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Wednesday, October 28, 2009
हे भीष्म पितामह, हम ब्लॉगर नहीं, पर वहां थे…
इलाहाबाद में हए ब्लागिंग सेमिनार में एक दिवसीय शिरकत के बाद हम दिल्ली चले गए थे। वहां से आज सुबह ही वापसी हुई। इस बीच नेट से दूर रहा। अब रवि जी के सौजन्य से उपलब्ध करीब ढाई दर्जन लिंक्स को बारी-बारी से देखा। ब्लागिंग नहीं करता, ब्लागर नहीं हूं पर इस विधा और इस मंच का उपयोगकर्ता होने की वजह से इस विधा को समझने का उतना ही भ्रम मुझे भी है जितना यहां मौजूद कई लोगों को है ,जिनमें हिन्दुस्तान के अलावा विदेशों में बसे ब्लागिंग के आधा दर्जन से ज्यादा भीष्म पितामह भी हैं। तमाम बातों को दिलचस्पी से पढ़ा। हिन्दी का नाम जिस भी आयोजन से जुड़ा हो, उसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप, बहस-मुबाहसा, वितंडा, मान-मनौवल, लगाई-बुझाई न हो, यह असंभव है। इस बार भी यह होना ही था। बहस के किन्हीं आयामों पर बात करना तभी संभव हो सकता है जब उद्धेश्य किसी नतीजे पर पहुंचना हो। सजा या फतवा सुनाने की हिम्मत किए बगैर बहस के नाम पर सिर्फ अतीतगान और पंडिताई हो, तब उबासी आनी स्वाभाविक है।
यह चित्र सुबह साढ़े नौ बजे का है। कार्यक्रम शुरु होने के करीब ढाई घंटे पहले। अनूप नजर आ रहे हैं और पीछे दीवार पर कुछ वायरिंग देख रहे हैं रवि जी। ब्रॉडबैंड के जरिये सबको तुरत-फुरत हाल बताने के प्रयासों में ये दोनों व्यस्त रहे। इनकी लगन को नमन् है। हम भी इनके साथ लगे थे, तमाशाई बन कर। आयोजन के आलोचक ज़रा ध्यान दें, ये दोनों आमंत्रित अतिथि थे।
जो उबासी इलाहाबाद में नहीं आई, वह इन तमाम लिंक्स को पढ़ते हुए आई। हैरत है कि एक प्रतिष्ठित संस्था द्वारा आयोजित सेमिनार, सम्मेलन, मीट से...जो चाहें कह लें, भाई लोग संतुष्ट नहीं हैं। इसे व्यक्तिगत सम्मान का मुद्दा मानते हुए ब्लागजगत की अस्मिता से बलात्कार जैसी अश्लील शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं। हिन्दी ब्लागिग के पुरोधा वे हैं। या तो इस पर वे कुछ कर सकते हैं, या माइक्रोसॉफ्ट। इनके बीच कोई और नहीं होना चाहिए। निमंत्रण न मिलने की बात कई लोगों ने कही। यह सरासर ग़लत और गलत तथ्य को सही करार देने जैसी बात है। इंडियन एकेडमी के ब्लाग पर बीते महिने के आखिरी हफ्ते में इस बारे में पोस्ट छपी थी जिसका मक़सद ही सबको न्योता देना था। हमने उसे पढ़कर ही सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी से बात की थी और जाने का मन बनाया था। पर दिल्ली का कार्यक्रम तय होने से बाद में न जाने का फैसला किया था। आयोजन के दस दिन पहले फिर मन बदला क्योंकि कई साथियों के आने की सूचना मिली, सो एक दिन का कार्यक्रम बना डाला। इससे दो महिने पहले भी इस कार्यक्रम की सूचना अनूप जी ने दी थी और आने का आग्रह किया था। तब हमने आने-जाने का आरक्षण करा लिया था। हमें नहीं पता कितने लोगों को निमंत्रण मिला, पर हमने पोस्ट पढ़कर आयोजकों से सम्पर्क किया।
हिन्दिनी पर ई-स्वामी की ताजी पोस्ट पर अनूप शुक्ल की टिप्पणी से दो सौ फीसद सहमत हैं। इस संदर्भ में जिस तरह से नामवरसिंह को बुरा-भला कहा जा रहा है वह बेशर्मी की पराकाष्ठा है। आपने क्या ऐसा कर दिया है हिन्दी के लिए जिसकी वजह से नामवरजी से ज्यादा अवदान आपका माना जाए और उनके लिए इस किस्म की अभिव्यक्ति को सही ठहराया जाए? आप साहित्य के क्षेत्र के बहुत बड़े नाम हैं? आपका कोई सफल प्रकाशन है? आप जो ब्लागिंग का तकनीकी ज्ञान देते हैं, नामवरजी ने कभी उसमें ख़लल डाला है? आप लोग जो यह माने बैठे हैं कि आपकी वजह से हिन्दी ब्लागिंग इस मुकाम तक पहुंची है, कृपया इस मुगालते में न रहें। क्या इसे ही हिन्दी सेवा मान रहे हैं ? आप खुद किसी वक्त मठाधीश थे, अब ब्लागिंग पर बढ़ती हिन्दी देख कर दूसरों को मठाधीश कह रहे हैं। हर एक को किसी मुद्दे पर अपनी राय रखने और उसे बदलने का हक है। आज नामवरजी अगर अपना मत बदल रहे हैं तो उसमें इतना बुरा क्या हो गया? ब्लाग के लिए चिट्ठा शब्द निश्चित ही वर्धा विश्वविद्यालय की देन नहीं है। नामवरजी को इसकी जानकारी नहीं रही होगी। यह कतई महत्वपूर्ण नहीं है कि चिट्ठा शब्द का ब्लाग के लिए सर्वप्रथम प्रयोग करनेवाले का नाम उन्हें पता रहे। यह कोई श्रद्धांजलि कार्यक्रम नहीं था। अभी तो इस पर ही हिन्दीवाले एकमत नहीं होंगे कि हर चीज़ के हिन्दीकरण के क्या मायने है? विदेशी प्रतिभा से कोई प्रणाली सामने आ जाए, हम बस इतना कर दें कि उसका हिन्दी नाम रख दें!!! अजीब सिफ़त है हम हिन्दुस्तानियों की!! ब्लाग को ब्लाग ही रहने दो, कोई नाम न दो साथियों.... चिट्ठा शब्द ही ब्लाग का सर्वमान्य पर्याय हो, ऐसा शिवशम्भुजी आकर कह गए थे क्या? सो नामवर जी ने कोई गुनाह नहीं किया है। इसके अलावा उन्होंने या किसी ने भी कोई आपत्तिजनक बात पूरे आयोजन में नहीं कही। हम पूरे अट्ठाइस घंटों के गवाह है।
ब्लाग नाम के चिट्ठारूप की जानकारी तो विभूतिनारायण राय को भी नहीं होगी। हमें अभी तमाम और लोगों को भी इन्हें ब्लाग की विधा से जोड़ना है। यह आयोजन इन्ही की पहल पर हुआ, यह बड़ी बात है। पर कुछ मठाधीश ऐसा नहीं होने देना चाहते। इनके पेट में दर्द होता है जब ये हिन्दी ब्लागरों की बढ़ती संख्या देखते हैं। इन्हें अपना वो छोटा सा कुनबा याद आता है जब अपनी ढपली बजा-बजा कर ये मस्त थे। इनका काम पांच सुरों से ही चल जाता था। सात सुरों की तो बात ही क्या? हिन्दी ब्लागिंग में यह लगातार हो रहा है कि जुमा जुमा पांच, छह साल पहले शुरू हुए संचार-संवाद के इस साधन को चंद तकनीकी जानकारों ने आपसी संवाद का जरिया बनाया। गपशप होने लगी। कुछ लिखते लिखते यह भ्रम भी पाल लिया कि हिन्दी की सेवा हो रही है। अन्य लोग जब इस समूह की गतिविधियों से उत्साहित हुए तब मठाधीशों के अंदाज़ में उनसे पेश आया जाता था। 2005-2006 में मुझे भी यह अनुभव हुआ। अहम्मन्यता का आलम यह था कि ब्लागिंग या अन्य समूहों से जुड़ने की इच्छा रखनेवालों को मठाधीश के अंदाज़ में ज्ञान दिया जाता था और टरकाया तक जाता था। मैं इसका भुक्तभोगी हूं। बाद में जब ब्लागर के आसान तरीके की वजह से 2007 से हिन्दी ब्लागिंग ने तेजी पकड़ी उनमें पत्रकारिता, रंगकर्म और कलाजगत से जुड़े लोग भी थे और सामाजिक कार्यकर्ता भी, तब इनकी धमक से घबराए लोगों ने खुद के लिए पितृपुरुष, भीष्म-पितामह जैसे शब्द गढ़ने शुरु कर दिए। पांच साल की परम्परा के इन भीष्म पितामहों को सोचना चाहिए कि हिन्दी गद्य की शुरुआत कब से हुई, उर्दू (या हिन्दुस्तानी ) का उसमें कितना योगदान था, लल्लूजी लाल कहां टिकते थे। उसके बाद प्रेमचंद हुए। फिर चतुरसेन शास्त्री जैसे लोग भी आए। इनमें से किसी ने भी किसी को भीष्म पितामह नहीं कहा और न ही आलोचकों ने ऐसा कुछ कहा। पर यह उदाहरण करीब डेढ़ सदी का दायरा समेट रहा है जबकि हिन्दी ब्लागिंग एक चुटकुला है। यहां पांच साल में भीष्म पितामह बन रहे हैं और उनकी भूमिका धृतराष्ट्रों जैसी है!!! अपने अलावा कुछ दिखता नहीं है। हर थोड़े समय बाद अतीतगान करते हैं। हमारे वक्त में ऐसा था, वैसा था। राष्ट्रवादी भी थे, , लड़ाके भी थे, सुधारवादी मुसलमान भी थे वगैरह वगैरह। ...ये सब क्या है भाई ? चांद पर पहले पहुंचने से क्या चांद पर हक भी अमेरिका का हो गया? वो तय करेगा कि क्या, कैसे होना चाहिए? एक आयोजन नहीं झेला जा रहा है। खींच खींच कर पोस्ट लिखने के बहाने ढूंढे जा रहे हैं। इससे पहले के जिन आयोजनों की जानकारी सार्वजनिक कर दी गई थी, उनमें स्थानीय ब्लागरों के अलावा कितने स्वनामधन्य ब्लागर चले जाते रहे हैं ? यह सर्टिफिकेट कौन देगा कि इन्द्रसभा का न्योता भी आपको मिल जाए तो उसमें आप कमी नहीं निकालिएगा?
