अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च 2009
कई भाषा वैज्ञानिक और इतिहासकार ऋग्वेदकालीन आर्यों का असूरियों-फिनिशियों से भाषायी-सामाजिक संबंध जोड़ते हैं और उनकी प्रधान देवी ईश्तर का संबंध संस्कृत शब्द स्त्री की व्युत्पत्ति से जोड़ते हैं।
सं स्कृत में महिला के लिए स्त्री या त्रिया दोनो ही शब्दरूप मिलते हैं। हिन्दी में , खास तौर पर लोक शैली में महिला को तिरिया कहा जाता है। शब्द शक्ति की अगर बात करें तों इसका ध्वन्यार्थ स्त्री की तुलना में नकारात्मक भाव उजागर करता है। इसमें संस्कृत- श्लोक त्रिया चरित्रम...की बड़ी भमिका रही है क्योंकि स्त्री से बने तिरिया में नारी के क्रिया-कलापों के नकारात्मक पक्ष को समेट दिया है। तिरिया चरित्तर, तिरिया हठ जैसी उक्तियों में यह स्पष्ट है। पद्मावत में जायसी कहते है-तुम्ह तिरिया मतिहीन तुम्हारी....। तिरिया या तिरीया रूप बने हैं संस्कृत के त्रयी, त्रय या त्रि से जिनके विभिन्न अर्थों में एक अर्थ स्त्री का भी है।
स्त्री शब्द के मूल में संस्कृत की
स्त्यै धातु है। यह समूहवाची शब्द है जिसमें ढेर, संचय, घनीभूत, स्थूल आदि भाव शामिल हैं। इसके अलावा कोमल, मृदुल, स्निग्ध आदि भाव भी निहित हैं। गौर करें कि स्त्री ही है जो मानव जीवन को धारण करती है। सूक्ष्म अणुओं को अपनी कोख में धारण करती है। उनका संचय करती है। नर और नारी में केवल नारी के पास ही वह कोश रहता है जहां ईश्वरीय जीवन का सृजन होता है। उसे ही कोख कहते हैं। कोख में ही जीवन के कारक अणुओं का भंडार होता है। वहीं पर वे स्थूल रूप धारण करते हैं। गर्भ में सृष्टि-सृजन का स्निग्ध, मृदुल, कोमल स्पर्श उसे मातृत्व का सुख प्रदान करता है। स्त्यै में ड्रप् प्रत्यय लगने से बनने वाले स्त्री शब्द में यही सारे भाव साकार होते है। गौर करें कि संस्कृत में किसी भी जीव के पूरक पात्र अर्थात मादा के लिए स्त्री शब्द है क्योंकि नए जीव की सृष्टि का अनोखा गुण उसी के पास है। इसीलिए वह मातृशक्ति है, इसीलिए वह स्त्री है। कई भाषा वैज्ञानिक और इतिहासकार ऋग्वेदकालीन आर्यों का असूरियों-फीनिशियों से भाषायी-सामाजिक संबंध जोड़ते हैं और फिनिशियों की प्रधान देवी
ईश्तर का संबंध संस्कृत शब्द स्त्री के जन्म से जोड़ते हैं। डॉ भगवतशरण उपाध्याय की वृहत्तर भारत पुस्तक में सरसरी तौर पर यह उल्लेख आता है पर इसका कोई प्रमाण वहां नहीं मिलता। हालांकि ईश्तर में कई भारतीय देवियों से सादृश्यता है। देवी दुर्गा की तरह वे सिंह वाहिनी है।
ईश्तर शौर्य,युद्ध तथा काम की देवी है। लक्ष्मी की तरह उनके साथ भी उलूक नजर आते हैं।
संस्कृत की
मह् धातु से बना है स्त्री के के लिए हिन्दी का सर्वाधिक प्रचलित शब्द
महिला। यह शब्द स्त्री की महिमा दर्शाता है। इसी शब्द में उस युग की छाया नजर आती है जब पृथ्वी पर मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी।
महानता, महान, महीयसी, महा, महत्तर जैसे तमाम प्रधानता स्थापित करनेवाले भावों के समेटे हुए शब्दों का जन्म भी उसी मह् से हुआ है जिससे महिला शब्द बना है। मह् में सम्मान, आदर, महत्ता, श्रद्धा महत्वपूर्ण समझना जैसे भाव हैं। जाहिर है मह् से बने महिला शब्द में यही सारे भाव शामिल हैं। हालांकि आप्टे कोश में महिला का अर्थ स्त्री के साथ साथ
