Tuesday, February 23, 2010

हक़ जो अदा न हुआ…

Lady_Justiceसंबंधित कड़ियां-1.अल्लाह की हिक्मत और हुक्मरान2. फसल के फ़ैसले का फ़ासला.3मोहर की मुखमुद्रा

धिकार या स्वत्व के अर्थ में इस्तेमाल होने वाला शब्द है हक़ haq जिसका बोलचाल की हिन्दी में खूब इस्तेमाल होता है। सेमिटिक मूल के हक़ शब्द की अर्थवत्ता व्यापक है और यह अरबी भाषा से फारसी में होते हुए हिन्दी उर्दू में दाखिल हुआ। कुरआन में अल्लाह के लिए प्रयुक्त 99 नामों में एक नाम अल हक़ (al haqq) भी है जिसमें कर्तव्य, सत्य, यथार्थ, न्याय पूर्ण और उचित या पूर्णता का भाव है। गौरतलब है कि परमशक्तिमान स्वामी अर्थात ईश्वर की महानता इन्हीं गुणों से स्थापित होती है। हक़ शब्द में स्थापित वास्तविकता या किसी ऐसे तथ्य के सत्यापन का भाव है जो सार्वकालिक यथार्थ  अर्थात सत्य सिद्ध होता हो। हक़ से बने अनेक शब्द अरबी, फारसी, हिन्दी, उर्दू में प्रचलित हैं। हक़ से बने कई शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे हक़परस्त यानी सत्य का पुजारी, हकपसंद यानी सत्यनिष्ठ। हक़ीक़त यानी वास्तविकता या यथार्थ। हक़ीक़तन यानी यथार्थतः, हक़ीक़तबयानी यानी सच का बखान। इसी कड़ी में आता है हक़दार शब्द जिसका प्रचलित अर्थ है स्वत्वाधिकारी, मुख्तार, अधिकार, उचित पात्र आदि। सबसे दिलचस्प है तफ्तीश या जांच के अर्थ में प्रचलित तहक़ीक़ या तहक़ीक़ात जैसे शब्दों से हक़ की रिश्तेदारी।
क़ की मूल सेमिटिक धातु है hqq (हा-क़ाफ़-क़ाफ़) जिसमें किसी सार्वकालिक सत्य (यूनिवर्सल ट्रुथ),वास्तविकता या स्थापित यथार्थ का भाव है। हक़ शब्द का इस्लामी विचारधार में बहुत महत्व है। कुर्आन के धार्मिक नैतिक दर्शन के अनुसार हक़ में ऐसे स्थायी सार्वजनीन यथार्थ की ओर संकेत है जो नैतिक आदर्शों और आचरण को स्थापित करता है। hqq धातु में मूलतः तराशने, उत्कीर्ण करने, नक्काशी करने का भाव है। लिपिबद्ध करने या मुद्रांकन की क्रियाओं में इसका अर्थविस्तार हुआ। यथार्थ, सत्य या अधिकार जैसे भावों का विस्तार इससे अगले चरण में हुआ।  गौरतलब है कि उर्दू में नगीने तराशनेवाले को हक़्क़ाक़ कहते हैं जो इसी कड़ी में आता है और इसके मूलार्थ की पुष्टि इससे होती है। प्राचीनकाल की सभी संस्कृतियों में सार्वजनिक सूचनाओं का माध्यम शिलालेख ही बनते थे। बाद के दौर में जब ताड़पत्र या काग़ज़ का चलन शुरू हुआ तो सरकारी निर्देश के लिए जो राजपत्र जारी होते थे उस पर बतौर मुहर, राजा का चिह्न अंकित रहता था, जो सत्य का प्रतीक था। दरअसल वह सत्य इसलिए हुआ क्योंकि उत्कीर्णन से उसे एक आधार, स्थायित्व मिला। सत्य का हमेशा कोई कोई प्रमाण या आधार होता है। महान और प्रभावशाली लोग इसीलिए अपने वचन या निर्देश खुदवाते थे ताकि वे सत्य या सनातन की श्रेणी में गिने जाएं। प्राचीन धर्मगुरुओं की शिक्षाओं को भी उत्कीर्ण करने की परिपाटी दुनियाभर में रही है। इसी तरह भारत में भी अशोक, कनिष्क या चंद्रगुप्त जैसे अनेक राजाओं  द्वारा नीति-विधानों के उल्लेख वाले शिलालेख कई स्थानों पर मिलते हैं।
