 1440 की पैदाइश भी मानते हैं तो भी साफ है कि पुर्तगालियों के आने से पहले कबीरदास अपनी सधुक्कड़ी शैली में साबुन शब्द का प्रयोग कर चुके थे। मलिनता निवारण के प्रतीक के तौर पर
प्राचीन रोमन लोग ऑलिव ऑइल का प्रयोग भी शरीर को साफ रखने में करते थे।
साबुन शब्द उन्हें इस कदर प्रिय था कि उसका प्रयोग अपनी कई शिक्षाओं में वे करते नजर आते हैं-
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ कबीर के वक्त तक हिन्दी में अरबी-फारसी शब्द घुल-मिल चुके थे। यूं कहें कि हिन्दुस्तानी जन्म ले चुकी थी। जाहिर है साबुन शब्द की आमद हिन्दी में बरास्ता अरबी फारसी हुई है न कि पुर्तगाली की। साबुन के मुख्य रूपों में एक रूप
सोप (sop, soap) भी है जो अंग्रेजी शब्द है। यह मूलतः
प्राचीन जर्मनिक लोकबोली का है जिसमें इसका रूप था saipion. इसमें धुलाई, धार, टपकना आदि भाव समाए थे। प्राचीन रोमन लोग ऑलिव ऑइल का प्रयोग भी शरीर को साफ रखने में करते थे। इसके अलावा भी वे कई सुगंधित तेल लगाया करते थे। आज भी आधुनिक साबुन निर्माण में तेल एक प्रमुख घटक है। फ्रेंच में इसका रूप है
सेवन savon . लैटिन में इसका रूप हुआ सैपो-सैपोनिस sapo, saponis अर्थ वही रहा हेयर डाई का। लैटिन से यह शब्द ग्रीक भाषा में गया सैपोन sapon बनकर। इतालवी में यह
सैपोन sapone और स्पैनिश में जबॉन jabon बनकर दाखिल हुआ।
यूरोप और अरब के बीच प्राचीन काल से ही व्यापारिक रिश्ते रहे हैं। अरब के सौदागरों की ज़बान पर
सैपोन शब्द चढ़ा जिसका अरबी रूप
साबुन हुआ और हिब्रू रूप हुआ सैबोन। पुर्तगाली ज़बान में लैटिन से गया सैपो शब्द सबाओ sabao बनकर दाखिल हुआ। स्पष्ट है कि पूर्वी एशियाई देशों या भारत के पश्चिमी तटवर्ती भाषाओं जैसे कन्नड़ कोंकणी, मराठी, गुजराती में इसके सबाओ, साबू, सबू जैसे रूप भी हैं जो इस क्षेत्र में पुर्तगाली प्रभाव बताते हैं। मगर शेष भारत की ज्यादातर भाषाओं में ग्रीक सैपोन से प्रभावित होकर बना अरबी रूप साबुन ही प्रचलित हुआ। इसका कोई प्रमाण नहीं है कि आज करीब ग्यारह सौ साल पहले मुस्लिम शासन की शुरूआत के बाद
साबुन शब्द भारत में प्रचलित हुआ या उससे भी पहले से इसकी मौजूदगी है। प्राचीनकाल में ही अरबों ने ग्रीक से यह शब्द ग्रहण कर लिया था। अरबों से भारत के कारोबारी रिश्ते भी बहुत पुराने हैं मगर साबुन शब्द संस्कृत ने ग्रहण नहीं किया। माना जा सकता है कि भारत में मुस्लिम शासन के बाद जब अरब संस्कृति और अरबी भाषा का प्रचार-प्रसार बढ़ा तब यह शब्द विविध रूपों में भाषाओं में घुल-मिल गया।
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36 कमेंट्स:
इस विरल लेख के लिए बहुत बहुत धन्यवाद बडनेरकर जी ! शब्दों की इस अनुपम यात्रा के साथ आप जो जानकारी संजोते हैं वह हमें चमत्कृत करती है |
सोप और साबुन का ध्वनिसाम्य इसके समान उद्भव का भाव देता था परन्तु यह इल्म न था कि यूरोप में इसका जन्म जर्मन लोक बोली के शब्द saipion से हुआ होगा |
आप प्रायः संस्कृत और अवेस्ता की सहोदरता की बात करते प्रतीत होते हैं | कभी अवेस्ता के बारे में विस्तार से बताइगा |
पुनश्च : देश में आम चुनाव का बिगुल बज गया है | चुनाव हों या न हों नेता और चमचों की जोड़ी बड़ी प्रसिद्ध रही है | प्रश्न घुमड़ता है कि इन चमचों का चम्मच से क्या सम्बन्ध हो सकता है ? क्या यह महज़ मुहावरे बतौर राजनीति में दाखिल हो गया है ? यानी वह जो खाने में सहायक हो ? कभी समाधान कीजियेगा |
अजित भाई, आपसे न सहमत होने का कोई प्रश्न ही नहीं,
पर एक संभावना के रूप में आपने इस पर भी तो सोचा होगा, कि
किंवा यह शब्द कबीर की दोहावली में बाद में जोड़ा गया हो ?
