…चंदूभाई के आत्मीय और मर्मस्पर्शी आत्मकथ्य को हम सब आतुरता से पढ़ रहे हैं। साथियों को लगता होगा कि चंदूभाई ने अब तक कोइ प्रतिक्रिया नहीं दी है। दरअसल उन्होने एक साथ कुछ प्रतिक्रियाओं के जवाब दिए हैं जिन्हें अलग पोस्ट के रूप में ही छापा जा सकता था…
चंद्रभूषण हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार है। इलाहाबाद, पटना और आरा में काम किया। कई जनांदोलनों में शिरकत की और नक्सली कार्यकर्ता भी रहे। ब्लाग जगत में इनका ठिकाना पहलू के नाम से जाना जाता है। सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर बहुआयामी सरोकारों के साथ प्रखरता और स्पष्टता से अपनी बात कहते हैं। इन दिनों दिल्ली में नवभारत टाइम्स से जुड़े हैं। हमने करीब दो साल पहले उनसे अपनी अनकही ब्लागजगत के साथ साझा करने की बात कही थी, जिसे उन्होंने फौरन मान लिया था। तीन किस्तें आ चुकने के बाद किन्ही व्यस्तताओं के चलते वे फिर इस पर ध्यान न दे सके। हमारी भी आदत एक साथ लिखवाने की है, फिर बीच में घट-बढ़ चलती रहती है। बहरहाल बकलमखुद की 124 वी कड़ी के साथ पेश है चंदूभाई की अनकही का सातवां पड़ाव। चंदूभाई शब्दों का सफर में बकलमखुद लिखनेवाले सोलहवें हमसफर हैं। उनसे पहले यहां अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह,काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, पल्लवी त्रिवेदी और दिनेशराय द्विवेदी अब तक लिख चुके हैं।
श ब्दों का सफर पर मित्रों-परिचितों की टिप्पणियों के बीच हिस्सा न ले पाने का एक कारण तो तकनीकी है। पता नहीं क्यों इस पर सीधे मैं कोई कमेंट कर ही नहीं पा रहा हूं। दूसरे, अपने लिखे हुए पर बात करना मुझे बहुत अच्छा भी नहीं लगता। एक-दो मुद्दों पर सफाई देने का मन था, सो दे रहा हूं।
1. अफलातून
भाई, लालबहादुर जी की राजनीति पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता, क्योंकि मुझे सचमुच इस बारे में कुछ नहीं मालूम। जितनी जानकारी जन राजनीति बनाम जमीनी राजनीति वाली माले की अंदरूनी बहस की है, उससे कोई बात नहीं बनती। यूपी में माले लाइन की राजनीति खड़ी करना भारी चुनौती है और इस बारे में कोई सतही बात नहीं की जा सकती। इस धारा के सारे लोग मेरे नजदीकी हैं और वे जब भी अपनी लाइन के बारे में कुछ बताते हैं, सुनने के लिए मैं तत्पर रहता हूं। अपने जीवन और कर्म से जुड़ी जो बातें मैं बकलमखुद पर लिख रहा हूं, उनका आयाम नितांत व्यक्तिगत है। लालबहादुर जी के बारे में जो बात मैंने कही है, उसे उनकी राजनीति पर टिप्पणी की तरह न लें। न ही यह समझें कि उनके बारे में कोई बात कहते हुए उनके प्रति मेरा लगाव और सम्मान पहले से कम हो गया है। मुझे लगता है, मुझे बातें अपने तक ही सीमित रखनी चाहिए, लेकिन जब-तब इसमें दूसरे लोग भी आ ही जाएंगे। लालबहादुर के बारे में कुछ असावधानी के साथ कही गई बात का मतलब सिर्फ इतना है कि समय बीतने के साथ एक कार्यकर्ता के जीवन में अकेलेपन से भरे अंधेरे क्षण आते हैं, जिन्हें वह सिर्फ अपनी किसी पुरानी आभा के बल पर नहीं साध सकता। इसके लिए उसे खुद को बदलना होता है, लेकिन अफसोस इस बात का है कि उसकी आभा जितनी बड़ी होती है, बदलना उसके लिए उतना ही मुश्किल होता है।
2. अनुराग-स्मार्ट इंडियन
बांच रहे हैं, समझने का प्रयास भी है मगर कुछ बातें अस्पष्ट हैं, बड़े भाई की सहायता क्या ज्योतिष से समाधान ढूँढने के लिए अपेक्षित थी?-