हिन्दी ब्लागिंग के पहले दशक में ही भीष्म पितामह से लेकर भस्मासुर तक सब पैदा हो गए? सचमुच पुराण कल्पित कलियुग आया हो या नहीं, पर हिन्दी ब्लागिंग में तो यह यकीनन आ चुका है। एक अच्छे आयोजन की बेबात, घर बैठे इतनी आलोचना सचमुच हिन्दी में ही सम्भव है। हमें खुशी है कि हम एक दिन के लिए ही सही, एक बेहतरीन आयोजन के साक्षी बने। हिन्दुस्तानी एकेडमी, महात्मागांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा को इस आयोजन के लिए बधाई देते हैं। सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी और डॉ संतोष भदौरिया ने समूचे आयोजन को गरिमामय रूप देने में बहुत मेहनत की है। अनूपजी सकारात्मक सोच वाले ब्लागर साथियो से सम्पर्क करने में जुटे रहे। आयोजकों की इच्छा शक्ति का सम्मान रखते हुए, मगर इस विधा में उनकी नई अभिरुचि के मद्देनजर अनूप जी ने व्यस्तता के बावजूद समय निकाला। इलाहाबाद से दूर-पास के जो भी ब्लागर साथी आयोजन में पहुंचे, वे सिर्फ हिन्दी ब्लागिंग पर चर्चा और उससे बढ़ कर ब्लागरों के आपसी मेल-जोल के इस अवसर का लाभ लेने पहुंचे थे। आभासी रिश्तों की जब कभी यथार्थ के धरातल पर आजमाईश का मौका हो, आज के युग में उसे गंवाना नहीं चाहिए। यह अवसर तकनीक और तहजीब की परख का होता है। हम सब जो वहां थे, इसी बात के लिए थे। न हमें भ्रष्टाचार की बू आई, न कोई सड़ांध, न ही किसी वाद का वितंडा। हमें नहीं लगता कि वहां से हम कुछ खोकर लौटे हैं या ठगे गए हैं। हमारी उपलब्धि है कि हम कई दोस्तों से बतियाए। हर्षवर्धन त्रिपाठी, भूपेन, इरफान, मसिजीवी का वक्तारूप बहुत अच्छा लगा। हे मठाधीशों, पितृपुरुषों, भीष्म पितामहों, आप भी आते तो अच्छा लगता। अपना बड़प्पन दिखाते हुए। आपके दो पथभ्रष्ठ साथी यहां थे, पर उन्हें इन विशेषणों से मोह नहीं और न ही वे ऐसा कुछ होने का ढोंग करते हैं। उन्हें पता है पांच साल और पचास साल का फर्क क्या होता है। प्रेमचंद की बड़ै भैया कहानी भी उन्होंने पढ़ी है, शायद आपने नहीं।
रोषपूर्ण टिप्पणियों की प्रतीक्षा में….एक अ-ब्लागर जो1983 से पत्रकारिता कर रहा है और 1990 से कम्प्यूटर पर पत्रकार-कर्म करने का आदी रहा है, फिर भी खुद को तकनीकी निरक्षर ही मानता है। बीते कुछ वर्षों से एमएस वर्ड में लिखने की जगह ब्लागर के एडिट आप्शन में जाकर लिख रहा है। वजह जानने के लिए फोन करें, हिन्दी में समझा दूंगा। मैं भी एक साथ कनपुरिया, मालवी, महाराष्ट्रीय, भोपाली और हरियाणवी हूं साहबान। समझ रहे हैं न!!! ये अति होने के बाद की बातें हैं। देखते हैं, आप कैसी बाते करते हैं। वैसे मुझे अपने देश की संस्कृति और मिट्टी की खूब पहचान है… आप लोग कुछ विदेश में घूम-घाम कर भूल कर रहे हैं। आप मठाधीश हैं, अपन भी खांटी पत्रकार हैं। बताएँ, नामवरसिंह को क्यों इतनी गाली दी जा रही है। हमने क्या गुनाह किया वहां जाकर। आप कौन हैं साहब। बहुत छिपाया नाम, अब तो बताएं? जै जै।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 4:40 AM
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65 कमेंट्स:
अजितजी,
अच्छा लगा कि अनूपजी ने अपनी प्रतिक्रिया भी दी और आपने भी अपनी बात को सामने रखा। हम आपकी बात से शत प्रतिशत सहमत हैं। हम अंग्रेजी में कुछ Quotes देने की ढृष्टता कर रहे हैं:
1) Flying machines:- "Heavier-than-air flying machines are impossible."
Physicist, Lord Kelvin, President, Royal Society, [ENGLAND] 1885.
2) Toys:- "Airplanes are interesting toys but of no military value."
Marechal Ferdinand Foch, Professor of Strategy, Ecole Superieure de Guerre, France.
3) Inventions:- "Everything that can be invented has been invented."
Charles H. Duell, Commissioner, U.S. Office of Patents, 1899.
ये अपने समय के नामी लोग थे लेकिन सिर्फ़ एक गलत वाक्यांश बोलने के कारण इनके योगदान पर लकीर नहीं खींची जा सकती। समय बहुत बलवान होता है और स्वयं ही व्यक्ति को सोचने पर मजबूर कर देता है कि काश उस समय उसने सोचकर बोला होता।
ये फ़र्क की-बोर्ड और त्वरित प्रकाशन के हिसाब से अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।
हमारे लिये इस सम्मेलन के कई हाई पाइंट्स रहे।
१) आपका गायन, बस सरकार मुरीद हो गये।
२) बाकी लोगों के चित्र
बाकी किसी चीज से हमारे जैसे अदना से हिन्दी ब्लागर को कोई मतलब नहीं।
खरी बातें - आनन्द आ गया।
___________________
भाऊ आपो आचमन किए - पहुँचे तो थे ही(गुस्साइए नहीं उनकी शब्दावली है, मेरी नहीं)? हम सोच रहे थे कि किसी शब्द को लेकर तार दर तार जोड़ते स्वामियों की आराधना करेंगे लेकिन यह भी अच्छी रही।
@ ब्लागिंग नहीं करता, ब्लागर नहीं हूं - हमें नहीं पता था ;) अच्छा किए बता दिए। अब तो मुझे भी यकीन हो गया कि मैं भी ब्लॉगिंग नहीं करता।
______________________________
नीरज रोहिल्ला जी की टिप्पणी तो पोस्ट में जगह देने लायक है।
200% सहमत | अर्थात रोष इस से दोगुना होता तो भी सहमत होती| ऐसा रोष औचित्यपूर्ण है. बल्कि इस से अधिक खुल कर भी दर्पण दिखाए जा सकते हैं.
जिन्हें नहीं बुलाया गया वे न बुलाने के कारण अपने भीतर तो टटोलें ! और दुसरे मुद्दों पर बवाल मचाने वालों के घावो का उपचार करने की दवाओं का पर्चा लिखा जा सकता है ! हर व्यक्ति जो चुप है, इसलिए नहीं कि उसके पास कहने को कुछ नहीं या कहना नहीं आता बल्कि इसलिए ही/भी कि सडांध में नाक मुँह ढके बैठने की इच्छा है|
जितने तथाकथित प्रश्न, आरोप व उंगलियाँ उठाई गयी हैं उन सब के उत्तर यदि उन्ही की तरह दिए जाएँ तो .... |
इतना भाव उन सब को देने का मन नहीं है, कहते हैं न "नंग बड़ा भगवान से".. | सो, भग-वानों के क्या कहने!!
निर्लज्जता की इतनी सीमाएँ तोड़ डाली गयी हैं कि त्रस्त, हतप्रभ ही नहीं अपितु घृणा से उबकाई आ रही है| ओछेपन की हद्द हो गयी|
मनस्ताप को कुछ अवकाश मिला| धन्यवाद !!
अजित भाई, बाकी दीगर बातों को छोड़ बस एक बात पर, अन्यथा न लेना मगर कहना चाहूँगा अगर वहाँ ईस्वामी के यहाँ अतिश्योक्ति है तो यहाँ आपके कथन और अनूप जी के कथन में भी अतिश्योक्ति है. अगर किसी वस्तु को मैं कहूँ कि ये अजित वडनेकर की है तो उसका कुछ तो आधार होना चाहिये या मुझे पता करना चाहिये, ऐसा सार्वजनिक रुप से कहने के पहले. कुछ शोध कर लूँ, तब कहूँ या कुछ न कहूँ कि किसकी है. मौन धर लूँ. अगर कहा है तो आधार की मांग स्वभाविक है, कम से कम उनसे जो इस विध से जुड़े हैं.
चिटठा शब्द वर्धा विश्वविद्यालय ने दिया, कहने के पहले उन्होंने पता किया होगा, जाना होगा, तब कहा होगा, वो कच्चे खिलाड़ी नहीं है और न ही अनाड़ी हैं, यह तो आप भी मानेंगे..अनूप जी ने माना है अपनी टिप्पणी में ईस्वामी के ब्लॉग पर वर्ना नामवर सिंह ऐसा क्यूँ कहते. वो कह सकते थे, अगर तुक्का ही भिड़ाना होता कि महाकवि नीरज ने यह नाम दिया या चिट्ठाकार समीर लाला ने यह नाम दिया या आपने, आप तो फेमस भी हैं :)- तो फिर ऐसा कहने के पीछे क्या मंशा थी, यह जानने का अधिकार तो सभी लोगों को है जो इस विधा से जुड़े हैं. यह कोई ऐरे गैरे का शराब की तुनक में दिया गया स्टेट मेन्ट तो है नहीं या रिक्शा चलाते अमीरी के खिलाफ रिक्शा चालक की भड़ास तो नहीं बल्कि नामचीन माननीय साहित्यकार कम नामी आलोचक नामवर सिंह जी का व्यक्तव्य है जो कल को इतिहास बनेगा, बल्कि बन ही चुका है और सत्य माना जायेगा उनके नाम के चलते. फिर हम आप लाख चिल्लाते चीखते रहें, कौन सुनेगा.
मैं नामवर जी की प्रतिभा से प्रभावित हो कर ही यह बात कह रहा हूँ. यह स्टेटमेन्ट मैने दिया होता तो उसका भला क्या वजन और अऔचित्य होता, तब आपका कथन महज यह कह देना कि उन्हें ज्ञात न रहा होगा काफी हद तक जायज रहा होता. बाकी तो आप जैसा उचित जान रहे हैं, आप कह रहे हैं, आपका अधिकार क्षेत्र है और उन्होंने यानि ईस्वामी ने कहा वो उनका अधिकार क्षेत्र (मगर उनका तेवर गलत न था इस मामले में, मेरे अनुसार). कहने को बहुत कुछ है मगर इतना हिस्सा ज्यदा महत्वपूर्ण है तो कह दिया. विवाद मंशा नहीं मगर कहे बिना जाना भी उचित नहीं. बस, दर्ज कर के सहेज लिजियेगा. आपकी क्षमताओं को कोई चैलेंज नहीं है, उनका तो मैं हमेशा अभिनन्दन करता हूँ और यह बात आप भी जानते हैं.