क्क या हक़ में मूलतः किसी सत्य को मुद्रांकन के जरिये स्थायी बना देने का भाव है। कोई भी आदेश उसे जारी करनेवाले अधिकारी की मुहर के बिना अमल में नहीं लाया जा सकता। जाहिर है उसकी सत्यता मुद्रांकन के जरिये ही प्रकट होती stand-out-in-a-crowd थी। यानी किन्हीं मसलों पर विचार विमर्श के बाद आए नतीजे जब किसी न किसी रूप में उत्कीर्ण किए जाने लगे तब हक़ में सत्य, वास्तविकता या यथार्थ का बोध स्थापित हुआ यानी हक़, हक़ीक़त में तब्दील हुआ। इस तरह हक़ में किसी व्यक्ति के न्यायपूर्ण स्वत्व या प्राप्ति का भाव शामिल हुआ। हक़ का मौजूदा प्रचलित अर्थ भी यही है। भारतीय मनीषा में सत्यं शिवम् सुंदरम् के रूप में हजारों सालों से हक़ की अवधारणा व्याप्त है। हक़ में न्याय संगतता का भाव भी है। न्याय के लिए भी सत्यनिष्ठता और वास्तविकता का ज्ञान बहुत ज़रूरी है। किसी तथ्य की परख वास्तविकता की रोशनी में बहुत ज़रूरी है तभी वह सत्य के रूप में स्थापित होता है। हक़ से बने हक़ीक़ाह haqiqah या हक़ीक़ haqiq के साथ अरबी का ता उपसर्ग लगने से बनता है तहक़ीक़। फारसी, उर्दू, हिन्दी में इसका प्रयोग जांच या खोज के रूप में होता है जबकि इसका असली भाव है वास्तविकता के साथ, हक़ीक़त के साथ। प्रमाणन, सत्यापन, बोध, प्राप्ति या समझ आदि। दरअसल हक़ का सत्यापन ही तहक़ीक़ है यानी सब कुछ जैसा होना चाहिए, वैसा होने का भाव। सच के साथ उपस्थिति या न्याय संगतता। तहक़ीक़ में खोज और विवेचना का भाव है। इसका बहुवचन है तहक़ीक़ात जिसे एकवचन की तरह ही इस्तेमाल किया जाता है और इसमें तफ्तीश या जांच का भाव है। तहक़ीक़ से हक़ीक़त उजागर होती है जिसके जरिये लोगों के हक़ तय होते हैं। प्रचलित अर्थों में हक़ का प्रयोग बतौर स्वत्व होता है यानी जिस पर आपका अधिकार है। जाहिर है हमारे नैतिक अधिकार हमारी और हमारे समाज की वास्तविकता है।
स संदर्भ में उल्लेखनीय है अरबी का हुक्म शब्द। सेमिटिक धातु ह-क-म hkm (हा-काफ-मीम) से जिसमें बुद्धिमान होना, जानकार होना, ज्ञान और अपने आसपास की जानकारी होने का भाव है। किसी मुद्दे पर अपनी विद्वत्तापूर्ण राय जाहिर करना और निर्णय देना अथवा फैसला (दण्ड समेत) सुनाना भी इसमें शामिल है। इसी धातु से बना है हिक्मा शब्द जिसका हिन्दी-उर्दू रूप हिक़्मत भी होता है। कुरआन, शरीयत में इसके दार्शनिक मायने हैं। हिक्मत में मूलतः ज्ञान का भाव है जो परम्परा से जुड़ता है। अर्थात ऐसा ज्ञान जो महज़ सूचना या जानकारी न हो बल्कि परम सत्य हो, सनातन सत्य हो। किसी पंथ, सूत्र, मार्ग अथवा संत के संदर्भ में हिक्मत शब्द से अभिप्राय ज्ञान की उस विरासत से होता है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही मीमांसाओं के जरिये और भी पुष्ट हुई है। जिसकी रोशनी में हर मसले का हल मुमकिन होता है। हिक्मते-इलाही का अर्थ होता है इश्वरेच्छा या खुदा की मर्जी। हक़ का सत्यापन होने के बाद हिक्मत का काम शुरू होता है। अर्थात जब हक़ के मद्देनजर तहक़ीक़ पूरी हो जाती है तब सत्य की स्थापना का काम न्यायवस्था अर्थात हिक्मत के जरिये होता है। इसे लागू करता है हाकिम जो इसी मूल से उपजा शब्द है। हक़ से बने कुछ खास मुहावरे भी हैं जो बोलचाल में प्रचलित हैं जैसे हक़ अदा करना यानी अपना फ़र्ज़ निभाना, हक़ जताना यानी किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति स्वामित्वभाव प्रकट करना, हक़ में होना अर्थात पक्ष में होना आदि।

