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Monday, February 1, 2010
सिल्करूट पर रेशम, कोसा, मलमल
पू र्व की समृद्ध परम्परा को पश्चिम तक पहुंचाने में सिल्करूट या रेशममार्ग का बड़ा माध्यम रहा है। वृहत्तर चीन के सुदूर पूर्वी छोर से शुरू होकर पूर्वी योरप तक जाने वाले इस महामार्ग को चीन में बननेवाले प्रसिद्ध रेशम यानी सिल्क के नाम से शोहरत मिली। सिल्क शब्द सामान्यतौर पर अंग्रेजी का समझा जाता है पर है चीनी मूल का। चीनी में सेई या सी का अर्थ होता है रेशम जबकि कोरियाई में इसका उच्चारण सा, सिल, सिर होता है। रेशम के अर्थ में लैटिन का सेरीकोम और ग्रीक का सेरीकस शब्द इससे ही विकसित हुए हैं। इससे ही लिथुआनी में बना शिल्कोस shilkos, रूसी में हुआ शेल्कु shelku और अंग्रेजी में sylk, selk होते हुए यह सिल्क silk बना। इसके अलावा यूरोप की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं और बोलियों में इस चीनी मूल से उपजे इस शब्द की व्याप्ति है। रेशम के अर्थ में सिल्क और रेशमी के लिए सिल्की शब्दों का प्रयोग सूचना माध्यमों और बोलचाल की नागरी हिन्दी में होता है।
रेशम शब्द की व्युत्पत्ति के मूल में है संस्कृत की ऋष या रिष् धातु जिसका अर्थ है कुरेदना, खुरचना, जख्मी करना आदि। संस्कृत के ऋष् शब्द में कुरेदना, खंरोचना, काटना, छीलना आदि भाव समाहित हैं। ऋष् का अपभ्रंश रूप होता है रिख जिसका मतलब होता है पंक्ति। हिन्दी का रेखा इससे ही बना है। मराठी में रेखा को रेषा कहते हैं। प्राचीनकाल में अंकन का काम सबसे पहले पत्थर पर शुरू हुआ था। फारसी में रिश्ता तन्तु, सूत्र या धागा को कहते हैं जिसे रेखा के अर्थ में समझा जाता है और जिसका अर्थ विस्तार संबंध में होता है। संस्कृत, मराठी का रेषा और हिन्दी का रेशा एक ही धागे से बंधे हैं जिससे रेशम, रेशमी जैसे शब्द भी बने हैं। रेशम मूलतः एक नर्म, मुलायम और अत्यंत पतला तन्तु होता है जो एक कीट से मिलता है। रिश्ता भी एक धागा है जो दो लोगों में रिश्तेदारी अर्थात संबंध बनाता है। रेशम शब्द की कई किस्में हैं। छत्तीसगढ़ में बनने वाला रेशम कोसासिल्क के नाम से जाना जाता है। इस शब्द के मूल में रेशमकीट झांक रहा है। रेशम का तन्तु दरअसल तितली की जाति के एक खास किस्म के कीट के शरीर से होनेवाले स्राव से होते हैं। खास अवस्था में ये कीट स्राव के जरिये एक तन्तुकोश का निर्माण करते हैं। इन कीटों के लार्वा शहतूत की पत्ती पर पलते हैं। इसी अवस्था में ये कोश का निर्माण करते हैं। दरअसल कोसा सिल्क नाम के मूल में यही कोश शब्द है। कोश शब्द से बने वस्त्र को कहा गया कौशेय जिसका रूपांतर ही कोसा हुआ। जब यह कोश के भीतर लार्वा परिपक्व हो जाता है तो वह कीट बनकर बाहर उड़ जाता है और बचे हुए कोश से रेशम बनाया जाता है।