न तो ई-स्वामी से 100% सहमत हुआ जा सकता है, न ही आपसे 200% असहमत हुआ जा सकता है.
आप किसी भी एक पक्ष को सिरे से खारिज नहीं कर सकते.
हर नया-पुराना, प्रसिद्द-नवोदित ब्लौगर चाहता था कि ऐसे कार्यक्रम में भाग ले सके. किसी भी बहुचर्चित मंच पर मैंने ऐसी कोई भी घोषणा नहीं देखी. और तो और, किसी भी अनुभवी-प्रसिद्द (बड़े) ब्लौगर ने इस सम्बन्ध में कोई पोस्ट नहीं लिखी जिसमें सभी को समय रहते सूचित कर दिया गया हो कि इच्छुक अपने खर्चे पर चाहें तो शामिल हो सकते हैं. ऐसे आयोजन के बारे में तो चिल्ला-चिल्लाकर महीने भर पहले से ही बताया जाना ज़रूरी था.
मुझे मलाल है कि मैं वहां नहीं था. यदि होता तो शायद इतना नहीं अखरता मुझे.
मैं भी कहाँ का ब्लौगर हूँ? दूसरों के चंद किस्से-कहानियां चेंप देने से कोई ब्लौगर बन जाता है क्या? दिन रात चुटकुले-पहेलियाँ बुझाकर हजारों टिप्पणियां पानेवाले भी तो ब्लौगर नहीं कहलाये जा सकते, लेकिन ब्लॉगिंग जगत में होनेवाली हर छोटी-बड़ी घटना से इत्तेफाक रखते हैं और सबसे इस तरह हिलमिल के रहते हैं, ये बात किसी और ब्लौगजगत में नहीं मिलेगी.
कितना अच्छा है जो यहाँ सब बेलाग होकर अपने-अपने मत और दृष्टिकोण को सामने रख रहे हैं. यह नहीं हो तो ब्लौगजगत में नीरवता छ जायेगी. इतनी प्रति-पोस्टों के आने के बाद ही सभी खुलके पोस्ट लिख रहे हैं और बेहतरीन फोटो आदि भी दिखा रहे हैं.
काश हम भी इन फोटो में होते. सात दिन पहले भी यदि पता चल गया होता तो आ जाते. लेकिन रोज़ रात को नेट पर चार घंटे चरने पर भी संगोष्ठी रुपी घास हमारे मुंह न लगी.
बारीक फॉण्ट को सही करने की प्रक्रिया में कुछ गड़बड़ हो गई लगता है, पोस्ट का लगभग आधा भाग बिखर कर साइड में चला गया है,जिसके कारण न तो वह भाग और न ही टिप्पणियाँ पढ़ी जा सक रही हैं.
कृपया देख लें .
खुब कहा आपने , मै इलाहाबाद न जा सका इसका अफसोस है ।
पोस्ट में दाईँ ओर लम्बी पूंछ बन गयी है! सिमट ही नहीं रही!
बैड!
आदरणीय बन्धु ,
आपने बहुत अच्छा किया जो इस मीटिंग मे चले गए ,मुझे भी पता होता तो मै जरूर आता इलाहाबाद तो पास ही है ,आनंद ही होता सभी लिक्खाडों से मिलकर ठहाके लगाने का /
आपने ठीक कहा व्यवहार के धरातल पर उतरना ही होगा भावना को .
शेष कुशल /सादर,
भूपेन्द्र
दद्दा रे, आपको भी गुस्सा आता है (वो भी इतना!)
आदरणीय अजित भैया....
सादर नमस्कार...
आपकी यह चर्चा बहुत अच्छी लगी..... और फोटोस बहुत अच्छे आये हैं.....
सादर,
आपका छोटा भाई
महफूज़...
मैं ब्लॉगर हूँ और आप के साथ हूँ. . जय हो !
ब्लागिंग नहीं करता, ब्लागर नहीं हूं पर इस विधा और इस मंच का उपयोगकर्ता होने की वजह से इस विधा को समझने का उतना ही भ्रम मुझे भी है जितना यहां मौजूद कई लोगों को है ,जिनमें हिन्दुस्तान के अलावा विदेशों में बसे ब्लागिंग के आधा दर्जन से ज्यादा भीष्म पितामह भी हैं
समीर से सहमत और आप के इस कथन से भी सहमत ।
ब्लॉग पर निमन्त्रण था इससे भी सहमत , जिनको मन किया बुलाया इस से भी सहमत ,
डॉ नामवर सिंह को बुला कर क्या साबित कर रहे हैं ? ब्लॉग केवल हिन्दी साहित्य हैं ?
इतनी पोस्ट केवल इस लिये आयी हैं क्युकी सब सजग ब्लॉगर हैं और ब्लॉग माध्यम हैं अभिव्यक्ति का ताकि बात देश से दूर विदेश तक जाए ।
जितना हिन्दी अकादेमी ने ये गोष्ठी करके हिन्दी ब्लोगिंग को आगे नहीं बढाया उससे जयादा " हिन्दी ब्लॉगर " ने इस के विरोध मे अपने विचार रख कर हिन्दी को आगे बढाया हैं ।
बात वरिष्ठ कनिष्ठ हिन्दी ब्लॉग इत्यादि की नहीं हैं , बात हैं की एक माध्यम जिसका उपयोग हिन्दी मे साहित्य मे रूचि रखने वाले अपने फायदे के लिये कर रहे हैं { जी हाँ जितने यहाँ हिन्दी साहित्यकार होने का दंभ भरते हैं उनमे से कितनो को ब्लोगिंग ना करते हिन्दी साहित्यकार अपने बराबर का मानते हैं }
हिन्दी मे ब्लोगिंग करने वाला "ब्लॉगर " हिन्दी सीखने नहीं आया हैं यहाँ । वो केवल और केवल मुद्दे पर बात करने आया हैं हाँ भाषा उस ने हिन्दी चुनी हैं । आप उसको ये कह कर की उसकी हिन्दी अशुद्ध हैं , या वो हिन्दी मे सही नहीं लिखता , या वो हिन्दी साहित्य से नही जुडा हैं कह कर उस से अपने "superior " होने के दंभ से पीड़ित लगते हैं { आप से तात्पर्य पर्सनल नहीं हैं अजित जी }
जिन लोगो ने हिन्दी ब्लोगिंग को वक्त बेवक्त शर्मसार किया उनको भी निमंत्र्ण और वो भी सरकारी पैसे से इस पर कोई बात नहीं होती ।
इस गोष्ठी के विषय मे जितने भी favour mae लिख रहे हैं वो सब केवल और केवल एक ही बात उठा रहे हैं " हिन्दी आगे गयी या नहीं "" मुद्दा ये क्यूँ नहीं हैं की गोष्ठी मे ब्लोगिगंग की बात होनी थी या हिन्दी की
हमे हिन्दी ना भी आती हो पर कम से कम हम इस ब्लोगिंग के माध्यम से देश विदेश तक महिला पर हो रहे अत्याचार की बात तो कर रहे हैं । रुढिवादी सोच के प्रति अपना आक्रोश तो व्यक्त कर रहे हैं हमारा मुद्दा तो साफ़ हैं ।
जो लोग केवल और केवल अपना प्रचार कर रहे हैं , सरकारी अनुदान से उनका ब्लोगिंग मे क्या मुद्दा हैं
जो लोग हिन्दी ब्लॉग मे वो छापा रहे जिसको कोई पत्रिका का संपादक पढता भी नहीं उनका मुद्दा क्या हैं
अरे कम से कम अपने मुद्दे तो जग जाहिर करे इमानदारी से हिन्दी की ओट मे कया मुद्दा था क्या केवल सरकारी पैसे से आपसी मिलना जुलना या कुछ और क्युकी
ये ब्लॉगर ना होते तो इस मीट को इतनी पब्लिसिटी ना मिलती नेट पर
मुझे पोस्ट सही दिखाई दी है।
आप की बात से सहमत हूँ। एक तो यह आयोजन ब्लागरों का नहीं था। दूसरे इसे ब्लागर सम्मेलन कहा जाना ही उचित नहीं है जो कहा जा रहा है। यह एक राष्ट्रीय संगोष्टी थी। जिस की अपनी सीमाएँ थीं। इसे ब्लागरों ने सम्मेलन समझ कर जो लानत मलामत की है वह बे वजह है। किसी तथ्य की गलती के लिए किसी की इतनी आलोचना भी बे वजह है। या तो लोग नामवर जी को इतनी बड़ी चीज समझते हैं कि उन के कहने से गलत भी सही हो जाता हो। निश्चित वे बड़े आलोचक हैं लेकिन तथ्य की भूल कर सकते हैं। चिट्ठा शब्द में कोई बड़ी महानता नहीं है। यह हिन्दी ब्लागरी को दुनिया भर की ब्लागरी से अलग करता है जो हिन्दी ब्लागरी के लिए उचित भी नहीं है। आज वैश्विक संबंधों का जमाना है। ब्लाग शब्द में जो है वह चिट्ठा में है ही नहीं। खुद समीर जी किसी कनाडावासी के पूछने पर कभी ब्लागिंग को चिट्ठाकारी नहीं कहेंगे। और ब्लाग शब्द हिन्दी में आ गया है उसे शब्दकोष से बाहर निकाल फैंकना संभव नहीं है। इस जरा सी बात पर इतना बवाल ठीक नहीं था। फिर इस आयोजन की उपलब्धियाँ देखी जानी चाहिए थीं। कमियों को केवल इस लिए स्मरण किया जाना चाहिए कि आगे उन्हें दोहराया नहीं जाए लेकिन यहाँ तो हर चीज को साबुन बना दिया गया है कि कैसे किसी की धुलाई की जाए। यह प्रवृत्ति हिन्दी ब्लागिंग के लिए सही नहीं। कोई चौथी क्लास का बच्चे की इमला में वर्तनी की चार गलतियों के लिए चार कोड़े लगाने की सजा दे दी जाए तो उसे क्या कहेंगे? यही हुआ है। हमें आगे बढ़ना है तो कमियों को नजरअंदाज कर सफलाओं को चीन्हना पड़ेगा।
अजित भाई! इस आलेख के लिए धन्यवाद। आप का यह आलेख जरूरी था।
आपकी विद्वता , अध्यवसाय और सदाशयता पे जो संदेह करे समझो सूरज पे थूके !