अनुराग /जीने लगे इलाहाबाद में [बकलमखुद-121] आपकी टिप्पणी को काफी दिन हो गए, सो याद दिलाता हूं। आपने इलाहाबाद प्रकरण में भाई की सेवाओं के बारे में पूछा था। गांवों में ज्योतिषियों का पेशा शहरों जितना प्रोफेशनल और वन-डाइमेंशनल नहीं होता। वहां कोई आपसे निरंतर जारी अपने बुखार के बारे में बात करने आएगा तो उम्मीद करेगा कि उसके ग्रह-नक्षत्र देखने और हवन कराने के अलावा बुखार में तत्काल राहत के लिए कोई सस्ता इलाज भी बता दें। जिन सज्जन ने अपनी नतिनी से जुड़ी समस्या उनके सामने रखी थी, उन्हें भाई से यह उम्मीद थी कि अपने ज्योतिषीय उपकरणों से वे न सिर्फ प्रेमविवाह करने वाले लड़के का हृदय परिवर्तन करेंगे, बल्कि दिल्ली में रह चुके पढ़े-लिखे आदमी के रूप में उसके घर वालों पर यह दबाव भी बनाएंगे कि वे इस विवाह को स्वीकार कर लें। भाई अपने इस मिशन में नाकाम रहे लेकिन इस क्रम में नागरों के साथ बने संपर्क का बाई-प्रोडक्ट यह रहा कि उनके जरिए मेरे इलाहाबाद जाने का रास्ता निकल आया। इस प्रकरण से जुड़ी एक अतिरिक्त सूचना यह है कि एक बार मैंने इलाहाबाद में उस लड़की को अपनी बच्ची के साथ देखा, जो संयोगवश मेरे इलाहाबाद जाने की वजह बन गई थी। प्रयागराज रेलवे स्टेशन पर उसके परिवार का एक ढाबा था, जहां मैंने उसे कुछ काम करते देखा था। मुझे उस लिजलिजे नवीन नागर पर बहुत गुस्सा आया, जो अपनी पत्नी और बच्ची को इस हाल में छोड़कर शायद कहीं सीएमओ बनकर सद् गृहस्थ का जीवन गुजार रहा होगा। पता नहीं क्यों उस दिन नवीन के घटियापने का एक छींटा मुझे अपने ऊपर भी पड़ा नजर आया।
3. विमल वर्मा और पंकज श्रीवास्तव
चन्दू भाई, आज के दौर में इतने सारे मुद्दे हैं पर छात्रों का देश व्यापी आंदोलन क्यौं कमज़ोर पड़ता गया....शायद आप इस पर भी प्रकाश डालेंगे ।
-विमल /लापता खुद की खोज [बकलमखुद-122] चंदू भाई, अब आगे इशारों में बात न करें। क्योंकि १७१ कर्नलगंज से जो रास्ता आगे बढ़ा उस पर विस्तार से बात करने की जरूरत सैकड़ों लोग महसूस कर रहे हैं। हिंदू हास्टल पर चली लाठियों की याद एकदम ताजा है। इस लाठीचार्ज से कुछ देर पहले ही प्रदेश के मंत्री श्यामसूरत उपाध्याय की धोती उतार दी गई थी...फीसवृद्धि के खिलाफ वो उत्तर प्रदेश का शायद अंतिम बड़ा आंदोलन था। बहरहाल, इस बहाने आप हिंदी पट्टी में दिखाई पड़ रहे विशाल ठहराव की कुछ परतें खोल सकें तो बेहतर होगा।
-पंकज / लापता खुद की खोज [बकलमखुद-122] आपका प्रस्ताव बहुत अच्छा है लेकिन उस पर काम करने के लिए कोई अलग जगह ठीक रहेगी। अपने समय में हम लोग राजीव गांधी की शिक्षा नीति में जिस करियरिज्म की आंधी की आशंका जताया करते थे, उसने छात्र आंदोलन का छान-छप्पर सब उड़ा दिया है। रही-सही कसर छात्र समुदाय के टुच्चे राजनीतिक विभाजनों ने पूरी कर दी है, जिसके पार जाना हर किसी के बूते के बाहर की बात साबित हो रहा है। सिर्फ जेएनयू के कैंपस में जाने पर छात्रों की वैचारिक और सामाजिक ऊर्जा महसूस होती है। बाकी कैंपसों में यह चीज व्यक्तिगत या छोटे-छोटे दायरों में सिमट गई है। हिंदी भाषी क्षेत्र के सामाजिक-राजनीतिक बदलावों को हम लोगों ने बतौर कार्यकर्ता जिस रूप में महसूस किया है, उसकी तरफ यहां सिर्फ इशारा किया जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि अस्सी के दशक में पीएसओ में काम करते हुए