इस बार टाटा घराने के पुरोधा जमशेतजी नसरवानजी टाटा की प्रसिद्ध जीवनी फॉर द लव ऑफ इंडिया (हिन्दी अनुवाद) की चर्चा जिसे लिखा है रुसी एम लाला ने। अनुवाद किया है कामता प्रसाद ने। पस्तक राजकमल ने प्रकाशित की है और कीमत 300 रुपए है। जमशेद जी की युवावस्था के दो चित्र जब वे यूरोप प्रवास पर थे।
भा रत के सबसे पुराने और सम्मानित औद्योगिक घरानों में टाटा का स्थान अव्वल है। टाटा उद्योग की नींव जमशेतजी नसरवानजी टाटा ने डाली थी जिनका जन्म करीब 170 साल पहले 1839 में हुआ था। जाने-माने लेखक और पत्रकार रूसी एम. लाला ने लिखी जेएन टाटा की जीवनी फॉर द लव ऑफ इंडिया का हिन्दी अनुवाद भारत से प्यार करीब तीन साल पहले आया था। पिछले साल यह पुस्तक हम तक पहुंची और इस साल पढ़ कर समाप्त किया।
जीवनियों की सबसे बड़ी खासियत होती है शोध। आर.एम. लाला का पत्रकार होना इस पुस्तक को टाटा घराने के एक महत्वपूर्ण दस्तावेज की शक्ल तो देता ही है साथ ही करीब दो सदी पुराने भारत के सामाजिक, राजनीतिक इतिहास से भी परिचित कराता है। सामान्यतः बड़े लोगों, खासतौर पर उद्योगपतियों की जीवनियां शून्य से शिखर जैसे जुमलों से शुरू होती हैं। लाला ने ऐसी किसी अत्युक्ति का प्रयोग पुस्तक में नहीं किया है। जमशेतजी टाटा ने अपने जीवन की शुरुआत शून्य से नहीं की थी। उनके पिता नसरवानजी टाटा अपने बेटे के युवा होने से पहले ही मुंबई आ गए थे। वे पारसी समुदाय के उन बिरले उद्यमियों में थे जिन्होंने अठारहवीं सदी के मध्यकाल में ही अपना व्यापार विदेशों तक पहुंचा दिया था। मूलतः वे गुजरात के नवसारी शहर के रहने वाले थे। जेएन टाटा का जन्म भी वहीं हुआ था। मुंबई आने के बाद नसरवानजी ने अफीम और कॉटन के निर्यात का काम शुरू किया जिसे वे पूर्वी देशों, खासतौर पर चीन को भेजा करते थे। आज से डेढ़ सौ साल पहले उनकी फर्म का शंघाई में दफ्तर था जिसे खोलने के लिए खुद जेएन टाटा वहां गए थे।
किताब में पारसी समुदाय की रस्मों, रिवाज़ों, उनके अतीत का रोचक बयान है। छह हजार वर्ष पुराने पारसी समुदाय के उद्गगम स्रोत की ओर
इशारा करते हुए लेखक प्राचीन अग्निपूजक आर्यों की समृद्ध परम्परा से पारसियों को जोड़ते हुए, वैदिक आर्यों से उनके रिश्तों को याद करते हैं। तीन हजार साल तक विशाल फारसी साम्राज्य पर जरथुस्त्रवादी शासकों ने सन् 651 ईस्वी तक राज किया। इस्लामी जागरण के बाद नवोदित धर्म के उत्साही, उग्र और क्रूर शासकों ने महान पारसी समाज-संस्कृति को उजाड़ने में कोई कसर न छोड़ी। तंग आकर इनके कुछ समूह चीन की तरफ गए, मगर वहां वे अपनी पहचान कायम न रख पाए। अधिकांश समूह छोटे-छोटे बेड़ों में समुद्र के रास्ते भारत के पश्चिमी तट पर उतरे। यहां ये पारसी कहलाए। सूरत और नवसारी इनके शुरुआती गढ़ बने। गायकवाड़ रियासत का नागक्षेत्र उन्हें ईरान के ‘सारी’ शहर की याद दिलाता था, सो उसे वे नवसारी कह कहते रहे, बाद में यही इसकी पहचान बन गया। गुजरात में सबसे ज्यादा पारसी आज भी नवसारी में ही रहते हैं। उसके बाद मुंबई में सर्वाधिक हैं। भारत में पारसियों ने अपनी सांस्कृतिक-जातीय पहचान कायम रखते हुए जो तरक्की की है, वह दुनियाभर में मिसाल है। पारसियों की नब्बे फीसद आबादी भारत में निवास करती है।