लेकिन...लेकिन बड़े भाई , समीर लाल जी का कहा अनुभव की आंच में तपे कुंदन
की हैसियत रखता है . आज सिर्फ एक शब्द का श्रेय एक संस्था को उसी के चांसलर ने दिया
और कल को ' हिंदी चिट्ठाकारी का अभ्युदय और विकास ' विषय पर होने वाली research में तो ये भी मान लिया जावेगा
कि इसकी शुरुआत ही दरअसल इस संस्थान के अथक प्रयासों से मुमकिन हो पायी
. अब ये न कहे कोई कि तुमको मिर्ची लगी तो मैं क्या करुँ? It has been a very meticulously designed attempt to grab the credit of something which Vardha never did . It simply tried to assert its presence , but in a cunning manner .Not an iota of ill-will against any participant ,i have already said and i repeat the same.
छोड़ो भाऊ ये सब तो चलता रहता है,गवई-गांव की शादी मे रूठे बुढऊ लोगों की यादें ताज़ा हो रही है और वैसे भी सिर्फ़ मीठा-मीठा हो तो मज़ा भी नही आता इसलिये खट्टा-मीठा ठीक है।और हां आपने कहा कुछ लोगों से मिलना और बात करना एक उपलब्धि रही तो एक ब्लागर को गायक के रूप मे जो हमने देखा क्या वो कम बड़ी उपलब्धि रही।आप ब्लागर हैं और मैं भी हूं,यंहा कोई किसी को सर्टिफ़िकेट देने लायक नही है इसलिये इस मामले मे पड़े बिना एन्ज़ाय किजिये।बाकी लिखा आपने बहुत सही है।
बहुत कुछ कहा जा चुका है। बस इतना ही कहूंगा कि जरूरी पोस्ट थी ये। लेकिन, इतना गुस्सा अच्छी बात नहीं :)
अजीतजी,
हाय कसम से, बहुत अच्छा लिखा है - आखिर हमें पढने के बाद जो लिखा है, बडी मेहनत लगी होगी सच्ची! बधाई !!
ब्लाग के लिए चिट्ठा शब्द आलोक ने दिया है और ये हम मे से किसी एक-दो का सत्य नही है एक जाना माना यथार्थ है!
आप कहते हैं कि मैने नामवर को बुरा-भला कहा है, यह सही नही है मैने तो उन्हे बुरा-ही-बुरा कहा है. आपको जो नहीं दिखा वो मुझ जैसे, मुनीश जैसे लोगों को को बडे आराम से इतनी दूर से दिखा! इसीलिये तो हम गुरुदेव को भी भोले-भंडारी बोले - चल पडे भस्मासुर को वर देने! फ़िर एक दो को नही .. वो तो बीसीयों को दिखा.. मुनीश का उपर वाला कमेंट प्रिंट कर के फ़्रेम मे जडवा के रख लीजियेगा! हो सके तो नामवर को भी एक प्रति भेज दीजियेगा.
बाकि जिन्होने लोगो का हाथ पकड पकड कर की-बोर्ड पर हिन्दी टाईप करना सिखाई हो जब संख्या कुल जमा ३५ थी तब से, उन्हे क्या बढती हिन्दी देख कर बुरा लग रहा है - ये सब लिखने पर आप से कौन सहमत होगा? मै जानता हूं लोग मेरी नकल करते हैं..अब देखियेना आपने भी तो कर ही दी अतिशयोक्ति! सो नॉट्टी!
अजीतजी, एक बार मेरी किशोरावस्था मे मेरे बागी तेवर पे मुदित हो कर, मेरे जन्नतनशीं दादाजी फ़रमाए कि "बरखुरदार, खुदा जिसको पैदा करता है ना, उसके बाप को पहले पैदा कर देता है और बाप को, बाप कैसे बनते हैं ये ज्ञान नहीं बांटते फ़िर हम तो तुम्हारे दादा हैं. ये एक खुदाई रूल है.. इसलिये इस हक के ना मिलने की, और पितामहों के अस्तित्व की शिकायत कैसी? उनका तो मरने के बाद भी श्राद्ध करना होता है ..अगेन ..खुदाई रूल.. यु नो!"
दादाजी बडे कडक थे बाई गाड!
वैसे, बिल्कुल सही है, मेरे उस लेख मे जरा अतिशयोक्ति भी है और व्यंग्य भी उसके बिना बॉलीवुड की फ़िल्मे देखने वालों का ध्यान आकर्षित नही होता लेकिन मजबूरी है साहब, कभी कभी ये करना पडता है - आम तौर पे १.५-२ साल मे एक बार! वर्ना कसम टंकी की, ऐसे दौर भी देखे कि समूह अपने शैशवकाल से कभी इस नव प्राप्त किशोरावस्था तक ना पहुंचता. मेरे ब्लाग पे आगे का विमर्श भी बांच लीजियेगा - ऐतिहासिक होने वाला है वो! ग्रांटी से.
हाशिये पर रख दिये जाने का दर्द समझा करें, अजित भाई !
सो, उसे अलग ही रख दीजिये, क्यों इतना महत्व दे रहे हैं ?
मुझे तो आपके इस तेवरमय लेखन पर प्यार आ रहा है,
गुस्सा इतना हसीन है... तो प्यार कैसा होगाऽऽ :)
चलिये अपनी आदत के विरुद्ध एक्ठो स्माईली भी लगा दिया !
विषय पर मग़ज़मारी विज्ञजन करें, मैंनें तो इस लेखनशैली को अपने ’ हिय में धरि ’ लिया ।
इस पर एक स्माईली ड्यू रही ! बाँच कर आनन्दित हुये !
अजीतजी,
दोबारा टपक पडने के लिये माफ़ी.. एक और बात, जो अब आपकी समझ के भरोसे समझ मे आ जाने कि रिस्क दोबारा नहीं ले सकता इसलिये समझा देना चाहता हूं, अपने ब्लाग पर मैने बलात्कार शब्द चिट्ठा जगत कि अस्मिता लुटने जिस संदर्भ में प्रयोग किया था वो यही प्रकरण था - मैं शब्दश: कोट कर दूं -
"जनहित में की गई इसी प्रक्रिया में चिट्ठे को सबसे पहले ‘चिट्ठा’ कहने का श्रेय ले, उन्होंने हिन्दी चिट्ठाकारी का देवनागरी.नेट से बना आलोकित दुपट्टा नोच लिया .. इस कूल-एक्ट पर सभा मे सरकारी खर्च से उपस्थित सभी हिन्दी ब्लागर्स ने तालियां बजा कर उनका उत्साहवर्धन किया!"
यहां devanagarii.net वाले आलोक की बात की गई है! - आशा है अब की बार आपको (भी) "बलात्कार" शब्द के अभिप्राय के पीछे का अभिप्राय भी समझ मे आ गया होगा!
माना आप तो नये हैं लेकिन उस समय किसी पुराने ने उन्हे सही करने का काम तो किया नही अलबत्ता इस चतुराई को उनकी उम्र के चलते हुई भूल बता दिया - अब आप भी यही कहियेगा?
आखिर चिटठा शब्द में क्या है जो इतनी मगजमारी हो रही है... ब्लॉग को 'चिटठा' कहना ही बेवकूफी है... क्या चिटठा शब्द में 'ग्लोबल अपील' है ?
:) हमने अपनी पोस्ट में रवि रतलामी, मसिजीवी और वडनेरकर जी को सज्जन व्यक्ति खामखा नहीं कह दिया था… :)।
दिक्कत सिर्फ़ ये हुई कि मुद्दों पर बोलना तो बहुतेरे लोग चाहते थे, शुरु कौन करे, ये सोच रहे होंगे। मुनीश की एक माइक्रो पोस्ट के बाद हमरी ईंट सी भारी पोस्ट आ गई… सो सारी बुराई मेरे माथे पर…। अपन तो हैं ही बुराई मोल लेने वाले… कोई प्राब्लम नहीं है।
भाऊ उज्जैन आओ, दाल-बाफ़ले खायेंगे… :) इधर कोई सम्मेलन-वम्मेलन नहीं है… बड़ी शान्त जगह है…
आपकी पोस्ट पढ़कर अच्छा लगा. ख़ुशी हुई.
जीवन में मध्यमान का कुछ तो महत्व है ही. यही समझने की ज़रुरत है. अगर कभी नामवर सिंह जी ने ब्लॉग को कचरा कहा होगा तो कहा होगा. उनके कहने से ब्लॉग क्या कचरा हो गया क्या? और अगर वे आज अपनी कही बात को ही खारिज करते हैं तो इसमें गलत क्या है?
हिंदी ब्लागिंग कुल ५-६ साल पुरानी है. और ब्लॉग को कचरा उन्होंने शायद एक साल पहले कहा था. अब अगर वे एक साल के अन्दर एक विधा के बारे में अपनी कही गई बात को खारिज कर रहे हैं तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है? लोग अपने किये गए कर्मों पर कई बार चालीस-पचास साल बाद माफी मांगते हैं. यह अलग बात है कि उनके कर्म माफी मांगने लायक ही हैं, यह बात उन्हें तभी पता चल जाती है जब वे कर्म को कर रहे होते हैं. एक वर्ष के अन्दर अपनी बात को नामवर सिंह खारिज करते हैं तो मैं तो कहूँगा कि वे कम से कम इस मामले में बड़े ईमानदार हैं.
और रही बात ब्लॉग को चिट्ठा कहने की तो इसके लिए इतनी हाय-तौबा क्यों? हम सभी जानते हैं कि अलोक जी ने पहली बार ब्लॉग के लिए चिट्ठा शब्द का प्रयोग किया. नामवर सिंह अगर अपने विश्वविद्यालय के लिए इसका क्रेडिट लेना चाहते ही तो हैं. लेकर तो नहीं जा सकेंगे न. हम ब्लॉगर ऐसे ही ले जाने देंगे क्या उन्हें? कहने पर ऐसी-तैसी कर दी, ले जाने की कोशिश करेंगे तो न जाने क्या कर डालेंगे...:-)
khari-khari.
man me ek aakrosh hai jo is lekhni me jhalkaa
तथाकथित ब्लॉगर - सॉरी - चिट्ठाकार बंधु जो की-बोर्ड के सामने आँखें मूंदते हुए नोस्टॉलाजिक होते हुए ब्लॉग-ब्लॉगर-ब्लॉगेस्ट - ओह, अगेन सॉरी - चिट्ठा-चिट्ठाकार-चिट्ठाकारी खेलते हुए घर बैठे कीबोर्ड पर दे दनादन्न भिन्ना रहे हैं, उनके लिए यह आपका वाजिब, जरूरी जवाब था.