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9 कमेंट्स:

Baljit Basi said...

हक़ से बने कुछ और पंजाबी शब्द/युग्म/मुहावरे, शायद हिंदी में भी हों:
हक़ी(सच्ची, हक़दार); नाहक; बेहक; नह्क्का(बेक़सूर: नहक्का मारा गया)
हक़-सच; हक़-इन्साफ़; हक़-हराम; हक़-हलाल
हक़ मारना; हक़ की कमाई; हक़ अदूली
सभ हक़ राखवें हन(All rights reserved)
जलूसों में चलता एक नाहरा: साडे हक़ एथे रख( हमारे हक़ यहाँ रखो)
अंत में गुरु नानक के फुरमान:
हकु पराइआ नानका उसु सूअर उसु गाइ (दुसरे के हक़ मारना मुसलमान के लिए सूर और हिन्दू के लिए गाय खाने के बराबर है.)

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

आपके शब्दों के शोध का आपकी मेहनत का आपके प्रयास का हक कैसे अदा हो सोच रहा हूँ

डॉ. मनोज मिश्र said...

बढ़िया,मेहनत से लिखी है पोस्ट ,धन्यवाद.

दिनेशराय द्विवेदी said...

हक पर हकदार पोस्ट!

रंजना said...

आज तक दिमाग में "हक़" का समानार्थक "अधिकार" शब्द ही जमा हुआ था...पर इस विस्तृत विवेचना ने दिमाग के अनेक वातायनों को खोल दिया....
बहुत बहुत आभार,इस सुन्दर विवेचना के लिए...

उम्मतें said...

अजित भाई
हक़ पर नाहक़ टिप्पणी क्यों की जाये :)

कई दिनों से आपका ब्लॉग कुछ उदास सा लग रहा है , मंसूर अली साहब कहां गये ?

Mansoor ali Hashmi said...

आपने तो हक अदा कर दिया अजित जी, खूब जम के लिखा है. अब अली भाई ने छेड़ा ही है तो ये शेर भी याद आ गया.....

मजबूरे ज़माना है अरबाबे खिरद लेकिन ,
''हक'' बात सरे महफ़िल कह देते है दीवाने.

वेसे ''मन्सूरो'' से भी ये दीवानगी होती रही है......जैसे:
मंसूर उल यमन [हुसैन बिन हल्लाज] जो 'अनल हक' [मै ही सत्य हूँ] का दावा कर बैठे,.........अंतत: सूली चढ़े!

एक कताअ भी याद आ गया है, लिख देता हूँ:

लगा है झूठ का बाज़ार, आओ सच बोले,
न हो बला से खरीदार, आओ सच बोले,
तमाम शहर में क्या एक भी नही मंसूर?
कहेंगे क्या रसन-ओ-दार, आओ सच बोले.

अजित वडनेरकर said...

बहुत खूब। क़तअ जबर्दस्त है। यह पोस्ट लिखते वक्त अनल हक़ का संदर्भ लिखना याद था, पर बाद में दिमाग़ से उतर गया। याद दिलाने का शुक्रिया

Baljit Basi said...

सची बात है मंसूर अली साहब के बिना महफिल में पूरी रौनक नहीं, आते ही रंग जमा दिया. और यह झूठ नहीं, सच बोल रहा हूँ.

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