मुंबई में रहते हुए नसरवानजी ने अपने पुत्र को अंग्रेजी शिक्षा दिलाई जिसका व्यापारिक महत्व वे जान चुके थे। जेएन टाटा पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए जहां चार साल बिताए। दादा भाई नौरोज़ी जैसे राष्ट्रवादियों से उनकी तभी मैत्री हुई। जमशेतजी के ज़माने के बारे में लाला की लिखी ये पंक्तियां गौरतलब हैं- “तब समुद्र में जलयान तैरा करते थे और ज़मीन पर घोड़े और बैलगाड़िया आदमी और सामान को इधर से उधर ले जाया करते थे। बाद में भाप से चलनेवाले जहाज़ आए। जब वे नौ साल के थे तब दक्षिणी ध्रुव की खोज हुई। जब वे सत्रह साल के थे तब 1856 में बेस्सेमर ने इस्पात बनाने की क्रान्तिकारी प्रक्रिया खोज निकाली थी।” लंदन के लंकाशायर की एक सभा में प्रसिद्ध विचारक, साहित्यकार टामस कार्लाइल को उन्होंने यह कहते सुना, “वह राष्ट्र जिसके पास इस्पात है, समझो उसके पास सोना है।” यहीं से टिस्को की स्थापना के सपने ने जन्म लिया। पुस्तक मे टिस्को खोलने की उनकी लगन का महत्वपूर्ण बयान है।
ताज्जुब नहीं कि स्वप्नदर्शी युवा जेएन टाटा ने लंदन से लौटकर अपने सपनों को साकार करने की शुरुआत कर दी। उन्होने एक पुरानी ऑईल मिल खरीद कर उसे कपड़ा मिल में बदल दिया। यह चिंचपोकली में वहां थी जहां आज रेसकोर्स है। मिल का नाम रखा गया अलेक्जेंड्रा मिल। उसके कुछ समय बाद उन्होने नागपुर में एम्प्रेस कॉटन मिल लगाई जो अपने जमाने की मशहूर मिल थी। उसके बाद तो मिलें खरीदने, बेचने का क्रम चलता रहा। जमशेत जी में एक बड़ा गुण था जो आज के उद्यमियों में शायद दुर्लभ है। वे जबर्दस्त
एक पारिवारिक चित्र- जेएन टाटा और उनकी पत्नी हीराबाई। साथ हैं छोटा पुत्र रतन टाटा। पीछे हैं बड़े बेटे दोराबजी अपनी पत्नी मेहर के साथ। बाईं और खड़ी हैं रतन की पत्नी नवाज़ बाई
विद्याव्यसनी थे। कुछ ऐसी ही बात बिड़ला घराने के पुरोधा घनश्यामदास बिड़ला में भी थी।
भारत में नई तकनीक लाने वाले अग्रणी लोगों में वे थे। कपास की बेहतर किस्म और पैदावार के लिए वे मिस्र गए क्योंकि इजिप्शियन कॉटन दुनियाभर में मशहूर है। कॉफी और रेशम की खेती में उन्होंने दिलचस्पी ली और बेंगलूर में इसके लिए संस्थान खोले। मुंबई से उन्हें बहुत प्यार था। बहुत कम जानते हैं कि इस शहर के उपनगरीय विकास के लिए उन्होने ऐसे वक्त में परिकल्पना कर डाली जब इस बारे में अंग्रेज भी नहीं सोच रहे थे। वर्ली जैसे इलाकों को शामिल करते हुए इसमें यूरोपीय शहरों की तर्ज पर विकसित करने की बात शामिल थी, जहां अक्सर वे जाते रहे थे। आज से सौ बरस पहले वह मुंबई साकार होने लगी थी। उनका राष्ट्रप्रेम लगातार चर्चा में रहता था। उन्हें अंग्रेजों से चिढ़नेवाला समझा जाता था। अपने मित्र सर जार्ज बर्डवुड को उन्होने एक पत्र में लिखा था-अंग्रेजों की प्रत्येक चीज़ से मेरी चिढ़ का जहां तक सवाल है, यह कपोल कल्पना है….पर मैं आपको बता दूं कि क्या आप मुझसे यह घोषणा कराना चाहते हैं कि पुराने वक्त के राजाओं की तरह अंग्रेज भी कभी गलती नहीं करते?