पण, भाई सा., जब दिमाग बात-बेबात भिन्नाया हुआ होता है णा, तो कौनो वाजिब बात पचती है किसी को?
आपके तेवर ने हैरान किया ....सदा शांत रहने वाला इन्सान इतनी आक्रोशित होकर पोस्ट लिखता है तो लगता है जरूर कुछ घटा है ....हमने इ स्वामी की पोस्ट पे भी अभय तिवारी जी का बात का अनुमोदन किया था ...यहां दुबारा करते है ....
.सवाल ये उठता है इतनी माथा पच्ची क्यों हो रही है ....किसी विश्विद्यालय ने अगर ब्लोगिंग के लिए कोई संगोष्टी आयोजित की तो सभी को खुश होना चाहिए ....यहाँ तो जूत पैजार हो रहा है .....किस बात का ?ब्लोगिंग हिंदी की सेवा के लिए हो रही है ....???????हमें आज पता चला .....
फलाने को क्यों बुलाया ....अरे भाई ढिमकाने को बुलाते तो फिर चार लोग खड़े हो जाते ...की दूसरे ढिमकाने को नहीं बुलाया ...अब कोई ब्लॉग कहे या चिट्ठा क्या फर्क पड़ता है ?.ब्लोग्वानी ओर चिटठा जगत पे तो सब रजिस्टर्ड है भाई.......
लबे लुआब ये है के हमने कही पढ़ा था प्रतिक्रियायों का भी अपना चरित्र होता है उनमे भी मानवीय स्वभाव के मुताबिक सारे गुण अवगुण मौजूद रहते है ...आप लम्बे समय से ब्लोगिंग में चीजो को बूझते समझते है ....इसलिए क्यों परेशां होते है ... .....
.
'चिट्ठाकारी' शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर दो मत हैं --लोकमत एवं अकादमिक मत . लोकमत के अनुसार आलोक नाम के किसी शुरूआती ब्लोग्कर्मी ने इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किया ,वहीँ विद्वज्जन मानते हैं कि खड़ी बोली हिंदी के शुभारम्भ में फोर्ट विलियम कालेज आगरा की तरह हिंदी ब्लॉग्गिंग के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले वर्धा विश्वविद्यालय की ही देन है ये शब्द! बहरहाल इन तमाम विवादों से परे ये एक निर्विवाद तथ्य है कि हिंदी ब्लॉग्गिंग की विधा को हलकट ,चोरबज़रिये और आवारा ब्लोग्बाजों के फंद से मुक्त कराकर साहित्यिक सोपान पर स्थापित कराने में इलाहाबाद सम्मलेन की श्लाघनीय भूमिका अवश्य रही . (हिन्दी चिट्ठाकारी का इतिहास २०१२ , पृष्ठ संख्या ३९ , पेंग्विन हिंदी प्रकाशन )
अजित आपसे मिलकर मन खुश हो गया था वहां। आपका काम देखकर और आगे की योजना देखकर बहुत अच्छा लगा।
आपकी पोस्ट देखकर बहुत खुशी हुई। लेकिन लोगों को जो समझना है वही समझेंगे और अपने समझे हुये के लिये तर्क भी जुटा लेंगे।
ई-स्वामी ने जो लिखा- जनहित में की गयी इसी प्रक्रिया में चिट्ठे को सबसे पहले ’चिट्ठा’कहने का श्रेय ले, उन्होंने हिंदी चिट्ठाकारी का देवनागरी.नेट से आलोकित टुपट्टा नोच लिया... इस कूल एक्ट पर सभा में सरकारी खर्चे पर उपस्थित सभी हिन्दी ब्लागर्स ने तालियां बजाकर उनका उत्साह वर्धन किया। यह स्वामीजी ने लिखा और इस भावना का समीरलाल जी ने अनुमोदन भी किया।
मुझे लगता है स्वामीजी तय ही कर चुके थे कि उनको यही लिखना था अन्यथा वे यह देख सकते थे कि नामवरजी के भाषण के साथ-साथ मैं की बोर्ड पर टाइपिंग कर रहा था और उसी समय तालियां बजाने की बजाय पोस्टिंग कर रहा था। उस पोस्ट में मैंने लिखा भी था:नामवर जी ने ब्लाग के बारे में अपनी समझ बताई। जब उन्होंने कहा कि चिट्ठाकारी शब्द वर्धा विश्वविद्यालय ने दिया तब हमें अपने भाई आलोक आदि चिट्ठाकार याद आये। तुम वहां चंड़ीगढ़ में हो भैया। और तुम्हारे मानस शब्द का अपहरण हो गया।
मंच कुशल लोग कुछ नहीं पता होने पर भी बहुत कुछ ज्ञान बांट जाते हैं।
इसके बाद आमलोगों के विचार बताते हुये संजय तिवारी ने पोस्ट लिखी- ब्लागरों के निशाने पर नामवर सिंह। हम वहां तालियां नहीं बजा रहे थे टाइपिंग कर रहे थे पोस्ट करने के लिये। बाद में भी कर रहे थे।
नामवरजी के कहे के प्रति और क्या विरोध दर्ज कराते हैं? मंच पर चढ़कर उनको धकिया देते? उनकी गरदन पकड़ लेते? क्या उनके कहे मात्र से एक शब्द का सारा इतिहास पलट जायेगा? क्या इतने असहाय हैं ब्लाग जगत के लोग कि खाली स्यापा करेंगे और कुछ नहीं कहेंगे?
इसीलिये ईस्वामी की पोस्ट के लिये मैंने लिखा था कि उसमें की गयी टिप्पणियां ओछी, अहमन्यतापूर्ण और क्रूर हैं। समीरलाल जी ने ईस्वामी के तेवरों का समर्थन किया है। उनसे अनुरोध है कि दुबारा ईस्वामी की पोस्ट देखें। दिये गये लिंक देखें। और अपनी तमाम बड़े-बुजुर्गों के प्रति लिखी गयी श्रद्धा विगलित पोस्टें/कवितायें देखें जिनपर उनको सैंकड़ों टिप्पणियां मिली हैं। क्या नामवर जैसे बुजुर्ग के लिये इस्तेमाल की गयी स्वामी की भाषा के तेवर सही हैं। क्या कवि समीरलाल और टिप्पणीकार समीरलाल अलग-अलग हैं।
नामवारजी के बारे में एक किस्सा कल पढ़ा। नामवरजी इलाहाबाद में ’नवलेखन कथा ’ से संबंधित एक गोष्ठी में गये। वहां उन्होंने कहा कि नवकथा लेखन जैसी कोई चीज नहीं होती। सारे नवलेखकों ने अपनी सारी ऊर्जा नामवर की ऐसी-तैसी करने और उनका खंडन-मंडन करने में लगा दी। नवलेखन हवा हो गया।
मेरी समझ में नामवरजी की बात को एक बड़े-बुजुर्ग की बात से ज्यादा अहमियत देना बेवकूफ़ी है। हवा में लाठी भांजने से दुश्मन नहीं मरते। खाली अपना पसीना बह सकता है।
क्या ये बात इतनी गंभीर है की इसपर इस प्रकार इतनी लम्बी चर्चा की जाये...चिठ्ठा किसने कहा...??? छोडिये भी जिसने कहा कहा...इस से किसको फर्क पड़ रहा है...अजित जी शांत हों...आप से बहुत कुछ सीखने को मिलता है...क्रोध करना कभी नहीं सिखाया आपने...तो फिर अब क्यूँ?
नीरज
चित्र बहुत अच्छे लगाये आपने...आप के माध्यम से इलाहबाद के दर्शन तो हुए ही साथ ही कुछ बहुत प्रिय ब्लोगर्स के भी दर्शन कर मन तृप्त हुआ...शुक्रिया आपका.
नीरज
"यह उदाहरण करीब डेढ़ सदी का दायरा समेट रहा है जबकि हिन्दी ब्लागिंग एक चुटकुला है। यहां पांच साल में भीष्म पितामह बन रहे हैं और उनकी भूमिका धृतराष्ट्रों जैसी है!!! अपने अलावा कुछ दिखता नहीं है। हर थोड़े समय बाद अतीतगान करते हैं। हमारे वक्त में ऐसा था, वैसा था। राष्ट्रवादी भी थे, , लड़ाके भी थे, सुधारवादी मुसलमान भी थे वगैरह वगैरह। ...ये सब क्या है भाई?"
"हिन्दी ब्लागिंग के पहले दशक में ही भीष्म पितामह से लेकर भस्मासुर तक सब पैदा हो गए?"
अजित भाई, अपने शहर में हुए ब्लॉगर सम्मेलन के बारे में मैने जितना पढ़ा उसके बाद मैं भी लिखता तो ऐसा ही कुछ लिखता। आपने मेरे मन की, और साथ ही दूसरी जरूरी बातें इतने शानदार तरीके से सुना दीं,धन्यवाद।
बाकी, आप दिल्ली आए और बिना आवाज किए निकल लिए, ये अच्छा नहीं किया। इसकी सज़ा मिलेगी, बरोबर मिलेगी !!
१-चिट्ठाकारी की दुनिया विषयक राष्ट्रे संगोष्ठी केवल चिट्ठाकारों के लिए नहीं थी .
२-नामवर ने उद्घाटन किया -यह कोई तूल देने की बात नहीं है -वैसे भी उद्घाटन सत्र अलंकारिक होता है ! औपचारिक होता है .
३-हाँ नामवर जी ने यह कैसे कह दिया की चिटठा शब्द वर्धा का दिया हुआ है -यह कोई सहज बोध था या फिर सुचिंतित रणनीति यह विचारणीय अवश्य है !
फिराक साहब का एक शेर है ---
इस खंडहर में कहीं कुछ दिए हैं tute हुए
इन्ही से काम चलाओ बरी उदास है रात|
साहब सोने का अभिनय करने वाले को जगाना
बहुत कठिन काम है | इसलिए धीरज धरें श्रीमान ...
मामला/झमेला तो कुछ साफ़ साफ़ समझ में नहीं आया...पर हाँ विवरण और चित्र देख मन खुश हो गया....
