Tuesday, October 6, 2009

कोर्ट में गुस्से का इजहार [बकलमखुद-108]

पिछली कड़ी- जेके फैक्टरी में छंटनी का मामला [बकलमखुद-107]

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 108वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

कं पनी के निर्णय को रिट याचिका में चुनौती देना संभव नहीं था। सरकार को पक्षकार होना आवश्यक था। जे.के. सिंथेटिक्स जैसे बड़े औद्योगिक संस्थान को छंटनी करने के पहले सरकार की अनुमति लेना कानूनन आवश्यक थी। यहाँ से गली निकाली गई। रिट याचिका प्रस्तुत हुई और आगे छंटनी पर रोक लग गई। पर रोक लगने के पहले कर्मचारी बेरोजगार हो चुके थे। कंपनी ने कानून को ही चुनौती देते हुए असंवेधानिक बताया। मामला पूर्णपीठ तक पहुँचा। दो जजों ने कंपनी के मत को और एक जज ने मजदूरों के पक्ष को उचित मानते हुए निर्णय दिया। मजदूरों ने इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। जहाँ से राहत मिली कि प्रबंधन हर छंटनीशुदा मजदूर को छंटनी की तारीख से प्रतिमाह एक तिहाई वेतन अदा करेगा। यह कानून की जीत थी, जिस में मजदूरों को जीने का सहारा मिला था।
तने सारे मजदूरों की छंटनी ने कोटा नगर की रौनक को छीन लिया था। मजदूरों का सारा वेतन बाजार में आता था। वह बाजार से हटा तो वहाँ सन्नाटा पसर गया। सरदार का निर्णय सही था कि उसे यूनियन पर निर्भर होने के स्थान पर वकालत में अपना स्थान बनाना चाहिए। वह मजदूरों की वकालत करना चाहता था और वह उसे मिल गई थी। प्रारंभिक मुकदमों के परिणामों ने उस की काबिलियत को सिद्ध कर दिया था। उस के पास सभी रंगों के और बिना रंगों के मजदूर आने लगे। उस ने भी अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता को मजदूरों की पैरवी करने के आड़े नहीं आने दिया और उन की निष्ठा के साथ वकालत की। उस पर ठप्पा लग गया कि वह मजदूरों का बेहतरीन और विश्वसनीय वकील है, रोजी-रोटी चलने लगी। इस बीच घऱ में दो बहनों के विवाह हुए, दादा जी और दादी ने विदा ली।
छंटनी के बाद मालिक परस्त यूनियन ने हड़ताल की घोषणा कर दी तो जवाब में मालिकों ने तालाबंदी घोषित कर दी। दोनों की मिलीभगत से कारखाने छह माह बंद रहे। छह माह बाद जिस दिन कारखाने वापस आरंभ करने थे पूरे इलाके को पुलिस छावनी में बदल दिया गया। जिसे चाहा उसे काम पर लिया, जिसे चाहा उसे न लिया। काम पर न लिए जाने वाले जिन मजदूरों ने कहा उन की छंटनी नहीं हुई है, उन्हें काम पर लिया जाए। उन्हें पुलिस पकड़ कर ले गई और शांति भंग करने की कोशिश के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। साधारणतः ऐसे लोगों को जमानत पेश करते ही छोड़ देना चाहिए। लेकिन उन से प्रमाणित हैसियत वाले व्यक्तियों की जमानत मांग कर कुछ दिन के लिए उन्हें जेल भेजने की व्यवस्था की गई ताकि मजदूरों में आतंक व्याप्त रहे। सरदार ने जेल में बंद मजदूरों की जमानत के लिए जमानतियों की हैसियत तस्दीक करवाने के लिए उन के रिश्तेदारों द्वारा नगरपरिषद और पटवारी की रिपोर्ट करवा कर लाए गए दस्तावेज तहसीलदार की अदालत में दाखिल किए तो उस के रीडर ने उन कागजों पर तस्दीक करने से मना कर दिया। पता लगा जिला कलेक्टर के निर्देश हैं कि जब तक हो सके हैसियतें तस्दीक न की जाएँ। सरदार ने नाराजगी दिखाते हुए कि जब इन दस्तावेजों की कोई कीमत नहीं तो इन का होना बेकार है, उन्हें अदालत में ही टुकड़े-टुकड़े कर जमीन पर डाल दिया। पंखे की हवा ने उन्हें अदालत कक्ष के कोने-कोने में फैला दिया और व्यवस्था को जितना बुरा भला कहना था कहते हुए अदालत से बाहर आ गया।
जेल में बंद मजदूरों के रिश्तेदार जो मुश्किल से नगरपरिषद और पटवारी के तीन दिनों तक चक्कर काट कर जो दस्तावेज लाए थे, उन्हें इस तरह चिंदी-चिंदी होते देख रुआँसे हो गए, अब उन का रिश्तेदार जाने कब जेल से बाहर आएगा? तहसीलदार अदालत में न हो कर अपने चैंबर में था। उस के कानों मे रुष्ट आख्यान के स्वर पहुँचे। चपरासी को दौड़ा कर सरदार को बुलाया। पूछा-क्या हुआ वकील साहब क्यों गुस्सा कर रहे थे? शांतिपूर्वक कहा गया कि कुछ नहीं, जो दस्तावेज राजाज्ञा के सामने न्याय को बेकार कर दें, उन का न रहना ही ठीक था उन्हें फाड़ कर आप की अदालत में छोड़ आया हूँ। तहसीलदार ने जो कभी बिना दस्तावेजों के किसी की हैसियत तस्दीक नहीं करता था बिना उन के हैसियत तस्दीक की। सरदार को पता लगा कि राजाज्ञा से डरने वाला अफसर, जनता की आवाज से अधिक डरता है। उस ने इस नुस्खे का बहुत बार उपयोग किया और यह भी अनुभव किया कि इस नुस्खे का उपयोग केवल सरकारी अफसरों पर केवल तब किया जा सकता है, जब अपना का पक्ष न्यायपूर्ण हो और अफसर गलती पर हो। स्वर ऊँचे तभी किए जा सकते हैं, जब आप खुद धब्बेदार न हों। तहसीलदार का हैसियत प्रमाणपत्र पेश कर देने पर भी मजिस्ट्रेट जमानतें लेने से हिचकिचाता रहा। उस ने जमानतें तभी तस्दीक की जब उसे जिला कलेक्टर ने हरी झंडी दे दी।
श्रम न्यायालय का काम इतना बढ़ गया था कि अक्सर सुबह ग्यारह बजे सरदार वहाँ प्रवेश करता तो शाम तीन बजे तक निकलना संभव न हो पाता। इस से दूसरे-दूसरे मुकदमों की पैरवी में बाधा आने लगी। उस ने तय किया कि कम से कम अपराधिक मुकदमें किसी और को दे दिए जाएँ। एक वकील साहब से बात कर साठ-सत्तर मुकदमे उन्हें दे दिए गए। वे सरदार के मुवक्किलों को संतुष्ट न रख सके। मुवक्किलों ने उन्हें छोड़ अपने हिसाब से वकील कर लिए। 1985 में पुरानी सूती मिल सुदर्शन टैक्सटाइल्स संकट में आ गई। मिल मालिकों ने सरकार के पास मिल बंद करने और मजदूरों की छंटनी करने की अनुमति के लिए आवेदन किया। सरकार परेशानी में पड़ गई। मिल बंद करने की अनुमति दे कर मजदूरों को कैसे नाराज करे? आखिर वे वोट भी थे। सरकार ने खुद तो मालिकों को अनुमति नहीं दी लेकिन मामला अदालत को पुनरावलोकन के लिए भेज दिया।
मामले की सुनवाई रोज होनी थी। वह नब्बे दिन तक चलती रही, अदालत ने दोनों पक्षों की गवाहियाँ लीं। निर्णय दिया कि मालिकों को मिल बंद करने की अनुमति देना उचित होगा। मिल बंद कर दी। मजदूर मुकदमा ले कर हाईकोर्ट चले गए। वहाँ कोई पन्द्रह साल बाद फैसला हुआ कि मिल को बंद करने की अनुमति देना गलत था। तब तक मिल की मशीनें और इमारत इस काबिल न रह गई कि उसे चालू किया जा सके। मिल के प्रबंधक सुप्रीमकोर्ट चले गए। मिल के मजदूर अभी भी राहत की उम्मीद लगाए, बिजली पानी की सुविधा से वंचित मिल की जर्जर क्वार्टरों में निवास करते हुए जैसे-तैसे फुटकर मजदूरी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की प्रतीक्षा में जी रहे हैं।