हम लोगों को समाज में मौजूद मंडल, मंदिर और बीएसपी किस्म की विचारधाराओं के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। सचेत ढंग से दलित और पिछड़े तबकों के बीच से संगठन का राजनीतिक नेतृत्व विकसित करने का प्रयास जिस तरह बिहार में हुआ, उसकी शुरुआत भी इलाहाबाद में कभी ठीक से नहीं हो पाई। विचारधारा के हमारे कुछ बहुत मजबूत डंडे थे, जो इस तरह की हर मांग को अवसरवाद बना देते थे। वरना बहुत सारे सवाल तो शायद कुर्मी बिरादरी से आए अपने साथी शेर सिंह की उपाध्यक्ष पद पर उम्मीदवारी को गंभीरता से लेने पर ही हल हो गए होते। लेकिन यह नहीं हुआ और अवसरवाद के आरोपों से घिरे शेर सिंह, शिवसेवक सिंह और उनके करीब के बहुत सारे लोग गुट में तब्दील होते हुए बीएसपी के करीब पहुंच गए। इनमें शिवसेवक सिंह आज भी मेरे मित्र हैं और बीच-बीच में मिलते भी हैं। उस दौर को हम अफसोस के साथ याद करते हैं, लेकिन मुझे हर बार इससे गहरा पछतावा होता है। वह एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसके बाद कमल कृष्ण राय, लालबहादुर सिंह और शहाब यूनियन में चुने गए, लेकिन बिना इस हकीकत को समझे कि उनके पांवों के नीचे की जमीन खिसक रही है। उन्हें पता भी नहीं चला और इलाहाबाद युनिवर्सिटी की अन्य तमाम राजनीतिक धाराओं की तरह पीएसओ और फिर आइसा भी अपनी सारी वैचारिक तेजस्विता और दलित-पिछड़े छात्रों के एक हिस्से की सहानुभूति के बावजूद देखते-देखते ब्राह्मण-ठाकुर-भूमिहार छात्रों के संगठन बन कर रह गए।
4. रूपचंद्र शास्त्री मयंक
"नैनीताल जिले में खटीमा कस्बे के पास घने जंगलों में स्थित हाइडेल का एक पॉवरहाउस था। यह आज भी है, लेकिन लगभग ध्वंसावशेष की शक्ल में।....." यह क्या लिख दिया है आपने! लोहियाहेड का पावरहाउस आज उत्तराखण्ड के उन बिजलीघरों में से अग्रणी है जो सबसे कम लागत और कम मेंटीनेन्स में विद्युत उत्पादन करता है। इसके आसपास जंगल आज भी हैं, और इनमें बाघ दिखाई पड़ जाता है।-
रूपचंद शास्त्री /जीने लगे इलाहाबाद में [बकलमखुद-121] लोहियाहेड पॉवरहाउस मैं पहली बार जुलाई 1984 में गया था। यह वह समय था जब इक्जीक्युटिव इंजीनियर भी हाफ पैंट पहन कर मशीन ठीक करने पिट में उतरते थे और जले हुए डीजल से काले भूत बन कर निकलते थे। सिक्यूरिटी ऑफिसर अपनी टीम के साथ लगातार गश्त पर रहते थे और एक कील चुरा कर ले जाने की किसी की हिम्मत नहीं थी। पॉवरहाउस के ठीक बाहर जंगल इतना घना हुआ करता था कि लोहियाहेड से खटीमा जाते हुए वहां की अकेली स्टुडेंट बस के सारे शीशे बंद हुआ करते थे। आज हालत यह है कि जूनियर इंजीनियर भी साहब बन कर अपने केबिन में बैठे रहते हैं और मशीन भाग्य भरोसे चलती रहती है। मेरी अंतिम जानकारी के मुताबिक वहां तीन में दो मशीनें दो महीने से ठप पड़ी थीं। पॉवरहाउस का सामान चुराकर बेच देने की घटनाओं को रोकना तो दूर, इन्हें अब वहां कोई गंभीरता से लेता तक नजर नहीं आता। जंगल तो भाई लोग काट कर चूल्हे में झोंक चुके हैं और मजे से उसकी जमीन पर अनाज उगाते हैं। इसके बावजूद आपके मुताबिक वहां के जंगलों में बाघ नजर आता है तो यह बाघ की बदकिस्मती है।
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12 कमेंट्स:
चलिये, यह भी ठीक रहा.
टिप्पणियों के जवाब सधे हुए व सारगर्भित हैं ! एक अलग प्रविष्टि देने से यह जवाब और मूल्यवान हो गये हैं, स्थायी महत्व के !