अभी तक सिर्फ सुना था कि समारोह बड़ा ही भव्य और सफल रहा था...चित्र देख उसकी पुष्टि हो गयी....आभार.
yये झगडा अपनी तो समझ से परे है एक निरर्थक प्रयास आप अपने शब्दों का सफर जारी रखिये बस शुभकामनायें
अनूप जी
मुझे लगता है कि आप मेरा नाम लेना चाहते थे तो ले लिया. जरा मेरी टिप्पणी फिर से पढ़ें:
१. अगर वहाँ ईस्वामी के यहाँ अतिश्योक्ति है तो यहाँ आपके कथन और अनूप जी के कथन में भी अतिश्योक्ति है .- यह ध्यान से देखियेगा...नामवर जी के लिए या अन्य सभी बातों के लिए, जिससे किसी का सम्मान ठेसित हो, उसके लिए. उसे ही मैने अतिश्योक्ति कहा है.
२.(मगर उनका तेवर गलत न था इस मामले में, मेरे अनुसार). -इस जगह इस मामले में अर्थात चिट्ठा शब्द का श्रेय वर्धा विश्वविद्यालय को दिये जाने के बाद भी किसी का वहाँ कुछ न कहने के मामले मे.
नामवर जी के लिए इस्तेमाल की गई भाषा के तेवर का मैने कहीं समर्थन नहीं किया-यह बहुत स्पष्ट है. और आपका ऐसे वक्त यह कहना कि क्या कवि समीरलाल और टिप्पणीकार समीरलाल अलग-अलग हैं।-आपकी किसी दमित मंशा को जरुर सामने ला रहा है कि कैसे भी हो, आज मौका निकाल ही लेता हूँ.
-अनूप जी, निवेदन है कि आगे मौके खोजियेगा. यहाँ मेरे नाम को लाने का आपका प्रयास बचकाना ही लगा शुद्ध रुप से, क्म से कम मुझे तो.
आपको मेरा नाम घसीटने के लिए योग्य मौका न देने पाने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ. आगे कोशिश करुँगा, तब आप कोशिश करियेगा.
एक बात और, इस विषय पर अब मैं कुछ भी बात बढ़ाना या कहना नहीं चाहूँगा. अनूप जी, मेरा स्पष्टीकरण पसंद आये तो अच्छा. न आये तो भी कोई बात नहीं. आपने अपने मन में जो आया, किला बनाया, कहा. मैने अपनी बात कह दी. अब नमस्ते. कृप्या मेरी ओर से इस टिप्पणी से उठे प्रश्न पर कोई जबाब नहीं आने की संभावना ही है.
समीरजी, मेरे बचकाने प्रयास के लिये माफ़ करिये। आपको कष्ट हुआ इसके लिये अफ़सोस है। इसके बाद आप कृपया अपनी ऊपर वाली टिप्पणी भी पढ़ लीजियेगा।आपने लिखा ( )
अंडरवियर को चड्डी या कच्छा कहने से उसके गुण थोड़े ही बदलने वाले है.. जो चड्डी कहे उसका भी भला जो अंडरवियर कहे उसका भी भला.. जो कच्छा कहे उसका भी भला..
फिर जब चड्डी को किसने सबसे पहले चड्डी कहा उस से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.. तो चिट्ठे को सबसे पहले चिठ्ठा किसने कहा इस पर मैं क्यों खून जलाऊ?
यु तो हमने भी ब्लोगिंग में एक पिक्चर बनायीं थी शोले.. उसके बाद किसी ब्लॉग पर लिखा गया ब्लॉग जगत की पहली शोले.. पर हमने तो बवाल नहीं बचाया.. यदि कोई क्रेडिट लेकर खुश हो जाये तो होने दो.. जो रो रहा है उसको रोने दो.. यही मूल फंडा है..
जब हमने पहली बार ब्लॉग लिखा था तो बस लिखने के लिए आये थे.. ससुर इन प्रपंचो में फँसना इस नोट ब्लोगिंग.. पर पता नहीं क्यों कुछ लोग बस लगे रहते है इसी खीचंतान में.. उनके लिए तो ये सब जीवन मरण का प्रश्न बन जाता है.. और ऐसे में फंस जाते है.. आप जैसे शांत और धीर आदमी..
कुछ लोगो को इग्नोर करना ही श्रेष्ट है.. मैं भी कईयों को करता हूँ.. बेचारे
अनूप शुक्ल said...
समीरजी, मेरे बचकाने प्रयास के लिये माफ़ करिये। आपको कष्ट हुआ इसके लिये अफ़सोस है।
इसके बाद आप कृपया अपनी ऊपर वाली टिप्पणी भी पढ़ लीजियेगा।आपने लिखा ( मगर उनका तेवर गलत न था इस मामले में, मेरे अनुसार)। लिंक वहां दिये हैं। आप फ़िर से देख लो। ईस्वामी ने जिस अंदाज में नामवरजी को उल्लेख किया है क्या वे सही तेवर हैं?
देख लीजियेगा। जबाब की कोई आकांक्षा नहीं है। लेकिन ईस्वामी की पोस्ट देखियेगा। और सोचियेगा कि अस्सी साल से ज्यादा उमर की प्रतिभा के लिये ये भाषा और तेवर सही तेवर हैं?
ईस्वामी की पोस्ट पर आप बिना नामवर सिंह के लिये प्रयोग की गयी उसकी भाषा पर एतराज किये स्वामी को कमेंट करते हैं- आशानुरुप खरा खरा सीधा संवाद बिना लाग लपेट..सलाम!!
इसके बाद टोंके जाने पर आप कहते हो कि मेरी दमित मंशा है।
आप मेरी किसी बात का जबाब मत दीजिये लेकिन अपने आपसे पूछियेगा कि क्या सच में वे तेवर उचित हैं जिनका समर्थन आपने किया?
आपको अपना नाम लेकर कहे गयी बात पर इतना क्रोध आ गया कि नमस्ते कर लिये। लेकिन देखिये तो कि आप किस भाषा के तेवर का समर्थन कर रहे हैं।
अनूप जी, आपका आदेश सर आँखों पर. आपने अफसोस जाहिर कर दिया, बस बात खत्म.
पता नहीं क्यूं पोस्ट नहीं हो रही
अजित भाई सच में पढके लगा कि जैसे यह मुझे ही लिखना चाहिये था।
आपसे सौ फ़ीसदी सहमत… इसी विषय पर बोधि भाई के ब्लाग पर विस्तृत प्रतिक्रिया दे चुका हूं।
--
अशोक कुमार पाण्डेय
समीरजी, हमारा आदेश कोई नहीं है। अनुरोध है। कृपया देखियेगा ईस्वामी की पोस्ट को और विचार कीजियेगा कि क्या वे तेवर सलाम करने वाले हैं? ये क्या सृजित कर रहे हैं हम लोग। पूरी पोस्ट देखियेगा मालिक।
यह तो हमको सोचना होगी भाईजी कि गलत बात का विरोध भले न कर सकें (कुछ मजबूरियों के चलते) लेकिन गलत बात का सलामी समर्थन करने से तो बचा ही जा सकता है। किसी को कोई गाली दे रहा है और हम उस पर लिख रहे हैं वाह बहुत खूब! क्या कहा है। तो कहीं न कहीं उसका समर्थन ही तो कर रहे हैं। हम कितने भी शातिर क्यों न हों भाई जान! लेकिन दुनिया को हमारी असलियत पता चल ही जायेगी। हमारे अंदर कुंठा होगी तो उसको हम बहुत दिन तक छिपा नहीं सकते। असलियत का सतह पर आना उसकी नियति है।
कुछ ज्यादा कह गया हूं तो एक बार फ़िर अफ़सोस व्यक्त कर रहा हूं!
इलाहाबाद सम्मेलन का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ इस पर लिखो और ढेर सारी टिप्पणियाँ प्राप्त करो .
वैसे हम कौन अपने माँ बाप का नाम रोशन करने आये है यहाँ . खुद लिखते है और अपने जैसे लिखने वालो को पढ़वा देते है .हम अपनी दुनिया में मस्त है . बाहरी दुनिया का तो शायद ही पढता होगा हमारे चिट्ठे को .
वैसे किसी से पूर्ण सहमति हो तो मतलब होता है कि कम से कम एक ही चिन्तक है .दूसरा अनुयायी ,या मूरख . फिर भी ......
दिनेश द्विवेदी जी और कुश से सहमत हूँ (लेकिन सोच समझ कर :)).
मुझे भी व्यक्तिगत रूप से भी सूचना मिली थी ,निमंत्रण भी , सिद्धार्थ जी से ,पर उसी रात न्यूयार्क की उडान थी, मुंबई से ,पूर्व निर्धारित , इसलिए मन मसोस कर रह गया ,न आ सका . तमन्ना बस ये थी कि सभी आनेवाले ब्लोगरों से मुलाकात होगी .और हिन्दी ब्लॉग (?) परिवार से मिल कर आनंद .शास्त्रीय चिंतन मनन अभिप्राय भी न था ( विभिन्न रिपोर्टिंग और टिप्पणियों पढ़ कर वह बिना आये ही हो गया ).
बहरहाल आगे बाधा बिना बढा जाये और खामियां अगर रही हों तो आगे दोहराई न जाएँ .सब मिलें ,इतना ही कम है ? (भले सरकारी खर्च या व्यक्तिगत आनंद से ही )
आगे भी मिलें . हाँ इलाहबाद इस संगम समागम के लिए सही चुनाव था .
निराला की तर्ज़ पर कहूं ?
'मैंने उसे (?) देखा इलाहबाद के पथ पर ,कूटते ब्लोगर '.
शायद आगे भी इसी तरह के सम्मलेन हों . मिलना मिलाना तो होता रहे . वैसे किसका नहीं है मठ , और कौन नहीं होना चाहता है मठाधीश ? मैं भी . दुर्भाग्य यह है कि फ़िलहाल मैं ही गुरु मैं ही चेला :):)
अजीत जी आपका लिखना दिनेश जी की तरह मुझे भी अच्छा लगा .आपके 'शब्द वेधों ' से कम नहीं था .
धन्यवाद लें .
सब पढ़ लिये..
@ कुश
यु तो हमने भी ब्लोगिंग में एक पिक्चर बनायीं थी शोले.. उसके बाद किसी ब्लॉग पर लिखा गया ब्लॉग जगत की पहली शोले.. पर हमने तो बवाल नहीं बचाया.. यदि कोई क्रेडिट लेकर खुश हो जाये तो होने दो.. जो रो रहा है उसको रोने दो.. यही मूल फंडा है..