कबीर की दोहावली के अलावा गुरु ग्रँथ साहब में भी कालांतर में पद और दोहे जोड़े जाने के सप्रमाण उल्लेख हैं ।
अन्य भी कई ग्रँथ हैं, जो कि कई पीढ़ियों या शताब्दियों तक संशोधित एवं संवर्धित किये जाते रहे हैं !
यदि तुलसी की रामकथा श्री मारूतिनंदन के माध्यम से आयी, तो तेलूगू रामायण ?
साबुन के उद्गम मूल के रूप में सबुनी तो है, फ़्रेंच तक जाते जाते यह सोप हो गया ।
कबीर के संग इसकी प्रासंगिकता सिद्ध करने के प्रमाण मेरे पास नहीं हैं !
पुनःश्च : सबुनी जैतून के छाल के अंदरूनी हिस्से का क्षार है, शायद ?
@डॉअमरकुमार
आपने बहुत महत्वपूर्ण बात कही है डॉक्टसाब। साहित्य की वाचिक परम्परा में यह संभावना/आशंका बनी रहती है। प्रस्तुत लेख में मैने सिर्फ यही कहा है कि कबीर वाणी में साबुन शब्द पुर्तगालियों के आने से पहले का है। यह तो सिद्ध हो रहा है क्योंकि अरबी में यह शब्द हिन्दी में आने से भी सदियों पहले से है। हिन्दी में साबुन का स्रोत पुर्तगाली या अरबी ही माना जाए तब निश्चित ही अरबी का पलड़ा भारी है क्योंकि पुर्तगालियों से भी छह सौ बरस पहले अरब लोग भारत आ चुके थे। इस तथ्य को भी अगर हम भूल जाएं कि अरब सौदागर उससे भी पहले से भारत आते रहे थे।
आरडी सक्सेना
रमेश भाई,
आपने अवेस्ता के बारे में पहले भी पूछा था। मेरा छोटा भाईपल्लव बुधकर अभी नीदरलैंड में है। कल उसने भी मुझे फिर याद दिलाया कि जिन भाषा परिवारों का मैं उल्लेख करता हूं मसलन सेमेटिक...तो इनके बारे में भी बताऊं। वक्त की कमी है, मगर सचमुच शब्दों के सफर में भाषा परिवार और भाषाओं के बारे में अगर न बताया जाए तो यह अधूरा ही रहेगा। अब सोचता हूं कि हफ्ते में एक दिन रोचक अंदाज में भाषाविज्ञान के सैद्धांतिक पक्ष पर भी एक आलेख देना शुरू करूं...
क्या सोचते हैं आप ?
सफर में बने रहने के लिए मैं बहुत बहुत आभारी हूं। मेरी नितांत वैयक्तिक खब्त आप लोगों का थोड़ा वक्त तो खा रही है ...पर खुश हूं कि अच्छा कट रहा है सफर ।
जै जै
मेरे लिए तो आश्चर्य लगता है कई समानार्थी शब्द [कई भाषाओ मे ] एक ही अक्षर से प्रारंभ होते है
सुन्दर!
शब्दों का यह सिलसिला मेरे लिए बहुत रोचक है। मैं तो इस में विभिन्न भाषाओं को प्रयोग करने वाली जातियों के आपसी संबंधों और लेनदेन की मुक्त परंपरा को देख कर प्रसन्न हो जाता हूँ।
विद्वत -संवाद ! ज्ञानपूर्ण !!
'निंदक नियरे'...वाले दोहे में अंग्रेजी के निअर और निअरे में साम्य पर भी अगंभीर किस्म की चर्चाएँ सुनी है.राजस्थानी में वैसे नज़दीक के लिए 'नेड़ा' शब्द है पर क्या यहाँ यूरोपीय मूल का कोई शब्द छिटक कर दूर देश आने वाली घटना है या ये साम्य कौटुम्बिक साम्य जैसा ही है?
तो आज से हमने तय कर लिया है
कि साबुन की जगह .....इनका ही
इस्तेमाल करेंगे...साफ-सफाई के लिए.