भारतीय वस्त्रों की पश्चिम में शोहरत की सबसे बड़ी वजह यहां के उम्दा किस्म के रेशम और कपास से बने महीन धागों का टिकाऊ और महीन ताना-बाना था। सूत यानी रूई से बुना हुआ धागा। इस धागे से बुने हुए कपड़े को सूती कपड़ा कहा जाता है। सूत शब्द बना है संस्कृत के सूत्र से जिसका मतलब होता है बांधना, कसना, लपेटना वगैरह। जाहिर है रूई अथवा रेशम को बटने की क्रिया में ये शामिल हैं। इससे बने सूत्रम् शब्द का अर्थ हुआ धागा, डोरा, रेशा, तंतु, यज्ञोपवीत अथवा जनेऊ आदि। सूत्र का अर्थ रेखा भी होता है। एक सूत्र में पिरोना, पंक्तिबद्ध करना, एक प्रणाली अपनाना, ठीक पद्धति में रखना जैसे भाव इसमें निहित हैं। जनेऊ को ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। गौरतलब है कि संस्कृत के सूत्रम का अर्थ केवल कपास से बना रेशा नहीं है बल्कि रेशमी धागे को भी सूत ही कहा जाता है। हालांकि संस्कृत में कपास के लिए सूत्रपुष्पः शब्द भी है।
रेशम की ही तरह एक अत्यंत महीन, पतला सूती कपड़ा मलमल के नाम से विख्यात था। दक्षिण और पूर्वी भारत में बनी हुई मलमल की विदेशो में बड़ी मांग थी। कर्नाटक, बिहार और बंगाल में उम्दा किस्म के कपास से बेहद महीन कपड़ा बुना जाता था। ढाका की मलमल इतिहास प्रसिद्ध रही है। पं बंगाल के मुर्शिदाबाद और बांग्लादेश के ढाका में अब तक बेहतरीन मलमल बुनी जाती है। हिन्दी शब्दसागर में मलमल शब्द की व्युत्पत्ति मलमल्लकः बताई गई है जिसका अर्थ है एक किस्म का महीन कपड़ा जबकि मोनियर विलियम्स और वाशि आप्टे के कोश में मलमल्लकः शब्द का अर्थ कमर के इर्दगिर्द लपेटकर पहना जानेवाला एक अधोवस्त्र होता है। प्रचलित अर्थों में यह लंगोट है जिसे कौपीन भी कहते हैं। सूत यानी रूई से बुना हुआ धागा। इस धागे से बुने हुए कपड़े को सूती कपड़ा कहा जाता है। जान प्लैट्स की हिन्दी-उर्दू-इंग्लिश डिक्शनरी इसकी एक अलग ही व्युत्पत्ति बताती है। उसके अनुसार संस्कृत के मृदु शब्द से इसका जन्म हुआ है मृदु का अर्थ है कोमल, चिकना, पतला, लचीला आदि। इस संदर्भ में यह सही है कि उक्त तमाम गुण मलमल की खास पहचान हैं। मृदु का जन्म मृद् धातु से हुआ है जिससे बने शब्दों में एक भी शब्द ऐसा नहीं है जिसका रिश्ता मलमल, रेशम, सूत या अन्य किस्म के तन्तु से जोड़ा जा सके। इसकी तुलना में मलमल्लकः की मूल धातु मृज से मलमल की व्याख्या कहीं अधिक सहज है। मृज् धातु में परिष्कृत करना, चमकाना, धोना, रगड़ना, मलना आदि भाव शामिल हैं। सूती धागे को लगातार महीन बनाने की प्रक्रिया में ये सभी बातें शामिल हैं।
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13 कमेंट्स:
बहुत अच्छी जानकारी. छत्तीसगढ़ का कोसा तो हमने भी बहुत धारण किया है.
"ऋष् का अपभ्रंश रूप होता है रिख जिसका मतलब होता है पंक्ति। हिन्दी का रेखा इससे ही बना है"..
सुन्दर रहा यह जानना ! आभार ।
बढ़िया है!
आप्टे का कोष पूरी तरह से मोनियर विलियम्स पर ही आधारित है, उस के भीतर कोई स्वतंत्र अर्थ या एंट्री आज तक मैं नहीं खोज सका। मोनियर विलियम्स श्रद्धेय हैं, ऋषितुल्य हैं।
धागों नें जोड़ा पश्चिम को पूरब से ...रंगत जीवन में ...कुछ संरक्षण कुछ विलासिता ...फिर आदम के संबंधों में गर्माहट भी...पर तितलीवर्गी(य) जीवन को थोड़ी ज्यादा सी...? उसकी पनाह कोकून में,वह रचता है नाज़ुक धागे...इन धागों से बुनते हैं ,हम अपनी खातिर कुछ बेहतरीन...कुछ शानदार...नयनाभिराम से आवरण ! बदले में देते ,उसको क्या ...? इक गर्म मौत !