आपके साथ तो मामला कापी राईट का बनता है. आप सबसे पहले तो ताऊ और उससे भी पहले जी.पी. सिप्पी साहब पर मुकदमा ठोक दो। और काफ़ी विद कुश की नकल के लिये कर्ण जोहर पर मुकदमा लगा दो। आखिर इन लोगों की हिम्मत कैसे हुई कि कुश के मौलिक लेखन की कापी करके शोले बना डाली और कर्ण जोहर ने काफ़ी विथ कर्ण सीरियल बना डाला।
ससुर इन प्रपंचो में फँसना इस नोट ब्लोगिंग.. इस तरह की असंसदीय भाषा लिखना बुरी बात है.. श्रीमान मौलिक साहब।
मैं ब्लाग मालिक से अनुरोध करुंगा कि इस टिप्पणी मे से ससुर शब्द हटाया जाना चाहिये।
अब ससुर, कुश के लिखे ससुर पर ससुर एकु नवा सफर शुरु हुई गवा ।
विचार किया जाय कि प्रपँच ससुर केवल कुश के कॉपीराइट ससुर काहे होय गये, जईसे एकु ब्लॉगर केर ससुर, वईसने सकल ब्लॉगरन के ससुर !
एकु नारा सुना रहा कि ’ ब्लॉगर ब्लॉगर भाई भाई, तौन रिश्ते से प्रपँच ससुर हम सबन के ससुर हुई गे !
माफ़ी दिहौ पँकज जी, जौन ससुर न होत त ब्लॉगिंग में टाइम झोंके ख़ातिर केहिकै बिटिया हमका चाय बनाय के देत ।
चाय डकार के हम ससुर का ससुरौ न कही, ई त बड़ा गड़बड़ है, फ़िलिम वालन का " हमरा ससुरा बड़ा पईसे वाला " हिट होय गवा, त ब्लॉगरन का प्रपँच ससुर इत्तौ गवा-बीता नहीं हैं कि उनकेर नामौ लीन गुनाह हुई जाय ।
काहे से कि प्रपँच अउर विवादै त हम ब्लॉगरन के ज़िन्दा कौम होय का सबूत है, बोले तो अईसने त हम बनबै लोकतँत्र का चौथा खँभा ।
विनती है कि टॉपिकश्रेष्ठ श्री प्रपँच जी का हमार ससुर पद से पदच्युत न किया जाय । बदले मॉ आपौ लेयो एक ईस्माइली :)
@पंकज बाबु
मुकदमा कब कहाँ और किस पर किया जाता है ये हमें पता है.. पूर्वाग्रहों को खूँटी पे टांग कर पढोगे तो देखोगे कि मैंने कहा है किसी ब्लॉग पर ब्लोगिंग की पहली शोले शब्द था.. ब्लॉग पर तो पहले हम ही लाये थे ना बाबु.. ??? ब्लोगिंग की मियां.. ब्लोगिंग की.. बात कर रहे है.. और वैसे भी जिन शब्दों को आपने बोल्ड करके लिखा है.. उसको पढ़कर कोई बेवकूफ ही होगा जो ये समझेगा कि मैंने किसी के ऐसा करने पर आपत्ति जताई है.. मियां मैंने आपत्ति नहीं जताई है.. वो ही तो कह रहा हूँ... आप खामख्वाह अपना रक्त चाप बढा रहे है...
बाकी जिस ससुर शब्द को आप हटाने की बात कर रहे है.. तो शायद आपके फेवरेट चचा के ब्लॉग पर नज़र डालिए.. गैरत बाकि हो तो कुछ एडिट्स वहां पर भी करवाईयेगा.. नहीं भी करवाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता.. वैसे भी मालामाल वीकली फिल्म के डायलोग तो आपको याद ही है.. एक डायलोग था उस फिल्म का "हाथी चले बाज़ार कुत्ते भोंके हज़ार.. " याद आया ?
खाम खा ही चिट्ठाकार शब्द के पेटेंट के लिए लड़ाई हो रही है...चिट्ठाकार शब्द के बारे में अजित जी अपने शब्दों के सफर में जरूर बताएंगे....वैसे राजस्थानी में चिट्ठाकार या चिटठा लेखक मुंशी,मोहर्रिर या लिपिकार को कहा जाता था जो खर्रा,खसरा,लेखा जोखा अथवा हिसाब किताब रखते थे.पर हिंदी ब्लॉग्गिंग को चिटठा और हिंदी ब्लॉगर को चिट्ठाकार कहकर शायद हिंदी लेखन का हिसाब चुकता कर फरगति रसीद लेने की इच्छा की जा रही है.मैं तो चिटठा शब्द को ब्लॉग्गिंग के लिए अनुपयुक्त मानता हूँ.ब्लॉगर को चिट्ठाकार कहा जाता है तो फिर हिसाब ही चुकता होंगे.वैसे ब्लॉग का उद्भव भी ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला-से हुआ है.ये तो कथित बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों ने इसमें आकर अतिक्रमण किया है जिसपर तत्काल बुलडोजर चलाने की आवश्यकता है.लगता है ब्लॉग जगत में अंत में दो तरह के लोगों की हुकूमत बचेगी---
१.हिसाब चुकता करने वाले
२.ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला-..करने वाले.
तो ब्लॉग जगत के आने वाले शहंशाहों के लिए सिंहासन खाली किये जाएं.
ऐ खाक नशीनों उठ बैठो
वो वक्त करीब अब आ पहुंचा
जब तख्त गिराए जाएंगें
और ताज उछाले जाएंगे
अजित जी आपको सार्थक पोस्ट लिखने के लिए धन्यवाद और आभार.
@कुश
अगर यही तुम्हारा कमेन्ट करने की शैली है तो बधाई स्वीकार करिए .....:)............
मुझे किसी के ब्लॉग पर जाने की जरूरत नहीं है .....चचा पहले तो किसी के बारे में ससुर नहीं लिखता था और अब तुम्हारे बारे में ही लिखता कभी और किसी के बारे में तो नहीं लिखा है .... और हा मुकदमा कब कहाँ और किस पर किया जाता है ये हमें पता है.
जल्दी जाकर मुकदमा दर्ज करवा दीजिये .......रक्त चाप किसका बढा है पूरा ब्लॉग जगत जानता है ..........चचा हमारे ही नहीं ....पुरे ब्लागजगत के फेवरेट है....
हम जानते थे कि अन्ततः सब हिसाब बराबर हो जाएगा। तभी तो चुपचाप केवल पढ़ रहे थे। :)
अजीत भाई आपका लिखा पसंद आया मेरा पूरा समर्थन आपको है ,दर असल इस मुद्दे को कुक लोग साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश कर रहे थे और जब मुद्दे ने दम तोड़ दिया तो चिटठा और नामवर के ककारे पर आकर अटक गए ..जवाब तो आना ही था आपने विस्तार से और धैर्य दिखाया आपका ये अंदाज़ पसंद आया ....चिट्ठा जगत जिंदाबाद
रात गई सो बात गई |मै तो हैरान हूँ इतनी चर्चा पढ़कर ,सिर्फ एक शब्द के अर्थ के लिए |
बहुत मज़ा आया पढ़ कर अजीत जी. आशा है अब तक गुस्सा खासा कम हो गया होगा.अगर समय मिले तो यहाँ भी आएँ एक पल को..
http://meenukhare.blogspot.com/2009/10/blog-post_28.html
:)जय हो
कई पोस्टों और टिप्पणियों से गुजरकर यहां तक पहुंचते-पहुंचते ऐसा लगने लगा है कि यह सारी तर्कबाजी सिर्फ़ अहमन्यता की लडाई बनकर रह गई है ।
अच्छी बातें छाँट कर लिए जा रहे हैं।
कल फिर मिलेंगे।
बी एस पाबला
संजय करीर said...
बड़े भाई,
पहले सोच रहा था कि कमेंट करूं पर लगा कि यह जरूरी नहीं है तो यहां बात करने चला आया। पोस्ट को पढ़कर अंत में बस किंकर्तव्यविमूढ़ था कि इसकी जरूरत क्यों थी... पहले कहीं पढ़ा था कि आपने दिल्ली जाने के कारण इस कार्यक्रम में नहीं जाने का निर्णय किया था फिर आप चले गए।
मेरा मानना है कि शायद दूसरे ब्लॉगरों से मिलने की उत्सुकता के अलावा इसके पीछे कोई और प्रयोजन नहीं था। लेकिन आपने इस कार्यक्रम को लेकर हो रही अर्थहीन बहसों में खुद को क्यों शामिल कर लिया। बुरा लगा यह देखकर कि जहां एक अच्छी पोस्ट होनी थी वहां यह सब है। चिकने घड़ों पर पानी डालने से क्या होगा बड़े भाई।
मुझे ईस्वामी की भाषा और नामवर के प्रति उनका अशिष्ट उद्बोधन नागवार लगा लेकिन उसने जो एक बात कही वह सोलह आने सही है कि ऐसे आयोजनों का क्या फायदा है। इनमें न कोई एजेंडा होता है न सार्थक विमर्श.. शायद इलाहाबाद में भी कुछ नहीं हुआ।
सच कहूं तो बड़े भाई मीडिया में दलितों को लेकर हुई घटिया बहस, फिर इंटरनेट पर हिंदी को लेकर सीरिज शुरू करते ही मेरी जैसी लानत सलामत हुई तो मुझे ब्लागिंग से घृणा हो गई। इसलिए चुपचाप इसे बंद ही कर दिया। अंत में यही पाया कि यह मीडिया व्यस्क होने में कई दशक लगेंगे। यहां आत्मरति, आत्म प्रलाप, परनिंदा, प्रवंचना, गर्वोक्तियों और कुठित सुरों से उपज रहा प्रदूषण बहुत ज्यादा है।
छोटे मुंह बड़ी बात क्या कहूं,आप तो सफर में लगे रहें ... आपके प्रशंसक बहुत हैं। ऐसे विवादों में आपको कूदते देख कर मुझे पता नहीं क्यों अच्छा नहीं लगता। बमुश्किल खुद को जब्त कर पाया वरना एक बार तो कुछ लिखने को उद्यत हो ही गया था। फिर लगा कि अभी पुरानी चीजों की पुनरावृत्ति होगी सो मन को समझा कर आ गया।