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अजित जी,
आपकी शब्द-सेवा हमारे जीवन में
अब ज्ञान की गहराई और ऊँचाई दोनों का
पर्याय बन गयी है.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
@sanjay vyas
संजय भाई, हम लोग जब पढ़ते थे तब से इस अंग्रेजी नियर और हिन्दी नियर के अर्थसाम्य का उल्लेख आता था। नियर और नेड़ा शब्दरूपों का चलन खड़ीबोली हिन्दी में नहीं है पर हिन्दी की अन्य बोलियों में प्रचलित है। दोनों का मूल संस्कृत के निकटम् से है। पूर्वी और पश्चिमी शैलियों में बदलाव का क्रम कुछ यूं रहा- निकटम्>निअडम>नेड़ा(राजस्थानी) और निकटम्>निअडम>निअरा>निअर/नियर(अवधी,भोजपुरी)। भाषाओं में ऐसे संयोग भी होते हैं, पर विरल।
आपके लेखों को अधिकतर पढती हूं.. आप हम सबकी भाषा को ’उजला’ कर रहे हैं.. :) शुभकामनाएं.
जय हो शब्द सम्राट की।
अच्छी जानकारियां देते हैं आप।
भाषाविज्ञान के सैद्धांतिक पक्ष पर भी प्रति सप्ताह एक आलेख देने के विचार को अवश्य साकार कीजिएगा।
क्षमा करें, एक बार फिर रंग में भंग डालने चला आया !
भाई अजित जी ने एक वृहत्त गृहकार्य दे दिया दिया है, पर साथ ही नियरे को लेकर चल रहे मेरे पड़ताल को आसान भी कर दिया ।
किंचित आश्चर्य भी है, कि एक स्वस्थ खोजपरक संयता भाषा में बहस जारी है,
अजित भाई, लोग आपके आपके ब्लाग पर दंभ के जूते बाहर उतार नंगे पाँव क्यों आया करते हैं ?
:)
गृहकार्य बोले तो पुर्तगालियों एवं अरबों के आवागमन का इतिहास जानने का कार्य :)
बहुत बढिया ज्ञानवर्धन हो रहा है.
रामराम.
वाह दादा, यहॉं नीदरलैण्ड में दुकानों पर साबोन sabon देखकर जब मैंने आपसे इसके बारे में पूछा था तो कतई अंदाज़ा नहीं था कि यह शब्द मेरे को यूरोप, मध्य एशिया की सैर तक ले जाएगा। बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक यात्रा है शब्दों की।
भाषाविज्ञान संबंधित आलेख के बारे में भी जल्दी कुछ किजिएगा।
sona bhi zaroori है। 3:06 AM पर ये पोस्ट पब्लिश हुई। 5:08 AM पर पहली टिप्पणी का जवाब। नाराजी का डर है सो बेनामी हूं!
सबुन साबू - साबूदाना!
पता नहीं साबूदाने से साबुन का रिश्ता न हो कुछ।
क्या यह सम्भव नहीं है कि यह कबीर के नाम पर किसी ने क्षेपक गढा हो?
arw waaah
SABUN se naha dho kar ekdam tyaar ho gaya hu SABUN par bhashan dene...
dhnyavaad behtreen jaankari ke liye..
AMITABH
सबने बहुत कुछ कह ही दिया है इस साबुन पर । सबसे जरूरी जानकरी वो आपने दी । बहुत बहुत धन्यवाद
लोग मानते हैं की साबुन का आविष्कार 4000 BC के आसपास बेबिलोनिया के शिकारियों के द्बारा किया गया होगा. जो की भोजन बनने की प्रक्रिया में बचे पदार्थ के साथ पोटाश और राख मिलकर बर्तन साफ़ करने के लिए किया करते थे . इसका कोई लिखित दस्तावेज नही है लेकिन फिर भी कहा जाता है की 2800 BC में साबुन के फार्मूला को खोज लिया था.
बहरहाल आपकी खोज शब्द की है जो स्तुत्य है.