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11 कमेंट्स:

अजित वडनेरकर said...

कोर्ट में वकील के विरोध प्रदर्शन का यह पहला ही मामला देख-पढ़ रहा हूं। बहुत खूब। आपकी निष्टा और समर्पण प्रेरक है। आज के दौर में भी ऐसे वकील होते है?

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

इतना दर्द और गुस्सा गरीब मुबकिलो के लिए बिरले ही ले पायेंगे . जिसमे से आप एक हो .

Arvind Mishra said...

मजदूरों के लिए काम का यह जज्बा आपको हमेशा गौरव का बोध कराएगा

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

वकील साहब का संस्मरण रोचक और प्रेरक रहा।

Himanshu Pandey said...

बकलम खुद में आदरणीय द्विवेदी जी की लेखनी का सफर जारी है ।
अत्यन्त प्रेरक प्रसंग है । आभार ।

Unknown said...

अब तक का पूरा सफ़र एक साथ बैठकर पढा.
बहुत ही रोचक और प्रेरणादायी
बधाई
http://hariprasadsharma.blogspot.com/

Anonymous said...

मैं तो पंखे की हवा में उड़ते कागज के टुकड़ों की कल्पना कर ही रोमांचित हुए जा रहा हूँ।

एक और रोचक संस्मरण।

बी एस पाबला

वन्दना अवस्थी दुबे said...

पहले भी पढ चुकी हूं लेकिन आज फुर्सत से पूरे अंक पढे. शानदार संस्मरण.

kshama said...

इस बार बड़े गौर से आपका आलेख पढा....साधारण इंसान के लिए कोर्ट कचहरी में फँस जाना मतलब ज़िंदगी गुजार देने वाली बात बन जाती है...उस पे गर वकील संजीदा ना मिले तो तबाही ही तबाही...आपके ये संस्मरण एक लगातार चल रही जद्दो जेहाद से रु-b-रु कराते हैं..

Abhishek Ojha said...

तारीख पे तारीख वाली बात तो आपकी देखी हुई है. सिस्टम में रहकर देखा है आपने तो ! हम भी थोडा बहुत देख पा रहे हैं आपकी बदौलत.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

दीनेश भाई जी आप
संस्मरणों की किताब लिखें --
एक निवेदन है मेरा

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