भारत के भविष्य के लिए राजनीति और शिक्षा में भी उनकी गहन रुचि रही। बैंगलूर का इंडियन इन्स्टीट्यूट आफ साइंस उनके महान सपनों में एक रहा जिसकी स्थापना के लिए तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन से खटपट चलती रही पर आखिरकार उसे मंजूरी देनी ही पड़ी। जहां से कई प्रतिभाशाली वैज्ञानिक निकले। मुंबई का विश्वप्रसिद्ध ताजमहल होटल, जमशेदपुर का स्टील कारखाना उनके समय में ही बन चुके थे हालांकि इनकी शुरुआत और जबर्दस्त कामयाबी देखने के लिए उनकी उम्र के खाते में और वक्त नहीं बचा था। आरएएम लाला की लिखी यह किताब टाटा घराने के पुरोधा के जीवन का महत्वपूर्ण लेखा-जोखा है। महान लोग अपने समय से कितना आगे की सोचते हैं, इस दस्तावेज के जरिए उनकी मृत्यु की एक सदी बाद यह जानना बहुत दिलचस्प और आश्चर्यजनक लगता है। मौका मिले तो जरूर पढ़ें।
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24 कमेंट्स:
बहुत सुंदर पुस्तक समीक्षा. जमशेदजी टाटा के बारे में लिखी गई ये पुस्तक पढनी ही पडेगी ।
सामान्यत: अनुवाद में वह बात नहीं आ पाती जो मूल में होती है. समीक्षा में यदि आप इस दृष्टि से अपना व्यक्तिगत मत भी दे दिया करें यथा पुस्तक की रवानी ऐसी है कि लगता ही नहीं कि अनुवाद पढ़ रहे हैं या अनुवाद के कारण कहीं कहीं स्वाभाविकता नहीं है आदि, तो खरीदने के दौरान निर्णय लेने में आसानी हो कि मूल खरीदें या अनुवाद ?
धन्यवाद्
बहुत सुंदर पुस्तक समीक्षा |
एक दिलचल्प और रोचक प्रसंग से परिचित करनें के लिए शुक्रिया .
यह किताब निश्चय ही पढ़ने की कोशिश करूंगा । आभार ।
अजी अँबाणी नाम तो अब सुनने मेँ आता है -
जब हम बडे हो रहे थे
उस समय तो भारत के सबसे अमीर परिवारोँ के
२ ही नाम लिये जाते थे -
TATA और बिडला -
बस ! :-)
तस्वीर भी बढिया लगी -
पारसी कौम ने बम्बई के लिये बहुत कुछ किया है
- लावण्या
aamtaur par main kisi bhi aalekh ko ek baar hi padhta hoon lekin aaj anek baar padhaa....aapne paarsiyon ke bhaarat aane se lekar R M LALA ki kitab tak jo mahatvapoorna baaten bataayi hain, vah urja bhi deti hain aur prerna bhi.............aapki lekhni ko naman karta hoon..........
SHABDON KA SAFAR ZINDABAD !
बहुत अच्छी समीक्षा है
अजीत भाऊ बचपन से लेकर अभी तक़ मै नही जानता था कि उनका नाम जमशेदजी नौशेरवानजी नही जमशेतजी नसरवान जी टाटा है।उनके नाम का सही उच्चारण तक़ पता नही था।बहुत आभार आपका एक महान विभूती के बारे मे उनकी पुस्तक समीक्षा के जरिये बताने के लिये।
बहुत रोचक
आपकी समीक्षा पुस्तक की खूबियों में चार चांद लगानेवाली है। उपलब्ध हुई और अवसर मिला तो जरूर पढ़ेंगे।
बहुत सुन्दर. जीवनियाँ हमेशा ही रोमांचक होती हैं, और अगर वह किसी इतिहास पुरुष या स्त्री की हो तो पढने का आनंद कई गुना बढ़ जाता है. इस महत्वपूर्ण किताब की जानकारी देने के लिए आभार. कल ही खरीद कर पढता हूँ.