विलासिनी, मदमत्त स्त्री भी दिया हुआ है। गौरतलब है कि
मातृसत्तात्मक समाज में मानव समूदायों का नेतृत्व स्त्री ही करती थी। वही किसी भी समूह की अधिष्ठात्री होती थी।
उस दौर में रिश्तों का जन्म नहीं हुआ था। अपने कुनबे को बढ़ाने के लिए समूह की प्रमुख स्त्री अपनी पसंद से पुरुषों का वरण करती थी। कालांतर में सामाजिक तौर पर ज्यादा शक्ति अर्जित कर चुके मनुष्य की स्मृति में
मातृसत्तात्मक नारी का वही रूप किरकिरी की तरह चुभता रहा होगा। लगता है हमारे मनीषियों ने विलासिनी या मदमत्त जैसे भाव इसीलिए मह् धातु से महत्वपूर्ण होने का आभास करानेवाले महिला शब्द के साथ तभी जोड़े होंगे।
महिला शब्द पुरुष की घबराहट का प्रतीक लगता है। अपनी पत्रकारिता के शुरूआती दौर में करीब तेईस साल पहले एक मठाधीशनुमा वरिष्ठ पत्रकार जो घनघोर परम्परावादी, सनातन हिन्दू पृष्ठभूमि के अखबार से आए थे, हमें महिला शब्द का अर्थ बताया करते थे कि जो महलों में रहे उसे ही महिला कहते हैं। हम उनके पीठ पीछे मजाक उड़ाते थे कि उर्दू कोशों में महल शब्द तो मिलता है तो महिला क्यों नहीं ? खैर , भाषा पर तब भी ज्यादा बात नहीं होती थी और अब भी नहीं होती।
लोकबोली का ही एक और शब्द है
लुगाई जो हिन्दी, राजस्थानी, बृज,अवधी, भोजपुरी आदि कई बोलियों में खूब प्रचलित है। आमतौर पर इसका अभिप्राय पत्नी से है मगर मूल अर्थ में स्त्री, औरत अथवा नारी के लिए ही लुगाई शब्द का प्रयोग होता है। लुगाई शब्द लोग का स्त्रीवाची है।
लोग पुल्लिंग है।
लोग शब्द सस्कृत धातु
लोक् से जन्मा है जिसका मतलब होता है नज़र डालना, देखना अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करना । इससे बने संस्कृत के लोकः का अर्थ हुआ दुनिया , संसार। मूल धातु लोक् में समाहित अर्थों पर गौर करें तो साफ है कि नज़र डालने ,देखने अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान करने पर क्या हासिल होता है ? जाहिर है सामने दुनिया ही नज़र आती है। यही है लोक् का मूल भाव। लोक् से जुड़े भावों का अर्थविस्तार लोकः में अद्भुत रहा । पृथ्वी पर निवास करने वाले सभी प्राणियों मे सिर्फ मनुश्यों के समूह को ही लोग कहा गया जिसकी व्युत्पत्ति लोकः से ही हुई है। लोकः का अर्थ मानव समूह, मनुष्य जाति, समुदाय, समूह, समिति, प्रजा, राष्ट्र के व्यक्ति आदि है
मनुष्य की मेधा ने, मनीषा ने प्रकृति में स्वयं को भी रखा और
लोक का एक अर्थ मनुष्य भी हुआ। यूं लोग शब्द में पुरुष-स्त्री का फर्क नहीं है। राष्ट्रभाषा हिन्दी भी इसका फर्क नहीं करती मगर लोकभाषाएं अपनी गहन
गर्भ में सृष्टि-सृजन का स्निग्ध, मृदुल, कोमल स्पर्श नारी को मातृत्व का सुख प्रदान करता है।
और सूक्ष्म अभिव्यक्ति के लिए लगातार शब्द गढ़ती रहती हैं सो लोग का भी स्त्रीवाची रूप लुगाई बनकर सामने आया। इस लुगाई का बहुवचन
लुगायां होता है। अब अब अगर स्त्री-पुरुष की सम्मिलित उपस्थिति की बात करनी हो तो औरत-मर्द की तरह से
लोग-लुगाई शब्द का इस्तेमाल होता है। लोक में जागृत-दृष्टिगत विश्व का भाव है। जो कुछ भी सनातन सृष्टि है वह लोक है। नारी शब्द से जाहिर है कि