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बाप रे बाप इतनी लम्बी बहस .. ऐसा लग रहा है कि सब आपस में लड़ रहे हैं ..लेकिन ऐसा नहीं है । यह सब प्यार की बाते हैं । मै तो बस याद कर रहा हूँ " दुश्मनों को चिठ्ठियाँ लिखो.. दुश्मनों को चिठ्ठियाँ लिखो... दोस्त खैरख्वाह हो गये " लेकिन मुझे यह चिठ्ठी की जगह चिठ्ठा क्यो सुनाई दे रहा है? कुछ भी हो अब समझ में आया कि " अजित वडनेरकर को गुस्सा क्यों आता है ?" इन सब बातों के बाद मै क्या कहूँ बस यही कि यह गुस्सा जायज है । और मेरे लिये ज़्यादा ज्ञान बघारने की अब न जगह है न ज़रूरत सो चुपचाप अपना काम कर रहा हूँ .. जिन्हे पता नहीं है उनसे निवेदन है कृपया एक बार .सिर्फ एक बार मेरे ब्लॉग "आलोचक" पर जायें । पता है http://sharadkokaas.blogspot.com | यह ब्लॉग बनाया ही इसलिये गया है कि यहाँ आलोचना और आलोचकों पर बात हो । और यह होती ही रहेगी जब तक यह ब्लॉग है । बाकी संगोष्ठी पर बात आज नहीं तो कल थम ही जाना है । वामन निबाळकर की एक कविता " शब्दांनीच जुळतात घरे / शब्दांनीच तुटतात घरे / शब्दांनीच जुळतात माणसं ? शब्दांनीच तुटतात माणसं " अजित भाई शब्दों का सफर वाले ,ज़रा अवाम को इसका अर्थ बता देना । धन्यवाद ।
इलाहाबाद सेमिनार के संदर्भ में यह मेरी पहली पोस्ट थी। मुझे सायास इस विषय पर कुछ नहीं लिखना था, मैं कभी इस किस्म के विवादों में नहीं पड़ता, आप सब जानते हैं। इस बार अगर नहीं लिखता तो इसे समझदारी नहीं कहा जाता। कुछ लोगों के साथ लगातार अन्याय हो रहा था।
बहरहाल, शब्दों का सफर अल्पविराम के बाद फिर जारी है। हम तो यायावर है। चलते जाएंगे। आंखें जब कुछ देखेंगी, तब जुबां भी कुछ कुछ बोलेगी। मुझसे सहमति जताने के लिए आप सबका आभार। शरद भाई ने मराठी कवि वामन निबाळकर की गहन अर्थवत्ता वाली पंक्तियां " शब्दांनीच जुळतात घरे / शब्दांनीच तुटतात घरे / शब्दांनीच जुळतात माणसं ? शब्दांनीच तुटतात माणसं " उद्धरित की हैं। शब्दशः अनुवाद की जगह मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि कवि ने शब्दशक्ति को रेखांकित किया है। शब्दों के संतुलित सही इस्तेमाल में ऊर्जा और जुड़ाव का जो असीम भाव है, वही यहां बताया गया है। शब्दों के गारे से अगर स्नेह का संसार रचा जाता है तो शब्दों के हथोड़े से ही वह भरभराकर गिर भी सकता है। शब्दों के धागों से अगर इन्सान एक दूसरे से बंधते हैं तो शब्दों के जख्मों से ही कलेजा भी छलनी होता है।
यहां तो नई महाभारत छिड गई!!मसला कश्मीर-समस्या की तरह हो गया..नामवर जी जैसे वरिष्ठ आलोचक की इतनी आलोचना? यदि नामवर जी ने गलत जानकारी दी भी तो उनके भाषण के बाद संगोष्ठी में मौजूद कोई भी जानकार ब्लॉगर इसमें संशोधन कर सकता था, और सही जानकारी दे सकता था. ऐसा नहीं किया गया तो केवल इसलिये कि लोगों ने नामवर जी की वरिष्ठता का लिहाज किया होगा, या फिर इस मुद्दे को इतना महत्वपूर्ण नहीं समझा होगा, जितना कि अपने -अपने कम्प्यूटर के ज़रिये घर में बैठे-बैठे ही सबने समझा. क्या "आलोक" जिन्होंने ब्लॉग को चिट्ठा शब्द दिया, उनकी एक भी आपत्ति आई? इस मसले को लेकर कितनी एकता दिखाई दे रही है!!!बेचारे जो संगोष्ठी में भाग लेने गये थे, सब अपराधी हो गये...
कुछ भी हो, डा.नामवर सिंह जानी मानी हस्ती हैं, उम्रदराज़ हैं, हमारे वरिष्ठ हैं, उनके लिये अपशब्द इस्तेमाल नहीं किये जाने चाहिये. हर बात में विवाद की आदत कब छूटेगी हमारी? अनूप जी ने कितने साफ़ और शालीन शब्दों में इस बात को कहा था, कि आलोक के शब्द का अपहरण हो गया....तब भी आरोपों के घेरे में हैं...क्या किया जाये?
अनूप जी, अब सम्हालिए... सेमिनार तय हो गया!!
पिछली पोस्ट में मैने जिस सेमिनार के न हो पाने की बात बतायी थी उसके आयोजन की तैयारी में आदरणीय अनूप शुक्ल जी ने बहुत समय खर्च किया था। जाने कितने चिठ्ठाकारों से चर्चा में लगे रहे। इन्होंने जाने कितने आदि, अनादि, अनामय, अविचल, अविनाशी चिठ्ठाकार भाइयों, बहनों और दोस्तों को इस राष्ट्रीय सेमिनार के स्वरूप के बारे में बताया होगा। अनेक प्रतिष्ठित और ‘स्टार’ ब्लॉगर जन को न्यौता भी इन्होंने ही दिया था। मैं तो सिर्फ़ इनका पता जानता था सो सारी बातें इन्हीं को बता देता था।
जब अचानक कार्यक्रम टलने की बात प्रकट हुई तो मुझे सबसे बड़ी कठिनाई यह समाचार फुरसतिया जी को बताने में हुई। अपने से अधिक निराश मैने इन्हें पाया था। करीब दो सप्ताह का उत्साह दो मिनट में ठण्डा पड़ गया था। उधर मेरे बड़े भाई डॉ. अरविन्द मिश्र जी ने मुझे पहले ही आगाह किया था कि जब तक सब प्रकार से बात पक्की न हो जाय और बजट की व्यवस्था सुनिश्चित न हो जाय तबतक हाथ न डलियो। इसलिए जब उन्होंने स्थगन का समाचार सुना था तो थोड़े दुखी तो जरूर हुए लेकिन अपनी भविष्यवाणी के सच होने पर उनके मन में एक स्थितिप्रज्ञ का सन्तोष भाव भी जरूर था।
लेकिन अब तो कहानी बदल गयी है। अब “बीती ताहि बिसारि दे आगे की सुधि लेहु...” की पॉलिसी पर चलना है।
अब अनूप जी को अपना पहले का किया श्रम व्यर्थ नहीं लगना चाहिए। कार्यक्रम की रूपरेखा जो हमने तब तय की थी कमोबेश वही रहने वाली है। शीघ्र ही महात्मागांधी अन्तर राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के अधिकारियों के साथ इलाहाबाद में बैठकर हम कार्यक्रम को अन्तिम रूप देंगे। अतिथियों की सूची भी वहीं तय हो पाएगी, लेकिन हिन्दी ब्लॉगजगत का सच्चा प्रतिनिधित्व कराने का पूरा प्रयास होगा। आदरणीय अनूप जी, अरविन्दजी, ज्ञानदत्तजी, आदि ने सदैव मेरे प्रति जो स्नेह का भाव रखा है उसी की ऊर्जा से मैं यह आयोजन करा पाने का आत्मविश्वास सजो पा रहा हूँ।
हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा इस अवसर पर एक महत्वाकांक्षी योजना बनायी गयी है। आप सभी इसमें सक्रिय सहयोग दें। एक अनूठी कृति आकार लेने वाली है। निस्संकोच होकर अपना योगदान सुनिश्चित करें। एकेडेमी के सचिव डॉ.एस.के. पाण्डेय जी ने उस अनुपम प्रकाशन का लोकार्पण २३ अक्टूबर के उद्घाटन सत्र में कराने का निश्चय अभी कर लिया है, जबकि प्रकाश्य सामग्री का एक भी शब्द अभी तय नहीं हुआ है। लेकिन हमें पूरा विश्वास है कि एक जोरदार पुस्तक उस तिथि तक आपके सामने होगी। बस आप अपनी प्रविष्टियाँ तत्काल भेंज दीजिए। कहाँ और कैसे? यह जानने के लिए एकेडेमी के ब्लॉग पृष्ठ पर पधारें।
अस्तु, हे अनूप जी! आगे का जिम्मा आपै सम्हारौ। हम त चलै माता रानी का आशीष बटोरै... अरविन्द जी यदि चुनाव कराने में नहीं लगाये गये तो बाकी सब काम उनके लिए बहुत सरल हो जाएगा।
वैष्णो देवी धाम से लौटकर जब मैं वापस आऊंगा तो एकेडेमी के मेल-बॉक्स में सैकड़ों प्रविष्टियाँ आ चुकी होंगी। उनको छाँटने-बीनने के बाद संपादक मण्डल किताब को अन्तिम रूप देने में अधिकतम सात दिन लेगा और मुद्रक किताब बनाकर देने में सात दिन और लेगा। बस तबतक ब्लॉगिंग का महाकुम्भ भी आ ही जाएगा। किताब का लोकार्पण भी लगे हाथों हो जाएगा।
अब तो हम यह पोस्ट ठेलकर ट्रेन में बैठ जाएंगे। एक सप्ताह बाद लौटकर जुट जाएंगे इस महामेला की तैयारी में। तबतक अनूप जी अपने तरीके से तैयारी पूरी ही कर डालेंगे। बस मौजा ही मौजा... :)
लगता है उपसंहार हो गया ! बहुत राहत हुयी !
ई स्वामी जी ,छोटा हो या बडा विद्वान् का सम्मान हमारी सुनहली परम्परा है
आप के लिखे पर मैं मुग्ध होता रहा हूँ मगर आपने नामवर के लिए थोडा जरूर असंयम
दिखा दिया है और लोगों को तो जैसे ऐसे ही मौकों की तलाश रहती है !
आपके पिता/ तुल्य हैं वे -मैं भी उनसे असहमत हूँ कई मुद्दों पर ,पर जानता हूँ अभी
उनके सामने बच्चा ही हूँ !
पुनः कहूँगा की उन्होंने चिट्ठाकारी की दुनिया संगोष्ठी का उदघाटन किया केवल
किसी ब्लॉगर मीट का नहीं ! और साहित्यकार बनाम ब्लॉगर की बहस में उनका मुख्य अतिथि होना
ठीक ही था -एक बार पुनर्विचार कर लें -ऐसा भी क्या की एक बार जो कह दिए कह दिए -अगर ऐसा है तब तो
आप खुद नामवर ही हो गये ! आप ई स्वामी हैं मैं तो कदापि भी आपको एक और नामवर नहीं मानूगा .
यहाँ जवाब की दरकार नहीं है बहुत TRP मिल गयी है आपके ब्लॉग पर आना चाहूंगा !
बाप रे !
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