अजित भाई शहतूत में पलने वाले इस कीट के द्वारा जो स्राव किया जाता है वह उसके चारों तरफ एक खोल सा बना देता है परिणामस्वरुप कीट स्वयं बंदी जैसा बन जाता है ! अब यदि वह बाहर निकलना चाहे तो उसे इस खोल को काट कर बाहर आना होगा इस स्थिति में धागे भी कट जायेंगे ! अतः इंसान धागों को कटने से बचाने के लिए कोकून को गर्म पानी में उबाल देता है जिससे कीट की कोकून के अन्दर ही मृत्यु हो जाती है और फिर स्त्रियां उस कोकून को अहिस्ता से खोलकर उसमें से तंतु को अपनी जांघों पर रगड़ कर धागे का आकार देती हैं !
बहुत जानकारी वाली पोस्ट ।शुक्रिया हुकम!!!!!!!!
@अभय तिवारी
एकदम सही कहते हैं अभय भाई। कुछ दिनों पहले ही जयपुर की प्रो.अंजू डड्ढा मिश्र से मेरी फोन पर बात हो रही थी। उनके संबंधी और हिन्दी के पुरोधा बल्देव मिश्र, जो मानक कोश के संपादक मंडल में थे, के बारे में बात हो रही थी। मैने भी उन्हें यही बताया था कि जो काम अंग्रेज विद्वानों ने आज से सौ डेढ़ सौ साल पहल कर दिया था, वैसा मौलिक काम भारतीय विद्वानों के हाथों हुआ हो, यह देखने में कम ही आया है। उदाहरण के तौर पर वाशि आप्टे और मोनियर विलियम्स के कोश की बात कही थी। विचारधारा की बात अलग है, मगर भाषा विज्ञान के क्षेत्र में मौलिक चिन्तन रामनिवास शर्मा का ही नजर आता है।
बहुत बढ़िया ...बैठे-बैठे ज्ञानार्जन हो गया.
रेशम और मलमल के गिर्द तो दुनिया का आधा इतिहास घूम रहा है.क्या बात करें और क्या छोड़ें , बेशुमार मुहावरे, प्रसंग, लोकगीत, इतिहास की त्रासदियाँ क्या कुछ नहीं है. किसी जमाने में रोम की सुन्दरियों में भारतीय मलमल की बड़ी मांग थी. वे इसकी सात तहों के वस्त्र पहन कर शान से रोम की सडकों पर घुमती थीं और वहां के लोगों के नैतिक आदर्शों को ठेस पहुँचाया करती थीं.आखिर इस पर कानूनी तौर पर निषेध
लगाना पड़ा.
पंजाबी लोक गीत है:
पतली कुडती दे विचों दी
रूप झातिया मारे
अंग अंग तेरा तपदा रहिंदा
लूं लूं करे इशारे
जुत्ती खल दी मरोड़ा, नहिओं झलदी
कुडती मलमल दी.
मूल धातु मृज से मलमल की व्याख्या सहज लगती है लेकिन और खोज जारी रखना बेशक ढाका ही जाना पढ़े.
क्षमा चाहता हूं। लेटे लेटे लिख रहा था।
रामविलास जी की बात ही लिख रहा हूं
आभार। 'अली' जी की सूचना "...स्त्रियां उस कोकून को अहिस्ता से खोलकर उसमें से तंतु को अपनी जांघों पर रगड़ कर धागे का आकार देती हैं !.." नई लगी।
उपयोगी जानकारी के लिए शुक्रिया!
मैने इटारसी के पास सुकतवा में यह उद्यान देखा है जहाँ रेशम के कीड़े पाले जाते थे और उनसे रेशम निकाला जाता था । वहाँ के प्रबन्धक मित्र अजय नेमा तुलसी और मित्र स्व. डॉ.नरेन्द्र वर्मा ने रेशम का एक छोटा सा टुकड़ा भेजा था 25 बरस पहले और कहा था इसका कुर्ता बनवा लेना .कुर्ता बनाना सम्भव नहीं था सो .वह टुकड़ा अभी तक रखा है ।
छत्तीसगढ़ के कोसे के बारे में क्या कहूँ ..हमेशा दिल के करीब रहता है ।
बलजीत जी ..पंजाबी के इस लोक गीत को जगजीत सिंह की आवाज़ में बखूबी सुना है और पान खाये सैंया हमारे में मलमल का कुर्ता कौन भूल सकता है .. खूब पहने हैं यह कुर्ते और सुनी हैं जगजीत की गज़ले व टप्पे ।
अजित भाई आज आपकी पोस्ट के बहाने स्मृतियों के कोकून से बाहर निकला हूँ ..धन्यवाद ।
@अली
बहुत कीमती जानकारी दी अलीभाई आपने। बहुत शुक्रिया इसका।
बने रहें सफर में।
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