सबुनी जैतून के छाल के अंदरूनी हिस्से का क्षार ही है
@cmpershad
साबुन शब्द पर शंका करने की कोई वजह नहीं है। उक्त दोनों ही दोहे कबीर की बहुश्रुत लोकप्रिय उक्तियां हैं। कबीर साहित्य के गंभीर अध्येता डॉ श्यामसुंदरदास और डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी इनकी प्रामाणिकता पर संदेह नहीं किया है। कबीर काग़ज़, क़लम, मसजिद जैसे तमाम शब्दों का प्रयोग करते हैं जो अरबी मूल के हैं। काग़ज़ तो चीनी मूल का शब्द है पर भारत में अरबी-फारसी के जरिये घूम कर पहुंचा है। तात्पर्य यही है कि कबीर की शब्दावली में अरबी के जो शब्द हैं वे असंदिग्ध रूप में ऐसे शब्द हैं जो तत्कालीन जनमानस में पैठ कर चुके थे। यूं भी कबीर ने साबुन शब्द का प्रयोग किसी एक स्थान पर नहीं किया है बल्कि कई दोहों-साखियों में किया है। डॉ बल्देव वंशी तो साबुन को कबीर के पसंदीदा प्रतीकों में गिनते हैं। अगर यह क्षेपक भी है तो भी साबुन शब्द का अरबी भाषा में प्रयोग बीते डेढ़ हजार साल से होना तो सिद्ध है। भारत में पुर्तगाली अरबों के बाद ही आए हैं। हमारा विषय यही कहता है कि हिन्दी को साबुन अरबी ने दिया ना कि पुर्तगाली ने।
@sanjeev.persai@gmail.com
संजीव भाई, जानकारी का शुक्रिया। आपने सही कहा। यहां साबुन का इतिहास बताना अभीष्ठ नहीं था। निश्चित ही साबुन क्षारीय पदार्थ है। इसके निर्माण में कास्टिक सोडा और वनस्पति तेल प्रमुख घटक हैं।
मुझे पसंद आया ये आलेख ।
केके
बहुत रोचक जानकारी है।
कविता बुधकर
ज्यादा साबुन मलने से,
सुन्दरता घट जाती है।
रूखा बदन बनाता है यह,
खुश्की झट से आती है।।
सफर बिना साबुन के,
मुझको रास नही आता है।
हाथ बिना साबुन के धोना,
मुझको नही सुहाता है।।
AAJ HI AAPKA BLOG PADHA BAHUT HI ACHHA LAGA . JAANKARI KE LIYE DHANYAVAAD JI :)
साबुन बनाने की रासायनिक प्रक्रिया के विषय में तो पढ़ाया गया था कभी - और अब तो साबुन शब्द की उत्पत्ति और यात्रा को भी समझा दिया आपने अपने अनूठे रुचिकर तरीके से।
बहुत ही अनूठी जानकारी मिली.
धन्यवाद.
मुझे खुशी है आज साबुन की चर्चा हो रही है -
दुनिया के सबसे महँगे साबुन मेँ Silver भी रहता है -
(Plank Co.makes " Cor Soap "- Is this bar of soap so fantastic that it’s worth $125?
ऐसा सुना है अभी तक इस्तेमाल नहीँ किया उसे :)
सादर, स स्नेह,
- लावण्या
ये ब्लॉग,जिसका नाम शब्दों का सफ़र है,इसे मैं एक अद्भुत ब्लॉग मानता हूँ.....मैंने इसे मेल से सबस्क्राईब किया हुआ है.....बेशक मैं इसपर आज तक कोई टिप्पणी नहीं दे पाया हूँ....उसका कारण महज इतना ही है कि शब्दों की खोज के पीछे उनके गहन अर्थ हैं.....उसे समझ पाना ही अत्यंत कठिन कार्य है....और अपनी मौलिकता के साथ तटस्थ रहते हुए उनका अर्थ पकड़ना और उनका मूल्याकन करना तो जैसे असंभव प्रायः......!! और इस नाते अपनी टिप्पणियों को मैं एकदम बौना समझता हूँ....सुन्दर....बहुत अच्छे....बहुत बढिया आदि भर कहना मेरी फितरत में नहीं है.....सच इस कार्य के आगे हमारा योगदान तो हिंदी जगत में बिलकुल बौना ही तो है.....इस ब्लॉग के मालिक को मेरा सैल्यूट.....इस रस का आस्वादन करते हुए मैं कभी नहीं अघाया......और ना ही कभी अघाऊंगा......भाईजी को बहुत....बहुत....बहुत आभार.....साधुवाद....प्रेम......और सलाम.......!!
साबन की चर्चा में मुझे अजित जी की बात सही लगती है. साबुन हमारे पुर्तगालियों से पहले का आया मालूम पड़ता है और संभवत बरास्ता अरबी फारसी आया है . कबीर की चर्चा तो हो ही चुकी है, गुरु ग्रन्थ में यह शब्द कम से कम पांच बार आया है. गुरु नानक (जो कबीर के थोडा बाद यानि १५ वीं सदी के आखिर में हुए ) ने दो बार यह शब्द इस्तेमाल किया है. एक बार तो उन की प्रसिद्ध रचना जपुजी के शुरू में ही है:
भरीऐ हथु पैरु तनु देह
पाणी धोतै उतरसु खेह
मूत पलीती कपड़ु होइ
दे साबूणु लईऐ ओहु धोइ
( अगर हाथ पैर और शरीर गंदे हो जाएँ तो पानी से धोने से मैल उतर जाती है, अगर कोई कपडा मलमूत्र से गन्दा हो जाये तो उसे साबन के साथ धो लेते हैं). और स्रोत ढूंढे जाएँ तो हो सकता है मालूम पड़े यह शब्द भारत में बहुत पुरातन कल से चला आ रहा है.
पुनःश्च : सबुनी जैतून के छाल के अंदरूनी हिस्से का क्षार है, शायद ?
सबुन साबू - साबूदाना!
पता नहीं साबूदाने से साबुन का रिश्ता न हो कुछ।
दोनों ही पेड़ से निस्रत हैं
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