बेहतरीन प्रस्तुति।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
हिन्दी में ये किताब..:) बहुत अच्छी खबर.. बहुत प्रेरणादायक होगी.. जरुर पढेगें..
आपकी पुस्तक चर्चा गागर में सागर है ऐसा लगने लगता है जैसे यह पुस्तक हमने पूरी पढ़ ली .
समीक्षा पुस्तक पढ़ने को प्रेरित करती है। भारत संस्कृतियों का मिलन स्थल है। इस ने बहुत सी संस्कृतियों को सहेज कर रखा है। अब अवश्य अतिवाद इन संस्कृतियों को नष्ट कर सकता है। लेकिन वह भारत ही क्या जो अतिवाद को स्थान दे दे। अतिवाद कोई संस्कृति तो नहीं।
@गिरिजेश राव
आपका सुझाव सिर माथे। आमतौर पर हिन्दीवाला होने की वजह से अनुवाद देख कर ही पुस्तक खरीदता हूं। बुरे अनुवाद का उल्लेख करना ज्यादा ज़रूरी समझता हूं। अगर ऐसा नहीं है तो समझें सब कुछ ठीक है। मैं अनुदित पुस्तकों के अनुवाद के स्तर का रोना ज्यादा नहीं रोता। मेरे लिए भाषा, उस उस पुस्तक से परिचित होने, उसके जरिये लेखक की मनोभूमि तक पहुंचने का ज़रिया है, बस।
@अनिल पुसदकर
दोनो ही चलते हैं। उच्चारण की बात है। पुस्तक में इन शब्दों का उल्लेख जिस रूप में आया, उसी रूप में यहां लिखना उचित समझा। वैसे आप जो लिखते हैं, वही मैं भी लिखता हूं। गलत भी नहीं है।
किताब पढने का आपका सुझाव इसे अच्छी पुस्तक भी बता रहा है.
जे आर डी पारसियों की उद्यमशीलता के एक रूपक में बदल चुके है.गुजराती भाषा का व्यवहार,चित्र में पारसी महिलाओं का साडी में दिखना और सबसे बड़ी बात कि भारत आने वाले पहले जत्थे का ये कह कर राजा को मनाना कि हम तो दूध में शक्कर की तरह रच बस जायेंगे,उन्हें एक उदार और प्रेरक समाज के रूप में स्थापित करता है.
जै जै
जब कालेज में अर्थशास्त्र पढ़ते थे तब हमारे प्रोफेसर हमेशा टाटा और बिरला का ही उदाहरन देते थे आज उस बात को ३८ साल हो गये .जीवन की व्यस्तताओ में वो सब पीछे छुट गया ,किन्तु आज जब इस पुस्तक की समीक्षा जो की आपने काफी सुन्दर ढंग से लिखी है तो टाटा के बारे में जानने को उत्सुकता बढी है |अवश्य पुस्तक padhugi
dhanywad
लाला की लिखी हैगियोग्राफीज पढ़ी हैं। अच्छी लगीं। और उनने इस औद्योगिक समूह के प्रति आदर में वृद्धि ही की है।
आपकी पोस्ट वैल्युयेबल है।
वाह पाठको को तो बांध ही दिया आपके इस लेख ने सुन्दर......
मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है.......
aapka blog bhi bahut accha hai accha laga aakar.....
मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है.......
अक्षय-मन
बहुत रोचक और जानकारी से भरा हुआ। आपके ब्लॉग पढ़ना शुरू करता हूँ तो डूब जाता हूँ। आज कम से कम 15-20 ब्लॉग पढ़ डाले। दरअसल यह एक बहुत मौलिक काम है, जो लगन और श्रम की मांग करता है। हिन्दी के लिए आपका योगदान कोई भूल नहीं सकता।
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