नर का स्त्रीवाची रूप है। पर ऐसा है नहीं। नारायण शब्द में हमें नारी की व्युत्पत्ति का संकेत मिलता है। मनुस्मृति में नारायण की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा गया है-"आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः, ता यदस्यायनं पूर्व तेन नारायणः स्मृतः"। अर्थात "सृष्टिपूर्व ‘नार’ नामक जल ही ‘नर’ (स्वयंभू पुरुष) का आश्रय था। इसीलिए वह नारायण है।" वैदिक ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर थोड़े बहुत पाठान्तर के साथ यही बात कही गई है कि सृष्टि का आरम्भ जल तत्व से हुआ है उसमें ही पितृत्व व मातृत्व है। यहाँ नर को परमब्रह्म माना गया है अर्थात सृष्टि को उत्पन्न करने वाला नर(पुरुष)। 'नार' अर्थात स्वयंभु परमब्रह्म की अन्तर्निहित विराट योनि यानी मातृतत्व। नारायण (नरसूनव- नरपुत्र या नारपुत्र)। सृष्टि निर्माण जल से हुआ है यह सर्वव्यापी परिकल्पना वैश्विक है।
नारी की व्युत्पत्ति का एक अन्य आधार भी है। संस्कृत की एक धातु है
नृ जिसका अर्थ होता है मानव, मनुष्य, मनुष्यजाति। इसमें स्त्री-पुरुष का भेद नहीं है। नृ से ही पुरुषवाची नर शब्द बना है और स्त्रीवाची नारी भी।
नृ में ही सिंह, पालः या पतिः जैसे शब्दों की संधि से
नृसिंह, नृपाल, नृपति जैसे शब्द बनते हैं। नृपाल या नृपति का अर्थ प्रभु, राजा, अधिपति आदि होता है। नृसिंह, नरसिंह का ही शुद्ध रूप है जो भगवान विष्णु का एक अवतार हैं। नृपशु का अर्थ नरपशु होता है। नृपशु में जहां मनुष्य के पशुत्व का भाव है वहीं इससे बने नर पशु में पुरुष के पशुत्व का आभास होता है जबकि ऐसा नहीं है। स्त्री को भी नरपशु की उपमा दी जा सकती है। इसी तर्क प्रणाली पर
नृमेध यज्ञ के नरमेध यज्ञ को तौल कर देखें तो अर्थ यही होगा-मनुष्यों के लिए किया जाने वाला यज्ञ। कुल मिलाकर प्राचीन ज्ञान सृष्टिनिर्माण में जलतत्व का महत्व ही देखता रहा है। यही विज्ञान सम्मत भी है। अब कहीं पुरुष को महत्व मिला कहीं,स्त्री को। अम्ब का अर्थ भी जल है। अम्बा शब्द का मूलआधार संस्कृत धातु अम्ब् है। अम्बिका, अम्बालिका आदि शब्द भी इससे ही बने हैं जिनका अर्थ भी माता या देवी है। पार्वती को भी अम्बिका कहते हैं। गणेश का एक नाम आम्बिकेयः भी अम्बिकापुत्र होने के अर्थ में ही पड़ा। अम्ब् से ही बने अम्बः शब्द के मायने होते है पिता, आँख, जल आदि
-जारी
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20 कमेंट्स:
पुरुष के प्यार का प्रतीक
महिला ही लगता सटीक
जहां होगा प्यार व्यार
वहीं पर मान मनुहार
।
डर से भी लेता जन्म
प्यार ही तो है बंधु
आप जिससे डरेंगे
उससे न कभी लड़ेंगे।
समझ गए न आप
चाहे न हो होली पर
खेली जाएगी प्यार होली
सदा सर्वदा यही है रीति।
कहा भी गया है कि
भय बिनु होय न प्रीति।
महि हिला दिवस पर लुगइयो के बारे मे ज्ञान वर्धक जानकारी
Stri mein triya chupa hai aaj hi jaan paya. Ajit ji...aapka blog to ek samundar ki tarha hai jitne moti chaho nikaal lo.
Shukriya is vyakhyaa ke liye.
वाकई आपके साथ साथ यह शब्द यात्रा मनोरंजक रुप से ज्ञानवर्धन करती है. लगता है आपका ब्लाग आने वाले समय मे शब्दों की व्याख्या करता हुआ शब्द कोष बन जायेगा. बहुत लाजवाब प्रयास है आपका. बहुत धन्यवाद और शुभकामनाएं.
रामराम.
धीरू भाई.. "लुगइयो के बारे मे" नहीं "लुगाई शब्द के बारें में..."..