चंदूभाई,
आपके उत्तर और समय के लिए धन्यवाद. उस लिजलिजे नवीन नागर पर गुस्सा आना स्वाभाविक है यद्यपि उस गुस्से भर से उस बच्ची और उसकी माँ का कोई भला नहीं होने वाला. उसके लिए तो बच्ची का डीएनए टेस्ट करा कर उसकी परवरिश और माँ बेटी की अब तक की कठिनाइयों का हिसाब और अनुकूल सज़ा मिले तब ही कुछ (हाँ, सिर्फ कुछ ही) लाभ है. मैं समझता हूँ कि आप जिस वातावरण और क्रान्ति की पृष्ठभूमि का वर्णन कर रहे हैं उसमें इस प्रकार के क़ानून सम्मत और उस अविवाहित माँ जैसे पीड़ितों को अनुकूल और निश्चित हल दिलाने वाले साधनों के लिए कोई जगह नहीं थी. ठीक? क्या तब से अब तक के अनुभवों से क्या आपको कभी लगा कि हिंसक क्रान्ति और कन्फ्रंटेशन का "बहुजन हिताय" विकल्प विचार-विमर्श में मिल सकता है?
इसी तरह शारदा एक्ट का उद्देश्य कितना भी भला रहा हो मगर उसकी वजह से आपके सारे परिवार का भविष्य बदल गया. क्या व्यवस्था में रहकर, ऐसे कानूनों की क्रूरता को हटाकर सिर्फ सदाशयता को रखने की दिशा में कोई काम किया जा सकता है? आपको क्या लगता है?
टिप्पणियों पर टीप अच्छी लगी...
जय हिंद...
sशस्त्री जी की टिप्पणी पर मैं भी ये कहूँगी कि जो बिजली घर चल रहे हैं सही मे राम भरोसे चल रहे हैं या तो वो पुराने बने हैं जब भ्रश्टाचार चर्म पर नहीं था उनमे उपकर्ण आदि बडिया लगे या शायद चंद उन लोगों की वजह से जो आज भी इमानदारी से काम करते हैं वर्ना आज देश के किसी भी संस्थान का हाल देख लें तो मन दुखी हो जाता है। बहुत अच्छी चल रही है ये यात्रा और टिप्पणी की वजह से स्पश्टीकरण भी। धन्यवाद
चलिए आपने कुछ बातें साफ़ कर दी.
टिप्पणीकारों को अच्छा लगेगा.
इसी तरह शारदा एक्ट का उद्देश्य कितना भी भला रहा हो मगर उसकी वजह से आपके सारे परिवार का भविष्य बदल गया.
अच्छा किया आपने.
वडनेकर जी!
1000 किमी दूर बैठकर कल्पनाओं में गोते लगाते हुए आप यह सब लिख सकते हैं!
मगर स्थानीय ग्रामीणों को शेर अपना निवाला बनाता ही जा रहा है।
नीचे दिये हुए लिंक भी देख लें।
यह मैं नही कहता, समाचार पत्र कहते हैं।
http://powerofhydro.blogspot.com/2009/12/blog-post.html
http://powerofhydro.blogspot.com/2009/11/blog-post_23.html
वडनेकर जी!
1000 किमी दूर बैठकर कल्पनाओं में गोते लगाते हुए आप यह सब लिख सकते हैं!
मगर स्थानीय ग्रामीणों को शेर अपना निवाला बनाता ही जा रहा है।
नीचे दिये हुए लिंक भी देख लें।
यह मैं नही कहता, समाचार पत्र कहते हैं।
http://powerofhydro.blogspot.com/2009/12/blog-post.html
http://powerofhydro.blogspot.com/2009/11/blog-post_23.html
आप स्वयं ही निष्कर्ष निकाल लें!
या तो ये अखबार झूठ बोलते हैं,
या फिर आप सज बोलते हैं।
@रूपचंद शास्त्री मयंक
शास्त्रीजी,
ये सब मैं नहीं लिख रहा हूं, बल्कि यह बकलमखुद श्री चंद्रभूषण लिख रहे हैं। पिछली बार भी आपने जो प्रतिक्रिया दी थी वह चंदूभाई को संबोधित न होकर
अजित वडनेरकर के लिए थी।
कृपया भूल सुधारें।
सादर
अजित
क्षमा करना वडनेकर जी!
भूल के लिए खेद भी है और आपसे माफी भी माँगता हूँ!
अब यही बात मैं बकलमखुद श्री चंद्रभूषण जी से कह रहा हूँ-
श्री चंद्रभूषण जी!
1000 किमी दूर बैठकर कल्पनाओं में गोते लगाते हुए आप यह सब लिख सकते हैं!
मगर स्थानीय ग्रामीणों को शेर अपना निवाला बनाता ही जा रहा है।
नीचे दिये हुए लिंक भी देख लें।
यह मैं नही कहता, समाचार पत्र कहते हैं।
http://powerofhydro.blogspot.com/2009/12/blog-post.html
http://powerofhydro.blogspot.com/2009/11/blog-post_23.html
आप स्वयं ही निष्कर्ष निकाल लें!
या तो ये अखबार झूठ बोलते हैं,
या फिर आप सच बोलते हैं।
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