महिला शब्द में पुरुष की घबराहट निहित है - शायद!
पर पुरुष को तो परुष होना चाहिये! :-)
ज्ञानवर्धक सफ़र्। आपको,आपके परिवार को होली की रंग-बिरंगी बधाई,अभी से।बुरा न मानो,होली है।
अच्छी व्याख्या। धन्यवाद।
रोचक और ज्ञान वर्धक सफ़र... महिला दिवश पर सटीक पोस्ट
महत्वपूर्ण आलेख है, अगली कडी़ की प्रतीक्षा है।
लेख अच्छा लगा।
महिला शब्द मही और लास्य का समेकित रूप है।
कई लोग हस्य का पुट देने के लिए इसे ‘मही को जो हिला दे’ कह कर सन्तोष पाया करते हैं।
होली के शुभकामनाएँ।
‘होली की शुभकामनाएँ’ पढ़े, पूर्व सन्देश में। न कि ‘के’।
आदरणीय सर,
आपकी व्याख्या ने अभिभूत कर दिया
मैंने आपसे विशेष अनुरोध किया था
आपने अनुरोध स्वीकार करके प्रसन्नता और जिम्मेदारी दोनों बढा दी
आपके धन्यवाद और जिम्मेदारी निभाने का वचन
भई वाह - आपने तो बहुत समयोचित पोस्ट कर दी यह तो तथा हमारा ज्ञानवर्धन भी। अच्छा इस प्रकार से शब्दों के सफर में कई कई शब्द तो बहुत अधिक रूप बदल लेते है, हर पड़ाव के साथ।
इसी क्र्म में कुछ विनोद के साथ भी - कहीं इस्तरी शव्द का कोई सम्बन्ध तो नहीं , स्त्री के साथ ;)
ये ब्लॉग,जिसका नाम शब्दों का सफ़र है,इसे मैं एक अद्भुत ब्लॉग मानता हूँ.....मैंने इसे मेल से सबस्क्राईब किया हुआ है.....बेशक मैं इसपर आज तक कोई टिप्पणी नहीं दे पाया हूँ....उसका कारण महज इतना ही है कि शब्दों की खोज के पीछे उनके गहन अर्थ हैं.....उसे समझ पाना ही अत्यंत कठिन कार्य है....और अपनी मौलिकता के साथ तटस्थ रहते हुए उनका अर्थ पकड़ना और उनका मूल्याकन करना तो जैसे असंभव प्रायः......!! और इस नाते अपनी टिप्पणियों को मैं एकदम बौना समझता हूँ....सुन्दर....बहुत अच्छे....बहुत बढिया आदि भर कहना मेरी फितरत में नहीं है.....सच इस कार्य के आगे हमारा योगदान तो हिंदी जगत में बिलकुल बौना ही तो है.....इस ब्लॉग के मालिक को मेरा सैल्यूट.....इस रस का आस्वादन करते हुए मैं कभी नहीं अघाया......और ना ही कभी अघाऊंगा......भाईजी को बहुत....बहुत....बहुत आभार.....साधुवाद....प्रेम......और सलाम.......!!
रोचक
अद्भुद रोमांचकारी हुआ करता है आपके द्वारा प्रदत्त सुन्दर सुलभ यह शब्दों का सफ़र...
सिर्फ एक देह ही नहीं,संस्कारों की श्रृष्टि और संयोजन करने वाली स्त्री अपने कार्य व्यवहार से अपने अस्तित्व के अर्थ को सार्थक करे यही अभिलाषा है...
Ajit ji
Namaskar
mere pasandida shok me se ek hai shabdo ki gehrai me jhakna or doosri bhashaon me uske dost,beta ya ma dhoodana.aise lekh milte hi chat leti hoo.RajasthanPatrika akhbar me som or guruwar ko shabdo ka safar aata hai jisme varn or vyanjan se shabdo ki uttpatti batai jati hai.
Kiran Rajpurohit Nitila
सुन्दर यात्रा है----देशज़ भाषा में शब्द है लूगा, जिसका अर्थ--लुन्गी, घाघरा, पेटीकोट, धोती व साडी अर्थात कमर के नीचे घुटनों के नीचे तक पहनने का वस्त्र-----लुगाई =लूगा पहनने वाले व्यक्ति =स्त्रियां, क्योंकि पुरुष प्रायः घुटनों से ऊपर के वस्त्र पहनते थे....
वडनेरकर जी उत्तम व्याख्या। साधु।
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